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Tuesday, December 10, 2019

खमाज ठाठ के औडव आरोह युक्त रागों का सांगीतिक विश्लेषण                  

संगीत का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, इसके बिना जीवन में एक अधूरापन लगता है। मनुष्य के अलावा संगीत का प्रभाव प्रकृति एवं पशु-पक्षियों पर भी वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है। प्राचीन समय में संगीत सीखना एक जटिल प्रक्रिया थी। दक्षिण पद्धति के विद्वान पं.वेंकटमुखी ने ठाठों की संख्या 72 निश्चित कर दी थी। इतने सारे ठाठों को याद रख पाना एक कठिन कार्य था, सामान्य जनता तो संगीत विधा से दूर होती जा रही थी । अत: पं. विष्णुनारायण भातखण्डेजी ने संगीत को जन-जन तक पहुचाने हेतु संगीत में 10 ठाठों के माध्यम से  क्रमिक पुस्तक मालिका भाग एक से छ: तक की पुस्तकों की रचना की एवं इन्हीं पुस्तकों में दस ठाठों से सम्पूूर्ण रागों को समावेशित किया गया है । पं. विष्णुनारायण भातखण्डेजी ने ठाठों की रचना इस प्रकार की है -
ठाठ बिलावल- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ कल्याण- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ खमाज- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ भैरव- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ पूर्वी- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ मारवा- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ काफी- सा रे ग म प ध नि, सांठाठ आसावरी- सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ भैरवी, सा रे ग म प ध नि सां, ठाठ तोड़ी- सा रे ग म प ध नि सां
इन दस ठाठों में से खमाज ठाठ के रागों पर यह शोध लेख आधारित है । 
गायन की दृष्टि से रागों को 3 जातियों में विभाजित किया गया है -
औडव पांच स्वर, षाडव छ: स्वर, सम्पूूूर्ण सात स्वर
इन जातियों को नौ उप विभागों में विभाजित किया गया है ।  
औडव औडव, औडव षाडव, औडव सम्पूर्ण, षाडव षाडव, षाडव औडव, षाडव सम्पूर्ण, सम्पूर्ण सम्पूर्ण, सम्पूूर्ण औडव, सम्पूर्ण षाडव
 खमाज ठाठ से ही खमाज राग उत्पन्न होता है। इसमें सातों स्वर लगते हैं। खमाज राग में आरोह में ÓनिÓ शुद्ध और अवरोह में ÓनिÓ कोमल का प्रयोग होता है । खमाज ठाठ का वादी स्वर ÓगÓ तथा संवादी स्वर नि है। राग खमाज के आरोह में इन स्वरों का प्रयोग किया जाता है -
आरोह - सा, गम प, धनिसां।, अवरोह - सां, नि, धप, मग, रेसा।
गायन की दृष्टि से रागों को तीन जातियों में  विभाजित किया गया है। 
औडव औडव, औडव षाडव
सम्पूर्ण
 इन जातियों को नौ उपविभागों में विभाजित किया गया है । खमाज ठाठ से ही खमाज राग उत्पन्न होता है, इसमें सातों स्वर लगते हैं । खमाज राग में आरोह में ÓनिÓ शुद्ध एवं अवरोह में ÓनिÓ कोमल का प्रयोग होता है । खमाज राग का वादी स्वर ÓगÓ तथा संवादी स्वर ÓनिÓ है । राग खमाज के आरोह में इन स्वरों का प्रयोग किया जाता है, सा,गम,प,ध,नि,सां । अवरोह इस प्रकार है-सां, नि,धप, मग, रेसा ।
 खमाज ठाठ के औडव आरोह युक्त रागÓ
ÓÓराग नारायणीÓÓ
 नारायणी राग दक्षिण पद्धति के ग्रन्थों में वर्णित किया हुआ और यहां के विद्वानों द्वारा प्रचलित किया हुआ राग है । यह खमाज ठाठ से उत्पन्न हुआ है । इस राग में गांधार वर्जित है, और आरोह में निषाद वज्र्य होता है । इसलिए इस राग में सारंग का आभास होता है, परन्तु निषाद के वर्जित होने से और धैवत को ग्रहण करने से यह सारंग से सहज में भिन्न हो जाता है । इसकी जाति औडव-षाडव है । इसका वादी स्वर ऋ षभ और संवादी स्वर पंचम है । गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर होता है । 
ÓÓआरोहावरोह स्वरुपÓÓ
सा रे म प ध सां।, सां नि ध प म रे सा।
चलन -
सां, निध, मप, नि धप, मपम, रे, सारे, मरे, धसा
मप, धसा, रे, मरे, निधप, मपधप, म, रे, मरेसा ।
मपधसां, सांरंरंसां, मंरेंसां, सांरें, सांरेंसां ।
नि धप, मपधसां, धप, मरे, सारेमरे, साधधसा ।
पं. भातखण्डेजी ने राग नारायणी का उल्लेख ÓÓक्रमिक पुस्तक मालिकाÓÓ भाग-5 में संक्षिप्त किया है । राग की विशेषता,सम प्रकृति राग,आलाप,ताने इत्यादि बातों को नही बतलाया है । 
1 वहीं पं.हरिशचन्द्र श्रीवास्तव ने राग परिचय में राग नारायणी की विशेषता इस प्रकार बतलाई है -
यह दक्षिण पद्धति का राग है । उत्तर भारत में इसका प्रचार कुछ दिनों से हो गया है और यहां इसे खमाज थाट में रखा जाता है । 
इसमें अधिकतर छोटा ख्याल और तराना सुनाई पड़ता है । विलम्बित ख्याल बहुत कम संगीतज्ञ गाते हैं । 
कुछ संगीतज्ञ इसमें प  वादी और रे संवादी मानते हैं । 
प वादी मानने से यह उत्तरांग प्रधान हो जाएगा, जबकि यह राग गायन समय और चलन दोनों की दृष्टि से पूर्वांग प्रधान है । 
इस राग का विस्तार साधारणतया तीनों सप्तकों में समान रुप से होता है । 
न्यास के स्वर-सा, रे, प ।
सम प्रकृति राग -पूर्वांग में ऋ षभ पर न्यास करते हुए मरे, प, मरे , स्वर समूह प्रयोग करने से वृन्दावनी सारंग की छाया आती है । 
उत्तरांग में देश राग से बचने के लिए आरोह में धैवत का प्रयोग और अवरोह में गांधार का वज्र्यत्व प्राप्त है । 
2 अभिनव गीतांजलि में राग नारायणी में ऋषभ को वादी स्वर माना है,जबकि दखिण पद्धति में षड्ज को वादी स्वर माना है। 2 
 पं.विनायकराव पटवद्र्धन जी ने अपनी पुस्तक राग विज्ञान में राग नारायणी को सारंग का अंग माना है जबकि दक्षिण के ग्रन्थ, राग लक्षण इत्यादि पं. भातखण्डे जी ने अपनी क्रमिक पुस्तक मालिका भाग पांच में एक बन्दिश ÓÓ नारायण को नाम भज लेÓÓ यह दिया है जिसमें सारंग अंग विद्यमान है । परन्तु पं. भातखण्डे जी ने जो स्वर विस्तार दिया है उसमें कहीं सारंग अंग नही है , जैसे-ÓÓनि, प, रे म प रे ÓÓ
राग तिलंग
ÓÓआरेाह-अवरोह स्वरुपÓÓ
सा ग म प नि सां।, सां, नि, प, म, ग, सा।
ÓÓचलनÓÓ
निसा गमप, निप, सांनिप, गमग, पग, मगसां ।
निसां, निप, सांनिप, गंमंगं, गंमंगंसां, सांनिप, गम, ग, पगमग, सा ।
राग तिलंग खमाज ठाठ से उत्पन्न हुआ है । इसमें ऋषभ और धैवत स्वर वर्जित है । इसकी जाति औडव-षाडव है । इसका वादी स्वर गांधार एवं संवादी स्वर निषाद है । 
 गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर है । यह खमाज अंग का राग है । इसमे ंधैवत नही लगता है । यह सहज में ही खमाज से भिन्न रखा जा सकता है । Óनि पÓ स्वर -संगति राग वाचक है । 
 पं. विष्णुनारायण भातखण्डे जी ने क्रमिक पुस्तक मालिका भाग-5 में राग तिलंग को संक्षेप में बताया है । संवादी स्वर निषाद् बतलाया है । 
3 इसके विपरीत पं.जगदीशनारायण पाठक ने ÓÓराग दर्पणÓÓ में राग तिलंग का विस्तृत वर्णन किया है। 3
पं. जगदीशनारायणजी ने इस राग में दोनों निषाद् का साथ-साथ प्रयोग किया है जैसे-ग,म, प, नि, नि, प, म, ग, सा-ग-प न्यास के स्वर हैं । 
यह पूर्वांग प्रधान राग है । खमाज की भांति यह चंचल प्रकृति का राग है और इसमें ठुमरी-भजन,गीत,छोटे ख्याल अधिकतर गाए जाते हैं एवं 4 पुस्तक ÓÓअभिनव गीतांजलिÓÓ में पं. रामाश्रय झा रागरंग ने खमाज राग में ऋषभ,धैवत स्वरों को वर्जित करने से राग तिलंग की उत्पत्ति होती है, एैसा बताया है । इस राग में नि सा ग म प ग म ग सा स्वर समूह से बिहाग राग की छाया दिखती है । परन्तु ग म प नि प ग म ग इस प्रकार कोमल निषाद् के प्रयोग से बिहाग राग की शंका दूर हो जाती है । 
 उत्तरांग में म-प  निसां इस प्रकार मध्यम से बार बार उठान करने पर सारंग का भास होता है, इसलिए इसके उत्तरांग का उठान गांधार से करना चाहिए । जैसे- ग म प नि सां आदि । इस राग में मुख्य रुप से षडज, गांधार,पंचम और निषाद् न्यास बहुत्व के स्वर हैं । मध्यम का प-ग संगति में लगन और नि प म ग सा ग म प इस प्रयोग में अनाभ्यास अल्पत्व है । पं. रामाश्रय झा ने आलाप,ताने भी विस्तार से बतलाई हैं। 4
राग ÓÓरागेश्रीÓÓ(रागेश्वरी)
ÓÓआरोह-अवरोहÓÓ-स्वरुप
सां, ग, म,, ध, नि, सां। , सां, नि, ध, म, ग, रे, सा। 
चलन
सा, रेसा, नि, ध, नि, सा, मग, मध, निध, गग, मग, सा, रे, सा, गमध, निसां, मंगं, रेंसां, निध, मग, रे, सा, नि, ध, सा । 
यह राग खमाज ठाठ से उत्पन्न होता है । इसमें पंचम स्वर बिलकुल वर्जित है। आरोह में ऋषभ वर्जित है। इसकी जाति औडवषाडव है। वादी स्वर गांधार और संवादी स्वर निषाद है। अन्य मतानुसार Óसा-पÓ का संवाद होता है। 
इसका गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर है । इस राग में Óध-मÓ स्वर संगति बड़ी ही मनोरंजक है। इसके उत्तरांग में बागेश्री का आभास होता है और पूर्वांग के तीव्र  गांधार से यह राग बागेश्री से अलग हो जाता है । ऋषभ का प्रयोग दुर्गा राग को अलग कर देता है । नाटकुरंजिका नामक रागिनी राग-रागेश्वरी के समान ही है। 
 पं. विष्णुनारायण भातखण्डे जी ने क्रमिक पुस्तक मालिका भाग-5 में रागेश्वरी की विशेषताऐं नही दर्शाई हैं। 
 इसके विपरीत 5 पुस्तक ÓÓरागदर्पणÓÓ में पं. जगदीशनारायण पाठक ने इस राग में दोनों निषाद् का प्रयोग बतलाया है एवं इस राग के निकट के राग खमाज तथा बागेश्री हैं। श्रंगार रस की चीजों के लिए भी यह राग बहुत उपयुक्त बताया है। 5  इसके विपरीत 6ÓÓराग परिचयÓÓ में हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव ने रागेश्वरी की विशेषताऐं इस प्रकार बतलाई हैं । रागेश्वरी राग का एक दूसरा प्रकार है जिसके अवरोह में शुद्ध निषाद् और अवरोह में कोमल निषाद् का प्रयोग किया जाता है किन्तु मन्द्र सप्तक में सदैव कोमल ÓनिÓ का प्रयोग किया जाता है । 
 कोमल निषाद् की रागेश्वरी अधिक प्रचलन में है । इसमें ध-ग स्वर की संगति बड़ी मनोरंजक है । अवरोह में कभी-कभी ÓगÓ स्वर वक्र प्रयोग किया जाता है । 
जैसे-नि, ध, ग, म, रे, सा।, न्यास के स्वर-ग, म, और ध।
तथा सम प्राकृतिक राग-मालगुन्जी और बागेश्वरी बतलाए हैं। 6
7 अभिनव गीतांजलि में पं. रामाश्रय झा रामरंग का मत भी इन सभी लेखकों के मतानुसार है। 7
राग सोरठ
आरेाह-अवरोह स्वरुप
सा, रे, म, प, नि, सां।,सां, रे, नि, ध, म, प, ध, मरे, नि, सा।
चलन
सा, रे, मप, नि, सां, रें, नि, ध, प, धमरे, रेपरेरे, रेसा ।
रेप, मपध, मरे, नि, ध, मरे, रेमपनि, सां, रे, निध, मरे, प, मरे, रेनि, सा ।
राग सोरठ खमाज ठाठ से उत्पन्न होने वाला औड्व सम्पूर्ण राग है । खमाज ठाठ के रागों के दो मुख्य वर्ग हैं-
1) वे राग जिनमें गांधार की प्रबलता होती है । 
2) वे राग जिनमें ऋषभ प्रबल होता है । 
सोरठ के आरोह में गांधार और धैवत स्वर वर्जित होते हैं । अवरोह में भी गांधार स्वर की दुर्बलता रहती है । राग सोरठ का राग देस से बहुत साम्य होता है । गांधार स्वर का प्रयोग करके इसे देस राग से अलग किया जा सकता है एवं ध मरे स्वर संगति से भी देस राग दूर जाता है । 
सोरठ का वादी स्वर ऋषभ और संवादी स्वर धैवत है । इसका गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर है । पं. भातखण्डे जी ने अपनी पुस्तक ÓÓक्रमिक मालिकाÓÓ में राग को संक्षिप्त में बतलाया है । 
 इसके विपरीत 8ÓÓराग परिचयÓÓ में हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव ने भी राग को खमाज थाट जन्य माना है। इनके मतानुसार आरोह में ग-ध स्वर वज्र्य हैं, अत: इसका आरोह औडव जाति का और अवरोह सम्पूर्ण है। किन्तु अवरोह में गांधार दुर्बल है। राग सोरठ के अवरोह में गांधार का दुर्बलत्व राग देस व सोरठ को अलग करता है । ध म ग रे से देश राग और धमरे से सोरठ राग बनता है। खमाज थाट के रागों के दो वर्ग हैं -एक वर्ग के रागों में ऋषभ प्रबल रहता है और दूसरे वर्ग के रागों में गांधार प्रबल रहता है। प्रथम वर्ग में सोरठ द्वितीय वर्ग में राग देस आता है। इसमें रे-प की संगति अधिक दिखाई जाती है। 8 
9 पुस्तक अभिनव गीतांजलि में पं. रामाश्रय झा के मतानुसार थाट पद्धति के अनुसार राग सोरठ खमाज थाट के अन्तर्गत आता है । परन्तु रागांग राग पद्धति के अनुसार सोरठ स्वयं एक रागांग राग है । सोरठ अंग से देय राग का और देस राग अंग से जय जयवंती राग गाया जाता  है । मुख्य रुप से इसका सम प्रकृति राग देस है परन्तु राग देस में गांधार का प्रयोग खुले रुप में होता है, इसलिए ये दोनों राग अलग-अलग दिखाई देते हैं । अन्य सभी लेखकों का मत एक समान है। 9
राग ÓÓदेसÓÓ
आरोह-अवरोह स्वरुप
सा, रेेेे, मप, निसां।, सां, नि, ध, प, मग, रेगसा।
रे, मप, निधप, पधपम, गरेगसा।
यह राग खमाज थाट से उत्पन्न होता है। राग देस का वादी स्वर ऋषभ एवं संवादी स्वर पंचम होता है। 
राग देस रात्रि के दूसरे प्रहर में गाया जाता है। 
इस राग का स्वरुप ÓसोरठÓ राग के समान होता है। राग देस एवं राग सोरठ दोनों सम प्राकृतिक होने के कारण समान दिखाई देते हैं।  
राग देस में गांधार स्वर स्पष्ट रुप से लिया जाता है। इस राग के आरोह में गांधार स्वर एवं धैवत स्वर नही लिए जाते हैं। अवरोह में ऋषभ स्वर वक्र रहता है। अत: यह राग अत्यन्त लोकप्रिय होता है।  
पं. विष्णुनारायण भातखण्डे जी ने ÓÓक्रमिक पुस्तिका मालिकाÓÓ में राग देस की जाति नही बतलाई  है । 
 10 इसके विपरीत अभिनव गीतांजलि में पं.रामाश्रय झा रामरंग ने राग देस की जाति औड्व सम्पूर्ण बताई है । इनके मतानुसार राग देस थाट पद्धति के अनुसार खमाज थाट का राग है, परन्तु रागांग पद्धति के अनुसार यह सोरठ अंग का राग माना जाता है। सोरठ राग का प्रचलन कम होने से राग देस को ही अब राग सोरठ के स्थान पर रागांग राग माना जाता है।10
11 राग दर्पण में पं. जगदीशनारायण पाठक का मत भी भातखण्डे जी एवं पं. रामाश्रय झा रामरंग से मिलता है।11
निष्कर्ष-
खमाज ठाठ के औडव आरोहयुक्त रागों का अध्ययन करने के पश्चात निष्कर्ष रुप में राग तिलंग,देस,सोरठ इत्यादि रागों की विशेषताओं को उद्घाटित किया गया है । 
ÓÓराग नारायणीÓÓ 
  राग नारायणी खमाज ठाठ से उत्पन्न राग है , इस राग में सारंग का आभास होता है क्योंकि राग नारायणी के आरोह में ग, नि, स्वर वर्जित होते हैं । परन्तु निषाद् के वर्जित होने से और धैवत को ग्रहण करने से यह सारंग से सहज में भिन्न हो जाता है । 
 राग तिलंग के आरोह में रे,ध स्वर वर्जित है । नि, प स्वर संगति राग वाचक है। खमाज राग की भांति यह चंचल प्रकृति का राग है । 
 राग रागेश्वरी के आरोह में रे,प स्वर वर्जित है ,इस राग में ध-म स्वर संगति बड़ी ही मनोरंजक   है । इस राग के उत्तरांग में बागेश्री का आभास होता है और पूर्वांग के तीव्र गांधार से यह राग बागेश्री से अलग हो जाता है । ऋषभ का प्रयोग दुर्गा राग को अलग कर देता है । 
 पुस्तक राग दर्पण में पं. जगदीशनारायण पाठक ने इस राग में दोनों निषाद् का प्रयोग बतलाया है एवं इस राग के  निकट के राग खमाज तथा बागेश्री हैं। श्रृंगार रस की चीजों के लिए भी यह राग बहुत उपयुक्त बताया है। 
ÓÓपुस्तक राग परिचयÓÓ में हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव ने राग रागेश्वरी की विशेषताऐं इस प्रकार बतलाई हैं। 
 रागेश्वरी राग का एक दूसरा प्रकार है जिसके अवरोह में शुद्ध निषाद् का प्रयोग किया जाता है किन्तु मन्द्र सप्तक में सदैव कोमलÓ निÓ का प्रयोग किया जाता है। कोमल निषाद् की रागेश्वरी अधिक प्रचलन में है, इसमें ध-ग स्वर की संगति बड़ी मनोरंजक है। 
 राग सोरठ के आरोह में ग, ध स्वर वज्र्य है । खमाज ठाठ के रागों के दो मुख्य वर्ग हैं-
1)वे राग जिनमें गांधार की प्रबलता होती है। 
2)वे राग जिनमें ऋषभ प्रबल होता है। 
 राग सोरठ का राग देस से बहुत साम्य है ,किन्तु गांधार स्वर का प्रयोग करके इसे देस राग से अलग किया जा सकता है। इसी प्रकार Óराग देसÓ के आरोह में ग,ध स्वर वर्जित होते हैं एवं इस राग का स्वरुप ÓÓसोरठÓÓ राग के समान होता है। 
 राग देस एवं राग सोरठ दोनों सम प्राकृतिक होने के कारण समान दिखाई देते हैं। यह राग अत्यन्त लोकप्रिय होता है। 


सन्दर्भ सूची :-
01. ÓÓरागशास्त्र भाग-1 डा.गीता बनर्जी , 45 पृष्ठ
02. ÓÓराग परिचयÓÓ भाग-4, पं.हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव, 94 पृष्ठ
03. अभिनव गीतांजलिÓÓ भाग-3, पं. रामाश्रय झा रामरंग पृष्ठ 9 पृष्ठ
04. ÓÓराग दर्पणÓÓ भाग-2, पं. जगदीशनारायण पाठक, 21 पृष्ठ
05. अभिनव गीतांजलिÓÓ भाग-3, पं. रामाश्रय झा रामरंग 220 पृष्ठ
06. राग दर्पणÓÓ भाग-3, पं. जगदीशनारायण पाठक, 144 पृष्ठ
07. ÓÓराग परिचयÓÓ भाग-3, हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव, 64 पृष्ठ 
08. ÓÓअभिनव गीतांजलिÓÓभाग-2, पं. रामाश्रय झा रामरंग 164 पृष्ठ
09. ÓÓराग परिचयÓÓ भाग-4, पं. हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव,, 141 पृष्ठ
10. ÓÓअभिनव गीतांजलिÓÓभाग-5,पं. रामाश्रय झा रामरंग,143 पृष्ठ
11. राग दर्पणÓÓ भाग-1, पं. जगदीशनारायण पाठक, 60 पृष्ठ


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Aksharwarta International Research Journal May - 2024 Issue