1-अपनेपन की पिचकारी
अपनेपन के रंगों से मन की पिचकारी भर दो।
अबके होली में तुम सबको एक रंग में भर दो।।
ना हिन्दू हो,ना कोई मुस्लिम,एक रंग में सबको रंग दो।
इस होली में तुम सबको एक ही मजहब में रंग दो।।
एक बच्चे सा मन हो सबका,ना मन मे कोई भेदभाव हो।
इस होली में सबको सबसे गले लगाने का एक भाव हो।।
ना नीला,ना हरा गुलाबी प्यार भरे शब्दो का रंग बनाओ।
मिट्ठी बातों से फिर एक दूजे के गमो को अपना बनाओ।।
आओ इस होली पर पूरे भारत को एक रंग से भर दे।
प्रण करे हम सब ऐसा,सबका मजहब भारतवासी कर दे।।
2-संभल कर चल
है दूर तक अँधेरा और कोहरा भी गहरा।
संभल कर चल , रोशनी पर भी है पहरा।।
कोहरे को जरा ओस की बूंदों में बदलने दे।
राह में फैले घनघोर अँधेरो को छटने तो दे।।
माना उजाले के सहारे बहुत नही है पास तेरे,
बस जुगनू के उजाले पर खुद को चलने दे।
मंजिल की डगर मे बहकावे बहुत से है लेकिन,
कुछ मील के पत्थर के सहारे खुद को चलने दे।
कोई सिरा मंजिल का कभी तो दिख जायेगा।
अपनी पलकों को पल भर भी ना झपकने दे।।
3-उसकी आश
आसमां से चाँद उठाकर जमी पर रखा है।
आशाओं का एक बांध बनाकर रखा है।।
उसका आना मेरे जीवन में नामुमकिन है।
हमने ना जाने क्यों हाथ बढ़ाकर रखा है।।
उसने मुझको कभी भी पलट कर ना देखा।
हमने ना जाने क्यों उसका अरमान बनाकर रखा है।।
ना जाने अब भी कौन सी आश बाकी है।
इंतजार मे दरवाजो पर आँख लगाये रखा है।।
उम्मीदों के सारे दरख़्त जमीनोंदोज हुए है।
फिर भी एक छोटा सा पौधा बचाकर रखा है।।
उसके जीवन मे आने की आश अब भी बाकी है।
दिल मे उम्मीदों का आखिरी दिया जलाकर रखा है।।
4-*ऐसा ना हो अकेले रह जाओ*
माना जीवन मे खुशियो को तुम पाओगे,
क्या करोगे उन खुशियो का जब उन्हें
बिना परिवार खुद अकेले ही मनाओगे।
माना सारी सुख सुविधा को तुम पाओगे,
क्या करोगे सुख सुविधा का जब उन्हें
औरो का हक मार कर तुम कमाओगे।
माना जीवन मे तुम आगे बढ़ते जाओगे,
क्या करोगे मंजिलो पर पहुँचकर,
जब वहाँ खुद को अकेला तुम पाओगे।
शिखर पर पहुँच क्या अकेले मुस्करा पाओगे,
कोई भी ना होगा जब पास तेरे,बताओ मुझे,
फिर गीत खुशियो के किस तरह गुनगुनाओगे।
कभी उठा , कभी गिरा , इंसान यूँ ही आगे चला,
दिन-रात की भाग दौड़ में ईमान से ना गिरना कभी,
ऐसा ना हो बईमानी अपनो से करते करते हुए,
तुझे पता भी ना चले और तू अकेला रह जायेगा।
जीवन हर पल घटता जैसे पर्वत पल पल गिरता है।
तू क्यों ना मिलजुलकर सबसे हिम पर्वत सा ढलता है।।
चाहे कोई बड़ा या छोटा हो,ले चल साथ सभी को,
जैसे नदियों का पानी मिलकर एक समंदर बनता है।।
5-. लघुकथा ---- *आज का श्रवण कुमार*
पापा मैं ये बीस कम्बल पुल के नीचे सो रहे गरीब लोगो को बाट कर आता हूँ।इस बार बहुत सर्दी पड़ रही है।श्रवण अपने पिता से ये कहकर घर से निकल गया।
इस बार की सर्दी हर साल से वाकई कुछ ज्यादा ही थी।श्रवण उन कंबलों को लेकर पुल के नीचे सो रहे लोगो के पास पहुँचा।वहाँ सभी लोगो को उसने अपने हाथों से कम्बल उढा दिया।
हर साल की तरह इस बार भी एक आदर्श व्यक्ति की तरह कम्बल बाटकर वह अपने घर वापस आया और बिना अपने पिता की और ध्यान दिये अपने कमरे में घुस गया।
श्रवण के पिता 70 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति है और अपने शरीर के दर्द के कारण उन्हें चलने फिरने में बहुत दर्द होता है।बेटे के वापस आने के बाद पिता ने उसे अपने पास बुलाया।
किन्तु रोज की तरह श्रवण अपने पिता को बोला।आप बस बिस्तर पर पड़े पड़े कुछ ना कुछ काम बताते ही रहते है।बस परेशान कर रखा है और अपने कमरे में चला गया।
रोज की तरह अपने पैर के दर्द से परेशान श्रवण के पिता ने जैसे तैसे दूसरे कमरे से अपने लिए कम्बल लिया और रोज की तरह ही नम आँखों के साथ अपने दुखों को कम्बल में ढक कर सो गए।
*_कहानी का सार_ ----आजकल लोगो की मनोस्थिति कुछ ऐसी हो गयी है कि वो बहुत से काम तो लोगो की देखा देखी ही करने लगे है।अपने आप को अत्यधिक सामाजिक दिखाने की जिज्ञासा की होड़ में दिन - रात लगे रहना और अपने ही घर मे बात-बात पर अपने बड़े बुजुर्गों को अपमानित करना एक आम बात हो गयी है।आजकल गरीब लोगो की सहायता करना लोगो के लिये एक दिखावे का सामान हो गया है।थोड़ी बहुत सहायता करने के उपरांत उसका अत्यधिक बखान करना एक आम बात है।*
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नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).
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