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Tuesday, December 31, 2019

आकाश महेशपुरी के दोहे-

1-
कलयुग के इस दौर मेँ, बस हैँ दो ही जात।
एक अमीरी का दिवस, अरु कंगाली रात॥
2-
कौन यहाँ है जानता, कब आ जाए अन्त।
चलना अच्छी राह पर, कर देँ शुरू तुरन्त॥
3-
मौसम मेँ है अब कहाँ, पहले जैसी बात।
जाड़े मेँ जाड़ा नहीँ, गलत समय बरसात॥
4-
यारी राजा रंक की, या दोनोँ की प्रीत।
अक्सर क्योँ लगती मुझे, ये बालू की भीत॥
5-
ध्यान रखे जो वक्त का, रहता है खुशहाल।
जो इससे है चूकता, दुख भोगे तत्काल।।
6-
कुछ कहने से पूर्व ही, कर लेँ सोच विचार।
ऐसा ना हो बाद मेँ, बढ़ जाए तकरार।।
7-
हिन्दू-मुस्लिम से बड़ा, अपना भारत देश।
ये लड़ते तो देश के, दिल को लगती ठेस।।
8-
यह भी तो अच्छा नहीँ, भरना केवल पेट।
कर लेते हैँ जानवर, भी भोजन से भेँट।।
9-
कैसी उसकी सोच है, कैसा है इंसान।
छोटी-मोटी बात से, हो जाती पहचान॥
10-
मौसम तो बरसात का, किन्तु बरसते नैन।
सूखी सूखी ये धरा, पंक्षी भी बेचैन।।
11-
थोड़ा कम भोजन करेँ, काम करेँ भरपूर।
निर्धनता इससे डरे, रोग रहेँ सब दूर।।
12-
रूप सलोना हो भले,मन मेँ बैठा मैल।
ऐसे मानव से भले, लगते मुझको बैल।।
13-
यदि बूढ़े माँ-बाप को, पुत्र करे लाचार।
उससे पापी कौन है, तुम ही बोलो यार।।
14-
आग लगे जब गाँव मेँ, संकट हो घनघोर।
कितनी छोटी सोच है, खुश हो जाते चोर।।
15-
आँखोँ मेँ बादल नहीँ, दिल के सूखे खेत।
हरियाली गुम हो चली, दिखती केवल रेत॥
16-
खाता है जो धन यहाँ, बिना किये कुछ काम।
माफ उसे करते नहीँ, अल्ला, साईँ, राम।।
17-
ये हैँ शत्रु समाज के, ताड़ी और शराब।
हो जाते विद्वान भी, पीकर बहुत खराब।।
18-
ना कोई छोटा यहाँ, बड़ा न कोई आज।
सब हारे इस वक्त से, जग मेँ इसका राज।।
19-
प्रेम भाव घर मेँ अगर, तो दौलत है फूल।
वरना ये लगता जहर, चुभता बन के शूल।।
20-
वह धन धन होता नहीँ, जो रखता है चोर।
धन चोरी का आग है, बचे न कोई कोर।।
21-
चाहे धूप कठोर हो, या जलता हो पाँव।
काम धाम करते सदा, वे ही पाते छाँव।।
22-
मीठा भी फीँका लगे, इतना मीठा बोल।
पर इस चक्कर मेँ कहीँ, झूठ न देना घोल।।
23-
आ जाओ हे कृष्ण तुम, लिए विष्णु का अंश।
एक नहीँ अब तो यहाँ, कदम-कदम पर कंस।।
24-
कंसो का ही राज है, रावण हैँ चहुँ ओर।
भला आदमी मौन है, जैसे कोई चोर।।
25-
होता यदि दूजा हुनर, होते हम भी खास।
भूखे कबसे फिर रहे, ले कविता आकाश।।
26-
कविता का आकाश ले, हम तो खाली पेट।
लौटे हैँ बाजार से, लेकर केवल रेट।।
27-
मुझ पर मातु जमीन का, इतना है उपकार।
इसके खातिर छोड़ दूँ, जी चाहे घर-बार।।
28-
मातु-पिता घर-बार से, धरती बहुत महान।
इसके आगे मैँ तुझे, भूल गया भगवान।।
29-
चालू हो जाता पतन, सुनेँ लगाकर ध्यान।
आ जाता इंसान मेँ, जिस दिन से अभिमान।।
30-
बादल के दल आ गये, ले दलदल का रूप।
रूप दलन का देख कर, बिलख रही है धूप।।
31-
वे जग मेँ हैँ मर चुके, सत्य न जिनके संग।
बिन डोरी कबतक उड़े, जैसे कटी पतंग।।
32-
बोली से ही सुख मिले, बोली से संताप।
बोली से मालूम हो, मन के कद की नाप।।
33-
संकट हो भारी बहुत, अंधेरा घनघोर।
उसमेँ भी कुछ रास्ते, जाते मंजिल ओर।।
34-
दारू पीने के लिए, जो भी बेचे खेत।
बन जाता है एक दिन, वह मुट्ठी की रेत।।
35-
धरती की चन्दा तलक, जाती है कब गंध।
इसीलिए करिए सदा, समता मेँ सम्बन्ध।।
36-
आलम ये बरसात का, देख रहे हैँ नैन।
धनी देखकर मस्त हैँ, मुफलिस हैँ बेचैन।।
37-
पशुओँ को बन्धक बना, हम लेते आनन्द।
आजादी खुद चाहते, कितने हैँ मतिमन्द।।
38-
कल की बातेँ याद रख, पर ये रखना याद।
आगे जो ना सोचते, हो जाते बरबाद।।
39-
भारत देश महान की, यह भी है पहचान।
घर आए इंसान को, कहते हैँ भगवान।।
40-
अच्छाई की राह पर, चलते रहिए आप।
दुःख चाहे जो भी मिले, या कोई संताप।।
41-
जिसके डर से सौ कदम, रहती चिन्ता दूर।
कहते उसको कर्म हैँ, दुख जिससे हो चूर।।
42-
पूजा करने से नहीँ, या लेने से नाम।
आगे बढ़ते हैँ सभी, बस करने से काम।।
43-
अच्छी बातेँ सोचिए, अच्छी कहिए बात।
अच्छाई अच्छी लगे, दिन हो चाहे रात।।
44-
जाति धर्म के नाम पर, लड़ते जो दिन रात।
भारत माँ के लाल वे, करते माँ से घात।।
45-
कथनी करनी एक हो, और इरादा नेक।
बैर भाव जाता रहे, मिलते मित्र अनेक।।
46-
रोगी सब संसार है, और पेट है रोग।
रोटी एक इलाज है, दर-दर भटकेँ लोग।।
47-
इस लोभी संसार मेँ, जीना है दुश्वार।
यारी भी झूठी लगे, झूठा लगता प्यार।।
48-
कहते हैँ वैभव किसे, जाने कहाँ किसान।
फुरसत कब देते उसे, कष्टोँ के फरमान।।
49-
धीरे धीरे ही सही, करते कोशिश रोज।
वे ही भर पाते यहाँ, जीवन मेँ कुछ ओज।।
50-
एक सफलता है यही, चैन अगर हो पास।
यह पाने के वास्ते, कर आलस का नाश।।
51-
धन असली है खो रहा, यह पूरा संसार।
नाम कहूँ तो पेड़ है, जो धरती का सार।।
52-
कैसे हो सकता भला, अमर किसी का नाम।
अमर नहीँ जब ये धरा, नश्वर सारे धाम।।
53-
असली धन है गाँव मेँ, हरियाली है नाम।
याद करूँ जब शहर को, दिखलाई दे जाम।।
54-
अगर किसी भी भष्ट को, वोट दे रहे आप।
तो समझेँ हैँ दे रहे, निज बच्चोँ को श्राप।।
55-
जीवन है जो देश का, भूखों देता जान।
देता सबको रोटियां, कहते उसे किसान।।
56-
सोना ही महँगा नहीं, महँगे आलू प्याज।
पर सबसे महँगा हुआ, भाई-चारा आज।।
57-
कानों पर होता नहीं, तनिक मुझे विश्वास।
गाली देते देश को, इसके ही कुछ खास।।
58-
अपनी ही वह सम्पदा, कर देते हैं नष्ट।
और माँगते भीख तो, सुनकर होता कष्ट।।
59-
हम सबके ही वास्ते, सैनिक देते जान।
जाति-धर्म के नाम पर, क्यों लड़ते नादान।।
60-
एक धर्म होता अगर, होती दुनिया एक।
बिना किसी मतभेद क्या, होते युद्ध अनेक।।



☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
संक्षिप्त परिचय :
नाम- आकाश महेशपुरी
(कवि, लेखक, शिक्षक)
मूल नाम- वकील कुशवाहा
जन्मतिथि- 20 अप्रैल, 1980
प्रकाशन व उपलब्धियां-
काव्य संग्रह 'सब रोटी का खेल'
साझा काव्य संग्रह- कवितालोक, गीतिकालोक, कुण्डलिनीलोक व अन्य।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन
आकाशवाणी व दूरदर्शन से कविता-पाठ
कवि सम्मेलनों व कवि गोष्ठियों में सहभागिता
कुछ साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानपत्र
पता-
ग्राम- महेशपुर, पोस्ट- कुबेरस्थान, जिला- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
पिन- 274304 , मोबाईल- 9919080399


'मानव'

मैं कुछ भी सही 

मगर उससे पहले 

एक मानव हूँ ।

मैं कुछ भी नहीं 

यदि मैं सबसे पहले 

एक मानव नहीं हूँ ।

एक अंतर्द्वंद तो है 

मेरे भीतर 

जो मुझे ले आता है 

खींच-खींच कर 

अपनी ओर,

कर देता है आत्म केंद्रित मुझे

मेरे ही वृत्त की परिधि के

घेरे में, 

जहाँ मैं भूल जाता हूँ

मेरे उन कर्तव्यों को 

जो शायद 

किसी दूसरे के लिए

अधिकार हों.. 

और हो सकता है 

मुझसे भी ज़रूरी हों ।

लेकिन...

दूसरे ही पल 

मुझे मेरी चेतना जगा देती है, 

मेरे मानव होने पर 

किसी को 

हो ना हो 

मुझे गर्व ज़रूर है, 

क्योंकि,, 

मैं सोच सकता हूँ, 

मैं कर सकता हूँ, 

मुझ में संवेदना है 

और क्षमता है.. 

किसी को जानने

समझने 

और 

पढ़ने की..

यही क्षमता तो मुझे 

मेरी परिभाषा बतलाती है, 

और मुझे एहसास दिलाती है 

कि हाँ ! 

मैं एक मानव हूँ.. 

और 

अन्य पशुओं से 

हटकर भी हूँ।

 

 

__ टी.सी. सावन

 सर्वाधिकार सुरक्षित

 

टी.सी.सावन

साहित्यिक संपादक/साहित्यकार

 

डायरेक्टर, माइंड पावर स्पोकन इंग्लिश इंस्टिट्यूट हांडा बिल्डिंग, वीपीओ सरोल, तहसील और जिला,चंबा,हिमाचल प्रदेश 176318

मोबाइल 8988022314

8894580075

सुमित दहिया की कविताएँ

1.परिवर्तन का नियम

 

दुनिया में

केवल एक चीज़ ऐसी है

जिसमे कभी परिवर्तन नही होता

और वह है

 

"परिवर्तन का नियम"

 

2.आनुपातिक प्रेम

 

किसी ने मेरे शरीर के शत प्रतिशत हिस्से को

अपनी ऊर्जा के पच्चीस प्रतिशत हिस्से से चबा लिया

क्या इसी का नाम प्रेम है।

 

3.फिर वहीं मंज़र

 

मेरी आँखों मे नाखून उग आए है

और उन्हें अंदर तक खरोंच रहे है

प्रतिदिन, प्रतिपल

शायद निकालना चाहते है

फिर वहीं मंज़र

जो किन्ही परिस्थितिगत कारणों से

कहीं विलुप्त हो गया है।

 

4.मज़ाक

 

मज़ाक जैसी कोई चीज़ अस्तित्व में नही होती

दुनिया मे नही होती

मज़ाक केवल एक बहाना है

उन कठोर सच्चाइयों को हल्के-फुल्के ढंग से,

बयान करने का

 

जिन्हें असल भावनाओं के साथ व्यक्त्त करने से

कुछ रिश्ते हमेशा के लिए खत्म हो सकते है

मज़ाक केवल एक परिस्थिगत सुविधा है।

 

5.निम्नतम

 

जब आदमी सामान्य विचारों को सोचते-सोचते

अत्यधिक थक जाता है

फिर शुरुआत होती है, कुछ उच्चतम की

मगर अक्सर आदमी गिरता है निम्नतम में

क्योंकि उच्चतम अपने साथ अथाह संघर्ष लिए है

और निम्नतम भीड़ की सामान्य शैली है।

 

6.आईने के सामने

 

जब मैं आईने के सामने खड़ा होता हूँ

एक मोहब्बत मेरे बालो में हाथ फेरती है

एक मोहब्बत मेरे चेहरे से कील निकालती है

एक मोहब्बत मेरे कंधों को अक्सर दबाती है

एक मोहब्बत मुझे कुछ मीठा बोलना सिखाती है

 

लेकिन इनमें हमेशा एक बात नई होती है

कि हर बार मोहब्बत नई होती है।

 

7.तुम्हारा अहंकार

 

तुम अगर मेरे बारे में सोच रही हो

तो मेरी आँखों से थोड़ी नमीं ले लो

जिससे तुम्हारा अहंकार कुछ तरल हो जाये

ताकि वह आसानी से निकल सके

तुम्हारे दिलो-दिमाग से बाहर

तभी तुम्हारी आत्मा का मार्ग खुलेगा

 

तुम जिन बंधनो में बंधी रही हो

वे सभी बंधन मृत है, बाधाएं है

"समाज की सभी मर्यादाएं, प्रेम की आलोचना मात्र है"।

 

8.प्रेम की आभा

 

जब-जब मैंने प्रेम किया

तब-तब मैं चूक गया

आखिर मेरा किया कोई भी कार्य 

मुझसे बड़ा कैसे हो सकता है 

कर्ता की जमीन में कार्य का पौधा अंकुरित होता है

 

फिर जो मेरे प्रयासों के बिना घटा

उसमें ही प्रेम की स्वच्छ आभा थी।

 

9.आरक्षित जख्म

 

मेरे शरीर मे ज़ख्मो के लिए

अलग-अलग स्थान आरक्षित है

बिल्कुल वैसे ही जैसे एक्यूप्रेशर के पॉइंट्स होते है

ये सभी स्थान विभिन्न व्यक्तियों के लिए आरक्षित है

वो इन्हें अक्सर दबाकर ताज़ा करते रहते है

जब कभी उनसे बात या मुलाकात होती है

ये सिलसिला अरसे से यूँही जारी है

और इसके ख़त्म होने की संभावना भी नज़र नही आती।

 

 

"सुमित दहिया"

मोबाइल - 9896351814

हाउस न.7सी, मिस्ट होम सोसाइटी, हाइलैंड मार्ग, एयरफोर्स स्टेशन के पास, जीरकपुर, मोहाली ,पंजाब - 140603

ड्रैस कोड

व्यंग्य  

       सेवानिवृति के बाद ज़िंदगी की दूसरी पारी का पूरा लुत्फ चल रहा था। सुबह आराम से उठना, कुर्ते पायजामें और चप्पलों में इजी रहना। सीनियर सिटीजन्स के खेमों में उठना बैठना, बतियाना, नए नए शेर गढ़ना, सुनना- सुनाना, गोष्ठियों,  कवि सम्मेलनों, मुशायरों में जाना, म्यूजिकल कार्यक्रमों आदि में शिरकत करना , हर प्रोग्राम के 'द् एंड' में  मुफ्त में चाय पानी , लंच - डिनर वगैरा वगैरा के आनंदमयी दौर से गुजर रही जिंदगी में एक दिन , अचानक एक इन्वीटेशन ने सारा मजा किरकिरा कर डाला ।

      एक बहुत ही उच्च सामाजिक संस्था का निमंत्रण आया कि शहर के एक सबसे बड़े क्लब में आयेजित उनके फंक्श्ान मंे आप कोरडियली इनवाइटिड हैं जहां तीन राज्यों के राज्यपाल शामिल होंगे। कार्ड में समय पर पहुंचने, 'स्टे फार डिनर ऑफटर प्रोग्राम'  की आकर्षक ऑफर भी थी। साथ ही मोटे अक्षरों में  ड्रेस कोड लिखा था कि आप फार्मल ड्र्ेस यानी   -काले , नीले या डार्क ग्रे सूट, बूट और टाई में ही आएं वरना अंदर जाने नहीं दिया जाएगा।

आफिस टाइम के सूट , बूट , आस्मानी शर्ट और टाई की ढुंढाई में रात दिन एक कर दिया। ट्रंक , अटैचियां, आल्मारियां उल्टा डालीं और ड्रेस कोड का रॉ मेटीरियल मिल गया। श्री मती जी ने झट से धोबी से सब प्रेस व्रेस करवा लिए, जूते हमने खुद डस्टर से चमका लिए क्योंकि जूते  पॉलिश किए एक मुदद्त  हो चुकी थी। चप्पलों से ही काम चल जाता था। 

 फंक्शन में जाने के लिए आधा घंटा ही बचा था । हमने सोचा ऐन टाइम पर पहनेंगे ताकि करीज वरीज बनी रहे। इधर हमारे सीनियर सिटीजन ग्रुप के मैसेेज मोबाइल पर  टनटनाने  लगे- आन द वे,...... पिकिंग अप एट सेवेन शार्प .....आदि आदि।

   शर्ट तो किसी तरह फंस गई। टाई भी गलबन्घन हो गई। जैसे ही पैंट को ऊ पर करके देखने लगे तो  पता चला कि इतने सालों में कीड़ों ने उसके पिछवाड़े छोटे छोटे रोशनदान बना डाले हैं।

       हम घबरा गए कयोंकि कोई बेमेल पैंट भी नहीं डाल सकते थे। नो एंट्र्ी का बोर्ड आखों के आगे तैरने लगा। श्रीमती जी ने हौसला बंधाया कि ये सब आपके कोट के पीछे छुप जाएगा, पहनो तो सही। अब दूसरी मुसीबत आन पड़ी। जब पैंट पहनने लगे तो उसने कमर के ऊ पर आने से इंकार कर दिया। यों तो हम डेली वाक पर जाते थे लेकिन दोस्तों की सोहबत में पेट का क्षेत्रफल कब बढ़ गया ,इसका पता इसी दिन चला वरना सब हमें हमेशा फिट एंड फाइन ही बताते रहे। हम पेट और पैंट के द्वंद में फंस गए।  किसी तरह पैंट चढ़ाई तो बैल्ट नारज हो गई। आज हमें पायजामें की सादगी और उसके नाड़े पर गर्व महसूस हुआ कि दोनों आपको किसी भी उम्र और साइज में कैसे एडजस्ट करते रहते हैं। श्रीमती जी ने एक सुए से बैल्ट के आखिरी सिरे से आधा इंच पहले एक सुराख कर दिया। किसी तरह हम अपने आफिशियल सूट में फंसे। बूट तो पैरों में आ गए पर फीते बांधने और  उंगलियों  के बीच पी. ओ .के जैसी स्थिति थी। पैर तो हमारे ही थे पर अपने ही हाथ वहां तक नहीं पहुंच पा रहे थे । बीच में  पेट आड़े आ गया। हमें अब चप्पलों की सादगी पर गुस्सा आया कि रिटायरमेंट के बाद ,कैसे उन्होंने हमारी आदतें बिगाड़ दी। जैसे तैसे श्रीमती जी ने चरणवंदना करने के अंदाज में जूतों के फीते कस दिए। कमर पहले ही कस दी थी। साथ ही हिदायत दी कि  खाने पीने के चक्कर में ज्यादा इधर उधर नाचना नहीं। 

       बाबू रामलाल पांच मिनट पहले ही धमक गए और अपने चिरपरिचित अंदाज में चिल्लाए- अमां यार आज भी लेट.... और बोले- आज तो आफिस के बॉस लग रहे हो।  डाई वाई करके मूछें भी काली कर लेते तो एक बार गवर्नर भी शरमा जाता।  हमने अपनी पैंट वाली प्रॉब्लम बताई कि एक तो उसमें छोटे छोटे रोशनदान हैं और टाईट इतनी कि कभी भी इज्जत जा सकती है। बााबू रामलाल ने एक दक्ष पुलिस आफिसर की तरह हमें आश्वासन दिया कि तुम चिंता न करो। हम तुम्हें जेड प्लस से भी ऊ पर की सिक्योरिटी देंगे। तुम बीच में रहना हम पांच प्यारे तुम्हारे इर्द गिर्द घेरा बना के  चलेंगे। अगर कुछ हो भी गया तो संभाल लेंगे।

      किसी तरह वे सब हमें अपनी कार में लोड कर के क्लब में ले गए और वहां एक सोफे पर सजा दिया। हिदायत भी दे गए कि उठना नहीं , यहीं जमे रहना वरना भेद खुल सकता है। मुख्य अतिथि से मिलाने के लिए हम अपनी जेड सिक्योरिटी में तुम्हें ले चलेगंे ताकि इज्जत ढंकी रहे।

       हाल में लोग वार्म अप होते रहे , गले वले मिलते रहे, ड्र्ंिक विंक हाथ में लिए एक दूसरे में मिक्स होते रहे । वेटर उड़ने वाले  हनुमान जी की मुद्रा में इधर से उधर ट्रे लेकर उड़ते रहे पर हमारे पास से ऐसे गुजर जाते जेसे छेोटे स्टेशनों से शताब्दी। कोई हमारी तबियत पूछने लगता तो कोई , बैठा देख घुटने रिप्लेस करवाने की सलाह देता।  टायलेट तक जाने का रिस्क नहीं ले पा रहे थे। बहुत सी हमउम्र बीवियों का कारवां इधर उधर गुजरता रहा और हम गुबार देखते रहे। वेटर हाथों में खाने पीने का सामान हाथों में लेकर ऐसे फुर्र होते जा रहे थे मानो 26 जनवरी की परेड में आए हों। 

थोड़ी देर में एक घोषणा हुई ओैर तीनों राज्यपाल एक एक करके पधारे । सभी लोग उठ उठ कर अभिवादन कर रहे थे सिवाय हमारे। कईयों ने समझा हम वी. वी.  आई दृ पी. हैं जो इतनी बड़ी हस्तियों के सामने भी खड़े नहीं हुए।

 सीनियर सिटीजन्स का सम्मान समारोह आरंभ हुआ। सब एक एक करके मंच पर जा रहे थे औेर सम्मानित हो रहे थे। हमारा भी नाम पुकारा गया। अब धर्म संकट था। कहीं उठते ही सम्मानित होने की बजाए अपमानित होने के चांसेज ज्यादा ब्राईट लग रहे थे। जरा सी कोशिश की पर हिम्मत जवाब दे गई। 

    एक राज्यपाल महोदय ने हमारी मजबूरी देखते हुए, सारे प्रोटोकोल को तोड़ते -फोड़ते मंच से उतर कर सीधे हमारी ओर मीमेंटो और शॉल लेकर आ गए और खटाक से 'आन द् स्पाट' सम्मानित कर दिया ।  कैमरों की फलैशें चमकी, सारा असला हमारे इर्द गिर्द जमा हो गया।  मीडिया हम जैसे वरिष्ठ नागरिक को अति सम्मानित जीव समझ बैठा। अगले दिन हर अखबार के फ्रंट पेज पर हमारी फोटो छपी हुई थी जिसमें राज्यपाल महोदय की इस बात के लिए  बहुत तारीफ की गई थी।

फटी पैंट और निकला हीरो .......जैसे हम खुद को महसूस कर रहे थे।

अब वह ऐतिहासिक पैंट हमारे ड्राईंग रुम की दीवार पर ऐसे टंगी है जैसे पिछले राजा महाराजाओं के महलों में बंदूकें, तलवारें, हिरण या शेर के मुखाटे या फिर आज के दौर में लोग स्मृतिचिन्ह , शील्ड या कप सजा लेते हैं।

- मदन गुप्ता सपाटू, 

458, सैक्टर 10, पंचकूला-134109 ,हरियाणा।

मो- 98156 19620

*यह क्या हो रहा है ?* 

धर्मालय के बाहर वृद्ध भिखारी

कटोरा लेकर घूम रहा है ,

बेखबर पुजारी भीतर मस्ती में

मूर्तियों संग झूम रहा है ।

जिंदा मूर्तियों को छांट- छांट के ही

प्रवेश दिया जा रहा है..

बेजुबान मूर्तियों को बड़ी श्रद्धा से 

यहां सहेजा जा रहा है । 

ऐसे में हृदय-विदारक सवाल 

ज़हन में उठ खड़ा हो रहा है 

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है? 

 

रोटी,कपड़ा और मकान

की चिंता छोड़ कर

विकास की परिभाषा बदल दी,

हमने अपने आंगन में क्यों

बेवजह की लकीर खींच दी ?

कौन समझाए कि धर्म से बढ़कर 

मानवता महान होती है

और भाषा भी किसी धर्म विशेष की जागीर नहीं होती है । 

अगर सब कुछ सही चल रहा तो 

मजदूर, किसान, असहाय और तथाकथित आम वर्ग क्यों रो रहा है ?

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है ?

 

किससे पूछें कि जगतजननी 

आज टूट-सी क्यों गई है ? 

महापुरुषों- महाबलियों की जन्मदात्री रूठ-सी क्यों गई है ? 

 बेख़ौफ़ अंजाम दे रहे हर चौराहे पर 

दरिंदों को कानून का खौ़फ क्यों नहीं ?

अनैतिकता की सख्त सज़ा बाहरी देशों में है 

तो फिर मेरे भारत में क्यों नहीं ? 

उन्नाव केस हो या हैदराबाद का मामला

हृदय छलनी-छलनी हो रहा है ? 

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है?

 

जो हक़ के लिए लड़ता है 

वह वर्ग क्यों पिछाड़ा जाता है ? 

सबका विकास चाहने वाला 

'गरीब का बच्चा' क्यों मारा जाता है?

रह-रहकर ज़हन में सवाल उठता है 

फिर कहीं खो जाता है,

देशद्रोही ना कहलवाऊं

सोचकर हर बुद्धिजीवी

चुप हो जाता है।

बदली-बदली सी सूरत में 

सामाजिक हर ताना-बाना हो रहा है,

मेरे देश में आज 

यह क्या हो रहा है??

 

 

 *_____टी.सी.सावन*

सर्वाधिकार सुरक्षित

 

पता : गांव खमुहीं, डाकघर कोहाल (वाया पुखरी) जिला चंबा, हिमाचल प्रदेश 176319

 

पत्राचार : टी.सी.सावन, डायरेक्टर,माइंड पावर स्पोकन इंग्लिश इंस्टिट्यूट, हांडा बिल्डिंग, वीपीओ सरोल, तहसील और जिला चंबा, हिमाचल प्रदेश 176318

मोबाइल : 89880-22314

88945-80075

हिन्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी : प्रसार की लकीरें

20 वीं सदी में आर्थिक विकास का आधार विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी रहा । नवाचार एवं आविष्कारोन्मुखी प्रवृत्ति से समाज विकसित और अविकसित वर्गों में बँटने लगे । 21 वीं सदी में संज्ञानिकी का प्रबल प्रभाव है । लोक संस्कृति की संरक्षा की चिंता बढ़ने लगी है । प्रति वर्ष 2 प्रतिशत विश्व भाषाओं का लोप होता जा रहा है । प्रति वर्ष लगभग 60 लाख पृष्ठ विज्ञान शोध पत्रिकाओं में, और लगभग 165 लाख पृष्ठ विज्ञान पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं । आधुनिक विज्ञान नागरी में नगण्य है, परिणाम  - 


लोक व्यवहार में नव नवीन वैज्ञानिक सोच और प्रौद्योगिकी का अभाव, और परमुखापेक्षी समाज का सातत्य ।  इसलिए प्राथमिकता हो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में नागरी प्रयोग का संवर्धन । संक्रमण काल में भारत के न्यूनतम लक्ष्य़  विश्व लक्ष्यों के लगभग 0.5 प्रतिशत हो सकते हैं ।


 भारत में 2010 – 2020 इन्नोवेशन डिकेड अर्थात् नवाचार दशक मनाया जा रहा है । साइंस कांग्रेस में प्रधान मंत्री जी ने घोषणा कर दी । इति श्री । पहले से चले आ रहे प्रोग्राम , जैसे विज्ञान  रेलयात्रा, विज्ञान प्रसार आदि उसी गति से चल रहे हैं ।


विज्ञान प्रसार का पहला ल्क्ष्य कार्य होता है  अंध विश्वासों की अवैज्ञानिकता को सिद्ध करना; लेकिन  अंध विश्वासों को  मात्र जुठलाते रहने से काम नहीं बन रहा । कानूनी रोक का कोई प्रावधान नहीं बन पाया । आये दिन नए नए प्रकरण चर्चा में आ रहे हैं । इसके मूल कारण पर कुठाराघात करने की आवश्यकता है । मूल कारण है प्राथमिक शिक्षा में लोक भाषा को हेय बनाते जा रहे हैं , सरकार की इस अवैज्ञानिक नीति से विज्ञान के प्रति अभिरुचि नहीं बन पा रही;  आम आदमी बच्चों से विज्ञान सम्मत संवाद नहीं कर पा रहा ।


विज्ञान प्रसार का दूसरा स्वयं सुखाय कार्य है खबरिया लेखन । अखबारों की नीति व्यवसाय परक है, सैक्स, हिंसा, बलात्कार की खबरें प्रधानता पाती हैं;  विज्ञान और नैतिकता गौण बन गए हैं । खबरिया लेखन से कम से कम हिन्दी में कुछ विज्ञान सम्बंधी सूचनात्मक सामग्री प्रकाशित होती रहती है । आवश्यकता है हिन्दी में अधिक से अधिक विश्लेषणात्मक सामग्री के प्रकाशन की । लक्ष्य हो आम आदमी आविष्कारोन्मुखी बने, समस्या का स्वयं विज्ञान सम्मत समाधान निकालने को उत्सुक रहे । अभी तक विश्व में  वैज्ञानिकों की तीसरी बड़ी जनसंख्या वाले भारत में विज्ञान अथवा पौद्योगिकी की एक भी सावधि (मासिक) शोध परक जर्नल प्रकाशित नहीं होता है । हिन्दी में  लिखे को  प्रौन्नति (प्रोमोशन) के समय माना नहीं जाता, न तो सरकारी विभागों में और नहीं एकेडेमिक / शैक्षणिक क्षेत्र में ।  फिर कौन लिखे, क्यों लिखे ? विज्ञान प्रसार के लक्ष्यों में इसे कोई स्थान नहीं ।


विज्ञान प्रसार का  तीसरा प्रस्तुतीय लक्ष्य है संगोष्ठी आयोजन । श्रेष्ठ कार्य है, इस बहाने से कभी कभार समान विचार धारा के चिंतावान मिल बैठ सुन-सुना लेते हैं; लेकिन लक्ष्य क्या थे, कहाँ तक पहँचे, क्या अवरोध थे, किन किन साधनों की कमी रही, कितना वित्त प्रावधान किए जाने की आवश्यकता है , अन्य देशों के लिए विज्ञान प्रसार मॉडल देने में कितने समर्थ रहे, इत्यादि अनेक प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं ।


विज्ञान प्रसार की कुछ लकीरें खींचने से काम नहीं चलेगा, बड़ा केनवास बनाने की जरूरत है । विज्ञान प्रसार के दूरगामी लक्ष्य निर्धारित किए जाने की जरूरत है । आम आदमी की जरूरत / माँग को औपचारिक लक्ष्य आँकड़ों के रूप में रखना आवश्यक है । तदनुसार  माँग-आपूर्ति श्रंखला सुनिश्चित की जाए ।


 शिक्षा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, और प्रसार प्रविधि  तीन प्रमुख क्षेत्रों में कतिपय सुझाव इस प्रकार हैं – 


शिक्षा



  1. उच्च तकनीकी शिक्षाके पाठ्यक्रम में प्रथम वर्ष की पढ़ाई हिन्दी, लोकभाषा, इंग्लिश में मिश्रित हो । प्राइवेट उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थाओं में भी ग्रामीण अंचल के गरीब विद्यार्थियों को 25% प्रवेश का प्रावधान हो, जैसा स्कूली शिक्षा में सम्भव हो सका है ।  {उच्च तकनीकी शिक्षा संस्थानों , जैसे AIIMS, IITK, IITD, IITB आदि  के प्रथम वर्ष में ही आत्महत्या कर लेने वाले मेधावी किशोरों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दें । अपनी भाषा में उच्च शिक्षा से वंचित विवश हुए आत्महत्या की घटनाओं पर असंवेदनशील हैं  शिक्षा प्रशासक और योजनाकार।}


 



  1. मैथ्स / आई टी ओलंपियाड की भांति विज्ञान ओलंपियाड हिन्दी में आयोजित किए जाएं, प्रतियोगिताएं स्कूल , कॉलेज़ स्तर की और व्यावसायिक प्रयोग स्तर की हो सकती हैं । विज्ञान की सामान्य जानकारी के साथ हिन्दी भाषा एवं लिपि की रचनात्मक वैज्ञानिकता की जानकारी की प्रतियोगिताएं हों, कैलीग्राफी, लिपि व्याकरण, मानक वर्तनी, लिप्यंतरण आदि पर प्रश्न हों ।

  2. प्राथमिक शिक्षा में विज्ञान का अध्ययन लोक भाषा हिन्दी में हो । आई टी आई, डिप्लोमा स्तर का अध्यापन लोकभाषा हिन्दी में ,  और उच्च शिक्षा के प्रथम वर्ष की पढ़ाई अंग्रेजी – हिन्दी मिश्रित मोड में हो ।

  3. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में राजभाषा हिन्दी में  शोध पत्रिकाओं का सावधि प्रकाशन हो । इनमें प्रकाशित लेखों को प्रोमोशन के समय प्राथमिक वरीयता  / समान मान्यता दी जाए ।

  4. स्कूलों, कॉलेजों, विश्व विद्यालयों में हिन्दी में इंटरनेट सुविधा, ओपेन डोमेन में शैक्षणिक  सॉफ्टवेयर, यूटिलिटी आदि  कंप्यूटर पर पूर्व लोडित हों ।


   प्रौद्योगिकी



  1. नागरी लिपि के कम से कम दस सुंदर मानक ऑपेन टाइप फोंट व्यावसायिक प्रयोग के लिए भी मुफ्त, मुक्त ओपेन डोमेन में सर्वसुलभ कराए जाएं । यह जनहित में दूरगामी कदम होगा।


 



  1. स्कूलों-कॉलेजों में नागरीOCR, Open Office, Library Info System, Accounting  Software, School Management Software आदि उपलब्ध कराए जाएं। भारतीय भाषा कम्प्यूटिंग सुविधा अनिवार्य हो । कंप्यूटर की खरीद में नागरी की-बोर्ड और पूर्व लोडित भारतीय भाषा सॉफ्टवेयर  एवं यूटीलिटी अनिवार्य हों ।

  2. नागरी टंकण के लिए INSCRIPT मानक,  और लिप्यंतरण  के लिए नागरी-रोमन मानक INSROT के  प्रयोग को बढ़ावा दिया जाए ।

  3. वेब पर डोमेन नेम नागरी में भी स्वीकार्य हों । इनकी उपलब्धता को ICANN  से स्वीकृति तो मिली है, लेकिन इसके  प्रयोग प्रसार को भारत सरकार सुनिश्चित करे ।

  4. नागरी में कंटेट क्रियेशनऔर वेब सर्विस इंटीग्रेशन और  XML आदि मानकों पर भी काम


किया जाए ।    नागरी लिपि पर आधारित फोनीकोड का विकास किया जाए । यूनीकोड ग्राफिम(रूपिम) आधारित है, फोनीकोड फोनिम (स्वनिम)  आधारित है । अक्षर (सिलेबल) ध्वनि को कोडित करते हैं । भारत की विशिष्ट देन होगा ।



  1. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रमुख विषयों पर शोध पत्रिकाओं और शोध ग्रंथों के प्रकाशन लक्ष्य निर्धारित किए जाएं,  और तदनुसार कार्यवाही हो ।

  2. लैब में सभी उपकरणों पर नाम और विशिष्टताओं का हिन्दी में भी उल्लेख हो । मन्युअल हिन्दी में भी हों जिसे लैब सहायक भी आसानी से समझ सकें । लैब में उपकरण सुधार और नए प्रोजेक्ट डिजायन से लैब सहायकों में विज्ञान की समझ का आकलन सम्भव है । 

  3. कम से कम एक मिनी प्रोजेक्ट की रिपोर्ट हिन्दी में भी हो,  तकनीकी प्रोजेक्ट डिजायन की मौखिक प्रस्तुति परीक्षा में आस पास के किसान, व्यापारी  आदि प्रयोगकर्ताओं को भी बुलाया जाए । उनके प्रश्नोत्तरों से विज्ञान प्रसार के प्रभाव को मापा जा सकता है ।


प्रसार प्रविधियाँ



  1. राज्य स्तर की पर्यटन सूचनाएं नागरी लिपि में भी हों, क्योंकि धर्म स्थलों और पुरातत्व अवशेषों को देखने जन सामान्य पर्यटक पूरे देश से आते हैं ।

  2. शिक्षा में भारतीय भाषाओं और लिपि के प्रयोग संवर्धन की दिशा में विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता है । सभी सरकारी विभागों और इनके सभी  प्रतिष्ठानों में हिन्दी में वेबसाइट पर कंटेंट अद्यतन किए जाने की समय समय पर समीक्षा हो ।

  3. ज्ञान पूर्ति के लिए अनुवाद आवश्यक है, लेकिन सरकारी कार्यालयों में वर्तमान अनुवाद विधा ने हास्यस्पद स्थिति मे ला खड़ा किया है । अनुवाद लेखक-उन्मुखी है, प्राय: एक-व्यक्ति परक है । प्रस्तावित है अनुसृजन विधा  जो पाठक- केन्द्रित है, टीम परक है,  सुबोध और नवाचार प्रेरक है ।

  4. विज्ञान लेखन की समालोचना  का अभाव है, इस दिशा में विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता है ।

  5. इन्नोवेशन डिकेड में मीडिया की भूमिका को विज्ञान परक बनाने के लिए नीति निर्धारण और मीडिया के प्रबंध निर्णायकों से बात कर विज्ञान प्रसार की दिशा में प्रभावकारी कदम उठाने की आवश्यकता है ।

  6. निगरानी के लिए  एक स्वतंत्र समीक्षा संस्था  बनाई जाए जो लक्ष्य और दयित्व  निर्धारित करे, और समय समय पर हिन्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी प्रयोग, व्यवहार एवं शोध प्रगति, विज्ञान प्रसार कार्यक्रमों के प्रभाव (इम्पेक्ट),  और प्रयोग-प्रसार की समस्याओं पर  सर्वे कर परिणाम प्रकाशित करे, तथा केन्द्रीय  एवं राज्य सरकार में  नीति अनुपालन के लिए दबाब डाले ।


 


प्रस्तावित  लक्ष्य एवं  दायित्व


 


























































लक्ष्य



दायित्व



उच्च तकनीकी शिक्षा में पाठ्यक्रम में प्रथम वर्ष की पढ़ाई हिन्दी-इंग्लिश मिश्रित भाषा  में हो । नागरी ओलंपियाड, वर्तनी मानकीकरण ...  



मानव संसाधन विभाग, UGC, AICTE, MCI, PCI, आदि तथा राज्यों के  शिक्षा विभाग



सरकारी अनुदान से विकसित फोंट, सॉफ्टवेयर   आदि सूचना प्रौद्यिगिकी व्यावसायिक स्तर भी जन हित में प्रयोग की जा सके। 24x7 हेल्पलाइन हो। डोमेन नेम नागरी में हो । फोनीकोड का विकास  हो। मानकओं का अनुपालन हो ।



सूचना प्रौद्योगिकी विभाग



राजकीय कार्यालयों, स्कूलों, तकनीकी संस्थानों में  कंप्यूटर, “आकाश”  टेब्लेट की खरीद में नागरी की-बोर्ड एवं हिन्दी सॉफ्टवेयर   पूर्व लोडित  अनिवार्य हो ।



सूचना प्रौद्योगिकी विभाग, मानव संसाधन विभाग



अनुसृजन विधा से विज्ञान-प्रौद्योगिकी ज्ञान सृजन विषय विशेषज्ञों के सहयोग से  हो । ACR में भी इसका विशेष उल्लेख हो।



DST, DBT, DIT, DOT, DES, DEF, DRDO, ISRO, MHRD, MH&FW,  और इनके  अंतर्गत प्रतिष्ठानों के सभी वैज्ञानिकों का



सभी वित्त पोषित सेमीनार, कॉन्फरेंस, वर्कशॉप में 20 प्रतिशत प्रस्तुतियाँ  - चर्चा एवं प्रिंट - में हिन्दी / लोक भाषा में हों ।



DST, DBT, DIT, DOT, DES, DEF, DRDO, ISRO, MHRD, MH&FW,  etc.



राजभाषा हिन्दी में  शोध स्तरीय प्रकाशन लक्ष्य  


1.इलैक्ट्रोनिकीएवकम्प्यूटिंग/ संज्ञानिकी शोध अनुसृजन: 03 हज़ार पृष्ठ प्रति वर्ष


पुस्तक सृजन :  05 हज़ार पृष्ठ प्रति वर्ष  


2.  विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी


शोध अनुसृजन: 10 हज़ार पृष्ठ प्रति वर्ष 


पुस्तक सृजन :  25 हज़ार पृष्ठ प्रति वर्ष  


3. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, प्रबंधन और उद्यमिता


शोध अनुसृजन :15 हज़ार पृष्ठ प्रति वर्ष 


पुस्तक सृजन :  50 हज़ार पृष्ठ प्रति वर्ष  



 


 


DIT, DOT  


 


 


DST, DBT, DSIR, DES, DEF, DRDO, ISRO  


 


MHRD, MH&FW



स्टॉफ सेलेक्शन में INSCRIPT आधारी टंकण दक्षता अनिवार्य हो ।



SSC, DOL



पर्यटन स्थलों के नाम संकेत और दुकानों के विज्ञापन पटों पर जगह जानकारी नागरी में हो। यथा संभव वैज्ञानिक विश्लेषण भी दिया जाए ।



सभी राज्यों के पर्यटन विभाग



एयरलाइन व राजधानी आदि में नागरी परिचय और संक्षिप्त सुबोध पर्यटन परिचय राजभाषा  हिन्दी में हो । प्राचीन विज्ञान उपलब्धियोंकी जानकारी प्रेरणास्पद होगी।



नागर विमानन विभाग, रेल विभाग 



राजभाषा हिन्दी के लक्ष्य एवं दायित्व निर्धारण, तथा राजकीय कार्य एवं दायित्व की समीक्षा, और अनुपालन नीति सम्मत कार्यवाही हो ।



राजभाषा विभाग



विज्ञान प्रसार लक्ष्य एवं दायित्व निर्धारण, समीक्षा, और  अनुपालन नीति सम्मत कार्यवाही हो ।



विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय



स्वतंत्र सर्वे एवं  सघन समीक्षा



गैर-सरकारी संस्था संघ



  


सर्वे के लिए कुछ विषय बिन्दु :


o   NCERT  / CBSE की हिन्दी भाषा पुस्तकों में विज्ञान संबंधी पाठ  - कितने प्रतिशत, इनका आविष्कारात्मक प्रवृति के विकास में कितना योगदान ?


o   स्कूलों में नागरी  लेखन, लिपि व्याकरण, अंक , गिनती, श्रुतिलेखन, और नागरी लेखन सौष्ठव (calligraphy) स्थिति, इंग्लिश-सापेक्ष स्थिति


o   उच्च तकनीकी एवं मेडीकल शिक्षा के पाठ्यक्रमों में नागरी परिचय एवं राजभाषा हिन्दी में संवाद-अभिव्यक्ति की क्षमता  


o   उच्च तकनीकी एवं मेडीकल शिक्षा के प्रथम (संक्रमण) वर्ष में हिन्दी, लोकभाषा और इंग्लिश के मिश्रित मोड में पढ़ाई, असाइनमेंट, परीक्षा  कितने कॉलेज / संस्थानों में


o   उच्च तकनीकी एवं मेडीकल शिक्षा में प्रथम एवं द्वितीय वर्ष  में कितने छात्र आत्महत्या करते हैं, और कारण विश्लेषण एवं सुझाव


o   सरकारी विभागों से वित्त पोषित विज्ञान एवं तकनीकी संगोष्ठी / कार्यशालाओं में कितने पतिशत  पनेल डिस्कशन, चर्चाएं हिन्दी / लोक भाषा में


o   सरकारी विभाग वार हिन्दी में कितने शोध पत्रों का प्रकाशन और प्रौन्नति (प्रमोशन) में उनको प्राथमिक वरीयता / अंग्रेजी में शोध पत्र के  समान मान्यता


o   सरकारी विभाग वार हिन्दी में कितनी शोध पत्रिकाओं के  प्रकाशन की व्यवस्था है, और  लक्ष्य से  कितने दूर


o   सरकारी विभागों से दिए गए विज्ञापनों में कितने हिन्दी में दिए जाते हैं


oविदेश से आए विज्ञान-प्रौद्योगिकी के विद्यार्थियों के लिए कितने केन्द्रीय तकनीकी संस्थानों / विश्व विद्यालयों में हिन्दी का व्यवहार परक  ज्ञान कराया जाता है


o   लोक भाषा / हिन्दी में प्राथमिक अध्ययन से समाज के प्रति संवेदनशीलता, रचनात्मकता, टीमवर्क, आविष्कारोन्मुखी प्रवृति पर प्रभाव


o   . . .    . . .   इत्यादि


 विज्ञान प्रसार का मूल्यांकन 


 































क्रमसंख्या



आयाम



विवरण



1.



What     क्या



लक्ष्य परिणाम


 



2.



Whom   किसको



लाभांवित लोग


 



3.



How      कैसे



नए तरीके


 



4.



Where   कहाँ-कहाँ



नवाचारमय विज्ञान प्रसार ग्रुप / संस्थाओं का नेटवर्क 


 



 किस आयाम में कितनी प्रगति की, इसका अनुमान  लगाकर  विज्ञान प्रसार प्रयासों का मूल्यांकन किया जा सकता है । जहाँ-जहाँ कमी हो, वहाँ नई प्रसार प्रविधि से प्रसार किए जाएं । विज्ञान साहित्य की सतत समालोचना / समीक्षा से ही विज्ञान लेखन सुबोध , रोचक और परिपक्व होगा ।


बधाइयों का लेन-देन

होगा बधाइयों का लेन-देन, फिर से ये नया साल आया है!
नही सोचा पिछले साल में,क्या खोया और क्या पाया है!!


बॉर्डर पर खड़ा फौजी, क्यों नही नया साल मनाता है!
कड़ाके की इस सर्दी में, उसका भी तो बदन थर्राता है!
फौजियों की अर्थी देख, ये कलेजा मुँह को आता है!
एक आह भी ना निकले , ये पत्थर दिल  हो जाता है!!
भारत माँ की रक्षा का जिम्मा, इनके मन मे समाया है!
होगा बधाइयों का लेन-देन, फिर से नया साल आया है!!


आज आत्महत्या कर रहा वो, जो सबका पेट भरता है!
मौसम के हर रंग देख, उसका दिल भी कितना डरता है!
भावों के उतार-चढ़ाव से, वो पल पल भी तो मरता है!
हर तरह का टूटा कहर, जो आकर उस पर पड़ता है!
दिन रात बिताता खेत मे, रात में साथ इसका साया है!
होगा बधाइयों का लेन-देन, फिर से नया साल आया है!!


किस बात की दे रहे बधाई, यहां होती कितनी हत्याएं हैं!
रेप की शिकार यहां पर, जाने हुई कितनी बालिकाएं हैं!
कितनी लाशे आयी जवानों की, हुई कितनी विधवाएं हैं!
किसान ने जाने कब कब, बच्चे भूखे पेट सुलाये हैं!
किस खुशी को देखकर के, हम पर ये सुरूर छाया है!
होगा बधाइयों का लेन-देन, फिर से नया साल आया है!!



Tuesday, December 10, 2019

नारी की व्यथा

नारियाँ अभिषप्त हैं, बेडिय़ो में जब्त हैं, 
कहीं पुरूषों से व्यथा, कहीं दहेज की प्रथा।
कहीं भू्रण हत्या,कहीं सत्तीत्व पर सवाल है।
कितने चिन्तको ने चिन्ता इस पर जताई है, 
फिर भी क्या नारी को मिल गई आज़ादी है़ं ? 
नारी तो आज भी लड़ रही लड़ाई है, 
जाने कितने दंश उसने समाज से पाई है।
फिर भी वह थकी नहीं बेडिय़ों के जब्त से,
तोड़ सारे बंधनों को उड़ चली आकाश में।
वह थकी न रूक सकी स्वत्व की तलाश में, 
कितनी सदी बीत गई पथ की तलाश में।
आज भी जब उसे मिल गई आजादी है, 
चारों तरफ फिर भी क्यों बंदीशें लगाई हैं।
नारी जो विनम्र है, सहती सारे दंभ है। 
यह नहीं, कि उसको इस बात का न ज्ञान है।
वह समझे व्यथा सभी, समाज की प्रथा सभी।
रावण के व्यभिचार का दण्ड क्यों सहे सीता सभी।
ऐसा नहीं नारी में ज्ञान का आभाव है,
वह अगर सहन करे तो भावना का भाव है।
इसकी भाव की परीक्षा अब लेना छोड दो,
भाव की यह बांध टूट जाए न अब यहीं।
बांध जो टूटा तो चण्डी बन कर आएगी, 
फिर बताओ सृष्टि में मातृत्व कहाँ पाओगे।
फिर कभी कोई भी सीता न बन पाएगी।
आज तो रावणों की लग रही कतार है,
कही बेटियाँ तो कहीं बहनें लाचार हैं।
चारो तरफ हवस और रावण की जय-जयकार है।
सृष्टि का है अंत या कलयुग का आधार है।
तब रावण एक था, एक ही थी सीता,
आज न जाने कितने रूपों में रावण जीता।
माँ के गर्भ में हो रही बेटियों की हत्या है।
बेटों के लिए आज भी मन्नतें आपार हैं।
एक बेटी कर रही समाज से ये प्रश्न है
बेटे और बेटियों में ऐसा क्या फर्क है।
नारी तो नदी है, जीवन की ये आधार है।
इसको न समझे कभी व्यर्थ या बेकार है। 
हाथ में बंधी चूड़ी, पायलों में पैर है।
मांग में सिंदूर और माथे पर चुनर लगी।
इसको न समझो कभी इनकी ये मजबूरियाँ।
हाथों की ये चूडियाँ तलवार जैसे शस्त्र हैं।
मांग की सिंदूर जैसे रक्त की पुकार है।
माथे पर लगी चुनर सृष्टि का ये भार है।
पैरों की ये पायलें अनहद कार्यभार हैं।
फिर भी इस समाज की कैसी ये विडम्बना।
प्रष्न के कटघरे में कैद खड़ी नारियाँ।
चारो तरफ प्रष्न से हो रहा प्रहार है
नारियाँ तो आज भी बेबस और लाचार है।
आज में कर रही समाज से यह प्रार्थना,
अब तो छोड़ दो इन्हे बंदिशों में जोडऩा।


नए भारत का नया राष्ट्रवाद: रचनात्मक हस्तक्षेप व अपेक्षाएँ रपट :- कथाक्रम 2019  

हिंदी कथा साहित्य पर केन्द्रित अखिल भारतीय आयोजन कथाक्रम श्रृंखला का सताइसवां आयोजन 'कथाक्रम 2019Ó दिनंाक 10 नवम्बर 2019 को लखनऊ में सम्पन्न हुआ। संयोजक कथाक्रम, शैलेन्द्र सागर नेे सभी आमंत्रित रचनाकारों, स्थानीय लेखकों, साहित्य प्रमियों, मीडिया बंधुओं का स्वागत करते हुए अपने पिता श्री आनंद सागर की जन्म तिथि होने के कारण उन्हें स्मरण करते हुए उनकी रचनाशीलता पर प्रकाश डाला। इस वर्ष के आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान से समादृत चर्चित लेखक एस आर हरनोट के कृतित्व पर जानी मानी आलोचक रोहिणी अग्रवाल के वक्तव्य का चर्चित लेखिका रजनी गुप्त ने पाठ किया। कथाक्रम सहयोगी मीनू अवस्थी ने सम्मान पत्र का वाचन किया। सम्मानित लेखक हरनोट ने सम्मान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने लेखकीय संघर्षों को व्यक्त किया। सत्र की मुख्य अतिथि वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि हरनोट की रचनाओं में जमीनी जुड़ाव, आम आदमी के सरोकार और यायावरी है, इसलिए महत्वपूर्ण है। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ लेखक रवीन्द्र वर्मा ने कहा कि हरनोट का रचना संसार रेणु के निकट है और उनकी कहानियों में प्रतिरोध है।  
 सम्मान सत्र के बाद 'नए भारत का नया राष्ट्रवाद: रचनात्मक हस्तक्षेप व अपेक्षाएंÓ विषय पर संगोष्ठी आरम्भ हुई जिसका संचालन युवा आलोचक डॉ0 रविकांत ने किया। इस सत्र के अध्यक्ष मंडल में वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव, प्रो0 चंद्रकला त्रिपाठी, दलित चिंतक व लेखक कंवल भारती, युवा आलोचक वैभव सिंह व कथाकार संजय कुंदन थे। विषय प्रवर्तन करते हुए वीरेन्द्र यादव ने कहा कि आज धर्म निरपेक्ष परम्परा की हत्या हुई है तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उदय हुआ है। लेखकों के सामने गंभीर चुनाती है। हमारी प्रतिरोध की परंपरा है और हमें अपनी सार्वजनिक भूमिका को समझना होगा। चर्चित कवयित्री कात्यायनी ने कहा कि आज नए राष्ट्रवाद में स्त्री नहीं है। यह पुरुषवादी सवर्ण राष्ट्रवाद है। 
 युवा आलोचक वैभव ंिसह का कहना था कि आज फेक राष्ट्रवाद फेक न्यूज फैला रहा है। राष्ट्रवाद में धर्मनिरपेक्षता प्राथमिक मूल्य है। उन्होंने राष्ट्रवाद को समझने पर बल दिया और कहा कि राष्ट्रवाद वस्तुत: संवादधर्मी होता है और असहमतियों का आदर करता है। दलित चिंतक कंवल भारती ने कहा कि राष्ट्रवाद वर्णव्यवस्था, जातिवाद आदि से जुड़ा है। अम्बेडकर पहले चिंतक हैं जिन्होंने हिंदुत्व को गहराई से समझा है। कथाकार संजय कुंदन ने कहा कि राष्ट्रवाद हिंदुओं तक सीमित नहीं है। यह उदारीकरण के प्रतिरोध की घटना है। युवा लेखक तरुण निशांत ने असहमत होते हुए कहा कि राष्ट्रवाद नया या पुराना नहीं होता। हम बुद्धिजीवी पांखडी और ढोंगी हैं। वरिष्ठ आलोचक चंद्रकला त्रिपाठी ने कहा कि धार्मिक सत्ताओं के लिए दलित और स्त्री का वजूद नहीं है। हत्यारे बलात्कारी सब राष्ट्रवादी हैं। 
 संगोष्ठी के दूसरे सत्र का संचालन बुंदेलखंड विवि के प्राध्यापक डॉ मुन्ना तिवारी ने किया और अध्यक्ष मंडल में वरिष्ठ आलोचकगण राजकुमार, बजरंग बिहारी तिवारी, प्रो0 काली चरन स्नेही, वरिष्ठ कथाकार अखिलेश व युवा लेखिका डॉ शशिकला राय थीं। डा राज कुमार का कहना था कि किसी अंश मात्र से किसी को राष्ट्रवादी घोषित करना उचित नहीं हैं। समाज की विविधता, बहुलता खत्म करके राष्ट्रवाद बना। उपनिवेशवाद के विरोध में पैदा राष्ट्रवाद बहुसंख्यकों का समूह है जिसमें अल्पसंख्यकों की चिंता नहीं होती। युवा आलोचक अनिल त्रिपाठी के अनुसार गंभीर बुनियादी सवालों से ध्यान हटाने के लिए पूंजीवाद राष्ट्रवाद पैदा कर रहा है। लखनऊ विवि के प्रोफेसर डा कालीचरन स्नेही ने  कहा कि हमें संविधान को बचाना है तभी दलितों और स्त्रियों की स्थिति सुधरेगी। डॉ शशिकला राय ने कहा कि हिंदुत्व राष्ट्रवाद से टकरा रहा है। जो गैर हिंदू हैं वे गैर भारतीय हैं।दलित मुद्दों के चिंतक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि मनुष्य के कुछ नैसर्गिक अधिकार होते हैं। आज राज्य धर्म अर्थसत्ता का गठजोड़ बन गया है। चर्चित कथाकार अखिलेश ने कहा कि राष्ट्रीय आंदोलन के द्वंद्व से राष्ट्रवाद बना। नए राष्ट्रवाद में सत्ता से सहमति असहमति के आधार पर राष्ट्रभक्त और राष्ट्रद्रोही सिद्ध किया जा रहा है। देश भाषाओं, संस्कृतियों, धर्मों का समुच्चय होता है। नया और अभूतपूर्व भारत बनाना वर्चस्ववादी और दमनकारी सोच है।
  इस संगोष्ठी में लखनऊ के अनेक लेखकों की भागीदारी रही जिनमें प्रमु,ख नरेश सक्सेना, विजय राय, देवेन्द्र, नवीन जोशी, प्रो रूपरेखा वर्मा, सूर्य मेाहन कुलश्रेष्ठ, सुभाष चंद कुशवाहा, सुभाष राय, शीला रोहेकर, किरण सिंह, दयानंद पांडे, प्रताप दीक्षित, महेन्द्र भीष्म आदि प्रमुख हैं।
 वरिष्ठ लेखक, कवि वीरेन्द्र सारंग के धन्यवाद ज्ञापन के साथ संगोष्ठी समाप्त हुई।


''श्रीमद्भागवत में नारी पात्र देवहूतिÓÓ एक अनुशीलन                

 श्रीमद्भागवत में अनेक उत्तम नारियों का वर्णन है, उनमें से देवहूति का विशिष्ट स्थान है। देवहूति की माता का नाम शतरुपा था। वे बर्हिष्मति पुरी के निवासी भगवान स्वयंभूव मनु की पुत्री एवं ऋषि कर्दम की पत्नी, प्रियव्रत व उत्तानपाद की बहिन थी। 
स भवान्दुहितृस्नेहपरिक्लिष्टात्मनो मम।1
''श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने।। 
प्रियव्रतोत्तानपदो: स्वसेयं दुहिता मम। 2
अन्विच्छति पतिं युक्तं वय: शीलगुणादिभि:।।
 मनु महाराज ने ऋषि कर्दम से निवेदन किया कि जब से दिति ने आपके शीलगुणों का वर्णन श्रीनारदजी के मुख से सुना है, तभी से ये आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर चुकी है। 
''यदा तु भवत: शीलश्रुतरूपवयोगुणान्।3
        अश्रृणोन्नारदादेषा त्यय्यासीत्कृतनिश्चया।।''
 मनुमहाराज श्री कर्दममुनि से देवहूति की प्रशंसा करते हुए यह भी कहते हैं कि देवहूति गृहकार्यों में भी निपुण है और इस प्रकार अपनी कन्या को स्वीकार करने का आग्रह करते हैं। तब ऋषि कर्दम एक शर्त के साथ विवाह करना स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूंगा, किन्तु जब तक देवहूति को सन्तान नही होगी तब तक। जब सन्तान प्राप्ति हो जाएगी तब भगवान के बताए हुए सन्यास प्रधान हिंसारहित षदमादि धर्मों को ही अधिक महत्व दूंगा। तब कर्दमजी के हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया। तब मनुजी ने देखा कि महारानी शतरूपा और राजकुमारी देवहूति की स्पष्ट अनुमति है, अत: उन्होने अनेक गुणों से सम्पन्न कर्दमजी को उन्ही के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया।
''सोऽनुज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितु: स्फुटम्।4
      तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षित:।।''
 तब  कर्दमजी ने कहा कि आपकी इस कन्या के साथ विवाह होना उचित ही होगा। वे कहते हैं वेदोक्त विवाह विधि में प्रसिद्ध जो ''गृभ्णामि ते''् इत्यादि मन्त्रों में बताया गया सन्तानोपादन मनोरथ है, जो पूर्ण होगा। ऋषि कर्दम कहते हैं कि आपकी कन्या से कौन विवाह करना नही चाहेगा। 
देवहूति अत्यन्त सुन्दर कन्या थी, बचपन में वे गेंद खेल रही थी तब इनकी पायल की झनकार करती थी, वहीं से विश्वावसु गन्धर्व इन्हें देखकर अपने विमान से अचेत होकर गिर पडे थे । 
       ''यां हम्र्यपृष्ठे क्वणदंघ्रिशोभां।5
    विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम्।। 
  विश्वावसुन्र्यपतत्स्वादिमाना।
      द्विलोक्य सम्मोहविमूढचेता:।।''
 देवहूतिजी के गुणों का वर्णन करते हुए श्री कर्दम मुनि कहते हैं कि 'जब वह स्वयं विवाह के लिए प्रार्थना कर रही है, जो उत्तानपाद की बहिन और रमणियों में रत्न के समान है,उन्हें तो इनका  दर्शन भी नही हो सकता, अत: मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूंगा।
 ''तां प्रार्थयन्तीं ललनाललामए मसेवितश्रीचरणैरदृष्टाम्।6
 वत्सां मनोरुच्चपद: स्वसारंए को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम्।।
 मुनि कर्दम के इस प्रकार के विचार जानकर मनु महाराज बहुत प्रसन्न हुए एवं सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर निश्चिन्त हो गए। उन्हें गृहोचित वस्त्र आभूषण दिए, फिर ऋषि कर्दम से आज्ञा लेकर अपनी राजधानी चले गए। माता-पिता के चले जाने के पश्चात देवहूति पूर्ण मनोभाव से अपने पति कर्दम की सेवा-सुश्रुषा करने लगी। देवहूति काम-वासना, द्वेष,लोभ,मद त्यागकर सावधानी से सेवा करने लगी। अपनी मधुर वाणी से  उसने अपने पति को सन्तुष्ट कर लिया। इस प्रकार बहुत दिनों तक पति की सेवा करने से देवहूति अत्यन्त दुर्बल हो गई।
 देवहूति की सेवा से ऋषि कर्दम अत्यन्त प्रसन्न हो गए, उन्होने कहा कि तुमने मेरी सेवा करके अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर लिया है और अपनी परवाह भी नही की है, अत: अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप,समाधि,उपासना और योग के द्वारा जो भय,शोकरहित भगवतप्रसाद स्वरूप विभूतियां प्राप्त हुई हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है । 
 कर्दम ऋषि देवहूति को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हुए कहते हैं कि संसार का सारा वैभव पतिव्रत धर्म पालन करने से तुम्हें प्रदान करता हूं। 
  ''ये मे स्वधर्मनिरतस्य तप: समाधि।7
  विद्यात्मयोगविजिता भगवत्प्रसादा:।।
  तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्।
                        दृष्टिं प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान्।।''
 पति के इस प्रकार के वचनों को सुनकर देवहूति उनको दिए गए वचन का स्मरण करवाती है और कहती है कि उसकी पूर्ति होनी चाहिए। ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी देवहूति की कामना को पूर्ण करने के लिए सर्व एैश्वर्यसम्पन्न एक महल की रचना की, एक दिव्य विमान भी निर्मित किया। 
देवहूति को पुन: युवावस्था प्रदान की और दीर्घकाल तक दोनों ने कुबेरजी के समान मेरूपर्वत की घाटियों में विहार किया। आत्मज्ञानी कर्दमजी सब प्रकार के संकल्पों को जानते थे, अत: देवहूति को सन्तानप्राप्ति हेतु उत्सुक देख देवहूति को  नौ कन्याओं की माता होने का सौभाग्य प्रदान किया । 
 ''प्रियाया: प्रियमन्विच्छन् कर्दमो योगमास्थित:।8
 विमानं कामगं क्षत्तस्तहर्येवाविरचीकरत्।।'' 
 फिर भी वह अपनी कन्याओं कि लिए योग्य वर के अन्वेषण हेतु ऋषि कर्दम से प्रार्थना करती हैं और कहती हैं कि आपके जाने के बाद भी मेरा जन्म.मरण का शोक दूर करने के लिए कोई होना चाहिए। देवहूति की इस प्रकार वैराग्ययुक्त बातें सुनकर कर्दमजी को भगवान विष्णु के कथन का स्मरण हुआ और उन्होने देवहूति से कहा-'तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। तुमने बहुत व्रत किए हैं अब तुम दु:खी मत होओ। अब तुम्हारा कल्याण होगा।  
  ''मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते।9
    भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते।।''
 कर्दमजी ने देवहूति को संयम नियम से तपादि करते हुए भगवान का भजन करने की आज्ञा दी। साध्वी देवहूति ने भी पति के वचनों पर पूर्ण विश्वास किया और निर्विकार भगवान पुरूषोत्तम की आराधना करने लगी। जब ब्रह्माजी को ज्ञात हुआ कि साक्षात परब्रह्म भगवान विष्णु सांख्यशास्त्र का उपदेश करने के लिए अपने तत्वमस अंश से अवतीर्ण हुए हैं तो स्वयं कर्दमजी के आश्रम जाकर कहने लगे कि तुमने जो मेरा सम्मान किया है, तुम्हारी निष्कपट भाव से मेरी सेवा सम्पन्न हुई है, और उनकी कन्याओं को उनके स्वभाव के अनुसार मरीचि आदि से विवाह करने का आदेश दिया। तत्पश्चात् देवहूति से भगवान विष्णु की उत्पत्ति के विषय में बताया कि उनका जन्म मोह की ग्रन्थियों को समाप्त करने के लिए हुआ है।
 ''एष मानवि ते गर्भं प्रविष्ट: कैटभार्दन:।10
 अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति।।''
 कर्दमजी के वन चले जाने के बाद ब्रह्माजी के वचनों को स्मरण कर देवहूति ने कपिलजी से कहा कि आप इस संसार के अज्ञान अंधकार से पार लगाने के लिए सुन्दर नेत्र रूप आप प्राप्त हुए हो एआप मेरे इस महामोह को दूर कीजिए।
 ''अथ में देव सम्मोहमपाक्रष्टुं त्वमर्हसि।11
 योऽवग्रहोऽहंममेतीत्येतस्मिन् योजितस्त्वया।।''
 वे कहने लगी कि आप संसार रूपी वृक्ष के लिए कुठार के समान हो एमैं आपकी शरण में आई हूं और आपको प्रणाम करती हूं। देवहूति भगवान कपिलजी से भक्ति के स्वरूप के विषय में पूछती है और स्वयं को कैसी भक्ति करनी चाहिए जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो, इत्यादि प्रश्न करने लगी। तब भगवान ने देवहूति की समस्त जिज्ञासाओं को शांत करते हुए भक्तियोग का उपदेश दिया। 
 ''एतावानेवलोकेऽस्मिन् पुंसां नि:श्रेयसोदय:।12
 तीवेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम्।।''
 कपिल भगवान के वचन सुनकर देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान कपिल मुनि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगी। 
 ''त्वं देहतन्त्र: प्रशमाय पाप्मनां।13
 निदेशभाजां च विभो विभूतये ।।
 यथावतारास्तव सूकरादय-।
 स्तथायमप्यात्मपथोपलब्धये।।''
 इस प्रकार देवहूति ने कपिलदेव के बताए हुए मार्ग द्वारा थोडे समय में नित्य मुक्त परमात्मस्वरुप को प्राप्त कर लिया जिस स्थान पर उनको सिद्धि मिली वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में 'सिद्ध पद' नाम से विख्यात हुआ ।
 तद्वीरासीत्पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम्।14
 नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी।।


निष्कर्ष:-
 निष्कर्ष रूप में देखा जाए तो माता देवहूति एक परमसाध्वी शीलगुणसम्पन्न महान नारी के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई हैं । आप में कई विशेषताएं हैं सौन्दर्य की दृष्टि से देखा जाए तो बचपन में ही विश्वावसु गन्धर्व उनके सौन्दर्य को देखकर विमान से मूच्र्छित होकर गिर गए थे। वे ऋषि कर्दम के गुणों को जब नारदजी द्वारा सुनती हैं तो उन्हें अपना पति बनाने की कामना मन में करती हैं एकिन्तु प्रत्यक्ष रूप से कभी उन्होने नही कहा। जब पिता ने आज्ञा दी तभी उनका विवाह कर्दममुनि के साथ सम्पन्न करवाया गया। यह गुण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के लिए अनुकरणीय है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिस प्रकार उन्होने पति की सेवा.सुश्रुषा करके सहज में ही ऋषि कर्दम की तपस्या का आधा पुण्य प्राप्त कर लिया था।  इसी प्रकार अगर सामान्य स्त्रियां भी अपना कर्तव्य निर्वाह करके देवहूति के चरित्र से प्रेरणा लें तो वे अपने जीवन को उच्च कोटि का बना सकती हैं। 


सन्दर्भ सूची :-
1  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/8 श्लोक
2  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/9 श्लोक
3  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/10 श्लोक
4  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/22 श्लोक
5  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/17 श्लोक
6  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/18 श्लोक
7  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/23/7 श्लोक
8  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/23/12 श्लोक
9  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/24/2 श्लोक
10  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/24/18 श्लोक
11  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/25/10 श्लोक
12  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/25/44 श्लोक
13  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/33/5 श्लोक
14  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/33/31 श्लोक


अस्सी का दशक और हिन्दी नाटकों की नाटकीयता              

 ÓÓनाटक का तन्त्र लेखक को खुद निश्चित करना पड़ता है। नाट्य-तंत्र के नियमों से मार्ग-दर्शन होगा, लेकिन ऐसा नहीं कि उनके पालन से ही अच्छा नाटक लिखा जा सकता है। विश्व के बहुत से अच्छे नाटक तो इन नियमों के अपवाद ही साबित होंगे। नाटक का माध्यम खून में उतर जाना चाहिए, संज्ञा पर उसकी छाप उठनी चाहिए तभी कोई लेखक अच्छा नाटक लिख सकता है।ÓÓ- विजय तेन्दुलकर
 नाटक एक जीवंत अनुभव है। उसकी नाटकीयता अर्थात् रंगमंचीय संभावनाएँ कृति में ही विद्यमान रहती हैं और वह अपनी जीवंतता रंगमंच पर ही प्राप्त कर सकता है। नाटक का अपना नाटकीय यथार्थ होता है, जो यथार्थवादी नाटकों के यथार्थ से एकदम भिन्न है और जिसके लिए नाटककार की निजी रंग-दृष्टि-पहली शर्त है। नाटककार का दृष्टिकोण ही कथ्य की परियोजना इस ढ़ंग से करता है कि कथानक तत्व, पात्र तथा संवाद के सूत्र एक दूसरे से जुड़े मूल कार्य का विकास करते चले जाते हैं और कथ्य अपने अनुरूप रंगमंच सृजित करता चलता है। कथ्य और रंगमंच जब कृति में एक साथ अस्तित्व पाते हैं तभी वह नाट्य कहा जाता है।
 नाटक और रंगमंच अन्योन्याश्रित हैं। ये एक दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते भी हैं। ये दोनों समाज से अपना रूपाकार ग्रहण करते हैं तथा समाज; अपने देश, काल और परिवेश से निर्धारित होता है। समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं और परिस्थितियों के साथ समाज। समाज का यह बदलाव धीरे-धीरे नाटक और रंगमंच दोनों को ही नहीं बल्कि साहित्य-और कलाओं के सभी रूपों में परिवर्तन करता चलता है। जब यह परिवर्तन स्पष्ट और मुखर होकर प्रत्यक्षत: प्रकट होने लगता है तो हम पाते हैं कि समाज, साहित्य और कलाएँ अपने पिछले रूप रंग से कुछ अलग अथवा भिन्न हैं, तो हम उन्हें नये विशेषण से पुकारने लगते हैं वस्तुत: प्रत्येक नाटककार का अपना नया नाटक और नया रंगमंच होता है।2 रंगमंच नाटक का निकर्ष है। निसंस्देह रंगमंच की आत्मा नाटकीयता है तो नाटक की आत्मा रंगमंचीयता। रंगमंच नाटक की सही कसौटी है किन्तु नाटक एक मात्र कसौटी या निरा रंगमंच ही नहीं है। यदि नाटक में रंगमंचीयता या अभिनयता का आग्रह होगा तो नाटक दिशा से भटक सकता है। नाटक न केवल साहित्य है और न केवल रंगमंचीय कला।
 नाटक संवादात्मक होने के कारण उसमें वाच्य तत्व मुख्य हो जाता है। संवाद अभिनेता से ही दर्शक तक पहुंचते हैं और नाटक एवम् नाटककार से साक्षात्कार कराते हैं इसलिए भरतमुनि ने वाचिक अभिनय को नाटक का शरीर माना है। नाटक एक त्रिकोण से आबद्ध है - नाटककार, सूत्रधार (निर्देशक) और दशर्क; लेकिन अभिनेता और अन्य सारा समूह भी उसका अनिवार्य अंग है। इसलिए सारी नाटक-प्रक्रिया इनके निरन्तर तारतम्य, सहयोग, सामंजस्य से ही संभव है। कई बार कोई नाटक पढऩे पर फीका लगता है और अभिनीत देखने पर प्रभावित करता है तो कभी अच्छे से अच्छा नाटक भी रंगमंच पर आकर मर जाता है; अत: नाटक एक सामूहिक संश्लेषणात्मक कला है जो रचनाकार से निर्देशक, निर्देशक से अभिनेता और अभिनेता से दर्शक तथा पूरी परिस्थितियों  तथा रंगकर्मियों से होती हुई प्रेक्षक तक पहुंचती है।3
 अत: नाटक को रंगमंच से अलग करके नहीं देखा जा सकता जैसे कथानक, चरित्र, संवाद, भाषा इत्यादि की उपस्थिति के बावजूद उपन्यास को नाटक नहीं कहा जा सकता; उसी प्रकार किसी भी ऐसी संवादबद्ध रचना को नाटक नहीं कहा जाना चाहिए जिसमें नाटकीयता न हो अथवा जो रंगमंच से अनिवार्यत: जुड़ी न हो फिर चाहे उसका अलग से कितना ही साहित्यिक मूल्य क्यों न हो।4
 नये और समसामयिक रंगमंच ने सिद्ध कर दिया है कि नाट्यालेख और प्रेक्षागृह के स्पेस कावैसा अनिवार्य एवम् आन्तरिक सम्बंध नहीं होता जैसा कि अब तक भारतीय और विदेशी नाट्यशास्त्र में माना जाता रहा है। निर्देशक और दृश्यांकनकार अपनी इच्छा एवम् कल्पनाशीलता से उसे बदल भी सकते हैं। इसी तरह प्रयोगधर्मी रंगकर्म और रंगस्थल के बीच केवल कलात्मक एवम् रचनात्मक ही नहीं; आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य स्थूल रिश्ते भी होते हैं यही कारण है कि हिन्दी प्रयोगधर्मी रंगकर्म में दर्शकों की कमी घाटे का सौदा सिद्ध हो रही है।5 इसी क्रम में अंधेर नगरी के मंचन में निर्देशक सत्यव्रत सिन्हा द्वारा किये गये नवीन प्रयोग सराहनीय हैं। 
 नये और समसामयिक भारतीय हिन्दी नाटक ने बाह्य घटनात्मक स्थूल यथार्थ से आगे बढ़कर सूक्ष्म संवेदनात्मक अभ्यन्तर यथार्थ का चित्रण किया तथा आधुनिक व्यक्ति के आन्तरिक संकट और उसकी जटिल संश्लिष्ट मानसिकता को विश्लेषित करने का प्रयास किया। प्रसाद काल से चली आ रही रंगमंच की खाई पाटी गयी और निर्देशक नामक एक संयोजक व्यक्तित्व का आविर्भाव हुआ। रंगकार्य में दर्शक की सत्ता और महत्ता स्वीकार की गयी। रस का स्थान द्वंद्व, तनाव और संघर्ष ने ले लिया। वर्जित दृश्यों और अनेक पुरातन रूढिय़ों से नाटक को मुक्ति मिली।6
 नाटक की नाटकीयता को समझने हेतु भाषा अपरिहार्य माध्यम है। नाटककार के भावों और विचारों को साकार रूप भाषा वैशिष्ट्य ही प्रदान करता है। रचनाकार के लिए शब्द मात्र शब्द या वस्तु नहीं है - वह उन्हें नई संवेदना से छूता है। रचता है। वह लगातार संघर्ष करता है। शब्द को भावों की एक रेंज एक ताजगी देता है। रचनाकार की रचना का सत्य भाषा से ही फूटता है। शब्द विन्यास, भंगिमाएँ, लय, गति आदि अलग-अलग नहीं है। रचनाकार इनका विलक्षण संयोजन कर अपने अनुभव, युगीन संवेदना से जोड़ता है; उनमें एक ऊष्मा, एक द्वंद्व, एक तनाव को अर्थ के नये आलोक में भरता है। यह सत्य भी है कि मानवीय अनुभवों का जटिल संसार भाषा की संवेदना से ही अनुभूत और व्यक्त किया जा सकता है।
 भाषा की शक्ति का समग्र विकास नाटक में ही होता है। नाटक की भाषा में एक पूरी श्रृंखला होती है जिसमें स्थितियां, क्रिया, प्रतिक्रिया, पात्र की बेचैनी तथा अन्य भावों को व्यक्त करने की क्रिया व गतियां होती हैं। उसमें स्थिति का वर्णन न होकर उसकी प्रस्तुति होती है। नाटक में भाषा स्वयं एक स्थिति होती है क्योंकि वह पात्र को बोलने के लिए विवश कर देती है। नाटक के शब्दों को इस तरह रखा जाना महत्वपूर्ण होता है कि वे निर्देशक व अभिनेता को प्रेरित कर सकें।
 संस्कारी मानक भाषा और बोलचाल की जुबान को हरकत भरी जीवन्त नाट्य भाषा का रचनात्मक रूप  देने के साथ बोलियों का या आंचलिक शब्दों एवम् अभिव्यक्तियों के नाटकीय इस्तेमाल ने भी नये हिन्दी नाटक की सृजनात्मक उपलब्धि के एक अभिनव आयाम का उद्घाटन किया है।7 यह सत्य है कि मोहन राकेश, जगदीशचन्द्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल, शंकर शेष, धर्मवीर भारती, शरद जोशी, ज्ञानदेव अग्निहोत्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, हम्मीदुल्ला, मणिमधुकर, भीष्म साहनी, बी.एम. शाह, रमेश बक्शी जैसे नाटककारों को हमने खो दिया है। परन्तु इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, संख्या की दृष्टि से जितने नये नाटककार सत्तर के दशक में उभरे हैं, उतने पिछले पचास वर्षों में भी नहीं उभरे थे।
 अस्सी के दशक (1980 ई. से 1989 ई. तक) में जो नाटकीय प्रयोग हुए, उनकी नींव नाटककार मोहन राकेश ने रखी। राकेश के नाटकों ने हिन्दी रंगमंच को सक्रियता ही नहीं दी, नाटक को सही मायने में रंगमंच से जोड़ा, प्रचलित नाट्य रूढिय़ों को तोड़कर आधुनिक रंगमंच की कल्पना को विकसित किया तथा प्रयोगशील कल्पना को साकार कर दिया। अस्सी के दशक के नाटकों ने उनकी इसी परम्परा को आगे बढ़ाया। सत्तर के दशक में नाटक तो पर्याप्त संख्या में लिखे गये लेकिन जिन नाटककारों ने अस्सी के दशक तक नाटकीय सम्भावनाओं को बनाए रखा उनमें प्रमुख रूप से डॉ. सुरेन्द्र वर्मा कृत Óछोटे सैयद, बड़े सैयदÓ (1982), Óएक दूनी एकÓ (1987), Óशकुन्तला की अंगूठीÓ (1990)। शंकर शेष कृत Óआधी रात के बादÓ (1981)। हम्मीदुल्ला कृत ÓहरवारÓ (1986), शिवमूरत सिंह कृत पूर्वाद्र्ध, सुदर्शन मजीठिया कृत ÓचौराहाÓ, नरेन्द्र मोहनÓ कृत Óकहै कबीर सुनो भई साधोÓ, विनय कृत Óएक प्रश्न मृत्युÓ, असगर वजाहत कृत Óजिन्न की आवाजÓ, दूधनाथ सिंह कृत ÓयमगाथाÓ, नन्दकिशोर आचार्य कृत ÓपागलघरÓ, Óइमइदम यक्षमÓ, Óदेहान्तरÓ, दयाप्रकाश सिन्हा कृत Óसीढिय़ांÓ, इत्यादि महत्वपूर्ण रहे।8 इनके अतिरिक्त मृणाल पाण्डे, कुसुम कुमार तथा मृदुला गर्ग का भी नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। इस दशक की नाटकीयता को निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है -
01. ये नाटक रंगमंच की अपेक्षाओं व जरूरतों को ध्यान में रखकर लिखे गये परन्तु कभी-कभी इन्होंने मौज़ूदा रंगमंच का अतिक्रमण करके, उसके लिए नयी चुनौतियों की सृष्टि की।
02. यह वस्तु संरचना की दृष्टि से पारम्परिक नाट्य शास्त्रीय रूढिय़ों को तो अस्वीकार करता ही है साथ ही पश्चिमी समस्या नाटकों के रंग-शिल्प को भी ज्यों का त्यों न अपनाकर कथ्य के अनुसार नये-नये रंग-प्रयोग करता रहा है।
03. इन नाटकों में संघर्ष और घटना की परिकल्पना और चित्रण का भी रूप बदल गया है। बाह्य परिस्थितियों या नियति से मनुष्य का संघर्ष अब महत्वपूर्ण नहीं रहा। आधुनिक व्यक्ति का मानस सदैव एक अन्तद्र्वन्द्व, दुविधा और तनाव की स्थिति में रहता है, अत: व्यक्ति मानस स्वयं परिस्थिति है और यह तनावग्रस्तता ही संघर्ष है।
04. मनुष्य की मनुष्य के रूप में पहचान और नवीन मानव सम्बन्धों एवम् मूल्यों का अन्वेषण और चित्रण इसकी मूलभूत शर्त है। यह इतिहास, पुराण और मिथक का प्रयोग एक साधन के रूप में महज सुविधा की दृष्टि से करता है। नया नाटककार मानता है कि मानवीय धरातल पर भीÓ नहीं बल्कि मानवीय धरातल पर रहकर ÓहीÓ जीवन में कुछ महान किया जा सकता है।
05. इन नाटकों में नायक, खलनायक और विदूषक की विभेदक रेखाएँ परस्पर घुलमिल गयी हैं। व्यक्ति के अन्तर्विरोधों का स्पष्ट चित्रण, नये नाटकीय चरित्रांकन की एक प्रमुख विशेषता है।
06. Óकाव्यगत न्यायÓ और Óसंकलन-त्रयÓ जैसे सिद्धान्त अब सर्वमान्य नहीं रह गये हैं। वर्जनाओं के बंधन यह नाटक नहीं मानता।
07. नारी अब केवल प्रेमिका, प्रेरणा या सजावट की वस्तु मात्र न रहकर एक सतत् संघर्षरत, जीवन्त और सम्पूर्ण चरित्र बन गयी है।
08. उच्चरित सार्थक सटीक शब्दों, अस्पष्ट ध्वनियों, मौन, मुद्राओं, क्रियाओं, मंच-सज्जा। उपकरण, संगीत और छाया-लोक से मिलकर बनी हरकत भरी समग्र नाट्य भाषा (बोलियाँ जिसका अनिवार्य अंग हैं) और चरित्रों की आन्तरिकता से उद्भूत संवाद-लय का रचनात्मक उपयोग इन नाटकों की प्रमुख पहचान है।
09. इन नाटकों पर भारतीय या पश्चिमी किसी भी विचार एवम् रंगधारा का प्रभाव हो सकता है। इसका कोई एक निश्चित या पूर्वनिर्धारित रूप, रंग नहीं है। यह मूलत: और अन्तत: प्रयोगधर्मी है।
10. प्रभावान्विति के अतिरिक्त यह किसी सिद्धान्त और नियम को पूरी तरह स्वीकार नहीं करता।
11. इसका उद्देश्य प्रेक्षक को रस विभोर करने के बजाय उसे विचलित तथा उत्तेजित कर, सोचने और प्रतिक्रिया करने पर मजबूर करना है। यह दर्शक की संवेदनशीलता को सजग, उदार और व्यापक बनाता है।9
स्पष्ट है कि हिन्दी के इन नाटकों का फिलहाल कोई एक निश्चित और पूर्व निर्धारित रूपाकार नहीं है। इसे वर्गों में बांटना और पारम्परिक सिद्धान्तों के आधार पर विवेचित, विश्लेषित या पूरी तरह मूल्यांकित करना न तो सम्भव है और न ही उचित। प्रयोगधर्मिता ही उसकी परिकल्पना का मूल आधार है। फिर भी अस्सी के दशक के प्रमुख नाटककारों के प्रमुख नाटकों का एक विश्लेषण प्रस्तुत है। 
 सुरेन्द्र वर्मा के Óछोटे सैयद बड़े सैयदÓ नाटक में स्त्री पुरुष के काम सम्बन्धों के मिथ को तोड़ा है तो Óएक दूनी एकÓ में वे स्पष्ट करते हैं कि भीतरी रिक्तता ने स्त्री पुरुष, आदिम सहजात सम्बन्धों को भी ग्लोबल कर दिया जिससे उनके व्यक्तित्व जटिलताओं में फँस गये हैं। Óशकुन्तला की अंगूठीÓ नाटक में वे दुष्यन्त व शकुन्तला के बहाने स्त्री पुरुषों के काम सम्बन्धों के नियति दर्शनों की व्याख्या करते हैं। नाट्य शिल्प, भाषा सम्बन्धी दुर्बलताओं तथा काम सम्बन्धों के खुले चित्रण के बावजूद सुरेन्द्र वर्मा हिन्दी नाट्य को नवीन कथ्य, रंगमंच विधान तथा नयी प्रयोग दृष्टि देते हैं।
 शंकर शेष एक पूर्णकालिक नाटककार थे। वे अपने चारों ओर नाटक ही नाटक देखते थे। नाटक की कोई प्रविधि ऐसी नहीं थी जिसका उन्हें ज्ञान न हो। इसका कारण यह है कि शेष ने जीवन की विद्रूपताओं और क्रूरताओं को बहुत गहराई से महसूस किया। शंकर शेष की नाट्यकला का विस्तार बहुत व्यापक है। उन्होंने अपने नाटकों में वर्तमान की पदचाप की हर लय को रूपान्तरित किया है। अपनी नाट्यधर्मी रचनात्मकता का प्रयोग उन्होंने जीवन बोध की व्याकुलता, अकुलाहट, संघर्षशीलता, अन्तद्र्वन्द्व आदि को व्यक्त करने के लिए किया है।
 रंगमंच की दृष्टि से इनके नाटक पूरी तरह सफल हैं। इनके नाटकों ने नया मंचीय इतिहास बनाया क्योंकि इनके नाटक बार-बार मंचित हुए हैं। शंकर शेष राकेशोत्तर साहित्य का एक विलक्षण और प्रयोगशील अध्याय है। डॉ. वीणा गौतम उनकी नाट्यकला पर विचार करते हुए लिखती हैं - ÓÓशंकर शेष की अंदाज-ए-बयानी में काव्यात्मकता, चारूरता व जीवन के सूक्त्यात्मक मुहावरे एक ओर देहधारी होकर केशर-लौ से लहकते हैं तो दूसरी ओर दहकते मध्यान्ह में झुलसते ग्रीष्म ऋतु के मरु उत्सव की सौन्दर्य ऊर्जा भी जगाते हैं। ... इनके प्रत्येक नाटक में नव्य परिबोध, शैली की वक्रता, भाषायी उठान, जल की तरह जगह बनाता कथ्य, आइना दिखाती सांवादिक संरचना, जीते जागते सशरीर पात्र, महाकाव्यात्मक औदात्य, रंगधर्मी मंचीय कौशल आदि सभी दृष्टियों से शेष की नाट्यकला विस्तार मुखी है।
 दूधनाथ सिंह की कृति ÓयमगाथाÓ हिन्दी नाट्य साहित्य की आधुनिक चेतना से युक्त कृति है। हिन्दी कथा साहित्य में दूधनाथ एक प्रतिबद्ध कथाकार के रूप में चर्चित रहे हैं। ÓयमगाथाÓ ऋग्वेद के मिथकीय संसार से पुरूरवा व उर्वशी के कथानक को आधार बनाता है। सिंह ने कालिदास के उत्कृष्ट रोमांटिक घटाटोप से पुरूरवा, उर्वशी को बाहर लाकर, उनके मिथक की नयी अर्थ उद्भावना पूरे तर्क के साथ की है। इसका कथ्य आगे चलकर सरलीकरण, आरोपित विचारधारा का शिकार हो जाता है और नाटक का स्वर कहीं कहीं निरर्थक तीव्रता से भर जाता है लेकिन उसकी नाटकीयता को क्षति नहीं पहुंचती। इसका शिल्प विशद् कैनवास पर शास्त्रीय पद्धति का विराटत्व लिये हुए है जिसके मंचन के लिए भारतीय परम्परा नाट्यशास्त्र के सैद्धान्तिक व्यवहारिक ज्ञान और वैदिक कालीन जीवन पद्धति आदि का पूर्ण ज्ञान अपेक्षित है। यह कृति प्रशिक्षित, समृद्ध और पूर्णत: विकसित रंगमंच की मांग करती है। रंगमंचीय व्यवस्था, नाटक और काव्य के अंत:सम्बन्ध की लय, अभिनय शैली, सौन्दर्यशास्त्र और सांस्कृतिक चेतना के बिना इसे सम्प्रेषित करना सम्भव नहीं है।10
 लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक Óबलराम की तीर्थ यात्राÓ व Óकजरी वनÓ में अपने अन्य नाटकों की ही भांति वस्तु व शिल्प दोनों स्तरों पर अनेक प्रयोग किये हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बाद लोक नाट्य शैली का प्रयोग इन्होंने किया है। आधुनिक यूरोपीय नाट्य शैली और भारतीय नाट्य शैली सभी के प्रयोग इनके नाटकों में देखने को मिलते हैं। डॉ. बच्चन सिंह ने कहा है कि ÓÓडॉ. लाल नाट्य कौशलों से पूरी तरह परिचित है लेकिन प्रयोग के उत्साह में उनका सम्यक समायोजन नहीं कर पाते। उनकी दूसरी दिक्कत है कि उनके पास कोई अपनी जीवनदृष्टि नहीं है। रह-रह कर प्रयोग साधन न होकर साध्य हो जाता है।
 इसी क्रम में नन्दकिशोर आचार्य के नाटक भी अपने कथ्य, नाट्य संरचना, आन्तरिक गठन और चरित्रों की जटिल सांकेतिकता में उल्लेखनीय है। देहान्तर नाटक से चर्चित नन्दकिशोर आचार्य के अन्य नाटकों में Óगुलाम बादशाहÓ, ÓपागलघरÓ, Óइमिइदम राक्षमÓ, व Óहस्तिनापुरÓ हैं इनके नाटकों की नाट्यभाषा व शिल्प की मौलिकता, सूक्ष्मता व नुकीलापन महत्वपूर्ण है। बहुत कम शब्दों में सघन और गहराई से अपनी बात कहते हैं। Óहस्तिनापुरÓ नाटक में सर्जनात्मक शिल्प प्रयोग, तीव्र द्वन्द्वात्मक लय और सूक्ष्म काव्यात्मक नाट्यभाषीय प्रयोग द्रष्टव्य हैं। इनके नाटक, निर्देशक और अभिनेता को चुनौती देने वाले हैं तथा रंगमंच का नवीन सौन्दर्यबोध रचते हैं। अन्य नाटकों में दयाप्रकाश सिन्हा का Óसीढिय़ांÓ, वर्तमान कुचक्रों के बीच आदमी की महत्वाकांक्षा और उसकी परिणति का मार्मिक चित्र खींचता है। जिंदादिली और रवानगी इस नाटक की प्रमुख विशेषता है।
 महिला नाटककारों में मन्नू भंडारी का ÓमहाभोजÓ (1982), उनकेउपन्यास महाभोज का नाट्य रूपान्तरण है। मृदुला गर्ग के Óएक और अजनबीÓ में पारिवारिक विघटन को मूर्त किया है। मृणाल पाण्डे का Óजो राम रचि राखाÓ एक प्रसिद्ध नाटक है। इसके अतिरिक्त Óमौज़ूदा हालात को देखते हुएÓ, दूसरा नाटक Óआदमी जो मछुआरा नहीं थाÓ हैं।
 निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि नाटक सिर्फ पात्र साहित्य नहीं है न केवल रंगमंच। नाटक के साहित्येतर भी विविध आयाम हैं जो रंगमंच से सम्बद्ध हैं, नाटक केवल नाट्य या वाच्य संवाद नहीं है न केवल शब्दबद्ध रचना और भाषागत अभिव्यक्ति। जो शब्द किसी अनुभूति को, स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं वे अभिनेता द्वारा उसकी सृजनात्मक प्रक्रिया से मंच पर रूपायित और मूर्त होते हैं। इसलिए नाटक को साहित्य और रंगमंच दो भागों में बांटकर नहीं देखना चाहिए।
 मोहन राकेश के अनुसार नाट्य और रंगमंच के लिए निश्चित सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किये जा सकते क्योंकि बदलते समय और समाज के सरोकारों व सवालों से रंगकर्म में भी निरन्तर बदलाव बना रहता है। ÓÓआज का रंगमंच पहले से कहीं अधिक निर्देशक का माध्यम बनता जा रहा है - नाटककार इसमें उपेक्षित होता जा रहा है। रंगमंच की पूरी प्रयोग प्रक्रिया में नाटककार केवल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं है।ÓÓ 
 आज शक्तिशाली व व्यापक इलेक्ट्रोनिक मीडिया के भयानक आक्रमण ने नाटक और रंगमंच के सामने जबरदस्त चुनौती उपस्थित कर दी है परन्तु हमें विश्वास करना चाहिए कि जीवन्त अनुभव का यह प्राचीनतम और प्रखर अभिव्यक्ति माध्यम अपने प्रयोगधर्मी चरित्र के कारण ही कोई न कोई नया रूपाकार लेकर, इस वर्तमान संकट का न केवल मुकाबला करेगा बल्कि नित नवीन, कल्पनाशील और प्रभावशाली बना रहकर अधिकाधिक प्रेक्षकों, पाठकों को अपने जादू से बांधे रखने में सफल भी होगा क्योंकि -
 ÓÓकल्पना की जीभ में भी धार होती है
 बांण ही होते विचारों के नहीं केवल
 स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।ÓÓ
सन्दर्भ सूची :-
1. आधुनिक भारतीय रंगलोक - जयदेव तनेजा (पृ. 35)
2. वही (पृ. 53)
3. रंगभाषा - गिरीश रस्तोगी (पृ. 46)
4. आधुनिक भारतीय रंगलोक -जयदेव तनेजा (पृ. 43)
5. वही (पृ. 9)
6. वही (पृ. 20)
7. वही (पृ. 33)
8. हिन्दी गद्य साहित्य - डॉ. रामचन्द्र तिवारी (पृ. 254)
9. आ.भा.रंग - (पृ. 53)


भूमण्डलीकरण और स्त्री विमर्श          

इस पुरुष प्रधान देश में नारी की स्थिति प्राचीन काल से ही बड़ी दयनीय और चिंताजनक रही है। नारी की स्थिति को दर्शाने के लिए कई साहित्यकारों ने सफल प्रयास भी किये हैं। इधर कुछ वर्षों से इसकी चर्चा अधिक होने लगी है, क्योंकि नारी लेखिकाओं ने इस दिषा में विशेष प्रयास किए हैं। उस वर्ग से संबंधित होने के कारण वे नारी मन को अधिक प्रामाणिक ढ़ंग से व्यक्त कर सकती हैं।
 भूमण्डलीकरण का प्रभाव स्त्री पर भी उतना ही पड़ा है, जितना पुरुष पर। भूमण्डलीकरण स्त्री को नए ढ़ंग से सोचने-समझने, विकास में सहयोग देने, आत्मनिर्भर बनने आदि में प्रेरणा प्रदान करता है। इसमें नारी अपने अस्तित्व को लेकर खड़ी हुई और इस पुरुषवादी सामाजिक संरचना के भीतर अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक हुई। ''स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है। भूमण्डलीकरण में स्त्री को 'स्त्रीÓ बनाने की प्रक्रिया तेज हुई है, लेकिन इस प्रक्रिया ने अनजाने में स्त्री के प्रति एक द्वन्द्वात्मक स्थिति पैदा कर दी है।ÓÓ1 
 भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के कारण स्त्री को काम के लिए क्षेत्र मिला है, फलत: वह शक्तिशाली और आत्मनिर्भर बनी है। उसकी सामाजिक भूमिका में परिर्वतन आया है। घर से बाहर जाने का अवसर मिला है तो दूसरी तरफ स्त्री पर इसका विपरीत प्रभाव भी पड़ा है। इसमें स्त्री श्रम का शोषण हुआ है, जिससे नई समस्याएँ भी उत्पन्न हुईं हैं। ''एक बहुत बड़े आर्थिक विस्तार की राजनीति में स्त्री को घर से बाहर निकालने और निकलने पर भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने मजबूर किया समाज और खुद स्त्री को, एक ओर जहाँ औद्योगिक विकास के लिए स्त्री की सबसे सस्ते श्रम के रूप में इस्तेमाल किया गया, वहीं दूसरी ओर कारपोरेट जगत में विज्ञापन के माध्यम से स्त्री द्वारा उत्पादों को बेचने के लिए उसका भोगपरक और परम्परावादी दृष्टिकोण बाजार ने अपनाया।ÓÓ2 नारी को किसी ऑफिस या संस्था में सेवा का मूल्य भी पुरुषों की अपेक्षा कम ही दिया जाता है। भले ही भूमण्डलीकरण ने नारी को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया है, परन्तु समस्त क्रियाकलापों को पुरुष ही नियंत्रित करता है।
 भूमण्डलीकरण के बाद सिर्फ व्यापार का आदान-प्रदान नहीं हुआ, बल्कि और कुछ सोची समझी तकनीकों से संस्कृतियों का आदान-प्रदान भी हुआ। कहीं-कहीं इन संस्कृतियों को स्त्री के संदर्भ में देखा जाए तो हम पाते हैं कि कुंठा, जड़ता, परम्परावादिता रहित जीवन पद्धति का आगमन विभिन्न विकासशील देशों में हो रहा है। जब एक देश की संस्कृति दूसरे देश की सरहद पार कर लोगों द्वारा अपनाई जाती है तो सामाजिक जीवन में विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ता है, वह हानिकारक है या लाभदायक, इसका विचार लोग बाद में करते हैं। जब पाश्चात्य सभ्यता को कोई पुरुष अपनाता है तो उसे आधुनिक समझा जाता है, परन्तु जब उसे स्त्री अपनाती हे तो समाज अनैतिकता का आरोप लगाता है। ''समाज सिर्फ लड़कियों को ही नैतिकता की तराजू पर तौलकर क्यों उसकी आजादी को छीनना चाहता है। आज भूमण्डलीकरण का ही परिणाम है कि स्त्री के प्रति शोषण, अमानवीय जैसे कदम के विरोध को लेकर विष्व भर में अलग-अलग रूपों में ही सही एक प्रकार की स्त्री एकता है, जो शायद बिना भूमण्डलीकरण के इतना आसानी से संभव नहीं हो पाती।3
 बजार का आंशिक रूप तो भूमण्डलीकरण के पहले भी मौजूद था। इसी ने अपने विस्तृत रूप को फैलाकर भूमण्डलीकरण के बाद स्त्री को वस्तु के रूप में इस्तेमाल होने की प्रवृत्ति को व्यापक आयाम दिया। जहाँ कोई देष अपने यहाँ स्त्री सशक्तिकरण की बात करता है, वहीं दूसरी ओर उसके वस्तु के रूप में इस्तेमाल होने पर गैर जिम्मेदाराना रूख अपनाए हुए है, जो इसका रास्ता बहसों तक सिमटाये हुए हैं। पहले तो स्त्रियों को बाहर कामकाज या नौकरी करने की पाबंदी थी, परन्तु भूमण्डलीकरण के प्रभाव ने इस दिशा में महिलाओं को प्रेरणा प्रदान की, जिससे नारी समृद्ध और स्वतंत्र हो गई। अपनी रोजमर्रा के खर्च के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। ''किसी जमाने में विदेश जाकर नौकरी करने वाले अधिकांश श्रमिक पुरुष होते थे, लेकिन भूमण्डलीकरण के कारण उनमें अब महिलाओं की एक बड़ी संख्या शामिल हो गई। इटली में 95 फीसदी आव्रजक फिलीपिन की औरतें हैं। इनमें से ज्यादातर घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल करती हैं।4 शारीरिक श्रम के अतिरिक्त भूमण्डलीकरण ने गैर शारीरिक श्रम का एक बहुत बड़ा क्षेत्र जो कामर्शियल फील्ड का दिया है। जहाँ स्त्री की भूमिका शारीरिक श्रम के आधार पर नहीं टिकती। शारीरिक श्रम की उम्मीद किसी भी समाज में स्त्री को लेकर परम्परागत रूप से बनी हुई है, लेकिन इतने बड़े स्तर पर कला, विज्ञान, सूचना, कम्प्यूटर और शारीरिक श्रम से स्त्री का जुड़ाव समाज की सोच में नहीं रहा। ये तो आज मानना ही पड़ेगा कि स्त्री को भूमण्डलीकरण ने इतना बड़ा स्टेज दिया है, जिससे उसने बड़े पैमाने पर विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों को अपनी ताकत सिद्ध करके दिखा दी है। सरकारी क्षेत्रों में जिस गति से स्त्री की संख्या बढ़ रही है, उससे कहीं ज्यादा निजी क्षेत्र में बढ़ रही है। ''भूमण्डलीकरण ने इस नई औरत को जन्म अवश्य दिया है, लेकिन एक नए मर्द को जन्म नहीं दे पाया, जो इस 'पॉवर वूमेनÓ के साथ नए तरीके से नर-नारी संबंधों का सिलसिला शुरु करता है।5 
 पुरुष और स्त्री का संबंध भी इससे प्रभावित हुआ है, जिससे परिवार में बिखराव, तनाव और अनेक सामाजिक परेशानियाँ उत्पन्न हो रही हैं। टूटते हुए संयुक्त परिवार इसका एक प्रमुख उदाहरण हैं। एक बात तो अवश्य है कि भूमण्डलीकरण ने स्त्री की माँ, बहन, देवी आदि संबंधों की आदर्षवादी छवि को तोड़ा है और आज वह आदर्शवाद से मुक्त एक स्त्री के अपने मनोभावों के रूप में कुछ हद तक दिखने लगी है। ''संयुक्त परिवार अब टूट रहें हैं, जिसके टूटने में भूमण्डलीकरण का भी दबाव है। ऐसा लगता है कि संयुक्त परिवार का टूटना स्त्री के लिए अच्छा ही साबित हुआ है, क्योंकि इतने बड़े परिवार का खाना, कपड़े की साफ-सफाई आदि का इतना बड़ा बोझ और साथ ही परम्परा के दबाव को सहना पड़ता है।6
 भूमण्डलीकरण से जो दोयम की स्थिति आई है, उसमें सबसे ज्यादा घाटा गरीब स्त्रियों का हुआ है। समाज, घरेलू, मजदूरी, वेश्यावृत्ति इन्हीं चारों के बीच इन स्त्रियों की पहचान सीमित रह गई है, जिसे भूमण्डलीकरण से हर हाल में घाटा ही हुआ है। इसके जिम्मेदार दोनों (स्त्री-पुरुष) ही हैं। भूमण्डलीकरण से स्त्रियों पर एक अत्याचार यह हुआ है कि स्त्री की पहचान, नौकरी आदि को उसके सौंदर्य से जोड़ दिया गया है। जब तक उसका सौंदर्य, आकर्षण युक्त है तब तक उसकी नौकरी है, सौंदर्य गया तो नौकरी गई। ''जिस साल अमेरिका में औरतों का आयोग बना, उसी वर्ष एक एयर होस्टेज को किसी एयर लाइन ने सिर्फ इस अपराध पर नौकरी से निकाल दिया कि वह 32 साल की हो गई थी और उसने शादी कर ली थी। यह दौर अमेरिकी नारीवाद का गरम दौर था, तो भी 1971 ई. में ऐसे कानून बने जो सुन्दरता को औरत की पात्रता मानकर चलते थे। सेंट क्रास बरक्स प्लेवॉय पत्रिका का केस बताता है कि प्लेवॉय ने सेंटक्रास को इसलिए निकाला, क्योंकि इस औरत की 'बन्नी इमेजÓ (खरगोशनी छवि) खत्म हो गई थी।ÓÓ7 इन संदर्भों से पता चलता है कि यह भूमण्डलीकरण स्त्री के पक्ष और विपक्ष दोनों में खड़ा नजर आता है। 
 भूमण्डलीकरण और स्त्री का जो आंतरिक और बाह्य संबंध है वह दोनों अर्थ में दिखाई देता है। जहाँ यह नारी को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करके शोषण, अत्याचार आदि के विरोध की ताकत पैदा करता है तो वहीं सौंदर्य के नाम पर स्वतंत्रता की इच्छा भी रखती है। अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचना आवष्यक है कि जिस प्रकार एक पुरुष अपनी अच्छाइयों और बुराईयों के साथ होता है। प्रत्येक मनुष्य एक जैसा नहीं हो सकता, उसी प्रकार ये सारी बातें स्त्री पर भी लागू होती हैं। सामाजिक नजरिये से भी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी। भूमण्डलीकरण ने नारी के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है, जहाँ से उसका उत्थान और पतन दोनों दिखाई पड़ते हैं।


संदर्भ सूची:-
1. कुमार भाष्कर, भूमण्डलीकरण और स्त्री, संजय प्रकाशन,   नईदिल्ली, संस्करण 2008, प्राक्कथन
2. वही
3. वही
4. वही, पृ. 14
5. वही, पृ. 25
6. वही, पृ. 44
7. दुवे अभयकुमार, भारत का भूमण्डलीकरण, वाणी प्रकाशन,   नईदिल्ली, पृ. 50


नासिरा शर्मा की कहानियों में सामाजिक चेतना और मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति      

समकालीन परिदृष्य में सामाजिक परिवर्तनों की चर्चा कहानी, उपन्यास, नाटक तथा साहित्य की अन्य विधाओं के माध्यम से की जाती रही है। समकालीन महिला कहानिकारों में प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में नासिरा शर्मा का नाम विषेष रूप से उल्लेखनीय है। महिला कहानिकारों में यद्यपि सभी महिला लेखकों की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। जैसे मैत्रेयी पुष्पा को यदि बुंदेलखण्ड की संस्कृति एवं वहाँ की शोषित एवं दमित स्त्रियों की अच्छी परख है तो, मालती जोशी को मध्यम वर्ग की महिलाओं के अंतर्मन की समझ। इसी प्रकार नासिरा शर्मा को जहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों संस्कृतियों का अच्छा अनुभव होने के साथ-साथ दोनों धर्मों तथा अन्य धर्मों की स्त्रियों की संवेदनाओं एवं मानवीय चेतना की गहरी अनुभूति भी है।
 नासिरा शर्मा की कहानियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों की गहराई से पड़ताल भी करती हैं। वर्तमान समय में स्त्री जीवन की अनेक विडम्बनाओं और सवालों को भी उठाती हैं।1971 के दशक में सारे बदलावों के बाबजूद, स्त्री की आर्थिक, सामाजिक स्थिति में कोई उत्साहजनक परिवर्तन नहीं हुआ। इस दशक के बाद भारत में नारीवादी आंदोलन की सक्रियता बढ़ी। बालिका भू्रणहत्या, लिंगभेद, नारी स्वास्थ्य और स्त्री साक्षरता जैसे विषयों पर भी नारी आंदोलनकारी सक्रिय हुए।1
 हिन्दी कहानी ने भी इस तथ्य को गंभीरता से लिया। इस दशक की एक विशेष प्रवृत्ति नारी आंदोलन का नया रूप ग्रहण करना है, जिससे कहानियों में स्त्री विमर्श केन्द्रीयता प्राप्त करने लगता है। ध्यातव्य है कि नारी नियति का चित्रण करने में कहानी लेखिकाएँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं, जिसमें नासिरा शर्मा प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती हैं।
 नासिरा शर्मा के कहानी संग्रह 'बुतखानाÓ की पहली कहानी नमकदान है। यह कहानी पति-पत्नी के संबंधों को बया करती है, जिसमें कहानी का नायक जमाल और नायिका गुल दोनों पति-पत्नी हैं। कहानी के अंत में जमाल कहता है, ''तुम आजकल नमकदान मेज पर क्यों नहीं रखती हो?ÓÓ गुल ने धीरे से कहा, ''ताकि नमक की अहमियत याद रहे।ÓÓ क्या मतलब? लोग नमक को भूलते जा रहे हैं। गुल ने कहा। मैं चलता हूँ, शायद शाम को घर लौटने में देर हो जाए तो परेशान मत होना। कहता हुआ जमाल नैपकिन से मुँह पोछता हुआ उठा और बाहर की तरफ बढ़ा। गेट के बाहर कार स्टार्ट होने की आवाज गुल के कानों तक पहुँची। जमाल जिस राह पर निकल गया है, वहाँ इतनी जल्दी वापसी मुष्किल है।2
''मुझे चश्मपोशी की आदत डालनी चाहिए। दूसरों की बुराई को नजर अंदाज करने में ही अब जिंदगी की भलाई है। सोचते हुए ठीक अब्बू के अंदाज में कुछ बोले। गुल सर झुकाए नाश्ता करती रही।3
 उपर्युक्त कथन से यह बात निकलकर आती है कि भारतीय समाज को उन सभी स्त्रियों को यह अपनी नियति मान लेनी चाहिए, जिसके पति जमाल जैसे लोग हैं, नहीं तो आए दिन विवाद होगा या संबंध विच्छेद। दोनों के लिए एक स्त्री को तैयार रहना पड़ेगा, क्योंकि इन सभी के पीछे एक पुरुषवादी मानसिकता कार्य करती है। हम पुरुष हैं, चाहे जो करें, परन्तु तुम स्त्री हो। पतिव्रत का पालन करना तुम्हारा धर्म है, परन्तु पत्निव्रत का पालन करना हमारा धर्म नहीं है, क्योंकि यह नियम हमने बनाये हैं।
 संग्रह की दूसरी कहानी का शीर्षक 'बुतखानाÓ है, जो फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ मंदिर या देवालय होता है। परन्तु यहाँ बुतखाना से तात्पय्र ऐसे स्थान से है, जहाँ सभी मानव, मनुष्य नहीं 'बुतÓ अर्थात् बेजान मूर्ति की भाँति हैं, जिसमें न कोई संवेदना है, न कोई भावना और न ही मनुष्यता। परन्तु इसके शाब्दिक अर्थ की ज्यादा पड़ताल न करते हुए कहानी के मूल कथ्य पर आते हैं, जिसमें लेखिका ने समाज की उस सच्चाई को व्यक्त किया है, जो कहीं न कहीं आधुनिक समय में स्पष्ट दिखाई दे रहा है। शीर्षक कहानी का मुख्य पात्र 'रमेशÓ है, जो छोटे शहर इलाहाबाद से महानगर दिल्ली में नौकरी के सिलसिले में जाता है। वहाँ पहुँचकर रमेश देखता है किस तरह मानवीय संवेदना दम तोड़ रही है। सभ्यता, संस्कृति और संस्कार भी जमीनदोह हो रहे हैं। शिक्षा बड़े व्यवसायियों का व्यवसाय मात्र बनकर रह गई है। रमेश एक दिन बस में यात्रा कर रहा था तो बस अचानक रूकी और देखते-देखते ही भीड़ इक_ी होने लगी। रमेश देखता है कि बस के नीचे एक युवक की लाश है। यह और कोई नहीं यह वही युवक है, जिससे एक दिन सिनेमा देखते समय मिला था। वह आगे बढ़ा तो कंडक्टर की सीटी गूँजी, चलो-चलो। शोर मचाती, गाली बकती भीड़, यंत्र चालित-सी सीटों पर जमने लगी। वह जड़-सा वहीं खड़ा रहा, किसी ने उससे धीरे से कहा-क्या? वह अपनी पहचान वाला था? वह क्या उत्तर दे। उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था।4 उसने कहा - मेरी मानिए तो फूट लीजिए। ड्राइवर-पुलिस जाने बेकार में आप फसियेगा। यह एक महानगरीय सभ्यता, मानवीय सोच के साथ उसकी सच्चाई को बया कर रहा था, क्योंकि हम सभी उसी भीड़ का हिस्सा बने रहना चाहते हैं, जो केवल मूक दर्षक हैं। आपस में कुछ छींटाकशी की और चलते बने, क्योंकि इसकी हमें आदत-सी बन गई है। हम प्रत्येक प्रश्न से बचकर निकलना चाहते है, हम सुरक्षित हैं, हमारे बीबी बच्चे सुरक्षित हैं और हमें क्या चाहिए? परन्तु यह सत्य नहीं है। आज जो सड़क पर दम तोड़ दिया वह कोई और नहीं, हमारे और आपके बीच का है।4 परन्तु संवेदनाएँ कहीं मर सी गई हैं। चाहे वह व्यर्थ के पचड़ों में न पडऩे के कारण या हम इतने आत्मकेन्द्रित हो गए हैं कि हम और हमारे परिवार के लोग सुरक्षित रहें बस। दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं है। इस आर्थिक जीवन की भाग-दौड़ में हमें पैसे के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता, चाहे वह मानवीय संवेदना हो या नैतिक मूल्य। सभी को हम तार-तार कर रहे हैं। कहानी का पात्र रमेश तमाम सवालों और जबावों के बीच गुजरता हुआ अंत में उसी बुतखाने की 'बुतÓ मात्र बन रह जाता है। नसिरा शर्मा 'अपनी कोखÓ कहानी में स्त्री की उस समस्या को उजागर करती हैं, जिसका स्त्री प्राचीनकाल से ही सामना कर रही है। यह प्रश्न है स्त्री के पहचान का, यह प्रश्न है स्त्री के अस्तित्व का और यह प्रश्न है उसके अधिकार का। जिसका यह पुरुष समाज सत्तात्मक समाज हमेशा से गला घोटता आया है। यद्यपि आज हम बात करते हैं समानता, समान अधिकारों, बराबरी का दर्जा देने की और सबसे बड़ी बात कि लड़के-लड़की में भेद न करने की। क्या हम आज 21 वीं सदी में इस मानसिकता से बाहर आ पाए हैं, कि लड़की हो या लड़का उसमें कोई अंतर नहीं है। यदि हम इसकी पड़ताल करें तो पायेंगे कि कुछेक परिवर्तनों के साथ उसमे कोई अंतर नहीं, बल्कि सोच जस की तस बनी हुई है।
इन्हीं बातों और विचारों को व्यक्त करती है यह कहानी 'अपनी कोखÓ। इसके पात्र साधना, संदीप और सरिता हैं। इस कहानी की मुख्य पात्र साधना एम.ए. में सर्वोच्च अंक जाना चाहती है, परन्तु उसके घर वाले अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं। साधना विवाहित होकर जब ससुराल आती है तो उसके सपने जमीनदोह होने लगते हैं। अब शुरु होती है उसकी वास्तविक लड़ाई। सास को अपनी बहू की गोद हरी-भरी चाहिए, वह भी बेटे से। परन्तु साधना के बच्ची के आगमन से जैसे सम्पूर्ण खुशियाँ काफूर हो गईं। अभी सरिता छ: माह की ही थी। साधना फिर गर्भवती हो गई, परन्तु साधना की सास को पुत्र चाहिए, क्योंकि पुत्र ही परिवार का तरण-तारण करता है। ऐसी मान्यता हम बनाये हैं, परन्तु साधना ने इस बार भी पुत्री को ही जन्म दिया तो उसकी सास को जैसे साँप सूँघ गया। तीसरी बार जब साधना को पता चला कि इस बार उसके गर्भ में पुत्र पल रहा है, इस खबर ने साधना को भी अत्यन्त खुषी प्रदान की।5 परन्तु एक प्रष्न साधना के मन को लगातार व्यथित कर रहा था। यदि लड़का पैदा हुआ तो मेरी दोनों लड़कियों को निगल जाएगा। अनगिनत प्रश्नों और उत्तरों से जूझती साधना अपने मन-मस्तिष्क के ऊहापोह से निकलने में कामयाब हो गई और संवेदना के उस बिन्दू पर जाकर अटक गई कि लड़के-लड़कियों में भेद करने वाला यह समाज तब तक बलवान बना रहेगा जब तक नारी उसके इशारों पर चलती रहेगी। कोख उसकी अपनी कोख है, चाहे वह बच्चा पैदा करे, चाहे पैदा न करे। चयनकर्ता वही है। अगर वह मर्दों को पैदा करना बंद कर दे तो इस समाज का क्या होगा? जिसके ठेकेदार अपनी ही जननी के विरोध में हत्याओं का काफिला बना रहे हैं। कानून तो वह बनाते है पर पारित औरतों पर करते हैं और हम औरतें भी उसकी भागीदार बन अपनी मानिसकता खो संज्ञा शून्य बन जाते हैं और अपने ही विरोध में खड़ी हो जाती हैं, परन्तु साधना अपने विरोध में नहीं खड़ी होगी। यह जीवन उसका है, इस जीवन को अपनी इच्छा से आकार देगी। अपनी जमीन ही नहीं अपने आसमान को भी खुद नापेगी, यही तो उसके एक स्वतंत्र स्त्री होने की पहचान है। वह इस पहचान को बरकरार रखेगी और पूरी दुनिया को दिखायेगी। अपनी बेटियों के सपनों को पंख देने के लिए साधना बेटे का गर्भपात करेगी, उसने निश्चय कर लिया। 'इस प्रकार यह कहानी बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कथन को भी सार्थक करती है। यह कहानी इसके साथ-साथ नारी मन तथा उसके मनोविज्ञान को खोलती है।
 इस प्रकार नासिरा शर्मा की कहानियाँ स्त्री मनोविज्ञान के साथ-साथ उसके अन्तर्मन को परत-दर-परत खोलती हैं। इसके अतिरिक्त मानवीय संवेदनाओं एवं मनुष्यता को उजागर करती हैं। इनकी कहानियाँ सामाजिक चेतना, मानवीय संवेदना और इंसानी जटिल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का दस्तावेज हैं। यह वर्तमान समय की विषमताओं को इस सहजता से पिरोती हैं कि इंसानी ललक पात्रों में बाकी ही नहीं रहती, बल्कि टूटे रिश्तों और बदलते मानवीय मूल्यों और सरोकारों की कचोट पाठकों को गहरी तपकन का एहसास देती हैं।
संदर्भ सूची :-
1. हिन्दी कहानी का इतिहास, डॉ. गोपालराय, राजकमल प्रकाशन,  पृ. 122
2. 'बुतखानाÓ संग्रह, नमकदान कहानी, नासिरा शर्मा, लोकभारती   प्रकाशन, नईदिल्ली पृ. 15,
3. वही, पृ. 16
4. बुतखाना, पृ. 48,49
5. 'अपनी कोखÓ कहानी, पृ. 22
6. वही, पृ. 27,28


मिथिलेश्वर की कहानियों में स्त्रियों की दशा      

 प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ़ थी, परिवार तथा समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त था। उसे  देवी सहधर्मिणी, अद्र्धांगिनी माना जाता था। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान होता तो पुरुषों के बराबर स्त्रियों की भी सहभागिता रहती थी। यद्यपि उस समय भी अरून्धती लोपामुद्रा और अनुसूया आदि नारियाँ देवी रूप में प्रतिष्ठित थीं।
 मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति मेें अधिक गिरावट आयी और महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया तथा बहुत सारी कुप्रथाओं ने अपना पाँव पसार लिया। जैसे - शिक्षा से वंचित कर दिया, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह जैसी वीभत्स प्रथाओं ने स्त्रियों की मन:स्थिति को झकझोर कर रख दिया। इसके बावजूद स्त्रियों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हुई दिखाई पड़ती है। आज भारतीय समाज में स्त्री अपने अपराजेय जीवन शक्ति के बल पर सदियों के बंधन तोड़कर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रही है और बहुत से सम्मानित पदों को सुशोभित कर रही है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में स्त्रियों की दशा में बहुत परिवर्तन दिखलाई नही ंपड़ता। यहाँ हमें स्त्रियों की समानता का झूठा व्यवहार ही समझ आता है। स्त्रियों की मन:स्थिति का उनके पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक दशा का सही ज्ञान मिथिलेश्वर की कहानियों में दिखाई पड़ता है। मिथिलेश्वर बिहार के ग्रामीण परिवेश के कहानीकार हैं, इसी कारण से इन्होंने अपने कहानी के माध्यम से ग्रामीण परिवेश में लम्बे-लम्बे घूँघट काढ़कर घर की चहारदीवारी में घुटने वाली स्त्रियों को साहित्य के केन्द्र में लाने का सफल प्रयास किया है। मिथिलेश्वर की रचनाओं में हाशिए पर जीने वाली भारतीय ग्रामीण स्त्रियों का यथार्थ चित्र दिखाई पड़ता है। इनके नारी पात्रों में संघर्ष करती हुई, सुनयना, राधिया नरेश बहू, बुधनी सावित्री दीदी, झुनिया इत्यादि दिखाई पड़ती हैं। स्त्रियों का अनेक कारणों से सदियों से शोषण और उत्पीडऩ का शिकार होती रही हैं। ऐसी कुछ कहानियाँ - सावित्री दीदी, थोड़ी देर बाद तिरिया जन्म, रात शांता नाम की एक लड़की और संगीता बनर्जी में स्त्रियों के शोषण और उत्पीडऩ का यथार्थ चित्र उकेरा गया है।
 मिथिलेश्वर जैसे गंभीर सूक्ष्मदर्शी और अन्तर्दृष्टि सम्पन्न लेखकर स्त्रियों की दशा और उनके टूटते हुए सपनों को अनुमानित कर समाज के समक्ष चुनौती के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
 'थोड़ी देर बादÓ कहानी में कॉलेज की फीस न दे पाने वाली लड़की की मजबूरी का फायदा उसका सहपाठी अमीर लड़का उठाता है। सहयोग का आश्वासन देकर होटल में उसके साथ दुव्र्यवहार करता है, जब लड़की को गलती का एहसास होता है तो वह ''काँपती हुई आवाज में कहती है यह क्या हो गया? लड़का समझाता है, आप बेकार घबरा रही हैं। आज के युग में यह सब वर्जित नहीं।ÓÓ1 विवशता की यही मनोदशा 'गाँव का मधेसरÓ कहानी में देखने को मिलता है, जब राधिया का बाप उसको हम उम्र के हाथ बेचता है तो राधिया को घर से भागने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं सूझता।
 दहेज का भयंकर अभिशाप शहरों की अपेक्षा गाँवों में अधिक प्रलयकारी रूप धारण कर चुका है। दहेज की भयावह स्थिति ने लड़कियों के जीवन को बद से बदतर बना दिया है। भारत सरकार का दहेज निरोधक कानून जैसे केवल कानून बनकर रह गया हो, दहेज उत्पीडऩ से आये दिन स्त्रियों की हत्या हो रही है। मिथिलेश्वर की कहानी 'जमुनीÓ में बेटी रतिया के विवाह में कर्ज लेकर बाप जिउत और उसका भाई सरभू मालिक के पास वर्षों तक बनिहार और चरवाह बने रहते हैं फिर जमुनी भैंस का दूध बेचकर कर्ज से मुक्त होते हैं। रतिया के गौने के अवसर पर पाहुन और गवनहारी को भरपेट खिलाकर बक्सा ट्रंक, झापी-झपोला, पलंग पोशाक आदि से भरी दो बैलगाडिय़ाँ एक चितकबरी गाय दहेज स्वरूप भेजी गईं। 'सावित्री दीदीÓ कहानी में दहेज का एक भयावह रूप सामने आता है कि दहेज के कारण सावित्री को आत्महत्या करनी पड़ती है, लड़की होने की सजा उसे जान देकर चुकानी पड़ी। सावित्री की माँ आए दिन उसको गालियाँ देते हुए कहती है, 'मर जाना चाहिए इस कुलक्षणी को इसका भर्तार ही नहीं है इस दुनिया में बाप-भाई इसके चलते दरवाजे-दरवाजे मारे फिर रहे हैं। इसे जहर खा लेना चाहिए, जीकर क्या करेगी यह हरामजादी, जब बाप-भाई को कंगाल बना देगी हे भगवान ! तू इसे उठा ले तीनों कुल तर जायेंगे।ÓÓ2 इस कहानी में लेखक द्वारा यह चित्रित किया गया है कि ठीक ढ़ंग से चलने वाले घरों के लड़कों के अभिभावक शोषक हो गए हैं और शोषित बेचारी लड़कियाँ हो रही हैं। 'तिरिया जनमÓ कहानी में मिथिलेश्वर बहुत मार्मिक और तार्किक ढ़ंग से अपने विचार प्रकट किये हैं तथा दहेज की समस्या पर चोट करते हुए बताते हैं कि सुनयना के शादी के समय घर वाले वर खरीदने में सस्ता ढ़ूँढ़ रहे थे, लेकिन भाइयों के समय स्थिति विपरीत थी। खूब मोलभाव किया जा रहा था। इस भारतीय समाज में विशेषकर गाँवों में लड़की और लड़कों में भेद क्यों किया जाता है? लड़कियों को बोझ माना जाता है। सुनयना को याद है, ''उसके बाबा कहा करते थे कि शास्त्र में भी लिखा है कि पुत्री के जन्म होने पर धरती एक बिस्वा नीचे धँस जाती है और पुत्र के जन्म होने पर एक बिस्वा ऊपर उठ जाती है।ÓÓ3 इसी कहानी में मिथिलेश्वर यह बताने का प्रयास करते हैं कि समाज में पुरुषों का कितना अधिक वर्चस्व है कि स्त्री को सही होने पर भी उसे गलत ठहराते हैं। सुनयना को जब संतान नहीं होती तो वह अपना और अपने पति का डॉक्टर से जाँच कराती है। रिपोर्ट में सुनयना शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ है। कमी उसके पति में है, लेकिन उसका पति सुनयना को लताड़ लगाते हुए कहता है कि ''साली ने डॉक्टर के पास ले जाकर बेइज्जत किया, साला डॉक्टर क्या कहेगा? भला मर्द में दोष होता है, बाँझ तो औरतें होती हैं।ÓÓ4 अर्थात पुरुष शारीरिक रूप से असमर्थ होते हुए भी समक्ष है और स्त्री पूर्ण रूप से सक्षम होते हुए भी असक्षम हैं।
 नारी जीवन की विभीषिकाओं में बलात्कार सबसे निकृष्ट कृत्य माना जा सकता है। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, समाचार चैनलों आदि कई माध्यमों से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक भारत में बलात्कार की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। मिथिलेश्वर ने 'चर्चाओं से परेÓ कहानी में सरना की पत्नी की वेदना को व्यक्त किया है, जो गाँव के बाबुओं, पहाड़ी ढलान पर चोर और शहर जाकर कई अन्य बाबुओं द्वारा इतनी बार बलाकृत्य होती है कि अन्तत: शारीरिक बीमारी के कारण उसका सुंदर शरीर कुत्सित और जीर्ण हो जाता है। इसी प्रकार 'भोर होने से पहलेÓ कहानी में गरीब नौकरानी बुधनी को उसके मालिक के बेटे बलात्कार करते हैं और घर के बड़े मालिक रविकांत अपना दुख प्रकट करते हुए कहते हैं कि ''इन छोकरों ने हमें कहीं का रहने नहीं दिया। अब हम गाँव में कौन-सा मुँह दिखायेंगे। बुधनी का क्या होगा?5 'रातÓ कहानी में बनिहार की मृत्यु के बाद उसकी बेटी झुनिया को बाबू जोगिन्दर सिंह और उसके यार-दोस्त सामूहिक बलात्कार करते हैं।
 ग्रामीण समाज के पत्नी को सम्पत्ति समझा जाता है। पुरुष-स्त्री को वस्तु की भाँति भोग करता है। पति के पत्नी पर अत्याचार करने पर भी पत्नी उसका सम्मान करती है। 'तिरिया जनमÓ कहानी की ''सुनयनाÓÓ को भी अपने मायके की कुछ बहुओं की याद आती है। उसने देखा था मर्द निर्दयता से उन्हें पीटते हैं, लेकिन मर्द द्वारा पीटे जाने के कुछ देर बाद वे मर्द के पास जाकर तेल मलने लगती थी, पीटे जाने के प्रति कोई रोष नहीं।6 'नरेश बहूÓ एक ऐसी औरत की कहानी है, जो अपने सासू और पति के अत्याचार के कारण अपना गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में शरण लेती है और वहाँ उसकी रक्षा अवश्य होती है, लेकिन सुरेन्दर और लहठन चौधरी जैस मनचले कामुक शोहदों से उसकी रक्षा करने में असमर्थ रहते हैं।
 ग्रामीण परिवेश में बाँझ औरत के जीवन को कष्टमय और लांछित बना दिया जाता है। 'तिरिया जनमÓ कहानी सुनयना के विवाह के कई वर्षों के बाद जब संतान नहीं हुई तो बाँझ करार दे दिया गया, लेकिन जब डॉक्टर से जाँच करायी तो कमी उसके पति में ही मिली। इसके बावजूद भी उसका पति दूसरी शादी करता है। ''सुनयना को अजीब लगता है। पति बच्चा पैदा करने में अक्षम है, फिर भी दूसरी पत्नी उतारने की तैयारी में लगा है। औरतें कितनी सस्ती हो गईं। यह कैसा ग्रामीण समाज है, जहाँ पुरुषों पर दोष विचार ही नहीं किया जाता।7
 लेखक स्पष्ट करते हैं कि चिकित्सीय उपचारों से अज्ञान ग्रामीण स्त्रियाँ अपने बाँझपन से मुक्ति के लिए ओझा-गुनियों के चक्कर लगाती है, झाड़-फूक, जादू-टोना, बलि और मनौतियों के दलदल में धसती जाती हैं। ओझाओं के  दोगलेपन को उन्होंने 'अजगर करने न चाकरीÓ कहानी में उजागर किया है। तिवारीडीह के देवधाम में आयोजित तिरिया मेले का वर्णन करते हुए बताते हैं कि इस मेले में संतान की आस में रात-रात तक पड़ी रहने वाली औरतों के साथ पास के खेतों में ओझाओं और मुस्तंडों द्वारा संभोग क्रिया को अंजाम दिया जाता है। पति की शारीरिक कमी की अस्वीकृति मिलने पर संतान प्राप्ति का सारा दायित्व पत्नी के माथे पर मढऩे वाले समाज में बेवस पत्नियाँ पर पुरुषों के साथ धार्मिक आड़ में अनैतिक शारीरिक संबंध बनाकर बाँझपन के कलंक से मुक्ति का प्रयास करती हैं। इन संवेदनशील प्रसंगों को मिथिलेश्वर की लेखकीय ईमानदारी व सजग दृष्टिकोण ने निर्भीक अभिव्यक्ति दी है। मिथिलेश्वर जैसे समाजधर्मी कलमकार केवल सामाजिक समस्याओं का कच्चा चि_ा प्रस्तुत कर अपने कर्तव्य का पूर्ण निर्वहन ही नहीं समझते, बल्कि कई अन्य रचनाओं में नारी की मुक्ति का स्वर बुलंद करते हैं। स्त्री की दशा का यथार्थ चित्रण करते हैं। 'रास्तेÓ कहानी में प्रोफेसर शरण के माध्यम से लेखक का दृष्टिकोण पाठकों को प्रेरित करता हैं ''इस देष में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के आत्मनिर्भर होने की ज्यादा जरूरत है। तभी वे नारी होने की नियति और विडम्बना से मुक्त हो सकती हैं।ÓÓ8
संदर्भ सूची :-
1. मिथिलेश्वर, मिथिलेश्वर की प्रतिनिधि कहानियाँ 'थोड़ी देर बादÓ,  प्रथम संस्करण, राजकमल प्रकाशन, नईदिल्ली, 1989, पृ. 146
2. मिथिलेश्वर, मिथिलेश्वर की प्रतिनिधि कहानियाँ 'सावित्री दीदीÓ,  प्रथम संस्करण, राजकमल प्रकाशन, नईदिल्ली, 1989, पृ. 136
3. मिथिलेश्वर, मिथिलेश्वर की प्रतिनिधि कहानियाँ 'तिरिया जनमÓ,  प्रथम संस्करण, राजकमल प्रकाशन, नईदिल्ली, 1989, पृ. 67
4. वही, पृ. 77
5. मिथिलेश्वर एक और मृत्युंजय, 'भोर होने से पहलेÓ, दूसरा   संस्करण, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2016, पृ. 39
6. मिथिलेश्वर, मिथिलेश्वर की प्रतिनिधि कहानियाँ 'तिरिया जनमÓ,  प्रथम संस्करण, राजकमल प्रकाशन, नईदिल्ली, 1989, पृ. 74
7. वही, पृ. 78
8. मिथिलेश्वर भोर होने से पहले कहानी संग्रह 'रास्ते, प्रथम   संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पृ. 108


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Aksharwarta International Research Journal, March 2024 Issue