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Sunday, October 25, 2020
लोकोपकार मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिए – प्रो शर्मा राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ हमारे समय, साहित्य और संस्कृति के सरोकारों पर मंथन
पहचान (कहानी)
उस रोज़ भी मैं बाकी दिनों की तरह वहाँ से गुज़र रहा था।पर आज वहाँ कुछ भीड़ लगी थी।मैंने एक दफा चलते-चलते ही झाँक के देखा पर रुका नहीं। आगे बढ़ा तो कानों में किसी की आवाज़ आयी, “बेचारा जवानी में ही बेमौत मारा गया।लगता है कोई अपनानहीं है इस बेचारे का। अब तक कोई लेने भी नहीं आया।दो घंटे से यहाँ लाश पड़ी है। अब पुलिस आएगी तो लेकर जाएगी”।
एक दफा मन हुआ कि देखूं कौन है पर देर हो रही थी सो अपने रास्ते निकल गया। दफ़्तर पहुँच के काम में लग गया। दिन भर काम करके बुरी तरह थक गया था। सीधे घर के लिए निकल गया। घर पहुंचा तो बच्चे शोर मचा रहे थे। मुझे देखते ही पास आये और गले लग गए। थोड़ी देर में हाथ मुंह धो कर तैयार हुआ। तब तक पत्नी शाम की चाय और बिसकिट्स लेकर आ गयी। मैं चाय बिसकिट्स खाते हुए टीवी देखने लगा।
हिंदुस्तान में एक आम हिंदुस्तानी की यही दिनचर्या है। सुबह उठो तैयार हो कर नाश्ता करो फिर दफ़्तर के लिए निकल जाओ। शाम तक वापस आओ। इतवार को छुट्टी मिली तो बीवी बच्चों के साथ बाहर घूम आओ।बस यहीं रोज़ की कहानी है। पर मैं अपनी नौकरी और अपने छोटे से परिवार में बहुत खुश हूं। अच्छी सी एक नौकरी है। मेरा और घर गृहस्थी संभालने वाली एक सुशील पत्नी है, एक पाँच वर्ष की बेटी और दो वर्ष का बेटा। एक हँसता-खेलता परिवार।
चैनल बदलते हुए टीवी देख रहा था। कुछ खास प्रोग्राम आ नहीं रह था। तो न्यूज़ लगा लिया। न्यूज़ आ रही थी –“फेमस फ़िल्म लेखक समीर की घर के पास सड़क दुर्घटना में मौत”......न्यूज़ देखते ही चक्कर आने लगा। हाथ से रिमोट छूट के ज़मीन पर गिर पड़ा। और मैं वही बेहोश हो कर गिर गया। थोड़ी देर में होश आया तो देखा आपने कमरे में पलंग पर लेटा हूं। बीवी सिर की मालिश कर रही है और दोनों बच्चे सहमे से पास में खड़े थे। न्यूज़ की याद आयी तो आंख भर आयी। तुरंत उठ बैठा और अपनी पत्नी से रोते हुए बोला, “अंजना, समीर….अपना समीर……..”बात भी पूरी नहीं कर पाया। रोते-रोते हिचकिया बंधने लगी। समीर कई महीनों के बाद घर आने वाला था। वो चुपचाप आ कर हमें चौकना चाहता था पर रास्ते में एक्सीडेंट होने के कारण वो हमें सदा के लिए छोड़ कर चला गया। और मैं मूर्ख पास से गुजर कर भी उसे दिन भर अस्पताल में छोड़ कर आनंद से दिन व्यतीत कर रहा था। हाँ सही समझाआपने, वो लाश समीर की ही थी जिसके बारे में लोग सुबह को बात कर रहे थे।
अंजना, “ (रोते हुए) मुझे पता है। हम अभी समीर को हॉस्पिटल से लेने जाएंगे”।
दोनों बच्चों को परोसी के यहाँ छोड़ कर हम दोनों कार से अस्पताल की ओर निकल पड़े। रास्ते में मुझे सारी बातें याद आने लगी और मैं यादों की गहराई में खोने लगा।
पाँच साल पहले………
समीर, “ भईया मैं मुम्बई जाना चाहता हूं। मुझे अपनी एक पहचान बनानी है। इसके लिए मुझे इस छोटे से शहर से बाहर निकलना ही पड़ेगा। मैं अपनी लिखी कहानी पर फ़िल्म बनते हुए देखना चाहता हूं। जब भी बाहर निकलूं लोग कहेंगे कि ये देखो ये तो प्रसिद्ध फ़िल्म लेखक समीर है। और मुझसे ऑटोग्राफ लेने के लिए भीड़ लग जायेगी”।
मैं, “ ठीक है भाई, जाओ जहां भी जाना है। अपनी पहचान बनाओ, एक नाम बनाओ। हम तो ठहरे आम आदमी कमसे कम तुम अपने सपने को ज़रूर हासिल करो। मैं कल ही टिकट का इंतज़ाम करता हूँ”।
समीर, “थैंक यू भैया”, बोल कर गले लग गया।
समीर मेरा छोटा भाई, बचपन से ही लिखने का शौक है इसको। कई प्रतियोगिता जीती और अब फ़िल्म लेखक बनना चाहता है। मैं समीर को बहुत प्यार करता हूं और उसकी हर एक इच्छा पूरी करना चाहता हूं।अगले सप्ताह मैं खुद उसे मुम्बई छोड़ आया। उसके रहने खाने की सारी व्यवस्था कर दी थी। अब उसकी अपनी पहचान उसे खुद बनानी थी। समय बीतता गया। दो वर्षों में ही वह प्रसिद्ध फ़िल्म लेखक समीर बन गया। लोग हमारे घर आते जब भी समीर मुम्बई से आता। भीड़ उमड़ पड़ती समीर को देखने को। किसी अभिनेता से कम प्रसिद्ध नहीं था वह। पिछले पाँच वर्षों में वह अपनी एक पहचान बना चुका है और करीब 20 फ़िल्मों को लिख चुका है जो कि पर्दे पर बहुत सफल भी रही।
“पिप्प……पी..पिप्प……..”हॉर्न की आवाज़ से मैं वर्तमान में लौट आया। देखा हम अस्पताल पहुंचने वाले थे।अस्पताल के बाहर बहुत भीड़ जमा थी। सब समीर से आखिरी बार मिलने आये थे। वहाँ मेन गेट पे ही दो पुलिस वाले मिले। वो हमें सीधा अंदर ले गए जहां एक बेड पर समीर की बेजान लाश पड़ी थी। सारी औपचारिकता पूरी करके हम समीर को ले कर घर आ गए। रात हो चुकी थी सो दाह संस्कार कल किया जाना था। उस रात आंखों में नींद नहीं थी। समीर की लाश के पास ही बैठे रात कट गयी।
गया के उस छोटे से शमशान घाट पर उस दिन सैकड़ों लोग आए थे उसकी विदाई के लिए। बड़े-बड़े अभिनेता, अभिनेत्री, फिल्मनिर्देशक और शहर के बच्चे से लेकर बूढ़े तक। सभी की आंखें भरी हुई थी। मैंने समीर के शव को अग्नि दी। शाम को लौटते समय सोच रहा था समीर ने पाँच वर्षों में अपनी छाप छोड़ दी। हर कोई उसे पहचानता है और उसकी वजह से हमें भी।
आज समीर की मौत को 3 महीने हो गए हैं। हम मुम्बई आये हुए हैं। समीर को “श्रेष्ठ लेखक” का पुरस्कार मिल रहा है। उसे लेने के लिए हमें बुलाया गया है।पुरस्कार देते समय मुझसे अनुरोध किया गया कि मैं समीर के बारे में कुछ बताऊं। मैंने माइक लिया और बोलना शुरू किया, “ समीर..मेरा छोटा भाई, अपने नाम की तरह ही शांत और हवा की तरह ही दृढ़ संकल्प का व्यक्ति था। उसे अपनी पहचान बनानी थी और उसने बनाई भी। कहते हैं जो अच्छे लोग होते हैं उन्हें भगवान जल्दी ही अपने पास बुला लेते हैं। उसी तरह समीर को भी जल्दी ही जाना पड़ा। समीर की लिखी कुछ पंक्तियाँ सुनाना चाहूँगाजो समीर ने दसवीं कक्षा में लिखा था –
“मैं,तुम्हारी पहचान,तुम्हें अपनों से, इस दुनिया से जोड़े रखूंगा।
भले ही तुम चले जाओ, मैं तुम्हारी याद को बनाये रखूंगा।
जीवन-मरण तो प्रकृति के नियम है,इसे कौन रोक पाया है?
पर इस नश्वर संसार में,मैं तुम्हें अमर बनाये रखूंगा”…………..”।
बहुत देर तक तालियाँ बजती रही जब मैंने बोलना बंद किया। जब पुरस्कार ले कर लौट रहा था तो ऐसा लगा, भीड़ में समीर खड़ा मुस्करा रहा है। उसे देख आँखें भर आयी और मैं भी मुस्करा दिया।
कविता...
राजभाषा के लिए जिन्हें जेल और लाठियाँ मिलीं : श्यामरुद्र पाठक
हिन्दी के प्रचार- प्रसार के नाम पर हिन्दी के तथाकथित विद्वानों को प्रतिवर्ष सैकड़ों पुरस्कार और सम्मान दिए जाते हैं। किन्तु इन हिन्दी सेवियों से अलग एक ऐसा व्यक्ति भी देश में मौजूद है जिसने अपनी शानदार शैक्षिक योग्यता के बावजूद सुख और समृद्धि का नहीं, अपितु हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष का रास्ता चुना। जो हिन्दी के लिए लाठियाँ खाता है, अनशन और सत्याग्रह करता है और आजाद भारत में भी हिन्दी के वाजिब अधिकार के लिए जेल जाता है। जिसे कभी कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला। हाँ, लाठियां और जेल की हवा जरूर मिली किन्तु कभी हार नहीं माना। इस योद्धा का नाम है श्यामरुद्र पाठक।
श्यामरुद्र पाठक का जन्म बिहार के सीतामढ़ी जिले के बथनाहा गाँव में 24 अक्टूबर 1962 को हुआ था। उनके पिता एक अध्यापक थे। इनकी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव के विद्यालय में ही हुई। 1974 में राँची के समीप प्रसिद्ध नेतरहाट विद्यालय में प्रवेश लिया। 1979 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा बिहार बोर्ड में रजत पदक के साथ उतीर्ण की।1980 में आईआईटी प्रवेश परीक्षा (IIT-JEE) में बैठे और पहली कोशिश में ही सफल हुए। आईआईटी दिल्ली में उन्होंने पंचवर्षीय एकीकृत एम. एस. (भौतिकी) पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया। 1985 के गेट में 99.89 परसेन्टाईल अकों के साथ उन्होंने सम्पूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त किया। श्यामरुद्र पाठक ने आईआईटी दिल्ली से ही ऊर्जा अध्ययन में एम. टेक. भी किया।
अपने हिन्दी प्रेम के कारण उन्होंने आईआईटी दिल्ली में बी.टेक. के अन्तिम वर्ष की परियोजना रिपोर्ट हिन्दी में लिखी। परियोजना रिपोर्ट ( शोध- प्रबंध ) अस्वीकार कर दिया गयी। वे अपनी मांग पर अड़ गए. संस्थान ने भी डिग्री देने से मना कर दिया। मामला संसद में पहुँचा और भगवत झा आजाद ने यह मुद्दा संसद में उठाया तब जाकर कहीं बात बनी और उन्हें अपनी परियोजना रिपोर्ट हिन्दी में जमा करने की अनुमति मिली।. इतना ही नहीं, दीक्षान्त समारोह के समय जब श्यामरुद्र पाठक ने देखा कि डिग्री तो केवल अंग्रेजी में दी जाती है तो उन्होंने केवल अंग्रेजी में छपी डिग्री लेने से इनकार कर दिया और घोषित कर दिया कि यदि उन्हे डिग्री अंगेरजी में मिली तो वे उसे डिग्री देने वाले के सामने ही फाड़ देंगे। दीक्षान्त समारोह में मुख्य अतिथि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी थे। प्रशासन ने श्यामरुद्र पाठक को समझाया कि इस वर्ष वे हो जाने दें अगले वर्ष से उपाधि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपेगी। किन्तु श्यामरुद्र पाठक अपने निर्णय पर अडिग थे। अंत मे दीक्षान्त समारोह की तिथि टालनी पड़ी और राजीव गाँधी से दूसरी तिथि लेनी पड़ी। उस वर्ष हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में अलग अलग उपाधि दी गई।
उपाधि पाने के बाद श्यामरुद्र पाठक के सामने देश- विदेश के अनेक बेहतर अवसर उपलब्ध थे। उन्हीं के सहपाठी रहे भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम जी. राजन का उदाहरण सबके सामने है। किन्तु श्यामरुद्र पाठक के जीवन का उद्देश्य पद, प्रतिष्ठा और पैसा कमाना नहीं था। उन्हें तो ‘पूरी आजादी’ पाने के लिए लड़ाई लड़नी थी।
उन दिनों श्यामरुद्र पाठक के जीवन का एक मात्र मिशन था सभी आईआईटी में प्रवेश के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता समाप्त करवाना, जिससे कि सरकार की व्यवस्था के तहत इस परीक्षा का पाठ्यक्रम अलग- अलग भारतीय भाषाओं में 11वीं व 12वीं में पढ़ रहे छात्रों के साथ हो रहा अन्याय समाप्त हो. इस निमित्त आईआईटी दिल्ली के अन्दर अपने दो तीन वर्षों के प्रयासों को फलीभूत न होता हुआ देखकर ही इन्होंने अपना उपर्युक्त शोध प्रबंध हिन्दी में लिखने की ठानी थी जिससे कि या तो अंग्रेजी के दुर्ग से एक ईंट खिसक सके अगर हिन्दी में लिखा उनका शोध प्रबंध स्वीकार हो जाए, नहीं तो विश्व समुदाय के सामने यह प्रदर्शित हो सके कि भारत एक ऐसा अन्यायकारी देश है, जहाँ विदेशी भाषा अंग्रेजी की बेदी पर वहाँ की प्रतिभाओं की बलि चढ़ाई जाती है.
उन्होंने 1986 से 1989 के बीच दो बार आईआईटी दिल्ली से केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक अपने मित्रों के साथ पद-यात्रा की और कई बार उस मंत्रालय के समक्ष धरना और उपवास किया. इन उपवासों में 1988 का पाँच दिन का अनशन और 1989 का साढ़े उन्नीस दिनों का अनशन भी शामिल है. इन प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त प्रवेश परीक्षा में साल 1988 से अंग्रेजी भाषा का प्रश्न- पत्र समाप्त हुआ और साल 1990 से हिन्दी में प्रश्न- पत्र आना शुरू हुआ, और कई अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर लिखने का विकल्प मिला. अब जब कि परीक्षा में वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाते हैं, अन्य भारतीय भाषाओं में उत्तर लिख पाने के विकल्प का अधिकार अर्थहीन हो गया है. प्रश्न- पत्र अभी भी सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी में दिए जा रहे हैं, जबकि 1989 में कहा गया था कि शुरुआत हिन्दी से की जा रही है और धीरे- धीरे अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रश्न पत्र दिए जाएंगे, अत: अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में श्री पाठक अभी भी ठगा हुआ ही महसूस करते हैं.
इसके बाद श्यामरुद्र पाठक ने भारतीय अदालतों में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने हिन्दी की वास्तविक दशा की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि, “हिंदी वह भाषा है कि केवल इस भाषा को जानकर हिन्दुस्तान में कोई भी व्यक्ति इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट की पढ़ाई नहीं कर सकता, केंद्र सरकार द्वारा संचालित संस्थानों से कानून की पढ़ाई भी हासिल नहीं कर सकता; और कहीं से भी पढ़ाई हासिल करके देश के उच्चतम न्यायालय और 24 में से 20 ( संप्रति 25 में से 21) उच्च न्यायालयों में न तो वकालत कर सकता है और न ही न्यायाधीश बन सकता है, जबकि केवल अंग्रेज़ी भाषा का जानकार इन सभी अवसरों को पा सकता है। केवल हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का जानकार कोई व्यक्ति संघ लोक सेवा आयोग और कर्मचारी चयन आयोग की अधिकांश परीक्षाओं में सफल नहीं हो सकता।“
उच्चतम न्यायालय तथा देश के 24 में से 20 उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं के प्रयोग की माँग को लेकर श्यामरुद्र पाठक ने 4 दिसंबर 2012 से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह आरंभ कर दिया। यह सत्याग्रह 225 दिन तक चला। सत्याग्रह आरंभ करने से पहले उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी, लोकसभा अध्यक्ष, भाजपा अध्यक्ष आदि तीस जनप्रतिनिधियों को पत्र लिखकर इस बाबत अवगत कराया था। उनकी माँग थी कि सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा संबंधित राज्यों की राजभाषा में बहस हो। इसके लिए वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन चाहते थे।
श्यामरुद्र पाठक को कांग्रेस मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह करने की अनुमति बहुत मुश्किल से मिली थी। कई शर्तों के साथ उन्हें यह अनुमति मिली थी। शर्त के अनुसार वे सुबह 10 बजे कांग्रेस के दफ्तर के बाहर सत्याग्रह पर बैठते थे और शाम को छह बजे पुलिस उन्हें उठाकर तुगलक रोड थाने ले जाती थी। रात भर वे वहीं रहते थे। फिर सुबह वे सत्याग्रह स्थल पर पहुंच जाते थे। किन्तु 16 जुलाई 2012 की शाम लगभग साढ़े पांच बजे धरना के दौरान तुगलक रोड पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अगले दिन उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया। 24 जुलाई 2012 की रात को श्यामरुद्र पाठक को तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया। आज भी वे अपनी उस माँग को लेकर संघर्षरत हैं। वे कहते हैं कि उनका आन्दोलन तबतक जारी रहेगा जबतक भारत के उच्चतम न्यायालय और देश के किसी भी उच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता बनी हुई है।
जब सिविल सेवाओं के अभ्यर्थियों ने 27 जून 2014 से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भारतीय भाषाओँ के साथ किये जा रहे भेदभाव के विरुद्ध प्रधानमंत्री आवास, 7 रेस कोर्स के बाहर धरना-प्रदर्शन आरंभ किया तो श्यामरुद्र पाठक ने उसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। उसके बाद पुन: 6 जुलाई 2014 से राष्ट्रीय अधिकार मंच द्वारा सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम से सीसैट को हटाने और भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव को ख़त्म करने को लेकर किये जा रहे आमरण-अनशन में भी उन्होंने छात्रो का उत्साहवर्धन किया था। इस संबंध में उनपर झूठा आपराधिक मुकदमा भी दर्ज किया गया था।
श्री पाठक कहते हैं कि भारतीयों को अभी पूर्ण आजादी नहीं मिली है। जब तक लोगों को उनकी मातृभाषा में काम करने और पढ़ने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक यह कैसे कहा जा सकता है कि लोगों को आजादी मिल गई है? वे केवल सत्याग्रहोँ और अनशनों द्वारा ही नहीँ बल्कि लेखोँ द्वारा भी अपने हिंदी-प्रेम एवं तथाकथित अधूरी आज़ादी को संपूर्ण आज़ादी मेँ बदलने के लिए अनवरत प्रयास रत रहते हैँ। चाहे कितना भी विरोध हो, अपने विचारोँ को व्यक्त करने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। कभी कभी उनके भीतर का आक्रोश आपत्तिजनक वाक्यों के रूप में भी फूट पड़ता है जैसे आतंकवादियोँ को सलाम करना, राष्ट्रीय ध्वज पर थूकने की चाहत व्यक्त करना, सारे जहाँ से घटिया हिन्दोस्ताँ हमारा का गान करना इत्यादि। श्यामरुद्र पाठक के ऐसे वक्तव्यों पर प्राय: प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिलती हैं। मुझे लगता है कि अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद वे व्यापक समाज को लामबंद नहीं कर पाते और जनहित के इस कार्य में जनसमर्थन न पाने के कारण उनका स्वभाव भी कठोर होता जाता है।
श्यामरुद्र पाठक ने 19 मई 2017 को फेसबुक पर लिखा, “ मैं उस भारत देश के प्रति देश –द्रोही हूं जहां के उच्चतम न्यायालय में और 25 में से 21 उच्च न्यायालयों में जनता को देश की किसी भी भाषा में बोलना वर्जित है। जहां प्राथमिक कक्षा से ही अमीरों और गरीबों के लिए अलग अलग तरह की शिक्षा व्यवस्था है। जहां अमीरों और गरीबों के लिए अलग अलग तरह के चिकित्सालय हैं। जहां आम जनता को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया तो जाता है भारतीय भाषाओं में, लेकिन उच्च शिक्षा में प्रवेश और नौकरियों में नियुक्ति के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षाओं में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता है। जहां शराब द्वारा जनता की हो रही बहुआयामी बर्बादी के बावजूद सरकार शराब का व्यापार करवाना अपनी आमदनी का जरिया मानती है।.”
वर्तमान मोदी सरकार अपने को राष्ट्रवादी और हिन्दी का पोषक कहती है किन्तु श्यामरुद्र पाठक का अनुभव कुछ और ही है। उन्होंने फेसबुक पर लिखा कि, “मैंने राजीव गांधी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबा सत्याग्रह किया था। मैंने विश्वनाथ प्रताप सिंह के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबे सत्याग्रह में भाग लिया था। मैंने पी. वी. नरसिंहा राव के शासन-काल में सरकार के खिलाफ एक छोटा सा सत्याग्रह किया था। मैंने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ एक छोटा सा सत्याग्रह किया था। मैंने मनमोहन सिंह के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबा सत्याग्रह किया था। मैंने नरेन्द्र मोदी के शासन-काल में सरकार के खिलाफ लंबे सत्याग्रह में भाग लिया था और बाद में खुद भी अलग से सत्याग्रह किया।”
शीर्ष अदालतों में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते हुए उन्होंने 3 मई 2017 से प्रधान मंत्री के कार्यालय के सामने धरना देना शुरू किया जिसे सरकार ने ज्यादा दिन तक चलने नहीं दिया। पुलिस उन्हें बलपूर्वक उठा ले गई। इस सत्याग्रह को आरंभ करने के पहले श्यामरुद्र पाठक ने प्रधान मंत्री को जो पत्र लिखा था उसे देखना किसी भी सचेत भारतीय नागरिक के लिए जरूरी है। पत्र लम्बा है इसलिए उसका संपादित अंश यहाँ दिया जा रहा है-
“विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के सत्तर वर्षों के पश्चात् भी सर्वोच्च न्यायालय और देश के 25 में से 21 उच्च न्यायालयों की किसी भी कार्यवाही में भारत की किसी भी भाषा का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है।
14 फरवरी, 1950 को राजस्थान के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। तत्पश्चात् 1970 में उत्तर प्रदेश, 1971 में मध्य प्रदेश और 1972 में बिहार के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया। इन चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में अंग्रेजी अनिवार्य है।
सन् 2002 में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस व्यवस्था के तहत उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत करने की माँग केन्द्र सरकार से की। सन् 2010 एवं 2012 में तमिलनाडु एवम् गुजरात सरकारों ने अपने उच्च न्यायालयों में तमिल एवम् गुजराती का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए केंद्र सरकार से माँग की। परन्तु इन तीनों मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों की माँग ठुकरा दी।
सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एकाधिक भारतीय भाषा को प्राधिकृत करने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय में एक या एकाधिक भारतीय भाषा का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए और प्रत्येक उच्च न्यायालय में कम-से-कम एक-एक भारतीय भाषा का दर्जा अंग्रेज़ी के समकक्ष दिलवाने हेतु संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है।
इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए।
ध्यातव्य है कि भारतीय संसद में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित सभी बाईस भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है। श्रोताओं को यह विकल्प है कि वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें, जो तत्क्षण-अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। अनुवाद की इस व्यवस्था के तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में एकाधिक भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो परन्तु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता को खुल्लमखुल्ला शोषित करते रहने की नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में स्वयं बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष बीस उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सत्तानबे प्रतिशत (97 प्रतिशत) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया गया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं। सत्तानबे प्रतिशत जनता में से कोई भी इन न्यायालयों में मुकदमा करना चाहे या उन पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उन्हें अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना ही पड़ेगा जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही लड़ने का हर नागरिक का अधिकार है। अगर कोई वकील रखता है तो भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमे के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को सही ढंग से रख रहा है या नहीं।
निचली अदालतों एवम् जिला अदालतों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति है। अतः उच्च न्यायालयों में जब कोई मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबद्ध निर्णय एवम् अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है।
प्रस्तावित कानूनी परिवर्तन इस बात की संभावना भी बढ़ाएगा कि जो वकील किसी मुकदमे में जिला न्यायालय में काम करता है, वही वकील उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में भी काम कर सके। इससे वादी-प्रतिवादी के ऊपर मुकदमे से सम्बंधित खर्च घटेगा।
यह कहना कि केवल हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान) के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा के प्रयोग की अनुमति होगी, अहिंदी भाषी प्रांतों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार है। परन्तु अगर यह तर्क भी है तो भी छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड एवं झारखंड के उच्च न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग की अनुमति क्यों नहीं है ? ध्यातव्य है कि छत्तीसगढ़, उत्तराखंड एवम् झारखंड के निवासियों को इन राज्यों के बनने के पूर्व अपने-अपने उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग करने की अनुमति थी।
अगर चार उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक है तो देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को यह अधिकार क्यों नहीं ? क्या यह उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं है ? क्या यह अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त ‘विधि के समक्ष समता’ और अनुच्छेद 15 द्वारा प्रदत्त ‘जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध’ के मौलिक अधिकारों का उलंघन नहीं है ? और इस आधार पर छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और गुजरात सरकार के आग्रहों को ठुकराकर क्या केन्द्र सरकार ने देश-द्रोह एवम् भारतीय संविधान की अवमानना का कार्य नहीं किया था ?
उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने एवं न्यायाधीश बनने के अवसरों में भी तीन प्रतिशत अंग्रेजीदां आभिजात्य वर्ग का पूर्ण आरक्षण है, जो कि ‘अवसर की समता’ दिलाने के संविधान की प्रस्तावना एवं संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
अनुच्छेद 348 में संशोधन करने की हमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। प्रस्तावित संशोधन से अनुवाद में लगने वाले समय और धन की बचत होगी तथा वकीलों को रखने के लिए होने वाले खर्च में भी भारी कमी होगी। अनुच्छेद 348 का वर्तमान स्वरूप शासक वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करते रहने की दुष्ट भावना का खुला प्रमाण है। यह हमारी आजादी को निष्प्रभावी बना रहा है।
कहने के लिए भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परन्तु जहाँ जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहाँ प्रजातंत्र कैसा ? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र अपनी जन-भाषा में काम करके ही उल्लेखनीय उन्नति कर सकता है। विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है, जहाँ का बेईमान आभिजात्य वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और इसके द्वारा विकास के अवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है।“
श्यामरुद्र पाठक के सहपाठी जहाँ देश- विदेश में शीर्ष पदों पर बैठकर करोड़ों में खेल रहे हैं वहाँ श्यामरुद्र पाठक गाँधी की तरह अहिंसात्मक तरीके से जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके हैं।
हम हिन्दी के असली योद्धा श्यामरुद्र पाठक को जन्मदिन की बधाई देते हैं और उन्हें जनहित के अपने उद्देश्य की सफलता की कामना करते हैं। ?
- प्रो. अमरनाथ शर्मा
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, कोलकाता विश्वविद्यालय।
गांधी पर सबसे बेहतरीन गांधी हैं - रमाशंकर सिंह हिन्दू कालेज में गांधी पर वेबिनार
दिल्ली। गांधी को लेकर, युवाओं के मन में दो तरह की बातें हैं ;एक तो गांधी को लेकर युवाओं के मन में बेचैनी है और दूसरा कई सवाल हैं। साथ ही युवाओं के बीच गांधी को लेकर बहुत ज्यादा सामग्री है, जो इस नए तरह के मीडिया द्वारा रोज परोसी जाती है, और इस तरह से गांधी की अच्छी - बुरी,कमतर या हीन छवि यह मीडिया निर्मित करता है। सुपरिचित अध्येता रमाशंकर सिंह ने उक्त विचार हिन्दू कालेज के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में व्यक्त किये। डॉ सिंह ने 'युवाओं के लिए गांधी' विषय पर कहा कि किसी भी देश का क्या स्वरूप होगा यह उस देश के नौजवान की सोच के ऊपर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि किसी देश केराजनीतिक मानस का बहुत ही तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रकटीकरण वहां के युवा मस्तिष्क में होता है इसलिए युवा को हर नई चीज के बारे में बताना चाहिए। किसी भी देश का समाज, संस्कृति और राजनीति का निर्माण युवा करता है। उन्होंने कहा कि यह बात महात्मा गांधी बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि जब भी देश आजाद होगा ,यही युवा लोग देश को आजाद करवाएंगे। इसी संदर्भ में रमाशंकर जी ने गांधीजी के 1916 के बी एच यू के भाषण का उल्लेख करते हुए बताया कि गांधी युवाओं को संबोधित करने से पहले खुद के अंदर के युवा को संबोधित करते हैं । उन्होंने युवावस्था के संकट, द्वंद्व, प्रश्न, भय, रोमांच, सच और झूठ की धुंधली रेखा ;इन सब बातों को बहुत गहरे तरीके से देखा और फिर अपनी आत्मकथा में लिखा। सूत्र रूप में कहें तो गांधी ने भारतीय समाज के सामने आत्मा को अनावृत करने की एक शैली खड़ी की। जब गांधी उन्होंने कहा कि गांधी को को जानने के लिए उनकी आत्मकथा पढ़ना बहुत जरूरी है। इससे भी ज्यादा उनकी आत्मकथा इसलिए पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि यह उस समय की युवा मस्तिष्क की सोच समझ को जानने का एक साधन है।यह बताती है कि उपनिवेश के समय भारतीय युवा किस तरह से लड़ रहा था। डॉ रमाशंकर सिंह ने गांधी की युवावस्था के कई प्रसंगों का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि गांधी पढ़ाई -लिखाई में बहुत ही औसत विद्यार्थी थे ,इसके सहारे उन्होंने कहा कि जीवन आपकी अंक सूची या रैंकिंग से नहीं बनता बल्कि मूल्यों से बनता है और गांधी का जीवन इन्हीं मूल्यों से बना है। गांधी के यहां भी युवावस्था के विचलन हैं ,परंतु गांधी में एक जनतांत्रिकता है,वो एक उदार मन के साथ दूसरों को सुनने की कोशिश करते हैं । इन्हीं अर्थों में गांधी से युवाओं को सीख लेनी चाहिए। रमाशंकर जी ने आज की शब्दावली में गांधी को एक कूल युवा कहा। गांधी के विदेश में पढ़ने के अनुभवों को साझा करते हुए डॉ सिंह ने बताया कि 1907 में गांधी ने इंडियन ओपिनियन में एक लेख लिखा -अंग्रेजी उदारतावाद; इसमें गांधी ने युवाओं से अहिंसा को मूल्य के रूप में अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि गांधी की यही विशेषता है कि आप उनसे सहमत- असहमत हो सकते हैं, पर आप उन्हें नकार नहीं सकते। डॉ सिंह ने एक नौजवान को उद्धरित करते हुए बताया कि गांधी ने देश के लोगों को अमानुष होने से बचा लिया।
प्रश्नोत्तर सत्र में एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि गांधी एक आधुनिक मनुष्य हैं, जैसे आधुनिक मनुष्य में आत्म का बोध होना चाहिए, मनुष्य की स्वतंत्र सत्ता की स्वीकार्यता होनी चाहिए। गांधी के यहां आत्मबोध है ,आत्म निर्णय करने की प्रवृत्ति है ,दूसरों की आवाज को भी गांधी उतना ही महत्त्व देते हैं, जितना खुद की आवाज को।नेहरू और गांधी के विवाद संबंधित प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि नेहरू और गांधी के बीच मतभेद हैं, असहमति या सहमति है, परंतु विरोध नहीं है। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने युवाओं के लिए, गांधी को समझने हेतु पुस्तकों की एक लंबी सूची भी बताई। इस सत्र का संयोजन श्रेयस श्रीवास्तव ने किया। इससे पहले प्रारम्भ में विभाग के डॉ नौशाद अली ने लेखक परिचय दिया। आयोजन में विभाग के अध्यापक, विद्यार्थी और शोधार्थियों के साथ अन्य महाविद्यालयों के अध्यापकों ने भी भागरीदारी की। कार्यक्रम के अंत में हिंदी साहित्य सभा के अध्यक्ष राहुल कसौधन ने सभी का आभार व्यक्त किया।
प्रखर दीक्षित
महासचिव
हिंदी साहित्य सभा
हिन्दू कालेज, दिल्ली
लॉकडाउन' : धन्यकुमार बिराजदार का समसामयिक कहानी संग्रह
कोरोना जैसी महामारी से आज पूरा विश्व प्रताड़ित हुआ है। विश्व के अधिकाधिक देशों में कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या बढती जा रही है। अमेरिका, इंग्लैंड, चीन के साथ-साथ खाड़ी देश भी कोरोना का समाधान ढूंढ रहे हैं, वैक्सीन रिसर्च काम अंतिम चरण में होने के समाचार पढने में भी आते हैं। यदि प्रगत, विकसित देशों की अवस्था वैसी हो तो भारत का क्या जैसे प्रश्न सबको सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं। भारत में अचानक कोरोना मरीजों की बढ़ती संख्या तथा समाज पर होने वाले परिणामों का विचार करते हुए कई रचनाकार विविध आयामों पर कलम चला रहे हैं, चिंतन कर रहे हैं। इसी कड़ी में महाराष्ट्र के सोलापुर से अहिंदीभाषी धन्यकुमार बिराजदार भी कोरोना की आपत्कालीन स्थिति पर कहानी लिखते हुए सामाजिक दायित्व निभा रहे हैं। जनवरी महीने में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली से "समाज धन" नामक कथा संग्रह प्रकाशित हुआ है। इसमें स्त्री विमर्श, वृद्ध विमर्श, बाल विमर्श के साथ समकालीन परिस्थितियों का सजीव चित्रण है।
धन्यकुमार बिराजदार ने वर्तमान परिस्थिति पर प्रकाश डालते हुए अनेक कहानियाँ लिखी हैं। लॉकडाउन शुरू होते 'लॉकडाउन' शीर्षक से कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से जून 2020 में प्रकाशित किया। शायद यह कोरोना कालीन परिस्थितियों पर प्रकाशित प्रथम कहानी संग्रह होगा। इसमें कुल सोलह कहानियाँ हैं। प्रवासी मजदूरों की समस्या को लेकर "लॉकडाउन" नामक कहानी में मुंबई में काम कर रहे मजदूरों की समस्या का चित्रण किया है। इस कहानी में एक नायक अपनी पत्नी जगदेवी तथा बच्चा मुन्ना को लेकर लेकर मुंबई में रहता है परंतु लॉकडाउन घोषित होने के बाद वह मुंबई में समस्या का सामना करता है। कहानी में शुरू-शुरू में ट्रेन बंद होने पर गाँव लौटने वाले मजदूरों की मनोदशा चित्रित है। अशिक्षा के कारण मजबूर मजदूर मुंबई में मजदूरी करते हुए बेटे मुन्ना को पढाने का स्वप्न देखता है, परंतु मजबूर होकर ट्रेन की पटरी से होकर गाँव की ओर लौटता है। लॉकडाउन शुरू होते ही विदेश में बसे भारतीय नागरिकों को स्वदेश लाया जाता है, परंतु भारत के विभिन्न स्थानों में फंसे मजदूरों की गाँव लौटाने की व्यवस्था तुरंत नहीं की गई। इस पर उनके शब्द इस प्रकार हैं- "वाह ! कैसा चमत्कार है। आश्चर्य की बात है, विदेश में बसे भारतीय नागरिकों को सम्मान के साथ हवाई जहाज से भारत लाया गया था। वे तो भारत में पढ़-लिखकर पैसे कमाने के लिए, अमीर बनने के लिए परदेस गए थे और हम तो पापी पेट भरने के लिए गाँव से चार-पाँच सौ किलोमीटर दूर मुंबई आए थे। अब राष्ट्रभक्ति हमारी कि उनकी जो भारत सरकार के पैसे से साक्षर हो गए थे और मातृ-ऋण, पितृ-ऋण चुकाने के बदले धन कमाने के लिए अमेरिका, इंग्लैंड, इटली तथा अरब आदि देशों में गए थे।" मुंबई की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मजदूरों के लिए घंटा गाड़ी का वह विज्ञापन व्यर्थ है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से आने पर डॉक्टर तथा प्रशासन से संपर्क करने के लिए कहा जाता है। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले काम न होने पर गाँव लौटते समय ही रेलवे पटरी पर पकड़े जाते हैं और उन्हें पुनः महानगर ले जाकर क्वारंटीन किया जाता है। परंतु उसमें नायक की पत्नी की मृत्यु हो जाती है और वह इकलौते मुन्ना को साथ लेकर गाँव लौटता है। इसमें सामाजिक दूरी बनाए रखने के साथ मानव धर्म निभाने का संदेश देते हुए कहा गया है, "धर्म तो एक ही है मानव धर्म! जहाँ हम पड गए हैं यहाँ कोई अन्य धर्म नहीं है। हमें मानव धर्म निभाना है, राष्ट्र धर्म निभाना है। कोरोना कोई धर्म, जाति, भाषा या ऊंच-नीच नहीं जानता। उसे इतना ही मालूम है कि जो उसे मिलता है वह उसे ले जाता है ...सदा के लिए।" इस तरह 'लॉकडाउन' कहानी में प्रवासी मजदूरों की व्यथा का चित्रण किया गया है। ठीक इसी तरह मजदूरों का चित्रण 'कन्हैया' कहानी में है। पापी पेट भरने के लिए हैदराबाद जाने वाले युवक की पत्नी आखिर लॉकडाउन में गाँव की ओर लौटते समय पति और बच्चों को खो बैठती है।
"कोरोना सप्तपदी" नामक कहानी में लेखक ने श्रेयांश और कोमल नामक दो डॉक्टरों द्वारा सामाजिक दायित्व निभाने का संदेश दिया है। कोमल और श्रेयांश की शादी तय हो गई थी परंतु लॉकडाउन के कारण दो बार शादी पोस्टपोन कर दी गई थी। गाँव के ही मरीज डॉ. सदानंद को कोमल जब शहर ले जाती है और उसका कोरोना का निदान होता है तब पंद्रह-सोलह दिन मंगेतर पति के साथ ही रहती है। गाँव लौटते समय सभी कोमल और डॉक्टर श्रेयांश को विवाह करने की सलाह देते हैं। विवाह के बाद डॉक्टर श्रेयांश अपनी पत्नी कोमल को सामाजिक दायित्व निभाने हेतु कोरोना की नयी सप्तपदी की परिक्रमा पूर्ण करने के लिए कहता है। इसमें आरोग्य सेतु ऐप, सामाजिक दूरी के साथ-साथ गरीबों की देखभाल, माता-पिता की देखभाल के साथ मजदूरों का खयाल रखना आदि का विचार करते हुए पत्नी कोमल से कहता है," कोमल ! तुम तो मेरी भार्या बन गई हो। सप्तपदी का अर्थ है विवाह की एक रीति, जिसमें वर और वधु अग्नि के चारों ओर सात परिक्रमा करते हैं। इसमें कई परिक्रमाएँ हमने पूरी की हैं पर कई परिक्रमाएँ बाकी हैं। तुम जानती हो कि वर्तमान की सप्तपदी कुछ और ही है।" डॉ श्रेयांश आगे कहता है, "यदि तुम इधर ही रहोगी तो शादी का बहाना कर पति के घर जाने वाली डॉक्टर साहिबा के रूप में और दूसरी ओर भगोड़ा पत्नी के रूप में तुम कलंकित हो जाओगी। क्या तुम मेरी पत्नी के रूप में यह कलंक पसंद करोगी ? क्या कलंकित पति के रूप में मैं भी तुम्हें अपने कर्तव्य से दूर यहाँ ले आऊं? बोलो, बोलो कोमल! अब तुम्हें बोलना चाहिए।" और अंत में कोमल कोरोना सप्तपदी की परिक्रमा पूर्ण करने हेतु विवाह होकर भी गाँव वापस लौटती है।
'मास्क' नामक कहानी में सब्जी मंडी के सामने बैठे भीखमंगों को दान के रूप में मास्क देने वाले गोपाल का चित्रण किया गया है । भिखारियों को मास्क देते हुए वह कहता है,"देखो, एक दिन तुम्हें भीख नहीं मिली तो भी चलेगा, पर जान गई तो दुबारा नहीं मिलती, समझी? मास्क को ठीक इसी तरह अपने बच्चों को भी बांध दो। और देखो, बार-बार मास्क को हाथ भी मत लगाना। मैं जानता हूँ तुम्हें सुबह से खाने के लिए कुछ नहीं मिला होगा। यह लो मेरी थैली। यह घर ले जाकर ठीक से धोकर और अपने हाथ भी साबुन से धोकर ही खाना।" कहते हुए उन्हें सब्जी और फल भी देता है । चोर समझकर उसके पीछे पड़े पंचकल्याणक मेडिकल के लोगों से गोपाल नामक लडका कहता है, "अरे नहीं अंकल! गणतंत्र दिवस पर 'मेरे सपनों का भारत' विषय पर आयोजित वाक् प्रतियोगिता में मुझे प्रथम क्रमांक मिला है। आखिर वे रुपये भी तो भारत के ही हैं। उसी में से आपको मास्क के रुपये दे दूँगा।"
लॉकडाउन कालावधि में कई घरों में बढता तनाव भी देखा गया है। एक ही परिवार में तीन-तीन पीढियाँ एक साथ रहती हो और जनरेशन गैप के कारण विचारों में परिवर्तन आया तो तनाव निर्माण स्वाभाविक है। लॉकडाउन कालावधि में सास-बहू का मनमुटाव आखिर घर के मुखिया को आत्महत्या के लिए मजबूर करता है। वह सोचता है, "... घर के बाहर जानलेवा महामारी का खतरा है। इन्हें घर के मुखिया, घर चलाने वाले की चिंता भी नहीं है। कोरोना से मर जाता तो कितना अच्छा होता... " इसका जीवंत चित्रण 'घुटन' कहानी में है। सामाजिक अंधविश्वास के कारण 'घर बेचना है' कहानी में नायक सोसाइटी के लोगों से तंग आकर घर बेचने के लिए मजबूर हो जाता है। इसी तरह 'कोरोना महिमा' कहानी में सामाजिक अंधविश्वास का बेजा फायदा लेने वाले राजनेताओं का चित्रण है। सामाजिक बुराइयों का वास्तविक चित्रण 'सुधा' कहानी में द्रष्टव्य है। गरीबी का फायदा उठाते हुए मैनेजर विवाह की पूर्वसंध्या में सुधा से बलात्कार करता है और वह ".... भलाई इसी में है कि अपने आप को मैनेजर को सौंप दूँ क्षण भर के लिए! ... कुछ गलत भी हो जाए तो भी चिंता नहीं। कुमारी माता का कलंक भी नहीं लगेगा। आज नेकलेस गले में है, पर कल से पेट में पलने वाले बच्चे के लिए माँ की भूमिका अदा करने में डर नहीं होगा, क्योंकि नेकलेस से भी बढकर ऐसे नरभक्षकों से बचाने के लिए मंगलसूत्र गले होगा।... " सोचते हुए जीवन का समाधान पाती है। नराधमों का चित्रण कहानी में है। सामाजिक अंधविश्वास का उत्तर देने वाली महिला 'मुक्ति' कहानी में है, जो पति की कोरोना से मृत्यु होने पर कम लोगों को बुलाती है और अंत्येष्टि में सोने का टुकड़ा देने के बदले समाज हित के लिए मास्क और दवाइयाँ खरीदने के लिए उपयोग में लाती है। सामाजिक योगदान दे रहे संस्थाओं के साथ वेश्या भी सामाजिक योगदान हेतु चंदा इकट्ठा करती नजर आती है और 'पवित्र कार्य' करती है। 'पवित्र कार्य' कहानी इसका जीवित दस्तावेज है।
उपर्युक्त कहानियों के साथ 'वसीयतनामा', 'अंकुर', 'मास्क', 'निर्णय', 'चोट', 'माता-विमाता' जैसी कहानियों में भी कोरोना की वर्तमान ज्वलंत परिस्थिति का चित्रण किया है। भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित 'लॉकडाउन' पुस्तक में धन्यकुमार बिराजदार ने समाज के जीवंत, वास्तविक चित्रण के साथ आदर्श भी निर्माण किया है। लेखक नाराज न होकर समाज के साथ न्याय करते हुए सच्चाई से पेश आते हैं। इस दृष्टि से प्रस्तुत कहानी संग्रह समसामयिक नजर आती है। यथाशीघ्र कहानी संग्रह प्रकाशित करते हुए लेखक ने समाज को सही रूप से देखा है जिसके लिए पाठक वर्ग उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता है।
स्मिता खंडप्पा सिताफळे, दयानंद लॉ कॉलेज,
सोलापुर, महाराष्ट्र
मंहगा हुआ प्याज ..... थोड़ा थोड़ा खाया करो। (हास्य व्यंग्य)
अब तक गज़ल प्रेमी यही गा गा कर काम चला रहे थे कि ‘मंहगी हुई शराब थोड़ी थोड़ी पिया करो।’ अब सुर बदलने पड़ रहे हैं और वे चुपके चुपके गुनगुना रहें हैं - मंहगा हुआ प्याज ..... थोड़ा थोड़ा खाया करो। तबलची तबला खड़का खड़का कर विज्ञापन दे रहे हैं - वाह! प्याज बोलिये जनाब! घरेलू डायलॉग बदल गए हैं। पति अपनी अर्धांगनियों से कह रहे हैं- तुम क्या जानो एक प्याज की कीमत जानू ?
जी डी पी का लिहाज रखते हुए कई भाई लोगों ने नवरात्रों के दौरान भी चिकन और बैंगन का भरता, बिना प्याज के खाया सिर्फ इस आस में कि जैसे श्राद्धों में सोना नीचे आ जाता है उसी तरह प्याज न खाने से उसका रेट भी किसी शेयर की तरह धड़ाम हो जाएगा। परंतु यह हिन्दुस्तान है जनाब जहां के चुनावों के बारे ,बड़े बड़े तिकड़म बाज और चैनल पर चिल्लाने वाले यह नहीं बता सकते कि कौन जीतेगा , कौन हारेगा और महान अर्थशास्त्री यह नहीं बता पाते कि नवरात्र और प्याज के मध्य क्या गठ बंधन है।
कोरोना ने पहले ही आधी जनता को कंगला बना डाला और प्याज ने लाइफ कर दी झींगा लाला। कंगाली में आटा गीला हो जाए तो आटे में और पानी डाल के उस घोल से चिल्ले बनाए जा सकते हैं पर प्याज बिन सब सून। आलू बगैर आप कददू, भिंडी
घिया, तोरी, पनीर वनीर बना सकते है पर प्याज के गठबंधन बिना किसी सब्जी की सरकार नहीं बन सकती।
प्याज आगामी चुनावों में एक आई कैचर स्लोगन बन सकता है। वैक्सीन जब आएगी तब आएगी । नेता यह तो कह ही सकता है - तुम मुझे वोट दो - मैं तुम्हें प्याज दूंगा। अब सेब सस्ता है प्याज उससे कई कदम आगे है। हमारे मित्र बाबू राम लाल टहलते टहलते किसानों के साथ हमदर्दी दिखाने निकल पड़े बस इस आस में कि जब किसान गुस्से में होता है तो अपने उत्पादन क सही रेट पाने और इंसाफ के लिए लड़ने कभी कभी सड़कों पर दूध की नदियां बहा देता है तो कभी टमाटरों से सड़कों के गाल लाल कर देता है। एक बार बाबू राम लाल थैले भर भर भर के टमाटर उठा लाए थे और साल भर टोमोटो सास बेचते रहे । इस बार किसान सड़कांे ओर रेलवे लाइनों पर बिछे तो थे पर प्याज रहित थे। सड़कों को प्याजी रंग से नहीं रंगा। सो बाबू राम लाल ने कृषि बिल पर उनका समर्थन नहीं किया। चुनावी दंगलों में नेता तम्हारी माला पहन सकते हैं।तुम्हारे नाम पर चुनाव जीत या हार सकते हेैं। तुम ही भाग्य विधाता हो। हम विशुद्ध भारतीय हैं। पेट्र्ोल मंहगा होने पर हम गाड़ी चलाना छोड़ थोड़े ही देते हैं। तुम्हारा साथ न छोडंेगे हम!
हे प्याज महाराज ! तुम्ही सब्जियों के अधीश्वर हो। गंध भी तुम - सुगंध भी तुम। तुम्ही आयात हो, तुम्ही निर्यात हो । किचन की आन ,बान शान हो। सारी सब्जियों के अधिनायक हो। सरकार के खेवनहार हो। जब प्याज एक रुपये किलो भी नहीं बिकेगा तो किसान कृषि मंत्री की मंुडी पकडेंगे। जब इसका सेंसेक्स 100 पार कर जाएगा तो जनता तुम्हें दबोचेगी। किसान तुम्हंे जीने नहीं देगा और जनता तुम्हें मरने नहीं देगी।
धन तेरस पर लोग तुम्हें ही सोना समझ कर खरीदेंगे । दीवाली पर ड्र्ाई फू्रट की जगह तुम्हारा ही आदान प्रदान होगा । तुम भी कोरोना की तरह समाज में आमूल चूल परिवर्तन और क्रांति लाने मं पूर्ण सक्षम हो ।
- - मदन गुप्ता सपाटू
Tuesday, October 20, 2020
कश्मीर का लोकनाट्य : भांड़ पाथेर
दुनिया की अधिकांश कलाएं उत्सवधर्मिता की स्निग्ध छाया में पनपी और पोषित हुई हैं । उत्सव सामूहिकता और सामाजिकता में ही फलीभूत होते हैं और इन्हीं उत्सवों में ख़ुशी जाहिर करने तथा मनोरंजन करने के लिए कलाओं को विकसित किया गया। कश्मीर प्राकृतिक सौंदर्य के लिए तो जाना ही जाता है कभी एक जमाने में कला और साहित्य का केंद्र भी था। कश्मीर की राग- रागनियों तथा कलाओं ने एक व्यापक जनसमुदाय का मनमोहित किया है। 'भांड़ पाथेर' कश्मीर का एक जनप्रिय लोक नाट्य रूप है जिसे कश्मीर का सबसे सौंदर्यवादी नृत्य भी माना जाता है। 'भांड़ ' शब्द संस्कृत रंगमंच के विदूषक या मसखरा से लिया गया है और पात्र शब्द संस्कृत रंगमंच के पात्र यानी नाटक के पात्र से लिया जाता है। कश्मीर में भांड़ पाथेर को मसखरे का नाटक भी कहा जाता है। यह एकालाप नहीं बल्कि सामाजिक नाटक है। इसमें पौराणिक कथाएं तथा सामाजिक व्यंग शामिल हैं। 'राधा कृष्ण ब्रारु' लिखते है कि "हो सकता है भांड़ पाथेर का जन्म उसी प्रकार धर्म की गोद में हुआ हो परंतु उसके वर्तमान स्वरूप को देखते हुए हम कह सकते हैं कि उसका दृष्टिकोण धार्मिक नहीं धर्मनिरपेक्ष है उसमें धार्मिक भावनाओं का नहीं सामाजिक समस्याओं का चित्रण पाया जाता है। भांड़ पाथर एक प्रकार से तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक आदि समस्याओं पर व्यंग है कटाक्ष है। इसी व्यंग और कटाक्ष के कारण ही यह कश्मीर के लोगों में सदा से इतना लोकप्रिय बना रहा है, क्योंकि उसमें उनके मनोभावों का यथार्थ चित्रण पाया जाता है।"1
( चित्र- गूगल से साभार )
भांड़ पाथेर कश्मीर की कला, संस्कृति और कश्मीरियत को अभिव्यक्त करने वाला एक सशक्त लोकनाट्य है। यह कश्मीर के जनोत्सव से जुड़ा है । कश्मीर में भांड पाथेर की परंपरा कब से है यह तो तय नहीं है लेकिन इसकी प्रदर्शन शैली के आधार पर कह सकते हैं कि इसकी एक समृद्ध परंपरा है जिसके सूत्र संस्कृत रंगमंच से मिलते हैं। रंगकर्मी 'रवि खेमू' बातचीत के दौरान कहते हैं कि भांड पाथेर की परंपरा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के जमाने से ही प्रचलित है। इसके कई प्रदर्शन प्रयोग संस्कृत रंगमंच से मेल खाते हैं। इसमें परंपराशील नाट्य की तरह ही रामायण , महाभारत तथा सामाजिक संवाद के कथानकों को आधार बनाया जाता था। जगदीश चंद्र माथुर 'परम्पराशील नाट्य' में लिखते हैं कि " कश्मीर का भांड़जश्न संस्कृत -रूपक भाण की याद दिलाता है । किंतु , कश्मीरी भांड़ बहुपात्री और गीत तथा नृत्यों से भरपूर नाट्य है , जबकि संस्कृत भाण एकपात्री गद्य प्रधान विधा है , जिसमें पात्र नेपथ्य की ओर उन्मुख होकर विभिन्न कल्पित पात्रों से वार्तालाप करता है।"2 कश्मीर में कई कला प्रिय और कला पारखी राजा हुए हैं जिनके शासन काल में कई कलाओं और कलाकारों को राजाश्रय मिलता था । कश्मीर में 'ललितादित्य' नाम के राजा का नाम विशेष उल्लेखनीय है जिनको नृत्य, संगीत और नाटक बहुत प्रिय थे । उनके शासनकाल में इन कलाओं को बहुत प्रोत्साहन मिला। कश्मीर में नृत्य, गीत - संगीत तथा नाट्यकलायें अपने पूर्ण विकसित अवस्था में थी इसके प्रमाण हमें 'कल्हण ' की राजतरंगिणी से मिलते हैं " प्रत्येक गांव में नाट्यशालायें हैं जहां नाट्य कला का प्रदर्शन होता है। वर्षा की बूंदें आने पर इन नाट्यशालाओं से दर्शकों की अपार भीड़ इस प्रकार चारों ओर बिखर जाती है जैसे राजा की सेना कहीं कूच करती हुई चारों ओर फैल रही हो ।"3 भांड़ पाथेर की कला अपने उत्कृष्टता की ओर बढ़ रही थी। कई कलाकारों को हिंदू राजाओं के दरबार में राजाश्रय भी मिलता था लेकिन इस्लाम शासकों के आने के बाद इसको कई जगह से बेदखल कर दिया गया फिर भी इसकी लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी जिससे वह अपनी समृद्ध परंपरा को बचाए रख सका। कश्मीर में जैनुल आब्दीन, अली शाह और हसन शाह जैसे शासक भी हुए हैं जिनके शासनकाल में कलाओं को काफी प्रोत्साहन मिला है। जैनुल आब्दीन (15वीं शताब्दी ) के दरबार में कला प्रिय माहौल होता था उसके दरबार में ही ईरान , तूरान , समरकंद ,काबुल, पंजाब तथा दिल्ली के कलाकार शिरकत करते थे। उसका दरबारी कवि 'श्री बराह' उच्च कोटि का संगीतज्ञ और कला प्रेमी था। श्री बराह ने लिखा है कि " उस समय के दर्शक और कलाकार दोनों ही साहित्य, काव्य,दर्शन आदि के पारखी थे। कलाकारों में बहुत सी स्त्रियां भी थी जो संगीत में निपुण थीं। उनमें कंठमाधुर्य अद्वितीय था। वे दरबार की शोभा मानी जाती थीं। प्रसिद्ध अभिनेत्री तारा और उसके अन्य साथी नृत्य और संगीत की एक - एक ताल और लय पर गा सकते थे। उनमें उत्सवा नाम की एक सुंदर नायिका भी थी।"4 " यूं तो 14 वीं शताब्दी ही में उदरह्र्दय और रसमर्मज्ञ मुसलमान राजा जैनुल आब्दीन ने अपने दरबार में संगीतज्ञों और नटों को विशेष प्रोत्साहन दिया , किन्तु काश्मीर की विशेष नाट्य विधा 'भांड़ पथ्र ' का विकास परवर्ती राजाओं अलीशाह और हसनशाह की राज्यावधि के बाद हुआ जान पड़ता है। अलीशाह और हसनशाह ने कर्नाटक से कुछ गायकों को अपने दरबार में बुलाया और इसके फलस्वरूप अनेक कर्नाटक राग - रागनियां कश्मीर की 'मुकाम' - पद्धति में सम्मिलित कर दी गईं।"5
( चित्र- गूगल से साभार )
कश्मीर में सूफी दरगाहों पर मेला लगता था जहां पर भांड पाथेर के कलाकार अपनी छिटपुट प्रस्तुतियां करते थे। वहां सूफी दरगाह पर भाड़ पाथेर के धार्मिक कथानकों को छोड़कर उसके सामाजिक कथानकों को संरक्षण प्राप्त हुआ जिस कारण भांड पाथेर को प्रोत्साहन तो मिला लेकिन उसके कथानकों में बदलाव आ गया। भाड़ पाथेर में दो तरह के कथानक प्रस्तुत किए जाने लगे। पहला चरित्र प्रधान ( जिसमें संरक्षण देने वाले तथा चरित नायकों ) का बखान होता था दूसरा सामाजिक प्रहसनों का। ऐसे में भांड़ पाथेर किसी धर्म विशेष का न होकर धर्मनिरपेक्ष हो गया जो सर्व धर्म सम्भाव की बात करने लगा । नाट्य निर्देशक 'एम .के रैना ' जिन्होंने कश्मीर में भांड़ पाथेर के कलाकारों के साथ कार्यशाला की है उनका मानना है कि "भांडों का धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण उनके गतिशील लोक रूप में परिलक्षित होता है , जिसमें शास्त्रीय संस्कृत थियेटर के साथ - साथ भारत के अन्य पारम्परिक लोक रूपों के तत्व शामिल हैं । लेकिन कई वर्षों में कई पहलू खो गए हैं और अन्य में नाटकीय बदलाव आया है । हिन्दू पैदा हुए भांड इस्लाम में परिवर्तित हो गए लेकिन अपने दृष्टिकोण में धर्मनिरपेक्ष बने रहे ।"6 कश्मीर के अनंतनाग जिले की पहाड़ियों के बीच एक भगवती का मंदिर है जहाँ पर भांड़ पाथेर के कलाकार जो कि मुस्लिम हैं एक अनुष्ठानिक नृत्य करते हैं । यह नृत्य भक्ति और विश्वास से पूर्ण होता है। इस नृत्य को 'छोक' कहते हैं। यह नृत्य मुस्लिम तीर्थ स्थलों सूफी दरगाहों पर भी प्रस्तुत किया जाता है।
ऐसे कला प्रिय माहौल में ही भांड़ पाथेर पल्ल्वित - पोषित और विकसित हुआ लेकिन एक समय अंतराल में उसमें कई तरह के बदलाव आ गए। कश्मीर में मुगल,पठान, सिख और डोंगरा शासकों ने शासन किया जिसमें से अधिकांश शासकों ने कलाओं को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जिस कारण भांड़ पाथेर की समृद्ध परंपरा क्षीण होने लगी। एम.के रैना बताते हैं कि 10 वीं शताब्दी के बाद का समय एक ऐसा समय रहा है जब घाटी में विदेशी आक्रमण हुए थे, सामाजिक जीवन परेशान था और कश्मीरी अपनी ही भूमि में एक गुलाम की ज़िंदगी जीने के लिए विवश थे। जहां उन्हें विदेशी संस्कृतियों, धार्मिक और सामाजिक-राजनीतिक प्रणालियों का सामना करते हुए रहना पड़ा। यह क्रॉस एक्सचेंज राज्य की लोक परंपरा में भी आता है। लोगों के साथ होने वाले अन्याय को बेतुके या विनम्र के रूप में नाटकों में व्यक्त किया गया था, चाहे वह 'डारजा पाथर' में राजा हो या 'शिकारा' में शाही सैनिक, जो फ़ारसी में गरीब और अनपढ़ कश्मीरी से बात करते हैं और उनसे एक विदेशी ज़बान समझने की उम्मीद करते हैं जवाब न देने पर कोड़े से प्रहार करते हैं। या 'अंगरेज पाथेर' में अंग्रेजी दंपति जो शिकार पर निकलते समय रेस्टहाउस गार्ड को भाषा का उल्लसित संस्करण बोलते हैं। कश्मीर की राजनीतिक अस्थिरता युद्ध के माहौल और विस्थापन के दौर ने वहां की सामाजिक संरचना और कलाओं को बहुत प्रभावित किया। ऐसे में भांड़ पाथेर की सामाजिक स्वीकार्यता और लोकप्रियता ही थी जिसने जनसाधारण के बीच इसको बहुत सीमित क्षेत्रों में ही सही लेकिन जीवित बचाये रखा। भाड़ पाथेर आमतौर पर पंच सोपोर, राजौरी, पहलगाम और किश्तवार जैसे क्षेत्रों में किया जाता है यह कश्मीर के प्रसिद्ध क्षेत्र हैं जहां कई वर्षों से इस पारंपरिक लोक नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है। रवि केमू बताते हैं कि जब पहले राजवंशो का शासन था तो भांड पाथेर के कलाकार शासकों को पूरे क्षेत्र की जानकारी देते थे , दरबारों में प्रदर्शन करते थे , शासकों के लिए आशीर्वचन बोलते तथा उनका गुणगान करते थे जिससे प्रसन्न होकर उनको बहुत सारी बख्शीस मिलती थी। फिर जब राजवंश नहीं रहे तो उनके बाद जमींदारों के यहां भांड पाथेर के कलाकार जाते थे। उनके यहां फसलों की सुरक्षा , मानसून के संतुलन और समृद्धि के लिए प्रार्थनाएं करते थे जिससे वहाँ भी उनको बख्शीस मिलती थी। कश्मीर के भांड़ लोग गाँव से गाँव तक भटकते रहते थे और लोगों द्वारा दी जाने वाले खुद के लिए भोजन , पैसा और कपड़ा इकठ्ठा करते थे, जो उनकी आय और अस्तित्व का एकमात्र स्त्रोत था।
भांड़ पाथेर अभिनय , नृत्य और संगीत से परिपूर्ण पारम्परिक रंगमंच है इसकी प्रदर्शन शैली में कई ऐसे तत्व हैं जो संस्कृत रंगमंच की परंपरा से सम्बद्ध हैं। जैसे की इसका पूर्वरंग जो संस्कृत रंगमंच की तरह अनुष्ठानिक होता है तथा इसमें परदे का प्रयोग 'यवनिका' की तरह किया जाता है। जो कहीं न कहीं कुड़ियाट्टम तथा यक्षगान की तरह लगता है। भांड़ पाथेर के कलाकार अभिनय , नृत्य तथा गीत - संगीत में निपुण होते हैं। मण्डली के नेता को 'महागुनी' कहा जाता है जो सभी कलाओं में प्रतिभा सम्पन्न होता है। भांड़ पाथेर की प्रस्तुतियां आमतौर पर खुले मंच पर की जाती हैं जिसमें सबसे पहले नगाड़े को बजाता हुआ एक कलाकार आता है और ऐलान करता है। जिससे लोगों को पता चल जाये कि यहां पर आज भांड़ पाथेर की प्रस्तुति होनी है। फिर महागुनी के पीछे सभी कलाकार कतार में आते हैं और दर्शकों का अभिवादन करते हैं। इसका प्रदर्शन मंच नुक्कड़ नाटकों की तरह होता है जिसमें चारों ओर दर्शक होते हैं और बीच में प्रदर्शन स्थल। प्रत्येक नाटक में 15 से 20 कलाकार होते हैं। इनकी पोशाकें पारम्परिक तथा पात्र के अनुकूल होती हैं। 'रवि खेमू' बताते हैं कि मंचन के दौरान अभिनेता दर्शकों के बीच से होकर आता है और वह दर्शकों से बहुत ज़्यादा इंटरेक्शन करता है। मंचन के दौरान भावों में ज़्यादा गहनता लाने के लिए कई तरह के मुखौटों और कठपुतलियों का प्रयोग किया जाता है। 'शिकारगाह' जो एक सामाजिक प्रहसन है जिसमें जंगली जानवरों, पशु- पक्षियों को शिकारियों से बचाने की कोशिश में एक सामाजिक व्यंग है। इस नाटक में जंगली जानवरों को मंच पर दिखाने के लिए अभिनेता शेर , भालू , हिरन , बन्दर आदि कई जानवरों के मुखौटे धारण करते हैं तथा आंगिक अभिनय द्वारा उनको मंच पर साकार करते हैं। ऐसे ही एक नाटक 'गोसाईं पाथेर' के बारे में एम. के रैना कहते हैं कि "गोसाईं पाथेर शिव और कश्मीर के शैवियों के बारे में है इसमें अभिनेता राजाओं या चुड़ैल के पात्रों के माध्यम से उत्पीड़न की भावना को पेश करने के लिए मुखौटे के साथ बड़े - बड़े कठपुतलियों का प्रयोग करते हैं।"7 भांड़ पाथेर के कलाकार कश्मीर से अन्य जगहों पर भी अपनी प्रस्तुतियां देने जाते थे और वहां की कला और संस्कृति से प्रभावित होकर अपने भांड़ पाथेर में कुछ नई प्रदर्शन शैली तथा कथानकों को जोड़ते थे। जैसे कि 'ऊँट पाथर' इसमें एक पात्र को ऊँट की सवारी करते हुए मंच पर दिखाया जाता हैं। ऊँट को मंच पर लाने के लिए कुछ अभिनेता ऊँट के आकार के बने कपड़े के अंदर घुस जाते हैं और ऊंट का मुँह के लिये मुखौटा लगा दिया जाता है।
(चित्र- गूगल से साभार )
"संस्कृत नाटकों में सूत्रधार प्रस्तावक का काम करता है , किन्तु आंचलिक नाट्य में सूत्रधार प्रस्तावक भी है और वाचक भी।"8 भांड़ पाथेर में मसखरे की महत्वपूर्ण भूमिका होती है उसके पास संस्कृत रंगमंच के विदूषक की तरह एक छड़ी सदैव हाथ में रहती है। वह उससे कई तरह के कार्यव्यापार करता है। इसमें एक कोड़े का भी प्रयोग किया जाता है जिसके बारे में 'रवि केमू' बताते हैं कि वह सत्ता की ज्यादतियों का प्रतीक है। इसमें 'सुरनाई' जैसे संगीत वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है जो पेशावर , ढ़ोल और नगाड़ा के साथ भारतीय शहनाई का कश्मीरी संस्करण है। भांड़ पाथेर का संगीत काफी हद तक सूफियाना संगीत से भी प्रभावित है। भांड़ पाथेर की प्रमुख भाषा कश्मीरी है लेकिन इसमें डोंगरी , पंजाबी , फ़ारसी और कभी - कभी नाटकीयता लाने के लिए अन्य भाषाओं का भी प्रयोग किया जाता है। भांड़ पाथेर के कुछ कथानक तो पारम्परिक हैं लेकिन कुछ में विकृतियां आ गई हैं। लोक कलाओं के कथानक प्रायः मौखिक होते हैं और वह इसी परंपरा में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित भी होती हैं। पीढियां अपने जीवनबोध कथानकों में जोड़ती जाती है जिससे कला परिमार्जित होती जाती है। लेकिन कश्मीर के कलाप्रिय माहौल को वहाँ की राजनीतिक अस्थिरता और तथाकथित आतंकवाद ने अशांति से भर दिया। जिस कारण एक बहुत बड़ी संख्या में भांड पाथेर के पारंपरिक कलाकार और कला रसिक विस्थापन का शिकार हुए । देश के विभिन्न क्षेत्रों में उन्हें जिंदगी की जद्दोजहद से जूझना पड़ा । जिस कारण वो अपनी कला को छोड़ कर जीवनयापन के लिए कुछ अन्य कार्य करने लगे। लखनऊ में एक कश्मीरी कॉलोनी है जहाँ विस्थापित कलाकारों ने बहुत पहले कुछ प्रस्तुतियां की थी। " 1904 ई० में प्रकाशित लखनऊ के गजेटियर में लखनऊ में खेलनेवाली एक कश्मीरी मण्डली का विवरण दिया गया है। यह मण्डली अपने प्रहसनों में अंग्रेजी राज की कचहरियों , पुलिस के अफसरों और गोरे साहबों के कुत्सित घरेलू और सामाजिक जीवन का धड़ल्ले से खाका खींचती थी "9 लेकिन आज देश के कई क्षेत्रों में कश्मीरी हैं पर उनकी समृद्ध भांड़ पाथेर की परंपरा पीढ़ियों की स्मृतियों में ही है।
कश्मीर के मुश्किल दौर में भी बहुत सी पीढियां अंधेरे से लड़ते-जूझते अपने को और अपनी कला को विस्थापित होने तथा समाज को कला विहीन होने से बचा लिया। कश्मीर की मरणासन्न भांड़ पाथेर की कला को सक्रिय करने और संवर्धन करने में पद्मश्री 'मोतीलाल खेमू' का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जिन्होंने भांड़ पाथेर के पारंपरिक कलाकारों ( जो कि अपने साज - समान बन्द कमरों में रख कर किसी अन्य कामों में लग गए थे ) से बातचीत की और फिर से कला प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित किया। मृत पड़ी कला मंडलियाँ मोतीलाल खेमू की कला सक्रियता और प्रोत्साहन से प्रभावित होकर फिर से सक्रिय हो गईं। मोतीलाल खेमू ने भांड़ पाथेर के कथानकों में भी सुधार किया तथा नए सामाजिक प्रहसनों की रचना की। जिसमें कई सामाजिक पक्षों तथा समुदायों पर व्यंग है। कश्मीर में आतंकवाद और साम्प्रदायिक माहौल के चलते चलते जो अशांति हुई है उसके स्थान पर सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में भांड़ पाथेर के कलाकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। वो अपने नाटकों के माध्यम से इन पर व्यंग करते थे। जिस कारण मण्डलियों और कलाकारों को इस कला को बंद करने की धमकी भी मिलती थी। कुछ वर्ष पहले 5 भांड़ पाथेर कलाकरों की आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई थी। रवि खेमू बताते हैं कि इस घटना के बाद भांड़ पाथेर की मण्डलियां 4 - 5 वर्ष के लिए मृतप्राय सी हो गईं थीं। कोई प्रस्तुति नहीं हुई चारों तरफ डर का माहौल हो गया था। लेकिन जब लोगों ने अपने डर को जीतकर प्रस्तुतियां की तो 5-6 लाख लोगों ने एक साथ भांड़ पाथेर की प्रस्तुति देखी। भीड़ इतनी थी कि बमुश्किल से अभिनेताओं को मंचन के लिए जगह बची थी। ये लोगों का अपनी कला के प्रति अगाध प्रेम और लोकप्रियता थी। भांड़ पाथेर आज भी सक्रिय है लेकिन इसकी लोकप्रियता धीरे - धीरे कम हो रही है। इसका बहुत बड़ा कारण है रफ़्तार से भागती हुई ज़िन्दगी , सो कॉल्ड लोगों द्वारा इस कला को हीन भावना से देखना , पुराने कथानकों में नवाचार की कमी। भांड़ पाथेर अब कुछ अवसर विशेष तक ही सीमित होकर रह गया है। दिनों -दिन इसके दर्शकों की संख्या कम होती जा रही है। जिस कारण कलाकारों को आर्थिक सहयोग या बख्शीस बहुत कम मिल पाती है। जिससे जीवनयापन कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में कई पारम्परिक कलाकार अपनी कला को छोड़कर अन्य कामों में लग गए हैं। भांड़ पाथेर में जो भी कलाकार अभी बचे हुए हैं वो ज्यादातर पुरानी पीढ़ी के हैं नयी पीढ़ी जैसे परहेज ही कर रही है। पिछले कुछ वर्षों से नई पीढ़ी के कलाकार भांड़ पाथेर की कला को प्रस्तुत कर रहे हैं लेकिन व्यापक स्तर पर अभी भी प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं। रवि खेमू , एम.के रैना जैसे उत्साही रंगकर्मी जिन्होंने पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के कलाकारों के साथ मिलकर भांड़ पाथेर की कार्यशालाओं का आयोजन किया, जिससे उम्मीद जगती है कि इस समृद्ध परंपरा को काल कवलित होने से बचाया जा सकता है। यह कला अपने सामाजिक संदर्भों और कटाक्षों के माध्यम से एक सामुदायिक भावना विकसित करती है और एक व्यापक जनसमुदाय का दिग्दर्शन करती है।
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सन्दर्भ ग्रन्थ -
- ब्रारु'राधा कृष्ण' 'कश्मीर का लोक नाट्य भांड़ पाथर' नटरंग (अंक - 8, अक्टूबर -दिसम्बर 1968) पृष्ठ संख्या - 54
- माथुर 'जगदीश चंद्र' 'परम्पराशील नाट्य' बिहार राष्टभाषा परिषद , पटना, वर्ष 2000,पृष्ठ संख्या - 8
- ब्रारु'राधा कृष्ण' 'कश्मीर का लोक नाट्य भांड़ पाथर' नटरंग (अंक - 8, अक्टूबर -दिसम्बर 1968) पृष्ठ संख्या - 55
- " " " पृष्ठ संख्या - 56
5.ब्रारु'राधा कृष्ण' 'नाट्य' संगीत नाटक अकादमी - 1962
- www.koausa.org › BhandPather
Web results
The Bhand Pather of Kashmir - Kashmiri Overseas Association
- " " " "
8.माथुर 'जगदीश चंद्र' 'परम्पराशील नाट्य' बिहार राष्टभाषा परिषद , पटना, वर्ष 2000,पृष्ठ संख्या - 8
- माथुर 'जगदीश चंद्र' 'परम्पराशील नाट्य' बिहार राष्टभाषा परिषद , पटना, वर्ष 2000,पृष्ठ संख्या - 44
◆ साक्षात्कार-
1.रवि खेमू
.2. एम.के रैना
………....................
परिचय - ललित कुमार सिंह
शोधार्थी/ रंगकर्मी - हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
*गीत* *आजादी के दीवानों का*
*आजादी के दीवानों का,*
*नाम सुनहरा हो गया।*
*त्याग,बलिदान की मूरत,*
*का रंग गहरा हो गया।*
*जब जब दुश्मन आंख दिखाएं*
*खून खौलने लगता है।*
*भूल के सबकुछ,इन्कलाब फिर,*
*सर बोलने लगता है।*
*मिला है जब से रंग बसंती*
*रंग लहू का गहरा हो गया ।*
*आन वतन की,शान वतन की,*
*हमें जान से प्यारी हैं।*
*जो काम न आए इस वतन के,*
*तो जीना भी गद्दारी है।*
*इंकलाब की शमां से रोशन*
*दिल सहरा-सहरा हो गया ।*
*सरफ़रोशी चिंगारी को ,*
*शोला बनाएं रखना है*
*दुश्मन है गद्दार बहुत,*
*खुदको जगाए रखना है*
*गुज़रे क्षण में मिलें धोखों*
*से,जख्म गहरा हो गया हैं।*
*आजादी की राहों में ,*
*तन मन धन की बारी है।*
*तेरा तुझको अर्पण हैं ,*
*अपनानी समझदारी है।*
*जो सुनके दिलकी,अंजान*
*बने,सच में बहरा हो गया।*
*अनवर हुसैन*
सरवाड़ अजमेर
अधूरेसपनें…
“उठ जा राहुल बेटे….”
माँकी आवाज़ कान में पड़ी तो राहुल अपनी आँखें मलते हुये उठकर बैठ गया।वो अंगड़ाई लेते हुए अपने सपने के बारे में सोचने लगा। कुछ याद आते ही उसकी आंखें चमकने लगी। वो जल्दी से चारपाई से उठा और भागते हुए अपनी माँ से लिपट गया।
माँ-“उठ गया मेरा राजा बेटा! जा जाकर मुँह धोलें।”
राहुल-“माँ आज मैंने सपने में देखा कि पिताजी घर आये हैं।”
शांति(राहुल की माँ) अपने 8 साल के बेटे के चमकते आंखों को देखते हुए सोच रही थी–“कितना मासूम है मेरा बच्चा,इसे कैसे बताऊँ की इसके पिता अब कभीवापसनहीं आने वाले।” राहुल के पिता भारतीय सेना में थे जो सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए थे।तब राहुल सिर्फ 5 साल का था।उनका शव द्वार पर रखा हुआथा और राहुल उन्हें उठा रहा था। शांति ये देख करफूट-फूट कर रो रही थी। जब उनके शव को दाह-संस्कार के लिए ले जाया गया तो शांति ने उसे समझाया था कि उसके पिता भगवान के पास चले गए हैं। तब से वो हमेशा पूछता रहता है कि उसके पिता कब वापस आएंगे। आज 5 साल से वो अकेले अपना और अपने बेटे का लालनपालन कर रही है। वो कपड़ों की सिलाई करती है और उसी से उसका घर चलता है। आज अपने बेटे की ओर देखते हुए सोच मेंडूबी हुई थी तभी राहुल ने उसका आँचल खींचते हुए फिर बोला,
राहुल-“बोलो न माँ,पिता जी कब आएंगे?”
शांति-“आएंगे बेटे जब तुम तीसरी कक्षा में प्रथम आओगे।”(शांति ने उसे फुसलाने के लिए कह दिया।)
ये सुन कर राहुल खुश हो गया। वो मुँह धो कर तैयार हुआ। दोनों ने साथ में खाना खाया। फिर राहुल अपने दोस्त करण के साथ स्कूल जाने के लिए निकल गया।
दो महीने बाद परीक्षा थी। राहुल ने पूरी मेहनत करना शुरू कर दिया।अपने बाल-मन में अपने पिता से मिलने की कल्पना करते हुए दो महीने कैसे बीत गये पता भी नहीं चला। परीक्षा आया और चला गया। परीक्षा के बाद छुट्टियां शुरू हो गयी।राहुल पूरी छुट्टियों में बस छुट्टियां खत्म होने का इंतजार करता रहा।खैर छुट्टियां खत्म हुई और परिणाम का दिन भी आ गया।
आज राहुल बहुत खुश था। आज उसने अपनी कक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया था। अपना परिणाम लिए वो घर वापस लौट रहा था। रास्ते भर अपने पिता से मिलने की कल्पना कर रहा था। वो अपने पिता से ये कहेगा, वो कहेगा। उनसे कह के बहुत से खिलौने खरीदेगा।अपने बाकी मित्रों की तरह अपने पिता के साथ मेला घूमने जाएगा। अपने नन्हे-नन्हे पैरो से चलता हुआ घर पहुंचा। शांति घर के काम काज में व्यस्त थी। राहुल भागता हुआ माँ के पास पहुंचा ओर उन्हें अपना परिणाम दिखा कर बोला,
राहुल-“माँ, मैं अपनी कक्षा में प्रथम आया हूं।अब तो पिताजी आएंगे ना?”
शांति ने अपने बेटे के मासूम चेहरे कीओर देखा और उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने राहुल को गले से लगा लिया। और फूट-फूट कर रोने लगी।मासूम राहुलअपनी माँ को रोता देख खुद भी रोने लगा। उस मासूम बच्चे को क्या पता कि कुछ सपने अधूरे ही रह जाते हैं,चाहें हम उसको सच करने के लिए कितनी भी मेहनत करें।
- चाँदसमर
कब्र की मिट्टी (कहानी )
सर्दी और बढ़ गई थी। मैने लिहाफ़ खींच खुद को उसमे लपेट लिया कि आज देर तक सोऊंगी । वैसे भी रविवार है। मगर तभी फ़ोन की घंटी बजी और मुझे उठ के बैठ जाना पड़ा। सारी सर्दी अचानक गायब हो गई। मुझे जैकेट पहनने का भी ध्यान न रहा। सिर्फ शॉल लपेट निकल गई।
मुहिब के घर के बाहर मीडिया वालों की भीड़ जमा थी। मैं किसी तरह भीड़ को चीड़ते हुए घर मे घुसी तो सामने का दृश्य देख कर एक क्षण को सुन्न रह गई। मुहिब का पार्थिव शरीर फर्श पर पड़ा था। पुलिस आस पास छानबीन कर रही थी। कुछ क्षण बाद जब मैंने कमरे में नज़र दौड़ाई तो पूरा कमरा बिखरा पड़ा था। मुहिब के शरीर पर भी कई ज़ख्म के निशान थे। मैन उसके इकलौते नौकर रहमान( जो कोने में खड़ा सुबक रहा था) से पूछा कि ये सब कैसे हुआ। उसने बस इतना ही बताया कि वो सुबह की नमाज़ को उठा जब उसने साहब के कमरे की बत्ती जलती देखी और जब इधर आया तो ये सब... । क्या हुआ कैसे हुआ कुछ नही मालूम।
मुहिब की मृत्यु के चार दिन हो गए थे। मगर कुछ पता न चला था कि वह इसके मौत के पीछे क्या रहस्य है। मैंने भी चार दिन से अपना सारा काम छोड़ा हुआ था। आज दफ्तर से कॉल आया कि कोई महत्वपूर्ण ईमेल आया है तो कंप्यूटर खोला। इनबॉक्स में मेल न पाकर मैने स्पैम खोला। दफ्तर का मेल देखते समय मेरी दृष्टि मुहिब के मेल पर पड़ी जो उसकी मौत की रात की थी। मैने जल्दी से मेल खोला और उसके साथ ही सारे राज़ खुल गए। सामने मुहिब का लंबा से पत्र था।
" ज़िन्दगी ने बड़े अच्छे से मेरा हिसाब किया"
"कि अपनी हया ढकने को मुझे बेनकाब किया"
वो अचानक मेरे सामने आ खड़ी हुई है 4 सालों बाद। मगर मैं आगे बढ़ कर उसे गले भी नहीं लगा सका। वो ही दौड़ कर मुझसे लिपट गई और भीगे लहज़े में कहा- कहाँ खो गए थे मुहिब? क्या मुहब्बत जिस्मों के हिसार की मोहताज होती है? मैं तो सारी जिंदगी तुम्हारे शानों पर सर रख के गुज़ार दूँ। मुझे उन चीज़ों की तलब नही तुम साथ रहो यही काफी है। और उसने अपना सर मेरे कंधों पर रख दिया। लेकिन मैं उसे अपने आगोश में न समेट सका। कुछ था जो मुझे रोक रहा था। 4 साल पहले भी तो उस रात वो मेरे इतने ही क़रीब थी। कतरा कतरा मुझमे उतरने को तैयार। मगर मैं सिर्फ उसकी पेशानी को बोशा दे कर रह गया। उसके होंठो तक पहुंचने की हिम्मत न हो सकी थी। उसके नाज़ुक होंठो ने मेरे लबों को छुआ मगर मैं झटके में से उसे खुद से दूर कर के कमरे से बाहर निकल गया था। वो हमारी सगाई की रात थी। मुझे कमरे से निकलते हुए उसकी भाभी ने देख लिया और उनके मुखबिर मन ने हमदोनों के बीच की बातें भी सुन ली। जब मैं ज़ेबा से साफ़ लफ़्ज़ों में कह रहा था कि ये सब मुझसे न हो पायेगा। भाभी ने ये बात उसके तीनों भाइयों को बता दी और अगले दिन हमारी सगाई टूट गई। ज़ेबा तो हर हाल में मेरा साथ देना चाहती थी । कहती थी उसने तो मुहब्बत न करने की ठानी थी । आज तक कोई उसके दिल को छू भी नही पाया था मगर मुझसे उसे इश्क़ हो गया है। मेंरी खामोश पर्सनालिटी उसे भा गई थी। मग़र मुझे भी ये रिश्ता उसके ऊपर ज़्यादती लग रही थी। इसलिए उसे बिना बताया मैंने शहर छोड़ दिया। अब कलकत्ता मेरा नया ठिकाना था। ज़ेबा कि याद यहाँ भी मेरा साथ नही छोड़ रही थी इसलिए मैंने ख़ुद को उसके लायक बनाने को सोचा। फिर मेरी रातें कलकत्ते की बदनाम गली के लाल कोठी में गुज़रने लगी। और नतीजा ये हुआ बिना लाल कोठी पर जाय अब मुझे नींद नही आती थी। वो दवा जो मैंने इलाज के लिए लेनी शुरू कि थी मेरी लत बन गई। अब जब के मैं ज़ेबा के पास जाने लायक बन गया था मेरे कदम जाने क्यों उसकी ओर जाने को नही उठ रहे थे। एक बेवफाई का एहसास अंदर ही अंदर मुझे मार रही थी । फिर लाल कोठी की लत ने मुझे अपना गुलाम बना लिया था। क्या इस लत के साथ मैं ज़ेबा की ज़िन्दगी में शामिल हो सकता था? मेरे ज़मीर ने इजाज़त नही दी और मैन खुद को रोक लिया। मगर मेरी मोहब्बत एक तरफ़ा नही थी। ज़ेबा ने मुझे ढूंढ ही लिया। मैं लहरो में उसका अक्स देख रहा था जब वो हक़ीक़त बन कर सामने आ गई।
पिछले 7 दिनों से वो मुझसे मिलने की लगातार कोशीश कर रही है । मगर अब मुझमे उससे नज़रे मिलने की हिम्मत कहाँ। अगर वो मुझे भूल गई होती तो मैं अपनी गलती के साथ जी लेता मगर उसकी पाकीज़ा मुहब्बत ने मुझे और गुनाहगार बना दिया है। मगर अपने इस सड़े गले वजूद को उसके मुहब्बत के पशमिने में ढकना नही चाहता।मेरी वजूद को तो कीड़े लग गए हैं। जो उसकी मुहब्बत की ताब से अंदर से बाहर निकल आये हैं। हर वक़्त ये मेरे जिस्म से चिपके रहते हैं। मेरे पूरे जिस्म पर रेंग रहे हैं। रोज़ इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। हर सिम्त कीड़े ही कीड़े हैं। अब तो समझ नही आता कि मैं इंसान हूँ या महज़ नाली का कीड़ा। मैं इन कीड़ों के साथ नही जी सकता। मैं इन गंदे कीड़ों को उसके खूबसूरत दामन में नही डाल सकता। इसलिए मेरा जाना ही बेहतर है। हाँ मेरा जाना ही बेहतर है।
उसने अपना खत खत्म किया और नीचे एक निवेदन की कि ज़ेबा को उसके घिनोने शक्ल के बारे में कुछ न बताऊँ। बस उस तक इतना पैग़ाम पहुँचा दूँ कि " मैं इतना मजबूर हूँ के चाह कर भी उसका नही हो सकता। वो मुझसे बेपनाह मुहब्बत करती है मेरी मज़बूरी ज़रूर समझ जायगी।"
मुहिब की मृत्यु के पाँचवे दिन। सुबह के समय एक औरत मुझसे मिलने आई। सफेद दुपट्टे में वो ओस की बूंद सी उज्जवल लग रही थी। मगर मुख पर उदासी की मलिन छाया थी। मलिन मुस्कान के साथ उसने जो बात कही उससे मेरा पूरा शरीर कांप गया। हाथों में थमी चाय की प्याली झलक गई।
" मुहिब काल शाम मिले थें मुझसे। कहा आपके पास उनकी ग़ज़लों की एक डायरी है जो उन्होंने मेरे लिए लिखी थी आपसे ले लूं।"
काल शाम!! कहाँ है वो?? मैन आश्चर्य से पूछा
यही तो मैं आपसे पूछना चाहती हूँ। आप उनकी क़रीबी दोस्त हैं गर आपको कुछ इल्म हो तो बताइए। उनके घर का पता तो दीजिये।पिछले चार दिनों से रोज़ मुझसे मिल रहे हैं मगर अपने घर नही ले जाते। जब भी पूछती हैं उठ कर चले जाते हैं। मैं उन्हें फिर से खोना नही चाहती।
झनाक। मेरे हाथों से चाय की प्याली छूट के गिर पड़ी । उसके क़ब्र पर मिट्टी मैन भी तो डाली थी।
हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली..
इतिहास की ऐसी शख्सियत जिन्होने अपने अल्पकालिक जीवनावधि में दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ा है । भगत सिंह,एक ऐसा नाम जिसे सुनकर प्रत्येक युवा हृदय गर्व से फूल जाता है और एक अजीब सी ऊर्जा मन-मस्तिष्क में दौड़ने लगती है । आखिर उनके व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जिसके कारण उन्हें लेफ़्टिस्ट, राइटिस्ट, सेंट्रलिस्ट, सोशलिस्ट,नेशनलिस्ट, किसान, मजदूर, विद्यार्थी, युवा और वृद्ध सभीसम्मान की दृष्टि से देखते हैं और उनकी तस्वीर को अपने दफ्तरों, कमरों, बैनरों, पोस्टरों आदि में स्थान देते हैं । मात्र 23 वर्ष की उम्र में समाज को लेकर एक मुकम्मल दृष्टि, परिपक्व राजनैतिक समझ और उद्देश्य व विचारों की स्पष्टता उन्हें अपने समकालीन बड़े नेताओं, बुद्धिजीवियों के समकक्ष और कुछ मामलों में आगे भी खड़ा कर देती है । इतनी कम उम्र में इतना कठोर और सधा हुआ निर्णय (जीवन उत्सर्ग) लेना जिससेवे अन्य शहीदों से भिन्न या उनका सम्मिलित प्रतीक बनकर ‘शहीद-ए-आजम’ के रूप में पहचाने गए ।
क्रांतिकारी किसी सम्मान, गौरव, पुरस्कार या इतिहास में जगह पाने की लालसा में नहीं लड़ते हैं । उनका संघर्ष किसी महान लक्ष्य के लिए होता है जो उच्च आदर्शों, मूल्यों से जुड़ा होता है और उस महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनके व्यक्तित्व में भी उच्चादर्श समाहित होते हैं जिससे लोग सदियों तक प्रेरणा लेते रहते हैं ।एक क्रांतिकारी कार्यकर्त्ता, संगठनकर्त्ता, चिंतक और लेखक के रूप में भगत सिंह ने जो भूमिका निभाई वही उन्हें भारतीय क्रांतिकारी चिंतन के प्रतीक के रूप में पहचान दिलाती है । उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं और विचारों से अवगत हुए बगैर उनकी असाधारण लोकप्रियता की पहचान कर पाना मुश्किल है ।
भगत सिंह की जेल नोटबुक की टिप्पणियों के नाम देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक है क्योंकि इसमें मार्क्स,एंगेल्स, त्रोस्की, बर्टेंड रसेल, जान स्टुअर्ट मिल, जान लॉक , हर्बर्ट स्पेन्सर, स्पिनोजा, टॉमस एक्विनास, रूसो जैसे समाजचिंतक, दार्शनिक हैं तो गोर्की, मार्क ट्वेन, अप्टन सिंक्लेयर, विक्टर ह्यूगो, हेनरिक इबसन, टेनिसन और वर्ड्सवर्थ जैसे नाटककार, उपन्यासकर और कवि शामिल हैं । अपनी नोटबुक में भगत सिंह ने विभिन्न विषयों का अध्ययन करते हुए उसमें से महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ संग्रहीत कीं जिसमें धर्म की सामाजिक भूमिका के पतनशील तत्वों पर सामाग्री जुटाई , परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता की क्रांतिकारी आलोचना के दस्तावेज़ जुटाए । उन्होने धर्म और ईश्वर पर अपने विद्रोही विचार ही नही रखे बल्कि परिवार और विवाह संस्था को लेकर भी क्रांतिकारी विचार रखते हैं । भगत सिंह ने लिखा है कि मेरे दिमाग के हर कोने अंतरे से एक ही आवाज़ रह-रहकर उठती- अध्ययन करो । स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो । अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो । भगत सिंह कालकोठरी में रहते हुए जीवन के अंतिम क्षणों में भी विश्वचिंतन के इतिहास का अध्ययन कर रहे थे । इस अध्ययन और एकाग्र चिंतन ने उन्हें बेहद पारदर्शी विवेकसम्पन्न बना दिया ।
आलोचना की दुनिया विचारों की दुनिया है और विचार के लिए बहस जरूरी है । बहस के जरिए एक पीढ़ी में जो सवाल पैदा होते हैं उनके जवाब अगली पीढ़ी को देने होते हैं ।1भगत सिंह मानते थे कि आलोचना और स्वतंत्र विचार क्रांतिकारी के दो अनिवार्य गुण होते हैं और यह भी कि यथार्थवादी होने के लिए तो समूचे पुरातन विश्वास को ही चुनौती देनी होगी । भगत सिंह के चरित्र निर्माण व तर्क, विद्रोह और साहस की दीक्षा पारिवारिक वातावरण से ही प्राप्त होने लगी थी । इनके परिवारजनों ने जहां अपने सिख समुदाय की नाराजगी के बावजूद आर्यसमाज की गतिविधियां जारी रखी थीं वहीं खुद आर्यसमाज के राजनीति से दूर रहने की आम प्रवृत्ति को भी नकार दिया था । भगत सिंह किसी को भी आलोचना के क्षेत्र से बाहर नहीं रख सकते थे धर्म, ईश्वर, राजसत्ता या कोई भी बड़े से बड़ा नेता या कोई अन्य संस्था । उनकी जेल नोटबुक में एक उद्धरण मिलता है जो उल्लेखनीय है –
महान इसलिए महान है क्योंकि
हम घुटनों पर हैं
आओ उठ खड़े हों !2
बिना किसी पूर्वाग्रह के, तटस्थ होकर आलोचना का विवेक भगत सिंह के पास था । वे अगर मार्क्स, लेनिन और एंगेल्स को पढ़ते हैं तो त्रोटस्की को भी पढ़ते हैं और उनकी टिप्पणियों को भी अपनी डायरी में जगह देते हैं ।
आज भी जब-तब हिन्दी को गैर-हिन्दी भाषी राज्यों पर थोपने की कोशिशें विभिन्न सरकारों द्वारा समय-समय पर की जाती रही है,ऐसे में हमें भगत सिंह के विचार से भी सीख लेनी चाहिए जो कि उन्होने मात्र सत्रह वर्ष की आयु में ‘पंजाबी की भाषा और लिपि की समस्या’ विषय पर अपने लेख में प्रकट किए –यह सब ठीक है, परंतु हमारे सामने इस समय सबसे प्रमुख प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है । एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा का होना आवश्यक है, परंतु यह एकदम हो नहीं सकता । उसके लिए कदम-कदम चलना पड़ता है ।3इसी लेख में साहित्य के संबंध में लिखते हैं कि “...साहित्य के बिना कोई देश अथवा जाति उन्नति नहीं कर सकती, परंतु साहित्य के लिए सबसे पहले भाषा की आवश्यकता होती है …”4भगत सिंह को यह स्पष्ट था कि सामाजिक समस्याओं तथा परिस्थितियों के अनुसार यदि नवीन साहित्य की सृष्टि नहीं की जाएगी तो किसी भी महान कार्य अथवा विचार को स्थायी नहीं बनाया जा सकता ।
भगत सिंह जिस क्रांतिकारी संगठन से जुड़े थे उसका उद्देश्य केवल अंग्रेजों से हिंदुस्तान को आज़ाद कराना मात्र नहीं था । उनकी और उनके साथियों की दृष्टि अधिक व्यापक थी । भगत सिंह और उनके साथी ने अगर असेंबली में बम फेंका तो किसी को आघात पहुँचने के लिए नहीं बल्कि उसके पीछे एक पूरा ‘ दर्शन’ था ।भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो बम फेंकने के बाद आसानी से भाग निकलते, मगर उन्होने जानबूझकर अपने को गिरफ्तार कराया क्योंकि वे क्रांतिकारी प्रचार के लिए अदालत का एक मंच के रूप में उपयोग करना चाहते थे ।5यहाँ ‘बम’ एक प्रतीक था ‘विचार’ का, और ‘धमाका’ विचारों के प्रसार का । विश्व भर के चिंतकों को पढ़ते हुए शोषकों की वास्तविक पहचान हो गयी थी इन लोगों को । उन्हें पता था कि पूंजीवादी राज्यों में मजदूर लोग एक मशीनी ताकत होते हैं और आम तौर पर अपने श्रम के सांस्कृतिक महत्व को नहीं पहचानते । आपके मुल्क में ट्रस्टों, राष्ट्रीय शक्तियाँ लूटनेवाले संगठनों, मेहनतकश जनता की कमाई पर जीनेवाली जोंकों का बोलबाला है ।6आज़ादीऔरक्रांतिसेउनकाआशयबहुतव्यापकथा-
आज़ादी का मतलब
भगत सिंह इस बात को बखूबी समझ रहे थे कि सत्ता का चरित्र हमेशा एक जैसा ही होता है, तभी उन्होने कह दिया था गोरे चले जाएंगे और भूरे हम पर राज करेंगे । आज़ादी को स्पष्ट करते हुए भगत सिंह ने कहा था कि हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अङ्ग्रेज़ी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम है- जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जाएंगे ।7
क्रांति से आशय
भगत सिंह किसी हिंसात्मक क्रांति को बढ़ावा देने के पक्षधर नहीं थे । उनका मानना था कि क्रांति की तलवार विचारों की सान पर पैनी होती है और क्रांति ईश्वर विरोधी हो सकती है मगर मनुष्य विरोधी नहीं । वे इस बात को बखूबी समझते थे कि विचारहीन हिंसात्मक कार्यवाही से मात्र सत्ता का परिवर्तन हो सकता है, व्यवस्था का नहीं । क्रांति का आशय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयाँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है । वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है । क्रांति से हमारा अभिप्राय है – अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन ।8 भगत सिंह कहते थे कि क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है और उसका कोई अपहरण नहीं कर सकता ।
सन् 1924 में मतवाला पत्रिका में ‘युवक’ नाम से भगत सिंह का एक लेख प्रकाशित हुआ। इसमें भगत सिंह युवावस्था को मानव जीवन का वसंत मानते हुए लिखते हैं चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी हो सकता है युवक । वह देवता बन सकता है तो पिशाच भी बन सकता है । वही संसार को त्रस्त कर सकता है, वही संसार को अभयदान दे सकता है । संसार में युवक का ही साम्राज्य है । युवक के कीर्तिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है ।9 जाहिर है कि युवक उत्साह और ऊर्जा का पुंज लिए जिस ओर बढ़ता है उधर ही रास्ता निकाल आता है । साहित्य में युवावस्था को लेकर ऐसी ही भावाभिव्यक्ति ‘दिनकर’जी के यहाँ दिखती है –
‘संघर्षों के साये में इतिहास हमारा पलता है ।
जिस ओर जवानी चलती है उस ओर ज़माना चलता है ॥’
आखिर क्यों डरती हैं सत्ताएँ युवाओं से ?
अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि देश में जब भी विपक्षशून्यता की स्थिति बनी है,सड़कें सूनी और संसद आवारा हुई है, तब-तब विद्यार्थी और युवा ही आखिरी उम्मीद के रूप में सामने नज़र आए हैं । देश का युवा खासकर विद्यार्थी वर्ग जिसके पास दिल-दिमाग, जोश और होश दोनों होता है । ये इन्हीं दोनों का संतुलन बनाकर किसी भी स्थापित सत्ता का संतुलन बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं । आखिर विद्यार्थी के पास गोली-बंदूक नहीं होती फिर भी ये सत्ताएँ इनसे इतना भय क्यों खाती हैं ? क्योंकि, इनके पास विचारों की ताकत होती है । गोली-बंदूक से सिर्फ बदला लिया जा सकता है किन्तु विचारों से बदलाव लाया जा सकता है । इसी बदलाव से ही डरती हैं सत्ताएँ ।गोरख पांडे की कविता ‘उनका डर’ में इस भय को आसानी से देखा जा सकता है -
वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।10
तत्कालीनराजनीतिमेंराष्ट्रवादकेसाथ-साथसाम्प्रदायिकताभीपनपरहीथीजिसपरभगतसिंहकीदृष्टिजानास्वाभाविकथा।महात्मा टालल्स्टोय की पुस्तक Essay and Lettersका उद्धरण देते हुएभगतसिंह धर्म के तीन हिस्सों पर विचार किया –
- Essentialsof Religion,यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना , गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना इत्यादि ।
- Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार रचना आदि का दर्शन ।
- RitualsofReligion, यानी रस्मों-रिवाज इत्यादि ।
इसमें भगत सिंह ने यह पाया कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं जिसमें सच बोलने, चोरी न करने और प्रेम से रहने की बाते हैं । दूसरे हिस्से में भी दर्शन की बातों से भी कोई दिक्कत नहीं है बस तीसरे हिस्से यानी रस्मों-रिवाज से ही सारे भेद शुरू हो जाते हैं । इसलिए वे तीसरी और दूसरी बातों में अंधविश्वास के मेल से जो दिक्कत पैदा होती है उसके कारण धर्म को खारिज करने की बात करते हैं । साथ ही, पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचारों के साथ यदि धर्म बनता है तो उसको स्वीकृति दे देते हैं । इसके साथ हिदायत भी देते हैं कि लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना जरूरी है, छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा ।11 ये लेख 1928 में किरती में छपा था जबकि अंतिम क्षणों के अध्ययन में अपनी नोटबुक में उन्होने मार्क्स का प्रसिद्ध कथन नोट किया था किधर्म मानवता के लिए एक अफीम है।12 इसके साथ ही बर्टेंड रसेल की धर्म आधारित टिप्पणी भी नोट कर रखी थी- धर्म के प्रति मेरा अपना दृष्टिकोण वही है जो लुक्रेटियस का है । मैं इसे भय से पैदा हुई एक बीमारी के रूप में, और मानव जाति के लिए एक अकथनीय दुख के रूप में मानता हूँ ।13 निश्चित ही भगत सिंह का चिंतन समय के साथ अधिक गहन होता गया जिसका रेखांकन उनकी टिप्पणियों से होता है ।उनकायेगहनचिंतनअंततःउन्हेंनास्तिकताकाहीविकल्पउपलब्धकराताहै।
भगत सिंह नास्तिक होने के पीछे तर्क देते हैं कि मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है ?ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है ।… मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं ।14भगत सिंह स्वयं को नास्तिक कहने लगे थे जिसके कारण उनके कई मित्र उन्हें अहंकारी भी कहने लगे थे । जिसके स्पष्टीकरण के तौर पर उन्होने ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ जैसा विचारोत्तेजक लेख लिखा ।
इतिहासऔरसाहित्यमेंगांधीवादकोजिसप्रकारस्थानदियागयाहैक्याभगतसिंहकेविचारोंकोप्रसारितकियागया ?यहाँ गांधी जी की तुलना भगत सिंह से करने के पीछे किसी को कमतर या बेहतर साबित करने का उद्देश्य नहींछिपाहै। क्या अहिंसा और त्याग को पूजने वाले भारतीय जनमानस को भगत सिंह एक हिंसा करने वाले आतंकी ही नज़र आते रहे हैं, जैसी छवि अंग्रेजों ने गढ़ी थी ।भगतसिंहकीनिर्भीकताऔरनिडरताकेजितनेकिस्सेभारतीयोंतकपहुंचेक्याउनमेंकहींभीभगतसिंहकेविचारोंऔरसपनोंकीभीचर्चामिलतीहै ? किसी भी समाजचिंतक या इतिहास को गति देने वाले का सही मूल्यांकन उसके सपनों के आधार पर किया जाना चाहिए । साहित्यकार व आलोचक मुद्रराक्षस लिखते हैं कि जहां भगत सिंह एक तार्किक आधुनिकतावादी थे, गांधी इतिहास को पीछे लौटाने वाले सनातनी हिन्दू थे ।15 बहुत से लोग गांधी जी की तुलना जीसस से करते हैं । इस संबंध में मुद्रराक्षस जी का मत है कि जीसस की थोड़ी तुलना भगत सिंह से जरूर की जा सकती है । गांधी को धोखे से गोली मारी गयी थी । गांधी गोली से मरने का फैसला करके नहीं निकले थे जबकि भगत सिंह और जीसस दोनों ने ही जानबूझकर मृत्यु को बुलाया था ।16 अछूत समस्या, सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़, विद्यार्थी और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत ही गंभीर चिंतनपरक आलेख भगत सिंह की वैचारिक स्पष्टता और बेहतर भारत के उनके सपने को दर्शाता है । जहां समता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व की स्पष्ट झलक दिख जाती है ।
भगतसिंहकीप्रगतिशीलसोचकेवलबुर्जुआ-सर्वहारासंघर्षतकसीमितनहींथीबल्किस्त्री-पुरुष संबंधपरभीबेबाकटिप्पणीदेतेहैंजिसका संकेत सुखदेव को लिखे एक खत में मिलता है – मैं कह सकता हूँ कि नौजवान युवक युवती आपस में प्यार कर सकते हैं और वे अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं ।17जिस समाज मेंभगत सिंह रह रहे थे उसमें किसी युवती को प्रेम करने की आज़ादी देना साधारण बात नहीं थी । भगत सिंह निजी संपत्ति, राज्य की उत्पत्ति और इनके बने रहने के लिए अनिवार्य परिवार और विवाह संस्था की सूक्षता से पड़ताल करते हैं । उनकी जेल नोटबुक में इससे संबन्धित कई महत्वपूर्ण उद्धरण मिल जाएंगे जो कि एंगेल्स को पढ़ते हुए उन्होने नोट किए थे । वर्ग-संघर्ष की शुरुआत के संबंध में एंगेल्स की यह टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है कि इतिहास में पहला वर्ग-विरोध एकविवाह प्रथा के अंतर्गत पुरुष और नारी के विरोध के विकास के साथ-साथ और इतिहास का पहला वर्ग-उत्पीड़न पुरुष द्वारा नारी के उत्पीड़न के साथ-साथ प्रकट होता है ।18
भारत भूमि की ये बिडंबना ही कही जाएगी कि जहां बुद्ध, कबीर आदि ने जिस मूर्तिपूजा का खंडन किया बाद में उनके अनुयायियों ने उन्हीं की मूर्ति बनाकर पूजना आरंभ कर दिया ताकि उनके विचारों और सिद्धांतों पर तर्क-वितर्क से छुटकारा मिले । हर वर्ष भगत सिंह का शहादत दिवस और जयंती हम मनाते हैं किन्तु कितने लोग उनके विचारों को पढ़ते हैं ? क्या ज़्यादातर युवा केवल सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीर चस्पाकर अथवा उनकी फोटो बनी टी-शर्ट पहनकर ही खुश नहीं हो लेते हैं ? जिस अधूरे स्वप्न और सुनहरे भविष्य को दिल में बसाये हुए फांसी के फंदे को चूमा था क्या आज हम उस सपने को पूरा करने की कोशिश में भागीदार हैं ? आज भगत सिंह व्यक्ति नही विचार हैं और व्यक्ति को मारा जा सकता है किन्तु उसके विचारों को नहीं । इस बात से वे भी भली-भांति आश्वस्त थे,वरना अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखे ख़त में इस शे’र को अनायास ही जगह नहीं देते –
हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली ।
ये मुश्ते - खाक़ है फानी,रहे न रहे ।।19
संदर्भ –
- पंकज बिष्ट (सं), समयांतर (पत्रिका), वर्ष-50, अंक-3, दिसंबर 2018, पृष्ठ सं- 47
- चमन लाल (संक. एवं संपा.), भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़, आधार प्रकाशन, हरियाणा, सं-2018, पृष्ठ सं – 389
- वही,पृष्ठ सं- 43
- वही, पृष्ठ सं- 42
- विपिन चन्द्र, आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियंट ब्लैकस्वान, तेलंगाना, 2019, पृष्ठ सं-299
- मैक्सिम गोर्की, संस्कृति के महारथियों आप किसके साथ हैं (लेख),बुद्धिजीवी का दायित्व (संकलन),गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, जनवरी 2018, पृष्ठ सं- 85
- चमन लाल (संक. एवं संपा.), भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़, आधार प्रकाशन, हरियाणा, सं-2018, पृष्ठ सं – 151
- वही, पृष्ठ सं- 185
- वही, पृष्ठ सं- 178
- कविता कोश – गोरख पांडे
- चमन लाल (संक. एवं संपा.), भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़, आधार प्रकाशन, हरियाणा, सं-2018, पृष्ठ सं – 151
- वही, पृष्ठ सं- 462
- वही, पृष्ठ सं- 364
- वही, पृष्ठ सं- 262
- मुद्रराक्षस, भगत सिंह होने का मतलब, साहित्य उपक्रम, दिल्ली, दिसम्बर 2010, पृष्ठ सं- 14
- वही पृष्ठ सं- 15
- चमन लाल (संक. एवं संपा.), भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़, आधार प्रकाशन, हरियाणा, सं-2018, पृष्ठ सं – 178
- एंगेल्स, परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, पी.पी.एच,न्यू दिल्ली,2010, पृष्ठ सं- 79
- चमन लाल (संक. एवं संपा.), भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़, आधार प्रकाशन, हरियाणा, सं-2018, पृष्ठ सं – 238
- नवीनसिंह
शोधार्थी (पी-एच.डी.), हिंदीविभाग,
अलीगढ़मुस्लिमयूनिवर्सिटी,अलीगढ़
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