हिन्दी के पाणिनि कहे जाने वाले आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ( 15.12.1998- 12.8.1981) का जन्म कानपुर के बिठूर के पास रामनगर नामक गांव में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा गांव में, संस्कृत की शिक्षा वृंदावन में और आगे की शिक्षा बनारस तथा पंजाब में हुई. कुछ वर्ष तक उन्होंने हिमांचल प्रदेश में अध्यापन का कार्य किया और उसके बाद वे स्वतंत्र वृत्ति से कनखल ( हरिद्वार ) में अत्यन्त आर्थिक असुविधाओं के साथ जीवनयापन करते रहे. उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के कोश विभाग में भी कार्य किया. वाजपेयी जी अत्यंत स्वाभिमानी और अक्खड़ स्वभाव के व्यक्ति थे. निर्भीकता, स्पष्टवादिता और स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थे. अपनी निर्भीकता के कारण वे "अक्खड कबीर" और स्वाभिमान के कारण "अभिमान मेरु" कहाये जाने लगे थे.
वाजपेयी जी ने खड़ी बोली हिन्दी के व्याकरण की निर्मिति में मुख्य भूमिका निभाई है. उन्होंने हिन्दी को परिष्कृत करके उसे आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के योग्य बनाया. इसके पूर्व आधुनिक हिन्दी का प्रचलन तो हो चुका था किन्तु उसके व्याकरण का कोई सुव्यवस्थित और मानक रूप नहीं बन सका था. वाजपेयी जी ने हिन्दी को परिष्कृत भी किया और उसका मानक व्याकरण भी बनाया.
वाजपेयी जी को अपनी स्थापनाओं पर इतना विश्वास था कि वे किसी भी चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे. पं. सकलनारायण शर्मा का एक लेख ‘माधुरी’ में छपा था जिसमें हिन्दी व्याकरण पर टिप्पणी के साथ ही हिन्दी व्याकरण सबंधी अनेक जिज्ञासाएं भी प्रकट की गई थीं. वाजपेयी जी ने उसका जवाब देते हुए ‘माधुरी’ में एक लेख लिखा जिसका हिन्दी जगत पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा और उसके बाद व्याकरणाचार्य के रूप में वे प्रतिष्ठित हो गए. वाजपेयी जी ने भाषा विज्ञान, व्याकरण, साहित्य- समालोचना एवं पत्रकारिता आदि सभी क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराकर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है. फिर भी उनकी मुख्य देन ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ ही है.
वाजपेयी जी की हिन्दी भाषा और व्याकरण संबंधी अन्य पुस्तकों में ‘ब्रजभाषा का व्याकरण’, ‘राष्ट्रीय भाषा का प्रथम व्याकरण’, ‘हिन्दी निरुक्त’, ‘हिन्दी शब्द –मीमांसा’, ‘भारतीय भाषा विज्ञान’, ‘हिन्दी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण’, ‘ब्रजभाषा का प्रौढ़ व्याकरण’, ‘अच्छी हिन्दी’, ‘अच्छी हिन्दी का नमूना’, सरल शब्दानुशासन, राष्ट्रभाषा का इतिहास, ‘लेखन कला’, ‘साहित्य- निर्माण की शिक्षा’, ‘साहित्य मीमांसा’ ‘संस्कृति का पांचवां अध्याय’, आदि प्रमुख हैं.
‘हिन्दी शब्दानुशासन’ उनकी सर्वाधिक प्रतिष्ठित और चर्चित पुस्तक है. इसकी पूर्वपीठिका में हिन्दी की उत्पत्ति, विकास-पद्धति, प्रकृति और विकास आदि के अतिरिक्त नागरी लिपि, खड़ी बोली का परिष्कार आदि पर बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से विचार किया गया है। पूर्वार्ध के सात अध्यायों में वर्ण, शब्द, पद, विभक्ति, प्रत्यय, संज्ञा, सर्वनाम, लिंग-व्यवस्था, अव्यय, उपसर्ग, यौगिक शब्दों की प्रक्रियाएं, कृदंत और तद्धित शब्द व समास, क्रिया-विशेषण, वाक्य संरचना, वाक्य भेद, पदों की पुनरुक्ति, विशेषणों के प्रयोग, भावात्मक संज्ञाओं और विशेषण आदि पर विचार किया गया है.
उत्तरार्द्ध में कुल पाँच अध्याय हैं. इसमें क्रिया से जुड़े तत्वों, उपधातुओं के भेद, संयुक्त क्रियाएँ, नामधातु और क्रिया की द्विरुक्ति का विवेचन है. इसके परिशिष्ट में हिन्दी की बोलियाँ और उनमें एकसूत्रता आदि का विश्लेषण है. इसमें राजस्थानी, ब्रजभाषा, कन्नौजी या पाञ्चाली, अवधी, भोजपुरी (मगही) और मैथिली बोलियों के विभिन्न अवयवों पर विचार किया गया है. इसके अलावा इसमें पंजाबी भाषा एवं व्याकरण और भाषाविज्ञान पर भी विचार किया गया है.
सबसे पहले वाजपेयी जी ने ही घोषित किया कि हिन्दी एक स्वतंत्र भाषा है. वह संस्कृत से अनुप्राणित अवश्य है किन्तु अपने क्षेत्र में वह सार्वभौम सत्ता रखती है. यहां उसके अपने नियम कानून लागू होते हैं.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार अभी तक हिन्दी के जो व्याकरण लिखे गए, वे प्रयोग निर्देश तक ही सीमित हैं. “हिन्दी शब्दानुशासन” में पहली बार व्याकरण के तत्वदर्शन का स्वरूप स्पष्ट हुआ है.
‘ब्रजभाषा व्याकरण’ नामक वाजपेयी जी की पुस्तक भी बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें केवल व्याकरण ही नहीं, ब्रजभाषा के उद्भव, विकास और उसके स्वरूप का भी गहन अध्ययन प्रस्तुत किया गया है.
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की स्थापनाओं में से एक महत्वपूर्ण स्थापना यह भी है कि भारतीय आर्यभाषाओं का विकास संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश के क्रमिक विकास के रूप में (वंशवृक्ष की तरह) नहीं हुआ है और न तो संस्कृत, सारी भारतीय आर्यभाषाओं की जननी ही है. वास्तव में भाषाओं का विकास नदी की धारा की तरह होता है जैसे गंगा के समुद्र में मिलने से पूर्व मार्ग में बहुत सी छोटी बड़ी नदियां मिलती जाती है, उसी तरह से छोटी- छोटी भाषाएं भी बड़ी भाषाओं में समाहित होती जाती हैं. दुनिया में भाषाएं सिर्फ मर रही हैं. समाज के ऐतिहासिक विकास-क्रम में लघु जातियों की भाषाएं महाजातियों की भाषाओं में समाहित होती जाती हैं. रामविलास शर्मा ने अपनी स्थापना की पुष्टि में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को उद्धृत किया है. वे लिखते हैं,
“1953 में प्रकाशित एक लेख में मैने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश वाली मंजिलों का विरोध किया था. इस सिलसिले में श्री नामवर सिंह ने अपने गवेषणापूर्ण ग्रंथ ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ में लिखा है, “ किन्तु कुछ विद्वानों को भारतीय आर्यभाषा के विकास में संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश वगैरह इतनी मंजिलें गिनाना असंगत प्रतीत होता है.” डॉ. चाटुर्ज्या से जो उद्धरण पहले दिए गए हैं, उनसे स्पष्ट है कि इन मंजिलों की असंगति स्वीकृत पद्धति के भाषा- वैज्ञानिकों को भी मालूम हुई है. श्री किशोरीदास वाजपेयी ने अपने ग्रंथ हिन्दी शब्दानुशसन में इस मंजिल को स्वीकार नहीं किया. इस दोनो विद्वानों के ग्रंथ पढ़ने के बाद मेरी यह धारणा और भी दृढ़ हो गयी कि यह मंजिलों की कल्पना अवैज्ञानिक है.“ ( भाषा और समाज, पृष्ठ-203)
भाषा विज्ञान और व्याकरण के अलावा भी साहित्यशास्त्र सहित दूसरे विविध विषयों पर उनकी अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं. इनमें ‘काव्य प्रवेशिका’, ‘साहित्य की उपक्रमणिका’, ‘काव्य में रहस्यवाद’, ‘रस और अलंकार’, ‘साहित्य प्रवेशिका’, ‘अलंकार मीमांसा’, ‘आचार्य द्विवेदी और उनके संगी साथी’, ‘साहित्यिक जीवन के संस्मरण’, ‘वैष्णव धर्म और आर्य समाज’, ‘वर्ण व्यवस्था और अछूत’, ‘स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री सुभाषचंद्र बोस’, ‘राष्ट्रपिता लोकमान्य तिलक’, ‘कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास’, ‘मानव धर्म मीमांसा’, ‘मेरे कुछ मौलिक विचार’, ‘संस्कृत शिक्षण कला और अनुवाद विषय’ आदि प्रमुख है.
व्याकरणाचार्य के साथ- साथ किशोरीदास वाजपेयी एक सुधी समीक्षक भी थे. ‘बिहारी सतसई और उसके टीकाकार’ लेखमाला के प्रकाशित होने के बाद एक सुधी आलोचक के रूप में भी उनकी पहचान हो गई थी. उन्होंने ‘तरंगिणी’ में ओजस्वी कविताएं भी लिखीं जिसके कारण उन्हे जेल भी जाना पड़ा था.
आचार्य वाजपेयी की पुस्तक ‘भारतीय भाषाविज्ञान की भूमिका’ में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, “आचार्य वाजपेयी हिन्दी के व्याकरण और भाषा विज्ञान पर असाधारण अधिकार रखते हैं. वे मानो इन्ही दो विधाओं के लिए पैदा हुए हैं....... मेरा बस चलता तो वाजपेयी जी को अर्थचिन्ता से मुक्त करके, उन्हें सभी हिन्दी (आर्य भाषा वाले) क्षेत्रों में शब्द-संचय और विश्लेषण के लिए छोड़ देता. उन पर कोई निर्बंध (कार्य करने की मात्रा) न रखता. जिसके हृदय में स्वत: निर्बंध है, उसे बाहर के निर्बंध की आवश्यकता नहीं.”
विष्णुदत्त राकेश ने ‘आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली’ का छह खण्डों में संपादन किया है.
12 अगस्त 1981 को कनखल ( हरिद्वार) में इस महान वैयाकरण का निधन हो गया. उनकी पुण्यतिथि पर हम हिन्दी भाषा, साहित्य और समाज क क्षेत्र में उनके महान योगदान का स्मरण करते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)