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Monday, August 31, 2020

’शोधालेख आमंत्रण’

’अक्षरवार्ता अंतरराष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका’


’शोधालेख आमंत्रण’


👉 अंतरराष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका अक्षरवार्ता के आगामी अंक के लिए ’इच्छुक लेखको, शोधार्थियों से शोधलेख आमंत्रित हैं।’


👉 अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षरवार्ता प्रिंट स्वरूप में मासिक छपने वाली पत्रिका अक्षरवार्ता आईएसएसएन नंबर, इंपेक्ट फेक्टर सहित आरएनआई (भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक कार्यालय ) से पंजीकृत प्रकाशन है।


👉 पूर्व में युजीसी की सूची में शामिल तथा वर्तमान में रेफर्ड जर्नल एवं पीर रेवियूड पत्रिका के रूप में प्रकाशित हो रही है।


👉 मल्टीडीसिप्लिनरी/विभिन्न विषयों पर मौलिक शोध,कृतिदेव फॉन्ट 010 अथवा युनिकोड फॉन्ट में फॉन्ट साइज 14 के साथ वर्ड फाइल में टाइप होकर 2000 से 3000 शब्दों का होना चाहिए।


👉 सहयोग शुल्क:- 1500/-


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A/C Holder:- AKSHARWARTA


करंट खाता क्रमांक:-510101003522430


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शाखा:- ऋषिनगर,उज्जैन,मप्र.


👉 संपादक:- अक्षरवार्ता


Email :- aksharwartajournal@gmail.com


संपर्क :- 8989547427


Friday, August 28, 2020

ग़ज़ल




 

ग़ज़ल🌹




 

बहर-2122 2122

 

दूर है मुझसे खुशी क्यों 

बिखरी सी है ज़िन्दगी क्यों 

 

चार दिन जीना है सबको

दिल में फिर ये दुश्मनी क्यों 

 

रोशनी दी जिसने हमको 

उसके घर में तीरगी क्यों 

 

आदमी का खूँ है पीता

अब यहा हर आदमी क्यों

 

आधुनिकता के भँवर में

हो गई गुम सादगी क्यों

 

 

✍जितेंद्र सुकुमार  'साहिर '

       शायर



लघुकथा रिश्ते का लिहाज़

लघुकथा

 

रिश्ते का लिहाज़

 

लंबे समयांतराल बाद जिला कलेक्टर के आदेशानुसार लाकडाउन में थोड़ी छूट दी गई ।ज्यादातर लोग घरों से निकल कर बाजार की तरफ चल पड़े थे,दैनिक जीवन से जुड़ी आवश्यक सामग्री की खरीदी करने के लिए। बालकनी में बैठे-बैठे मैं लोगों को बाजार आते-जाते देख रहा था, इच्छा हुई कि बाजार घूम आता हूँ।मैं भी घर से निकल पड़ा बाजार की तरफ। बाजार पहुंचकर मैं समैय्या के होटल में एक कप चाय बोलकर चाय आने का इंतजार कर रहा था,तभी मेरी नज़र पड़ी होटल में एक कोने में बैठे तीन लोगों पर , जो कि एक ही स्टूल पर बैठे थे, जिनमें एक व्यक्ति ठीक बीच में बैठे थे, और शराब की बोतल से शराब गिलास में डालकर क्रमश: पहले और फिर दूसरे व्यक्ति को बारी-बारी से दे रहे थे।जब पहले व्यक्ति शराब पी रहे होते तो दूसरे सज्जन दूसरी तरफ नज़र घुमा लेते थे और जब दूसरे सज्जन शराब पी रहे होते तो पहले वाले सज्जन दूसरी तरफ नज़र घुमा लेते। यह दृश्य देखकर मुझे बड़ा अजीबोगरीब लगा इसलिए मैं उन दोनों के शराब पीकर जाते ही तीसरे व्यक्ति जो दोनों को गिलास में शराब डालकर दे रहे थे उनके पास गया और पूछा कि जब ये दोनों व्यक्ति शराब का सेवन ही कर रहे थे तो एक दूसरे की तरफ पीठ कर के क्यों....? एक दूसरे से नज़र बचाकर क्यों...? उस तीसरे व्यक्ति ने मुझे बड़ी विनम्रता पूर्वक बताया - कि जो दोनों व्यक्ति बारी-बारी शराब पी रहे थे इनकी उम्र में पिता-पुत्र के उम्र जितना अंतर है और अंतर ही नहीं है अपितु ये दोनों पिता-पुत्र ही हैं।

पिता-पुत्र के रिश्ते की मर्यादा बनी रहे इसलिए बाप-बेटे दोनों एक दूसरे का और रिश्ते का लिहाज़ करते हुए शराब पीते समय नज़र दूसरी तरफ कर लेते थे।पिता-पुत्र के बीच यह मर्यादा,लिहाज़,सम्मान देख मैं नि:शब्द था आश्चर्यचकित था।जबकि यह वाकया फादर्स डे वाले दिन का ही था।

 

आशीष तिवारी निर्मल 

लालगांव, रीवा मध्यप्रदेश


धोनी को लिखे प्रधानमंत्री के पत्र पर बवाल और भाषाई राजनीति की चाल।

हिंदी से जुड़े कई मंचों पर एक चर्चा हो रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महेंद्र सिंह धोनी को जो पत्र लिखा है वह अंग्रेजी में क्यों लिखा गया है, हिंदी में क्यों नही? यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि प्रधानमंत्री सामान्य वार्तालाप हिंदी में करते हैं, उनकी हिंदी भी अच्छी है, जबकि उनकी अंग्रेजी सामान्य है । सबसे बड़ी बात यह है कि धोनी हिंदी भाषी हैं,अच्छी हिंदी बोल और समझ लेते हैं ,तो पत्र अंग्रेजी में क्यों? जो पत्र सामाजिक माध्यमों में घूम रहा है वह अंग्रेजी में है और प्रथमदृष्टया यह किसी भी लिहाज़ से प्रधानमंत्री जी की वाक शैली जैसा नहीं है बल्कि किसी अधिकारी द्वारा तैयार किया हुआ है।

उधर कन्नीमोई ने हंगामा किया हुआ है कि अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी थोपी जा रही है और हमेशा की तरह पी चिदंबरम और शशि थरूर भी इस भभक में अपने हाथ सेंक रहे हैं।हालांकि मसला इतना बड़ा नहीं था पर उनके द्वारा सी.आई.एस.एफ. के बाद आयुष मंत्रालय को भी चपेट में ले लिया गया है।

राजनैतिक विवशताएं क्या क्या नहीं करवाती। प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार जानते हैं कि धोनी एक अंतर्राष्ट्रीय हस्ती हैं और विशेषकर चेन्नई सुपरकिंग्स के कप्तान भी। अपने पत्र का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए उन्होंने अंग्रेजी चुनी। कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि तमिलनाडु में 2021 में विधानसभा चुनाव हैं और धोनी वहां की क्रिकेट टीम के कप्तान, अतः तमिलनाडु चुनावों को ध्यान में रखकर हिंदी में पत्र लिखकर वे वहां दूर से भी कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते थे। जो भी हो, दुर्भाग्यवश उनके हिंदी प्रशंसकों को इससे निराशा ही मिली।

वही हाल कन्नीमोई, चिदंबरम और शशि थरूर का है। 2021 के चुनाव के मद्देनजर वहां " तमिल विरुद्ध हिंदी भाषा " को एक महत्त्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनाकर, भाजपा और उनके सहयोगी दल ए,आई,डी,एम,के. को जनता की नज़रों में स्थानीय लोगों का दुश्मन बताया जा सकता है।जनता के हितों से किसी का कोई लेना देना नहीं है।मैं कई तमिल मित्रों को जानता हूं, जो कहते हैं कि तमिलनाडु में हिंदी के पक्ष में अनेक लोग और संस्थायें हैं ,लेकिन राजनेताओं ने भाषा के प्रश्न को स्थानीय लोगों की अस्मिता से जोड़कर, ऐसे लोगों की आवाज़ को दबाया हुआ है।

हिंदी के पक्षधर राजनेता पूर्णतः सापेक्षता में विश्वास रखते हैं। यदि हिंदीभाषियों से समर्थन चाहिए तो वे हिंदी के कसीदे पढ़ने लगते हैं। जब दूसरे भाषा भाषियों से समर्थन चाहिए, उनका हिंदी के प्रति समर्पण न जाने कहां गायब हो जाता है। वहीं दूसरी ओर हिंदी विरोधी राजनीति का दायरा जिन क्षेत्रों में है, वहां स्थानीय दलों ने जनता को भरमाया हुआ है। चूंकि उनके सरोकारों को हिंदी बहुल क्षेत्रों के समर्थन से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, अतः वे हिंदी के विरुद्ध बोलने से चूकते नहीं हैं।

कष्ट तब होता है जब वे अंग्रेजी को हिंदी के विरुद्ध खड़ा करते हैं। यह हथियार क्यों कारगर साबित होता है, इसके मनोविज्ञान में जाना होगा। सोचने की बात यह है कि अगर स्थानीय भाषा को हिंदी के विरुद्ध खड़ा करेंगे तो चूंकि वह स्थानीय भाषा आमजन की भाषा है, अतः उन्हें इकट्ठा करके विरोध करने में मेहनत करनी पड़ेगी, आंदोलन करना पड़ेगा। उससे अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है, जिससे आम व्यक्ति जो रोज कमाने जाता है और रोज खाता है, वह इस सबसे परेशान होकर स्वयं को इससे अलग कर लेगा। लेकिन अंग्रेजी को विकल्प कहते हुए, संचार माध्यमों में विरोध करेंगे तो बहुत से तथाकथित विशेषज्ञ मैदान में आ जायेंगे। ये लोग हिंदी का डर स्थानीय भाषाओं को दिखायेंगे और पैरवी अंग्रेजी की करेंगे। क्या वाहियात आकलन है?

अगर सही माने में वे लोग अपनी भाषाओं के हितचिंतक हैं तो क्यों नहीं वे उनके व्यापक प्रचार प्रसार की प्रक्रिया और नीति केंद्र सरकार के साथ बैठकर बनाते? कारण स्पष्ट है कि वे अभी तक जनतंत्र की व्यवस्था में राजतंत्र को भोगते रहे हैं। हमारे देश में अंग्रेजी "आभिजात्य" वर्ग की पहचान बन गई है और ऐसा वर्ग अपनी इस पहचान को अनंत काल तक कायम रखना चाहता है। वे नहीं चाहते कि सामान्य वर्ग आगे बढ़े। यही कारण है कि हमने जब भी स्थानीय स्तर पर कोई आंदोलन देखा है, वह मूलतः हिंदी विरोधी होता है, न कि स्थानीय भाषा के पक्ष में। वे यह भी जानते हैं कि उनके दुराग्रह से स्थानीय भाषा पीछे जा रही है और अंग्रेजी दिन ब दिन परिपुष्ट हो रही है, लेकिन निजी-स्वार्थवश वे इस तरह के नाटक करते रहते हैं।

कई विचारक मानते हैं कि एक सशक्त केंद्र सरकार हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान कर सकती है। मैं इस तरह के विचारों का स्वागत करता हूं,पर मेरी विचारधारा में सबसे पहले देश की सभी मान्य भाषाओं को उनका समुचित सम्मान तो मिले। सामान्यतः भाषा संबंधित विमर्श दो ध्रुवों पर अटका रहता है ""हिंदी या अंग्रेजी"", भले ही विषय ""भारतीय भाषाएं ""हो।स्थानीय भाषाओं के पक्षधर जब तक यह नहीं समझेंगे कि उनकी भाषा को अंग्रेजी से खतरा है, हिंदी से नहीं ,तब तक कन्नीमोई, चिदंबरम, या शशि थरूर जैसे नेता जनतंत्र के नाम पर जनता को भाषाई भ्रम में डालते रहेंगे। केंद्र में सरकार किसी की भी हो, वे भी मूकदर्शक
रहकर , राजनीतिक विवशतावश उनके विचारों के विरुद्ध कोई पहल नहीं करेंगे। जन-भावनाओं को प्रभावित करनेवाले भारतीय भाषाओं के प्रेमी समूह एक साथ आगे आयें, यह समय की आवश्यकता है,जो शनैः शनैः अब हर क्षेत्र में सक्रिय होने लगे हैं। समय लगेगा... पर परिणाम सकारात्मक होंगे...ध्यान रहे हमें किसी भाषा का विरोध नहीं करना है....बल्कि अपनी स्थानीय भाषाओं को उनका योग्य सम्मान दिलाना है...।
















 





























रविदत्त गौड़















चरित्रहीन

चरित्रहीन
 
बहुत दिनों से कहीं सवाल सता रहे थे, लेकिन उत्तर नहीं मिल रहा था। उसके उपाय भी...इसी समय पदमाबाई मिली,उसने कहा,
"रमेश  गांव कब आया?"
"दो माह हुए।"
"तेरी पढ़ाई कैसी शुरू है..."
"अच्छी।"
"आगे क्यां करने का सोचा है?"
"नौकरी के तलाश में हूं।"
"तुझे मेहनत का फल मिलेगा।"
जाने दो पदमाबाई जो होगा देखा जाएगा,आप का क्यां शुरू है, सब ठीक ठाक है न...हां...जो चल रहा है सही है समझो। जिस स्त्री को पति ने छोड़ दिया हो,उस स्री को  समाज के कहीं लोग  बुरी नज़र  से  देखते  हैं।  उसका  क्यां चलेगा? जो है अच्छा है।
"पदमाबाई सच- सच बताईए क्यां हुआ?"
"बताकर क्यां फायदा रमेश? जो चल रहा है उसे चलने दो।"
"पदमाबाई तुम्हें मेरी कसम क्यां हुआ साफ़- साफ़ बता दो।"
"तुझे प्रकाश साहब मालूम है न..."
"हां...गांव के प्रतिष्ठित, सुशिक्षित, चरित्रवान व्यक्ति..."
"वहीं प्रतिष्ठित, सुशिक्षित, चरित्रवान व्यक्ति...उसने मेरी ज़िंदगी बर्बाद की।"
"मतलब..."
तु विश्वास नहीं करेगा रमेश... लेकिन उसने मेरी मज़बुरी का फायदा उठाया...वोह मेरे ज़िस्म से खेलता रहा। मैं किसी को बता भी न सकी। कुछ ही दिनों में मुझे लड़की हुई। यह इल्जांम खुद पर आएगा, गांव में बदनामी होगी इसलिए उसने मेरे पति को ढूंढकर लाया।उसे पैसे दिए।जब तक पैसे थे तब तक वो रहा बाद में भाग गया। प्रकाश साहब का भी मन भरा था,अब वोह मेरी तरफ़ देखना नहीं चाहता था। लेकिन मैं  लड़की को पढ़ाउंगी। मेरी गलती की सज़ा उसे नहीं दूंगी। रमेश... उसने मेरी जैसी कहीं स्री की ज़िंदगी बर्बाद की।उसकी सच्चाई तुझे सुननी होगी।
"तुझे कोमलबाई पता है न..."
"हां... पता है।"
"उसे भी शिकार बनाया उसने।"
"ऐसी कहीं स्री उसके हवस की शिकार बनी।"
"उसे सिर्फ़ शरीर को नोचना आता है...भावना की कदर नहीं।"
"उसने उसकी ज़िंदगी ख़राब की इसी के साथ उसके लड़की भी..."
वो लड़की उसके बेटी जैसी थी,उसकी उम्र पंधरा साल ओर उसकी उम्र सत्तर साल...तब भी वोह शारीरिक शोषण करता रहा।  इतना करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा।  उस लड़की की शादी होने के बाद भी कभी भी फोन लगाता था, मूर्ख...! एक दिन लड़की के पति ने फोन उठाया...उसे भूतकाल का पता चला इस कारणवंश उसने लड़की को कायम का छोड़ दिया।वो मां के पास रहती है।वो आज भी उसके ज़िंदगी से खेलता है।उसकी ज़िंदगी नर्ख बन गई है रमेश।वो जीकर भी मरी हुई है। वो मां की गलती की सजा भोग रहीं हैं।
    नाम में प्रकाश है... लेकिन कई व्यक्ति के ज़िंदगी में अंधेरा निर्माण किया। वोह कुत्ते की मौत मरेगा...मेरी बद्दुआ है...।इतना करके भी उसका पेट नहीं भरा रमेश...वो सही में दलाल है दलाल। गांव में विधवा,श्रावणबाळ निराधार योजना, पेंशन आदि योजना के लाभार्थी है उन लोगों से भी पांच सौ रूपय लेता है। जैसे उन्हें सरकार तनख्वाह नहीं देती हो।इतना ही नहीं तो जो आदमी मरा है उसके नाम पर आए पैसे भी खुद ही हड़पता है।गरीब लोगों का शोषण करता है... धमकियां देता है। लेकिन मैं उसे डरती नहीं हूं। मैंने विरोध नहीं किया तो वो कहीं ओर ज़िंदगी बर्बाद करेगा।   मैं   उसके ख़िलाफ़ अंत तक लढूंगी।  उसे  सजा  दिलाकर रहूंगी। तब तक मुझे सुकून नहीं मिलेगा...


 


वाढेकर रामेश्वर महादेव
                        हिंदी विभाग
       डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा          


विश्वविद्यालय,औरंगाबाद (महाराष्ट्र-431004)


हिंदी दिवस;14 सितम्बरद्ध पर विशेष एक उत्सव से कम नहीं हिन्दी दिवस

हिंदी दिवस;14 सितम्बरद्ध पर विशेष
एक उत्सव से कम नहीं हिन्दी दिवस


 मैं वही भाषा हूँ जिसने हिन्दुस्तान को स्वराज दिलाया.... मैं वहीं हिन्दी हूँ जिसने घर-घर में अलख जगाया.... फिर आखिर क्यों मुझे आज वह स्वाभिमान, सम्मान और जहाँ नहीं मिल पाया, अपनी ही मातृभूमि पर.... आखिर क्यों.... क्या सभी शहादतें एक जल बिन्दु की तरह सूख जाएँगी....राष्ट्रपिता का सपना, नेताओं और राजर्षि की वो अमृत वाणी कब साकार होगी.... साल दर साल गुज़र रहे हैं, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर हम अभी तक नहीं दे पाए हैं.... आखिर क्यों? सब मौन हैं।
हिन्दी दिवस एक उत्सव से कम नहीं


 हम कब तक हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी मास परम्परा का निर्वाह करते रहेंगे....हम हिंदी के नाम पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन करते-करते अपने-अपने चहेतों को आतिथ्य दिलवाकर गर्वोन्मत्त होते रहेंगे..... आखिर कब तक....शायद ही विश्व की किसी भाषा का इस तरह मंचन किया जाता हो...प्रत्येक राष्ट्र की अपनी राष्ट्रभाशा हैं....फिर आखिर क्यों करोड़ों-करोड़ों की जुबान आज भी गुलामी की जिन्दगी जीने को मजबूर हैं.... हम अपनी-अपनी ताजपोशी करने और धर्मध्वजता फहराने में व्यस्त और मस्त हैं....। आजादी अभी अधूरी हैं....!
हिन्दी भाषा राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधती
 राष्ट्रभाषा का प्रश्न मेरे मस्तिष्क में जब-तब उमड़ा-घुमड़ा करता हैं। क्योंकि शहीदों की शहादतें मुझसे ऐसे प्रश्न पूछने आती रहती हैं, मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं होता हैं। मैं मौन बना देखा करता हूँ पूरी व्यवस्था को। वो इसलिए कि मेरी जुबान पर ताला हैं, हाथों में हथकड़ियाँ हैं और पैरों में बेड़ियाँ। मेरे जैसे कितने ही लोगों के साथ ऐसी परिस्थितियाँ सम्भव हैं।
 कुछेक राजकीय प्रतिष्ठानों में राष्ट्रभाषा से सम्बन्धित, राष्ट्र निर्माताओं के कहे वाक्य दीवारों पर टँगे शोभा बढ़़ा रहे हैं- ’’हिन्दी भाषा ही राष्ट्रभाषा, राजभाषा और सम्पर्कभाषा की पूरी अधिकारिणी है’’..... ’’हिन्दी भाषा राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधती हैं’’.... आदि-आदि। आखिर उसे अब तक वो अधिकार क्यों नहीं मिल पाया हैं। क्यों अब तक अमलीजामा नहीं पहनाया गया?
 मुझे अपने जीवन में कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ा हैं, यहाँ इसका जिक्र करना प्रासंगिक होगा।
मातृभाषा से प्रेम आवश्यक
  राष्ट्र निर्माताओं ने आज देश का ढाँचा इस तरह खड़ा कर दिया हैं कि अंग्रेजी के बिना सभी को जीवन अधूरा लगने लगा हैं। चाहे वो हिन्दीभाषी क्षेत्र हों, या तमिल, तेलुगु, कन्नड़, असमी और मराठी आदि वाले। चुँनाचे हर जगह अंग्रेजी का भूत सवार हैं। चपरासी से लेकर अफसर तक, सब ही अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं। इसीलिए इन विद्यालयों की बाढ़-सी आ गई हैं। ये कुकुरमुत्ते-से खूब फल-फूल रहे हैं। ऐसे विद्यालयों में बच्चा जो भी पढ़े या न पढ़े, लेकिन संरक्षकों को पूरी तरह सन्तुष्टि रहती हैं कि उनका बच्चा इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ रहा हैं। वह बड़ा होकर निश्चित ही उनका नाम रोशन करेगा। आज इस तरह अंग्रेजी माध्यम के तीन प्रकार की श्रेणी के हो गए हैं - प्रथम वो नामी-गिरामी स्कूल जिनका भार-वहन दस-पन्द्रह प्रतिशत लोग उठाने में सक्षम हैं, दूसरे वे हैं जो नामी-गिरामी स्कूलों की नकल कर रहे हैं, इनका वहन बीस प्रतिशत लोग तथा तीसरे वे विद्यालय हैं जो कुकुरमुत्तों की तरह गली-कूचों में खुल गए हैं, चाहे उनकी मान्यता हिन्दी माध्यम से हो अथवा न हो, लेकिन बोर्ड इंग्लिश मीडियम का लगा रखा हैं। 
कुकुरमुत्ते-से खूब फल-फूल रहे इंग्लिश मीडियम स्कूल
इसी सबके चलते राजकीय प्राइमरी और उच्च प्राइमरी विद्यालयों से बच्चे नदारद हैं, उनके भवन भुतहा लग रहे हैं और शिक्षक वेतन ले रहे हैं। मैं यह ही नहीं समझ पाया कि इन राजकीय विद्यालयों की महत्ता दिन प्रतिदिन गिरती क्यों जा रही हैं। यानी स्थिति यहाँ तक पहुँच गई हैं कि राजकीय प्राइमरी स्कूल के शिक्षक का बच्चा भी इन स्कूलों में पढ़ने को राजी नहीं हैं या शिक्षक ही वहाँ पढ़ाना नहीं चाहते। एक तरफ भवन भुतहा हैं, तो दूसरी तरफ कंकरीट का जंगल बढ़ता जा रहा हैं। जैसे अंग्रेजी के नाम पर नया व्यापार खड़ा किया जा रहा हैं। इस त्रासद स्थिति को मजबूती प्रदान करने वाले कौन हैं, इसकी पहचान के नाम पर सारा समाज मौन हैं।
यह सब है आज का कटु यथार्थ
 यह सब आज का कटु यथार्थ हैं, जिससे हम मुँह मोड़कर भौतिकवाद की अंधी दौड़ में भागने के लिए आतुर हैं। हम हिन्दी भाषा पर बड़े-बड़े व्याख्यान को बड़े-बड़े मंचों से पढ़करी इतिश्री कर लेते हैं, तालियाँ बजवा लेते हैं, या क्लिष्टम आलेख लिखकर नामी-गिरामी पत्र-पत्रिकाओं में छपवा लेते हैं और प्रथम श्रेणी के अमलदार हिन्दी साहित्यकार बुद्धिजीवी कहलवाने में अपना बड़़प्पन महसूस करते हैं। मै कुछ ऐसे वरिष्ठतम ख्यातिप्राप्त हिन्दी साहित्यकारों को जानती हूँ जो सत्ता के बहुत नजदीक रहे, लेकिन निजी हित साधने के माया मोह में उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की पुरजोर वकालत नहीं की, यदि वे हिन्दी की वकालत करते तो निज लाभ पाने से वंचित रह जाते। हाँ, ये एक काम बड़ी मुस्तैदी से करते रहे कि सत्ता से नज़दीकियाँ बढ़ाने के घमासान में आपस में टाँग-खिंचाई करते रहे और अपनी क्रान्तिकारी विचार-धाराओं का पाखण्ड करते रहे। अब तो और ज्यादा बुरा हाल हैं कि हिन्दी भाषा में नई-नई विचारधाराओं को श्रेष्ठतम मानने के ्रव्यामोह में खेमे, गुटबंदियाँ और मठाधीसी बहुत बढ़ गई हैं। हिन्दी राष्ट्रभाषा बने इसकी पुरजोर वकालत कौन करेगा,? हिन्दी के कवि, साहित्यकार, बुद्धिजीवी और जनता मौन....।


 यह सच हैं कि राष्ट्र में हिन्दी भाषा के अलावा उसकी छोटी बहनें तमिल, तेलुगु, बंगला, मलयाली और पंजाबी आदि कई एक भाषाएं हैं, जिनका विस्तार और सम्पर्क एक सीमित क्षेत्र में ही हैं, जबकि हिन्दी भाषा का विस्तार और सम्पर्क देश की सीमाओं के बाहर भी हैं। पूरे विश्व पटल पर बोलने और समझने वालों की संख्या दूसरे नम्बर पर हैं, चुँनाचे इसे वह मान-सम्मान और जहाँन मिलना ही चाहिए, जिसकी ये पूरी तरह अधिकारिणी हैं।


राष्ट्रभाषा का दर्जा कैसे मिले हिन्दी भाषा को
1. हिन्दी के लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और प्रेमियों को एक मंच पर आना होगा अपने-अपने दुराव छोड़कर। मजबूत संगठन बनाकर अपनी बात भी मजबूती से केन्द्र की सत्ता के सम्मुख रखनी होगी। सब तरह की गुट खेमेबंदी और मठाधीसी पूरी तरह ध्वस्त कर दी जाए।
2. एकता में शक्ति हैं। चुँनाचे जब तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक वह स्थापित संगठन अपनी बात मजबूती से रखता रहे।
3. उच्च शिक्षा में सम्बन्धित विषयों का हिन्दी में सरल भाषा में अनुवाद हो, उसके साॅफ्टवेयर बनें, कम्प्यूटर, मोबाइल, लैपटाॅप या अन्य आधुनिक तकनीकी ज्ञान हिन्दी में हो। उसके लिए आवश्यक संसाधन अपनाए जाएँ। उच्च शिक्षा हिन्दी माध्यम से सुलभ कराई जाए।
4. उच्च प्रशासनिक, न्यायिक और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में से कुछ हिन्दी में देने के लिए विकल्पित हैं, लेकिन चयन वाली टीम आज भी उन्हें दोयम दर्जे का मानती हैं। इसलिए हिन्दी माध्यम से प्रतियोगी परीक्षाएँ देने वाले परीक्षार्थी न के बराबर ही चयनित होते हैं, यदि उनमें से कुछ लिखित परीक्षा मे ंउत्तीर्ण हो भी गए तो साक्षात्कार में अच्छी अंग्रेजी का होना बहुत जरूरी हैं। इसी कारण अधिकतर परीक्षार्थी अंग्रेजी को ही देवी मानकर इसी के माध्यम से परीक्षा देने को मजबूर होते हैं। इस दिशा में गंभीर मंथन जरूरी हैं।
5. केन्द्र की सत्ता का मूलमंत्र हिन्दी-भाषी क्षेत्रों पर हैं, अतः वहाँ के नागरिकों के लिए भी जागरूक होना बहुत आवश्यक हैं। जब कोई कठोर संकल्प होता हैं तभी अपनी बात को मनवाया जा सकता हैं।
6. उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय व अन्य न्यायालयों में हिन्दी भाषा में अपनी बात रखनें का अधिकार दिया जाए। जब हिन्दी को वहाँ दोयम दर्जे का भी स्थान नहीं हैं, तो कौन चाहेगा कि वह हिन्दी माध्यम से पढ़कर विधि स्नातक की डिग्री ले। आज भी सब कुछ अंग्रेजों की परम्परा के हिसाब से चल रहा हैं सारे कानून अधिकांशतः वही के वही।
7. प्राइमरी, उच्च प्राइमरी और उच्चतर माध्यमिक हिन्दी माध्यम के राजकीय और गैर-राजकीय विद्यालयों में पढ़ाई का स्तर सुधारा जाए। अंग्रेजी की शिक्षा भी वहाँ दी जाए, वैसे वहाँ दी भी जाती हैं, लेकिन और सुधार करा जाए, जिससे लोग अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की ओर न भागें। किसी भी भाषा का ज्ञान बुरा नही हैं। अन्य प्रान्तों की भाषाएं भी सिखाई जा सकती हैं, वहाँ का साहित्य पढ़ाया जा सकता हैं।



डाॅ.विभा खरे 
जी-9, सूर्यपुरम्, नन्दनपुरा, झाँसी-284003


 


 


 



 


राँची का राजकुमार 

राँची का राजकुमार 


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राँची के राजकुमार हो|


धोनी सबके माही हो|


विश्व की पहचान हो|


ख़ुशबू का झोंका हो|


दिल के दिलदार हो|


क्रिकेट जगत का आफ़ताब हो|


बल्ले का सरताज हो|


विकेट के पीछे चपल चीता से हो|


यारों के यार हो|


कुशल सफल कप्तान हो|


विजय के बादशाह हो|


चौंकों छक्कों के सरताज हो|


हेलिकॉप्टर शॉट के जनक हो|


बॉल को पहुँचाते मैदान के पार ,


विरोधी के जवाब हो|


जीत की आख़िरी कील हो|


डूबती नैया के खेवनहार हो|


पुरुस्कार के सिरमौर हो|


जीत सदा क़दम चूमती,


देश के सच्चे सपूत हो|


चुना आर्मी में योगदान का,


जाँबाज़ एक कर्नल हो|


नहीं तुम सा खेल जगत में,


खिलाड़ी नहीं महताब हो|


चमकता ध्रुव तारा  हो|


 


सविता गुप्ता-स्वरचित


राँची झारखंड


बाल कविता - गणपति विसर्जन

बाल कविता - गणपति विसर्जन



प्यारे दादू , प्यारे दादू , जरा मुझको ये समझाओ।
क्यों करते है , गणपति पूजा मुझको ये बतलाओ।
क्यों विसर्जन करते गणपति,मुझको ये बतलाओ।
ये क्या रहस्य है दादू , जरा मुझको ये समझाओ।


पास मेरे तुम आओ बाबू , तुमको मैं समझाता हूँ।
क्या होता गणपति विसर्जन तुमको ये बतलाता हूँ।
देखो बाबू , गणेश विसर्जन हमको ये समझाता है।
मिट्टी से जन्मे है हम सब,फिर मिट्टी में मिल जाते है।


मिट्टी से गणपति मूर्ति बनाकर,उनको पूजा जाता है।
प्रकृति से बनी मूरत को फिर प्रकृति को सौंपा जाता है।
जीवन चक्र मनुष्य का भी कुछ यूँही चलता जाता है।
अपने कर्मो को पूरा कर इंसान मिट्टी में मिल जाता है।


नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).


*पुस्तक समीक्षा*   *अनुकरणीय प्रकाशन*   *राज्य शिक्षा केंद्र म.प्र. द्वारा प्रकाशित द्विभाषी पुस्तकें बच्चों के भाषा कौशल विकास में अहम भूमिका निभाएंगी* 

*पुस्तक समीक्षा* 

 

 *अनुकरणीय प्रकाशन* 

 

 *राज्य शिक्षा केंद्र म.प्र. द्वारा प्रकाशित द्विभाषी पुस्तकें बच्चों के भाषा कौशल विकास में अहम भूमिका निभाएंगी* 

 

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 राज्य शिक्षा केंद्र भोपाल द्वारा प्रकाशित द्विभाषी किताबों की सीरीज  आकर्षक , उत्कृष्ट एवं नयनाभिराम तो है ही,पाठ्यसामग्री की दृष्टि से  बेजोड़ भी है। पत्रिका का उन्नत स्तर देखकर संतोष एवं प्रसन्नता स्वाभाविक है। पत्रिका के हर पृष्ठ पर नसरुल्लागंज सिहोर के शिक्षक श्री संतोष धनवारे का कौशल परिलक्षित हो रहा है। एक से बढ़कर एक चित्रों का समीचीन संयोजन देखते ही बनता है। आपका अदम्य उत्साह,आपकी दूरदर्शिता एवं इन किताबों के प्रति बच्चों आकर्षण के साथ सरलता, आनंदमय वातावरण में  द्विभाषी ज्ञान को अपने कोमल मस्तिष्क में आत्मसात करेंगें । इस सीरीज के लिए शिक्षक संतोष धनवारे  पूरा श्रेय राज्य शिक्षा केंद्र के उपायुक्त डॉ. अशोक कुमार जी पारीख को देते है जिनके कुशल मार्गदर्शन में यह कार्य सफल हो पाया है । 

मध्यप्रदेश के सरकारी करीब, सवालाख स्कूलों में 10 किताबे....... (द्विभाषी),धनवारे जी द्वारा बनाये गए चित्रों से सजी है,जो चित्रों को जोड़कर चित्रकहानी के रूप में पढ़ी जा सकती है,जो निश्चय ही चित्रकथा के माध्यम से कक्षा 1 से 8 के लाखों -लाख बच्चों के लिए ..............उपयोगी ,सार्थक,पढ़ने, अपने सपनों की सच्ची कहानी गढ़ने,संस्कृति संग नैतिक गुणों को बढ़ाने,आपसी सामंजस्य भाईचारा को बढ़ाने,स्वच्छ्ता बहुत जरूरी को समझाने, दुनिया के खगोलीय संसार को पहचानने- जानने,आस-पास के पर्यावरण को पहचानने,एकता में ही शक्ति को बल देने ,तर्कशक्ति का परिचय कराती,प्रकृति से सीखो संसार का सबसे महान खजाना खोजना सिखाती,हमारी उपयोगी मशीनरी ओर संसाधन,भाई-बहन का अटूट बंधन ओर पहेलियों से सजी भरी पूरी 10 पुस्तक जो बच्चों के साथ सभी पाठकों के लिए  भी ज्ञानवर्धन में सहायक सिद्ध होगी । जिससे बच्चा खेल-खेल और आनंदमयी वातावरण में अपनी स्कूल की पुस्तकालय में हिंदी और इंग्लिश के साथ साथ, सीख ओर  पढ़  पाएगा,ओर कहेगा *अब पढ़ाई नही रुकेगी*।।

 

 *एक चित्र एक हजार शब्दों को जन्म देता है ...* 

इसी ध्येय वाक्य को आत्मसात कर शिक्षक धनवारे ने अपने अद्भुत कला-कौशल की तूलिका से  सुंदरतम ,आकर्षक  चित्र बनाकर साबित कर दिया कि शब्द अभिव्यक्ति कौशल में चित्रों की अहम भूमिका हैं ,जो बच्चों की दक्षता उन्नयन में कारगार सिद्ध होगी ।

धनवारे जी का समर्पण भाव सर्वथा अभिनंदनीय है , हमारी हार्दिक बधाई एवं सभी  मनोहारी चित्रांकन , रचनाकारों के प्रति विनम्र आभार ।

 

                *समीक्षक* 

 

           ✍️ *गोपाल कौशल* 

                 प्राथमिक शिक्षक 

       शा.नवीन प्रावि नयापुरा माकनी 

       नागदा जिला धार - 454001 म.प्र.


Saturday, August 22, 2020

प्रेम का संदर्भ और ‘कसप’

आदिकाल से प्रेम साहित्य का विषय रहा है।समय व साहित्य के बदलने के साथ- साथ प्रेम की अवधारणा भी बदलती रही है। स्वयं साहित्यकारों ने समय -समय पर प्रेम को नए ढंग से परिभाषित किया है। प्रेम अमूर्त मनोभाव है जिसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति कठिन है।सभ्यता के विकास के साथ ही प्रेम और युद्ध साहित्य व कला के महत्वपूर्ण विषय रहे हैं। प्रेमकथाओं के प्रति लोगों का सहज आकर्षण रहा है । यही कारण है कि दुनिया की तमाम भाषाओं की लोककथाओं में प्रेम के किस्से ,कहानियाँ प्रचुर मात्र मेंमिलते हैं जैसे लैला- मजनूं, शीरीं-फरहाद, हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट आदि । हिन्दी साहित्य में बीसलदेव रासो, परमाल रासो, पृथ्वीराज रासो, पद्मावती, सूरसागर प्रेमकथाओं के प्रमाण हैI


प्रेम की प्रक्रिया जटिल है इसी जटिलता को समझने और व्याख्यायित करने का प्रयास समाज व शिक्षा के अनेक अनुशासन करते रहे हैं I प्रेम की गति व नियति बड़ी विचित्र है I प्रेम तत्व से ही सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ है Iप्रेमके महत्त्व का प्रतिपादन करना कठिन नहीं है । एक आलोचक का मत प्रस्तुत है -‘प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया वह मैं देखता हूँ कि अकारत नहीं गया क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम,युद्ध से नफरत और शांति की समस्याओं से दिलचस्पी –ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अंदर पैदा हुई ....तो ,अगर उपर्युक्त तमाम सूत्रों के साथ इंसान से जुड़ता हूँ तो मेरे लिए फिलहाल इतना काफी है’।[1] वास्तव में प्रेम मनुष्यता को जिलाने में है किन्तु समाज ने प्रेम के शुद्ध, सात्विक, व्यापक रूप को दुरूह बना दिया है I समाज की जीर्ण शीर्ण मान्यताओं,सोच ने मनुष्य के भीतर प्रेम तत्व को समाप्त कर उसे असहज और अस्वाभाविक व्यवहार करने के लिए मजबूर कर दिया है।


हिन्दी उपन्यास मे प्रेम के अनेक रूप चित्रित हुआ है । भारतीय समाज मे प्रेम एक कठिन ‘व्योपार’ रहा है। रचनाकारों ने इस ‘व्योपार’का चित्रण अपने अपने तरह से किया है। प्रेम में होने वाली  समस्याओं का चित्रण अनेक रचनाकारों ने अपने उपन्यासों में किया है जिसमें चित्रलेखा ( भगवतीचरण वर्मा),गुनाहों के देवता ( धर्मवीर भारती), नदी के द्वीप( अज्ञेय) कसप( मनोहरश्याम जोशी ) शामिल हैं। इनमें कसप ऐसा उपन्यास है जो लीक से हटकर है वह समस्त साहित्यिक व साहित्येतर प्रतिमानों को ध्वस्त करता हुआ प्रतीत होता है और बदलते समय के साथ मुठभेड़ करता हुआ आगे बढ़ता है।


एक आलोचक का मत है कि‘मनोहरश्याम जोशी उन दुर्लभ वादकों की तरह हैं, जिन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कोई एक साथ इतने तारों पर कैसे नियंत्रण रख सकता है । कसप उपन्यास वाचक की पसंद के मुताबिक ही उस प्रकार के साहित्य में शामिल नहीं है जो मात्र यही या वही करने की कसम खाये हुए है । यह उन सभी सीमाओं को तोड़ता हुआ प्रतीत होता है जो समाज द्वारा बनाई गई हैं।‘[2]


क्रिस्टोफर कॉडवेल का मानना है- ‘प्रेम सामाजिक सम्बन्धों में निहित उस भावनात्मक तत्व का नाम है जिसे कोमलता कहते हैं’[3]। यही कोमल भाव मनुष्य को जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है । ‘कसप’उपन्यास की कथा संरचना के निर्माण मेंयही प्रेम तत्व निहित है।इस उपन्यास  मेंनायक  डी.डी. शादी में शामिल होने अल्मोड़ा आया हुआ है और नायिका बेबी को देख कर चौंक जाता है । यही नायक का नायिका से मारगांठ को लेकर नोंक झोंक के बीच परिचय होता है । दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं और प्रेम कर बैठते हैं। लेखक के शब्दों में- “चौंका होना प्रेम की लाक्षणिक स्थिति जो है। जिंदगी की घास खोदने में जुड़े हुए हम जब कभी चोंककर घास, घाम, खुरपा, तीनों भुला देते हैं तभी प्यार का जन्म होता है। या इसे यो कहना चाहिए कि प्यार वही है जिसका पीछे से आकर हमारी आँखें गदोलियों से ढक देना हमें बाध्य करता है कि घड़ी दो घड़ी घास, घाम, खुरपा भूल जाये”[4]


लेखक का ध्यान सम्पूर्ण उपन्यास में प्रेम की उदात्ता को चित्रित करने वाली परंपरागत स्थितियों की अपेक्षा अशिष्ट और अनैतिक सी लगने वाली सहज व यथार्थ स्थितियों पर केन्द्रित दिखाई देता है।लेखक ने परंपरागत सुंदर पक्ष की अपेक्षा भदेस पक्ष के आधार पर ही घटनाओं का परिचय देकर कथा को आगे बढ़ाया है । लेखक ने ऐसे स्थलों का प्रयोग चौंकाने के लिए नहीं अपितु मर्यादा, नैतिकता के कृत्रिम आवरण के बिना मानवीय वृत्तियों का सहज प्रस्तुतीकरण किया है। नायक और नायिका के प्रथम मिलन का चित्रण आप भी देखिए – “ अब नायक नायिका के प्रथम साक्षात्कार का वर्णन करना है मुझे। और किंचित संकोच में पड़ गया हूँ । भदेस से सुधी समीक्षकों को बहुत विरक्ति है । मुझे भी है थोड़ी बहुत। यद्यपि मैं ऐसा भी देखता हूँ कि भदेस से परहेज हमें भीरु बना देता है और अंतत: हम जीवन के सर्वाधिक भदेस तथ्य मृत्यु से आँखें चुराना चाहते हैं । जो हो, यही सत्य का आग्रह दुर्निवार है। यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथा नायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती नाव पर बिठा नहीं सकता”[5]। नायक- नायिका का पहला साक्षात्कार अस्थायी टट्टी में करवाने के माध्यम से लेखक यह दर्शाता है कि प्रेम के लिए सुरम्य स्थल ही आवश्यक नहीं है। इस प्रकार प्रेम की स्थिति में कुरुचि व सुरुचि की परिभाषाएँ लुप्त हो जाती है।


मानवीय जीवन जटिल है। वह निरंतर गतिशील है तो साहित्य में भाव और विचार कैसे स्थिर रह सकते हैं ? अत: मनोहरश्याम जोशी ने समय की बदलती हुई नब्ज़ को पकड़कर उसे एक नए तरीके,टेकनीक द्वारा अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया। भाषा,शिल्प व संरचना के विशिष्टपन के कारण मानवीय बुद्धि को इन्हें समझने में थोड़ा अधिक परिश्रम करना पड़ता है किन्तु जब बात समझ में आती है तो लगता है कि जिस बात को लेखक ने जिस ढंग से कहा है उसे उसी ढंग से कहा व समझाया जा सकता था । आधुनिक समाज में प्रेम अपना नैसर्गिक गुण खो चुका है अत: व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार हो गया है। इस बीमारी के कारण वह प्रेम का संबंध मात्र शरीर से जोड़ता हैं।


कसप की एक पात्र गुलनार के शब्दों में – “ प्यार लिप्सा और वर्जना के खाने पर जमाने भर के भावनात्मक मोहरों से खेले जाने वाली शतरंज है । अंतरंगता खेल नहीं है उसमें कोई जीत हार नहीं है, आरंभ और अंत नहीं है । प्यार एक प्रक्रिया है अंतरंगता एक अवस्था”।[6]


‘मानवीय सम्बन्धों का आधार प्रेम है’[7]। मनोहरश्याम जोशी प्रेम शब्द का अर्थ केवल स्त्री पुरुष के सम्बन्धों के संदर्भ में ही नहीं करते । वे सम्बन्धों की जटिलता को समझना व समझाना चाहते हैं। स्त्री पुरुष संबंध सहज,सामान्य व स्वाभाविक होते हैं किन्तु समाज व परिस्थितियों ने इन्हें इतना असहज और अस्वाभाविक बना दिया है कि आधुनिक मनुष्य बीमार हो गया है। इसी बीमारी को जानने, समझने और दूर करने के लिए मनोहरश्याम जोशी मानवीय सम्बन्धों की प्रकृति को उघाड़ते हैं। जिससे समाज व साधारण मनुष्य में सहजता आ सके।


समाज मे प्रेम और उसके वास्तविक चरित्र  पर  गुलनार के विचार आप से साझा कर रही हूँ। शायद आप भी इस मत की अतिवादिता से परिचित होंगे “ कमीने होते हैं सब मूलत: कमीने ! नरभक्षी। खाने को तैयार बैठे हैं तुम्हें वे हमेशा । जिन्हें वे भावनाएँ कहते हैं, और कुछ नहीं, तुम्हारा शोषण करने की सुविधाएँ होती हैं। मैं जानती हूँ कि इस नुस्खे का मर्द किस तरह उपयोग करते आए हैं औरत के शोषण के लिए , और औरतें भी कैसे इसी को अपने संरक्षण –संवर्धन का हथियार बनाने को बाध्य हुई है । क्या तुम समझते हो कि वह मेरा सौतेला पिता,रंगमंच का जीनियस कभी मेरी मदद करता आगे बढ्ने में? वह तो मुझे वात्सल्य भाव से भोगता रहता और चाहता कि मैं प्यारी-प्यारी बच्ची बनीरहूँ,उसके बिस्तरकी शोभा बढ़ाती रहूँ”।[8]


प्रेम एक स्वच्छंद हृदयगत भाव है लेकिन आधुनिक होते मनुष्यने इसे बोझिल बना  दिया है । “प्रेम वह भार है जिसमें मानस-पोत जीवन सागर में संतुलित गर्वोन्नत तिर पाता है”।[9]प्रेम में लेन देन का भाव नहीं होता । उसमें समर्पण है। जब प्रेम में लेन देन का भाव आ जाता है तो वह प्रेम भावगत न होकर स्वार्थपूर्ति मात्र हो जाता है । उत्तर आधुनिक, भूमंडलीकरण ,बाजारवाद के युग में यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि प्रेम जैसा सहज, निश्छल भाव भी इसकी चपेट मे आ गया है । हर रिश्ता फायदे व नुकसान की दृष्टि से देखा जाने लगा है जिससे संबंधों की गरमाहट,विश्वास का स्थान कृत्रिमताने ले लिया है। लेखक के शब्दों में –“ नायिका पूछती है कि क्या तू इतना योग्य बन गया है कि मैं तेरे योग्य ही नहीं ठहरी। फिर अचानक अपने शरीर के सारे वस्त्र नायिका द्वारा उतार कर यह कहना – आ ! वह कह रही है जो तू मेरा मर्द है तो आ भोग लगा ले मेरा ! जाकर कह दे इजा बाबू से शादी तो हो गई थी गणानाथ में ,चतुर्थी कर्म भी हो गया यहाँ”[10]। और डीडी नायिका पर चादर डाल कर चला जाता है।


आधुनिक मनुष्य की विडम्बना है कि उसके पास अनेक विकल्प है इन विकल्पों के द्वंद्व में फँसे होने के कारण वह सही निर्णय लेने में अक्षम है। उपन्यास में नायक डीडी भी ऐसा ही पात्र है जो प्रेम करना चाहता है, प्रेम पाना चाहता है किन्तु अमेरिका के प्रति आकर्षण उसे इस प्रेम तत्व को छोड़ देने के लिए बाध्य कर देता है। अंत में उसकी परिणति उदास और आहत के रूप में होती है जहाँ वह प्रेम को दुबारा पाना चाहता है दुबारा प्रेम में जीना चाहता है।इसी उदासी को छिपाने के लिए वह अंत मे फिर से अल्मोड़ा आता है जहाँ उसे अपनी जीन सिम्मंस नायिका के दर्शन हुए थे । वह समझ जाता है कि प्रेम पाने में नहीं जीने में है–“ वह उदास ही नहीं आहत भी था। उदास और आहत होना उसे कुल मिलाकर प्रेम को परिभाषित करना जान पड़ा”[11]


 मनोहर श्याम जोशी उन सभी खाँचों को एक –एक करके तोड़ते हैं जो मनुष्य के वैयक्तिक व सामाजिक कार्य-व्यापार को सुचारु रूप से चलने से रोकते हैं । इस पैटर्न को साँचों को तोड़ने के लिए वे खिलंदड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं। कुमाऊंनी किस्सागोई  की परंपरा और फिल्मी अंदाज में एक के बाद एक प्रस्तुत होते दृश्य इसे और बल प्रदान करते हैं। बेबी के शब्दों में - मुख से न बोलने की मुनादी क्या आँखों पर भी लागू होती है ? इन लाउड-स्पीकर आँखों पर”[12]


‘कसप’[i]में नायक नायिका का औसत सत्य से कोई वास्ता नहीं हैं । स्वयं विधाता के बारे में जब यह निश्चित नहीं है किवह अपनी ही रचना के समस्त क्रियाकलाप से वाकिफ है तो यदि नायक नायिका की यह विलक्षण प्रेम कथा अलग धरातल पर घट रही है तो स्वाभाविक ही माना जाएगा। क्योंकि हम नायक– नायिका  के प्रेम के प्रेम के बारे में औसत सत्य निकाल सकते हैं किन्तु पूर्ण सत्य के बारे में कसप जैसा उत्तर ही मिलेगा। “विधाता के बारे में मुझे लगता है कि एक विशिष्ट ढंग से उसने फेंक दिया है हमें कि मंडराओ और टकराओ आपस में । समग्र पैटर्न तो वह जानता ही है एक एक कण की नियति नहीं जानता । कसमिया तौर पर वह खुद नहीं कि इस समय और कौन सा कण कहाँ,किस गति से क्या करने वाला है? अत: यहाँ जोशी जी प्रेम संबंधी आधुनिक औसत सत्य को नकारते हैं जिसमें यह मान्यता है कि – “नर के लिए प्यार का उन्माद वही तक होता है जहां तक वह स्वीकार न हो जाये । उसके बाद उतार ही उतार है । उधर मादा के लिए उसकी उठान ही स्वीकार से आरंभ होती है”।[13]


 प्रेम की कहानी सदा-सर्वदा अकथ रही है। कसप उपन्यास को पढ़कर भी पाठक यह समझ नहीं पाता कि क्या प्रेम यही है? नायक –नायिका भी प्रेम करते हुए अंत तक यह समझ नहीं पाते कि वे एक दूसरे से प्रेम करते हैं । लेखक भी कथा लिखने के बाद निर्धारित नहीं कर पाता कि  प्रेम क्या है । प्रेम को किसी विशेष विचारधारा या सत्य के ढाँचे में नहीं बिठाया जा सकता, यह अपना रास्ता खुद तय करता है। मनोहर श्याम जोशी ने इसी अपरिभाषित प्रेम को रचने की कोशिश की है।जिसका उत्तर ढूँढने पर एक ही उत्तर मिलता है- कसप।


संदर्भ ग्रंथ सूची


 आधार ग्रंथ



  • मनोहर श्याम जोशी – कसप, राजकमल पपेरबैक्स,तीसरा संस्करण 2007


 


सहायक ग्रंथ



  • कुसुमलता मलिक( सं) गप्प का गुलमोहर मनोहरश्याम जोशी, स्वराज प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2012

  • मनोहरश्याम जोशी –आज का समाज ,वाणी प्रकाशन, 2006

  • कमलेश- मनोहरश्याम जोशी के कथा प्रयोग ,नया साहित्य केंद्र, संस्करण 2010

  • मधुरेश –हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान, स्वराज प्रकाशन ,संस्करण2002

  • (सं) रामेश्वर राय– संचयिता: निर्मला जैन, वाणी प्रकाशन ,2013

  • गोपालराय- हिन्दी उपन्यास का इतिहास ,राजकमल प्रकाशन,द्वितीय


           आवृत्ति,2010



  • रमेश उपाध्याय (सं)- आज के समय में प्रेम ,शब्दसंधान, संस्करण 2008

  • अपूर्वानंद- सुंदर का स्वप्न, वाणी प्रकाशन ,2001


पत्रिकाएँ



  • आजकल ,जून 2006

  • नया ज्ञानोदय, नवंबर ,2011


 


[1]अपूर्वानंद -सुंदर का स्वप्न ,पृष्ठ 182


[2]कुसुमलता मालिक(सं) गप्प का गुलमोहर मनोहर श्याम जोशी


[3]रमेश उपाध्याय (सं) आज के समय में प्रेम ,पृष्ठ 28


[4]कसप ,पृष्ठ 9


[5]वही, पृष्ठ 15


[6]वही ,पृष्ठ 172


[7]रमेश उपाध्याय – आज के समय में प्रेम ,पृष्ठ 34


[8]कसप ,पृष्ठ 159


[9]वही , पृष्ठ 144


[10]कसप ,पृष्ठ 218


[11]वही, पृष्ठ 220


[12]वही, पृष्ठ 132


[13]कसप, पृष्ठ 173


 


Shikha

Research scholar

DELHI university

Hindi department

ओझल स्त्री गाथाओं का चारित्रिक संघर्ष : विसात पर जुगनू

एक अफ़वाह जो उस समय फैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन् 1757 प्लासी के युद्ध से प्रारंभ हुआ था और सन् 1857 में सौ वर्षों बाद समाप्त हो जाएगा। चपातियाँ और कमल के फूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह के लक्षण थे। 1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। हालांकि इसका आरंभ सैनिकों के विद्रोह द्वारा हुआ था लेकिन यह कंपनी के प्रशासन से असंतुष्ट और विदेशी शासन को नापसंद करने वालों की शिकायतों व समस्याओं की सम्मिलित अभिव्यक्ति थी। देखा जाए तो विद्रोह की प्रकृति के मूल में सामंतवादी लक्षण थे। एक तरफ अवध, रुहेलखंड, तथा उत्तर भारत के सामंतों ने विद्रोह का नेतृत्व किया तो दूसरी ओर पटियाला, जिंद, ग्वालियर तथा हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह के दमन में भरपूर सहयोग दिया। रियासतों के  साथ- साथ आम जनता भी कंपनी बहादुर के शासन से त्रस्त हो चुके थी। जनता में असंतोष का कारण राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक मामलों में उथल- पुथल था। इन सभी कारणों ने मिलकर एक पृष्ठभूमि तैयार की जो विद्रोह का कारण बना, हालांकि बिना किसी भावी योजना और असंगठित नेतृत्व के कारण विद्रोह असफल रहा। कंपनी की सैन्य शक्ति मजबूत थी जो जगह- जगह पर उठे विद्रोह का दमन करती गई। चाँदपुर भी एक छोटी- सी रियासत थी जिसे कंपनी बहादुर अपने अधीन करना चाहते थे। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि भी 1857 के डेढ़ दशक पहले शुरू हुई। उपन्यास की कथावस्तु रियासत में विद्रोह कि सुगबुगाहट से शुरू होकर 1910 तक की समयावधि तक चलती है। इस समयावधि में चाँदपुर रियासत, पटना, कलकत्ता शहर के साथ- साथ चीन के केंटन शहर तक की कहानी है। इस अवधि में विद्रोह की बनती परिस्थितियाँ, विद्रोह से उपजा असंतोष, संबंधों के बनते- बिगड़ते मायने आदि का लेखिका ने बखूबी वर्णन किया है।

            'बिसात पर जुगनू' लेखिका का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास में तीन वंश वृक्षों की कथा साथ चलती है। जिसमें चाँदपुर गाँव की रियासत, समय के मलबे में दबी पटना के चित्र- शैली के कलाकार और चीनी औरत यू- यान और उसके वंश की कथा है। उपन्यास का अधिकांश भाग इस कहानी के पात्र फतेह अली ख़ान के रोज़नामचे के रूप में प्रस्तुत है। इसके साथ- साथ अख़बार, ब्रिटिश सरकार के गैजेट्स, लोक मान्यताओं, हरबोलों आदि सब मिलकर कहानी को विस्तार देते हैं। यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है, परंतु ऐतिहासिकता के साथ- साथ आधुनिकता भी इस कदर पैठी है कि कई बार कालखंड से परे सब आधुनिक ही हो जाता है। यह उपन्यास सामंतवाद के ढहने और पूंजीवाद के स्थापित होने के बीच की समयावधि का है। इस उपन्यास में 1857 स्वतंत्रता संग्राम की त्रासदी है तो साथ ही पहले और दूसरे अफीम युद्ध के बाद के चीनी जन- जीवन का कठिन संघर्ष भी।

            एक तरफ़ है चाँदपुर रियासत के राजा दिग्गविजय सिंह और उनका बेटा सुमेर सिंह। सुमेर सिंह एक नाज़ुक मिज़ाज राजा हैं। उन्हें स्त्रियाँ बहुत पसंद हैं। उन्हें एक ऐसी स्त्री की तलाश रहती है, जिसकी खुशबू के नशे में डूबे- उतराते रहें। बड़े राजा चाहते थे कि सुमेर सिंह माँ के आंचल से निकलकर शिकार पर जाएं, राजकाज के छोटे- मोटे कामों में हिस्सा लें। परंतु सुमेर सिंह को तो खून देखकर ही मितली आने लगती थी। इन सबके बावजूद सुमेर सिंह का रियाया से एक रिश्ता था और रियाया का सुमेर सिंह से।

           परगासो चाँदपुर रियासत के दुसाधन टोले की लड़की थी। एक ऐसा टोला जहाँ सवर्ण लोग कभी नहीं जाते थे। यहाँ तक कि वे मानते थे कि उनके देखने मात्र से यह काले पड़ जाएंगे। उसी टोले की थी परगासो। जिसके देह से फूलों की खुशबू आती है। उसकी माँ ने उसे चमेली का तेल सूंघकर जना था। पैदा होने पर चमेली के जिन फूलों पर उसे लिटाया गया था वे बड़े राजा के बाग के ही फूल थे। शायद यही वजह रही हो जो परगासो उन फूलों की खुशबू से प्रभावित हो गढ़ी तक आ गई थी। परगासो एकदम उजली और चमकदार है। खाने को बहुत कम मिलता है, पहनने- ओढने को गढ़ी की उतरन। वह भगत की बेटी थी। सारे दुसाधों की बेटी। स्त्री होने के बावजूद एक साहसी और वीर योद्धा थी। बगीचे में फूलों की देख- रेख करते एक दिन अनजाने में ही परगासो ने अपनी खुशबू से सुमेर सिंह को सराबोर कर दिया। उस दिन सुमेर सिंह को लगा जिसे सारी ज़िंदगी ढूंढते रहे वह खुशबू तो यही है जो परगासो के देह से निकलती है। उस दिन से वे दोनों प्रेम के बंधन में बंध गए। उन्होंने जाति- धर्म, ऊँच- नीच और समाज के बंधनों को एक झटके में तोड़ दिया। परगासो तेज़ है चालू नहीं, वह धोखा नहीं देती। वह सुमेर सिंह को अपने जाल में फंसाती नहीं है। सुमेर सिंह उसे मछलियों की तरह प्यार करता है, जो लहरों में फंसने नहीं आती और परगासो भी सुमेर सिंह से हवाओं की तरह प्रेम करती है जो उसके सीने को दबाने नहीं आती। इस रिश्ते से महारानी खुश रहती हैं। उन्हें नहीं लगता कि परगासो दुसाध है। वह तो बस अपने बेटे को खुश देखना चाहती हैं और वह खुशी परगासो से मिल रही है। शायद माँ ऐसी ही होती हैं। सारी दुनिया की माँ एक जैसी ही होती हैं। उन्हें सिर्फ़ अपने बच्चे की खुशी चाहिए चाहे वह जिन शर्तों पर मिले।

            परगासो ने धीरे- धीरे सब कुछ संभाल लिया। सुमेर सिंह को, अपने लोगों को, महाराज को, गढ़ी को। वह ऐसी योद्धा है जो अपनी धरती, अपने लोगों और उनके अधिकारों के लिए किसी से भी लड़ने को तैयार है चाहे वो फिरंगी ही क्यों ना हों। वह सुमेर सिंह के आगे नेतृत्व करती चलती है और सुमेर सिंह उसके पीछे- पीछे उसका साथ देते हैं। ऐसा करने में सुमेर सिंह को कोई आपत्ति नहीं होती। शायद वे क्षमता से पूर्ण स्त्री को उसके उचित स्थान पर देखकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। परगासो ने भी कभी किसी को निराश नहीं होने दिया। राज- काज के सभी कामों में समान भागीदारी निभाती रही। झोपड़ी से महल का उसका सफर कोई छल- प्रपंच नहीं था। यह उसकी योग्यता थी, जो उसे उस स्थान तक ले गई।  परगासो बचने नहीं बचाने आई है। अपने लोगों को बचाने आई है। ज़िल्लत से, कमज़रफी से,  हकीक़त जिंदगी से,..... उठाकर ताज पहनाने आई है। जिस समय पूरे देश में विद्रोह की आग भड़क उठी, उस समय सभी राजाओं और नवाबों ने अपने स्तर पर विद्रोह को जारी रखा। उस समय कुछ औरतें भी थी जो इस विद्रोह को हवा दे रही थी। लक्ष्मी बाई और लखनऊ की बेगम हजरत महल ने भी इस विद्रोह में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इधर चाँदपुर में परगासो महाराजा दिग्गविजय सिंह और महाराजा कुंवर साहब के नेतृत्व में इस विद्रोह को अंजाम दिया गया। जिस समय समाज में स्त्रियों को पढ़ने- लिखने की आज़ादी नहीं होती थी, उन्हें पर्दे में रखा जाता था। ऐसे समय में परगासो जैसी स्त्री जिसका कोई ऊँचा कुल- वंश गाँव नहीं था। ढंग से खाने- पहनने को नहीं था उसने उस समय के सबसे बड़े विद्रोह में भाग लिया। यह एक नए बदलाव की ओर इशारा करता है। उसने कभी भी अपने मन से आज़ादी का सपना मरने नहीं दिया। परिस्थिति विपरीत होने पर भी अंत तक आजादी का ख़्वाब देखती रही और अपने स्तर पर प्रयत्न करती रही।

            दूसरी ओर है मोहल्ला लोधी पटना के चित्र-शैली के कलाकार शंकरलाल। शंकरलाल एक मुसव्विरखाना चलाते हैं, जहाँ उनके शागिर्द कला की बारीकियाँ सीखते हैं। यह मुसव्विरखाना हर समय खुला रहता था किसी के आने जाने पर कोई रोक नहीं थी। एक दिन शंकरलाल की नज़र एक ऐसे चित्र पर पड़ी जो एकदम वास्तविक और प्रकृति के करीब लग रही थी। उन्होंने चौकीदार से बनाने वाले का नाम जानना चाहा लेकिन चौकीदार बताने में असमर्थ रहा। बस इतना बता पाया कि कोई एक शागिर्द रोज़ सब के चले जाने पर आता है लगभग छ: महीने से लेकिन चेहरे पर नकाब होने से वह पहचान नहीं सकता। शंकरलाल बेचैन हो गंगा तट पर पहुँचे जहाँ वे देखते हैं कि वही चित्र कोई बना रहा है। उसके चेहरे पर भी नकाब है लेकिन अचानक नक़ाब हटने से वे स्तंभित रह जाते हैं। क्या कोई औरत भी कलाकार हो सकती है?...  ख़दीजा बेग़म यही तो नाम था उस कलाकार का। शंकरलाल को गंगा मान व श्रद्धा से ज़्यादा एक ऐश्वर्य से भरी- पूरी औरत लगती थीं, जिसकी हर एक लहर में कई कहानियाँ थीं। शंकरलाल ऐसी ही कहानियों को अपने कलम से कागज़ों पर उकेरना चाहते थे। शंकरलाल इस इलाक़े का दुनिया के दूसरे दूर- दराज के इलाकों से मेल करवाना चाहते थे। वे कला को ऊँचाइयों पर ले जाना चाहते थे। कला और जीवन जब तहज़ीबों से घुलना- मिलना सीखेगी तभी वह दुनिया को नई राह पर लिए चलेंगी। इन सब में साथ देने एक दिन ख़दीजा बेग़म शंकरलाल की जिंदगी में दस्तक देती हैं। वरना इससे पहले तो वे वैरागी ही थे, अपने कला के प्रति समर्पित। 

          विद्रोह के बाद मुसव्विरख़ाना की हालत भी ख़राब हो जाती है। कला को ऐसे मरते देख शंकरलाल चीन जाकर अपनी चित्रकला को बेचकर कुछ पैसे कमाने और उन पैसों से मुसव्विरख़ाना को गुलजार करना चाहते हैं। वे ख़दीजा बेगम को मुसव्विरख़ाना सौंपकर चले जाते हैं। वही ख़दीजा बेगम जिनसे शंकरलाल का मोहब्बत का रिश्ता बन गया था। ख़दीजा बेगम अपने समय में सारी बेड़ियों को तोड़कर, घर की चारदीवारी से बाहर निकल, बेपर्दा मुसव्विरख़ाने तक का सफ़र तय करती हैं। ऐसी जगह जहाँ कभी किसी पुरुष ने सोचा भी नहीं होगा कि एक औरत शागिर्द बन कला कि चौखट तक आएगी वरन् कला को नई ऊँचाइयों पर ले जाएगी। ख़दीजा बेगम ने सारी ज़िंदगी अपने शौहर शंकरलाल का इंतजार किया। जहाज़ पर जाने वाले का धरती पर रह कर इंतज़ार करना एक अकेली औरत के लिए साहस और स्वाभिमान का काम था, वरना कौन करता है किसी का इंतज़ार। पहले और आज के समय में भी किसी औरत का अकेले रहना समाज और आस-पास के लोगों की आँखों में कांटे की तरह खटकता है। लेकिन खदीजा बेगम ने वह कर दिखाया। उनका बेटा, उनका पोता किसी ने उनका साथ नहीं दिया। अपनी ज़िंदगी की लड़ाई वे स्वयं लड़ती हैं। उनका इंतज़ार ख़तम नहीं होता और एक दिन वे ज़िल्लत की दुनिया को छोड़कर रुख़्सत हो जाती हैं। अंत में पता चलता है कि शंकरलाल कोलकाता की जेल में ग़ुमनाम क़ैदी का जीवन व्यतीत करते इस देश से अलविदा हो गए। कला की सारी प्रॉपर्टी उन्होंने ख़दीजा बेग़म के नाम किया था, लेकिन उनके ना होने से वह सब उनके पोते सज्जन लाल को मिल जाता है। जो चित्रों को कबाड़ में फेंक देता है। ख़दीजा बेगम और शंकरलाल जैसे कलाकार इतिहास के पन्नों में दबकर रह जाते हैं। समाज यह नहीं समझ पाता की चित्र भी तो जिंदगी है। आपके लिए। मेरे लिए। हम सब के लिए। खदीजा बेगम ने उस समाज को कला की बानगियाँ सिखाती हैं, जो समाज औरतों के कला सीखने की प्यास को अंदर ही मार देते हैं। ऐसी थी ख़दीजा बेगम।

             परगासो और खदीजा बेगम से दूर सागर की गहराइयों के पार उसी समय में एक और औरत है जो अपने समय और समाज से संघर्ष करती हुई जीवन जीना सिखाती है। तमाम अवरोधों और विपन्नताओं के बाद भी वह हार नहीं मानती। ऐसा लगता है जैसे परिस्थितियाँ और वक़्त मिलकर उसे और साहस दे जाते हैं। यह औरत ताइपिंग विद्रोह की भुला दी गई नायिका यू- यान है। यू- यान जुड़वा बहने हैं इनकी बहन है मो- चाओ। यू-यान अपने प्रेमी के साथ जंगलों में चली जाती हैं जहाँ युद्ध में उसके पति की मृत्यु हो जाती है। यू- यान को एक बेटा है- ' चिन'। यू- यान मछलियाँ बेचकर अपना और अपने बेटे का पेट पालती है। किसी ने कहा था उसके बेटे को कि यह कुछ अच्छा करेगा यह एक ' रोगहर' है। 

             चीन के केंटन शहर में फ़तेह अली ख़ान यू- यान से मिलता है। फ़तेह अली ख़ां  जिनके रोज़नामचे के बग़ैर कहानी लिखी नहीं जा सकती थी। फ़तेह अली ख़ां राजा दिग्विजय सिंह के नौकर हैं जो उनके जहाज़ 'सूर्य दरबार' पर रहते हैं। यह जहाज़ कोलकाता बंदरगाह से चीन के केंटन शहर तक जाता है। फ़तेह अली ख़ां एक ईमानदार और अपने कार्य के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने गढ़ी से रिश्ता नहीं तोड़ा। आजीवन उसकी सेवा करते रहे। संयोग से यह कहानी 1910 पर आकर इसलिए खत्म हो जाती है, क्योंकि उसके बाद फ़तेह अली ख़ान के रोज़नामचे नहीं मिलते। उनका इंतकाल हो जाता है। चीन में अंग्रेजी सत्ता का प्रभाव बढ़ता देख यू - यान अपने बेटे चिन को फ़तेह अली ख़ान को सौंप देती है और उसे यहाँ उनके देश में सुरक्षित रखने को कहती है। फ़तेह अली ख़ां चिन को सुमेर सिंह और परगासो को दे देते हैं। आगे चलकर चिन डॉ चिन कान्हा सिंह बनता है।

            सन् 2001 में ली- ना नाम की एक लड़की भारत शोध के लिए आती है। जो जुड़वा बहन मो- चाओ और .... ‌ कुल की बेटी है। वह अपने देश से अपने वंश और पटना चित्र- शैली से जुड़ी कड़ी को ढूंढने आती है। उसके निदेशक बनते हैं शंकर लाल की पीढ़ी के समर्थलाल और उनकी पत्नी संगीता। समर्थलाल लीना को बीते समय की बातें बताते हैं। पटना आर्ट कॉलेज में लीना को चिन की वही तस्वीर मिलती है, जिसे फ़तेह अली ख़ां ने केंटन शहर में बनाया था और उसकी दूसरी कॉपी चिन की माँ यू- यान के पास थी। 

              लेखिका का यह उपन्यास अपने पाठकों को इत्मीनान दिलाता चलता है कि कहानी कहीं की भी हो मानवीय संबंध अनिवार्य रूप से मानवीय होते हैं। कुछ विरासतें साझी होती हैं, जो देश- काल के साथ- साथ हज़ारों मील फैले सागर को भी परे रखकर केवल मानवता को सबसे ऊँचाई पर रखती हैं। मानवीय संवेदना को किसी भी जाति, धर्म, देश और समुद्र की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। यह उपन्यास इतिहास के साथ- साथ वर्तमान समाज को भी मानवता का पाठ पढ़ाता है। मानवीय संबंधों को बचाए रखने में इतिहास से लेकर वर्तमान तक स्त्रियों की महती भूमिका रही है। इसका उदाहरण इस उपन्यास की औरतें परगासो, खदीजा बेग़म, यू- यान के साथ- साथ लीना बख़ूबी प्रस्तुत करती है। यह लड़ाई भी महाभारत की तरह उनके धर्म की लड़ाई थी। जो जाति- धर्म, ऊँच-नीच, हिंदू- मुसलमान और वर्ग- भेद की सीमाओं से ऊपर उठकर लड़ी गई और उसमें अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। समय से बड़ा अन्यायी कोई नहीं होता। जो हमसे सब कुछ छीन लेता है, परंतु साहसी व्यक्ति कभी हारता नहीं। इन औरतों से प्रभावित हो फ़तेह अली ख़ां कहते हैं-  "मैं कैसे बदल दूं इबारतें? कैसे बताऊँ दुनिया को कि मुल्क में एक परगासो बीवी होती हैं और चीन में एक यू- यान बीवी। दोनों की जमीन कितनी अलहदा लेकिन फितरत कितनी एक- सी। ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हार गई हैं लेकिन फिर भी मुल्क़ की बेहतरी चिंता करती हैं।..... और इन बहादुर औरतों के आगे मेरा सर झुका है। मोहब्बत करने वाले बुरे दिनों में भी मोहब्बत करते हैं... अपने लोगों से, अपने धरती से, अपने मुल्क से... और इस तरह मोहब्बत कभी नहीं मरती। 

 

     एक ही सफ में खड़े हैं महमूदो अयाज़

     न कोई बंदा है, न कोई बंदा नवाज़! 

                                     -  (इसी उपन्यास से)

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लेखक - वंदना राग

विधा - उपन्यास

वर्ष - 2020

पृष्ठ - 295

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन

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परिचय...

प्रतिभा सिंह

शोधार्थी, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर।

शिवना साहित्यिकी, छत्तीसगढ़ मित्र और रचना उत्सव में प्रकाशित लेख एवं कविताएं!

Thursday, August 20, 2020

जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य

 विवेक रंजन श्रीवस्तव व्यवसाय से इंजीनियर हैं, और हृदय से साहित्यकार।
साहित्य में उनकी आत्मा बसती है, साहित्य के प्रति प्रेम उन्हें अपने
परिवार से  विरासत में मिला है। उनके पिता पिता श्री चित्रभूशण
श्रीवास्तव जी हिन्दी के वरिष्ठ कवि , अनुवादक व चिंतक हैं . उनके पितामह
स्.व सी एल श्रीवास्तव आजादी के आंदोलन के सहभागी तथा मण्डला के सुपरिचित
हस्ताक्षर रहे थे .
        हिन्दी व्यंग्य विधा में विवेक रंजन श्रीवास्तव ने अपना विषिश्ट स्थान
बनाया है । वे एक अच्छे व्यंग्यकार इसलिये हैं क्योंकि वे एक अच्छे समाज
दृष्टा हैं । परिवार, समाज, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था जैसे विषयों की
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना पर वे सतत अपनी पैनी नजर रखते हैं । एक
व्यंग्यकार के रूप में उन्होंने अपने संचित अनुभवों और समाज के प्रति
प्रतिबद्धता तथा बहुत ही दोस्ताना शैली में समाज के प्रत्येक छद्म विषय
पर अपनी लेखनी चलायी हैं । जब विवेक रंजन जी सामाजिक विसंगतियों पर,
राजनैतिक छद्म पर, धार्मिक पाखंड पर अपनी रचनात्मक कलम चलाते हैं तब उनके
मन में समाज को बदलने की बलवती स्पृहा होती है । उनकी इसी सकारात्मक
परिवर्तनकामी दृष्टि से उनके व्यंग्यों का जन्म होता है । दरअसल व्यंग्य
रचना एक गंभीर कर्म है। विवेक रंजन श्रीवास्तव बीस-पच्चीस वर्षो से
अनवरत् व्यंग्य लिख रहे हैं । चाहे कोई भी घटना हो उनका ध्यान उस घटना के
मूल कारणों पर जाता है और वे एक मारक, मार्मिक तथा तीखे व्यंग्य लेख की
रचना कर देते हैं , जिसके अंत में प्रायः वे समस्या का समुचित समाधान भी
सुझाते हैं , इस दृष्टि से वे अन्य हास्य व्यंग्य के कई लेखको से भिन्न
हैं । विवेकरंजन के तीन व्यंग्य संग्रह ‘राम भरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’,
और ‘मेरे प्रिय व्यंग्य लेख’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं । चौथा
व्यंग्य संग्रह धन्नो बसंती और बसंत ई बुक के रूप में मोबाईल पर सुलभ है
.
        विवेक रंजन जी बहुत ही पारिवारिक अंदाज में अपने व्यंग्यों का प्रारंभ
करते हैं बात पत्नी बच्चों से आरंभ होती है और देश की किसी बड़ी समस्या पर
जाकर समाप्त होती है ‘भोजन-भजन’, फील गुड, आओ तहलका- तहलका खेलूँ,
रामभरोसे की राजनैतिक सूझ-बूझ आदि ऐसे ही व्यंग्य लेख हैं । रामभरोसे जो
इस देश का आम वोटर है , मिस्टर इंडिया जो गुमशुदा , सहज न दिखने वाला आम
भारटिय नागरिक है तथा उनकी पत्नी उनके वे प्रतीक हैं जिनसे वे अपने
व्यंग्य बुनते हैं . विवेक रंजन ने अपने व्यंग्य ‘आल इनडिसेंट इन ए
डिसेंट वे’ में आज के युग में विवाह समारोहों में किये जा रहे वैभव
प्रदर्शन, फूहड़ता, आत्मीयता का अभाव, अपव्ययता आदि पर विचार किया है । इस
व्यंग्य के मूल में समाज-सुधार का भाव गहराई से निहित है ।
        ‘नगदीकरण मृत्यु का’, ‘चले गये अंग्रेज’ आदि व्यंग्यों में व्यवस्था के
तमाम अंतर्विरोध उजागर हुए हैं । आजादी के बाद भारत में जो स्थितियाँ बनी
, सामाजिक राजनैतिक जीवन में जो विसंगत स्थितियाँ उपजीं , भ्रष्टाचार का
बोलबाला बढ़ा, धर्म के क्षेत्र में पाखंडी बाबाओं का अतिचार बढ़ा अर्थात
भारतीय समाज के सभी घटकों में इतनी असंगतियाँ बढ़ी कि तमाम साहित्यकारों
का ध्यान इस ओर गया । हरिशँकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी,
श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के.पी.सक्सेना, लतीफ
घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी के साथ विवेक रंजन श्रीवास्तव ने जीवन यथार्थ के
जटिलतम रूपों का बड़ी गहराई से अध्ययन करके अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक
व्यंग्य लिखे । विवेक रंजन के व्यंग्य एक बुद्धिजीवी, सच्चे समाज दृष्टा,
ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति तथा समाज सचेतक की कलम से निकले व्यंग्य है
। इन व्यंग्यों में सदाशयता है तो विसंगतियों के प्रति तीव्र दायित्व बोध
और आक्रामकता भी है ।
        ‘जरूरत एक कोप भवन की’ में भगवान राम के त्रेता युग से प्रारंभ करते हुए
विवेक रंजन कोप भवन की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हुए वर्तमान युग में कोप
भवन की प्रासंगिकता को सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि - ‘आज कोप भवन पुनः
प्रासंगिक हो चला है । अब खिचड़ी सरकारों का युग है । .......... अब जब
हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक
राज्य की राजधानी में जैसे       विधानसभा भवन और दिल्ली में संसद भवन
है, उसी तरह का एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे । इससे बड़ा लाभ मोर्चा के
संयोजकों को होगा । विभाग के बँटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर,
अपनी गलत सही माँग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा वह कोप भवन
में चला जायेगा । रेड अलर्ट का सायरन बजेगा संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख
अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुँचे, रूठे को मना लेंगे, फुसला लेंगे ।
लोकतंत्र पर छाया खतरा कोप भवन की वजह से टल जायेगा ।’’ इस उद्धरण में
हास्य के पुट के साथ देश की राजनैतिक स्थिति पर बड़ा पैना व्यंग्य है।
विवेक रंजन ने अपनी एक भाषा निर्मित की है। वे शब्द की स्वाभाविक
अर्थवत्ता को आगे बढ़ाकर चुस्त बयानी तक ले जाते हैं । सही शब्दों का चयन
उनका संयोजन, शब्दों के पारंपरिक अर्थों के साथ उनमें नये अर्थ भरने की
सामथ्र्य ही उनकी व्यंग्य भाषा को विशिष्ट बनाती है । उदाहरण के लिये
‘पिछड़े होने का सुख व्यंग्य की ये पंक्तियाँ जो एक कहावत से प्रारंभ होती
है -
                ‘‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम,
                दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।’’
‘‘इन खेलों से हमारी युवा पीढ़ी पिछड़ेपन का महत्व समझकर अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर भारत का नाम रोशन कर सकेगी । दुनिया के विकसित देश हमसे
प्रतिस्पर्धा करने की अपेक्षा अपने चेरिटी मिशन से हमें अनुदान देंगे।
बिना उपजाये ही हमें विदेशी अन्न खाने को मिलेगा । ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’
का हवाला देकर हम अन्य देशो के संसाधनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित कर
सकेंगे । दुनिया हमसे डरेगी । हम यू.एन.ओ.में सेन्टर आफ अट्रेक्शन
होंगे।’’ वस्तुतः यह व्यंग्य हमारे देश में आज तक जारी आरक्षण व्यवस्था
पर है । अपने व्यंग्यों के माध्यम से विवेक रंजन जी आज के बदलते परिवेश
और उपभोक्तावादी युग में मनुष्य के स्वयं एक वस्तु या उत्पाद में तब्दील
होते जाने को, इस हाइटेक जमाने की एक-एक रग की बखूबी पकड़ा है । उनके
शब्दों में निहित व्यंजना और विसंगतियों के प्रति क्षोभ एक साथ जिस
कलात्मक संयम से व्यंग्यों में ढलता है वही उनके व्यंग्य लेखों को
विषिश्ट बनाता है । विवेक रंजन के पास विवेक है जिसका उपयोग वे किसी
घटना, व्यक्ति या स्थिति को समझने में करते हैं, सच कहने का साहस है
जिससे बिना डरे वे अपनी मुखर अभिव्यक्ति या असंगत के प्रति अपनी असहमति
दर्ज कर सकते हैं, संत्रास बोध और तीव्र निरीक्षण शक्ति और संतुलित
दृष्टि बोध है, परिहास और स्वयं को व्यंग्य के दायरे में लाकर स्वयं पर
भी हँसने का माद्दा है । अनुभवों का ताप और संवेदना की तरलता के साथ
सकारात्मक परिवर्तनकारी सोच तथा एक  धारदार भाषा है जो सीधे पाठक को
संबोधित और संप्रेषित है।
        निष्कर्शतः विवेक रंजन जी के व्यंग्य पाठक को सोचने के लिये  बाध्य करते
है क्योंकि वे उपर से सहज दिखने वाली घटनाओं की तह में जाते हैं और भीतर
छिपे हुए असली मकसद को पाठक के सामने लाने में सफल होते हैं । हाँ कुछ
व्यंग्य लेखों में उतना पैनापन नहीं आ पाया है इस कारण वे हास्य लेख बन
गये हैं । यद्यपि ऐसे व्यंग्य लेखों की संख्या कम ही है । उनके सफल
व्यंग्यों में जीवन की जटिलता और परिवेशगत विसंगति अपनी संपूर्ण तीव्रता
के साथ व्यक्त हुई । वे जितने कुशल सिविल इंजीनियर हैं उतने ही कुशल
सोशियो इंजीनियर भी हैं। इसी सोशियो इंजीनियरी ने विवेक रंजन के
व्यंग्यों को इतना सशक्त और धारदार बनाया है।वे अनवरत व्यंग्य लिख रहे
हैं , अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर प्रायः उनकी उपस्थिति दर्ज हो रही है
. उनसे हिन्दी व्यंग्य को दीर्घकालिक आशायें हैं .


Wednesday, August 19, 2020

समय की महत्ता _

समय की महत्ता _

 

समय का सदुपयोग नामक इस शब्द से तात्पर्य है। समय की महत्ता को समझते हुए अपने जीवन के हर क्षेत्र में समय का कुशलता पूर्वक प्रयोग करना। समय एक ऐसी चीज है, जो किसी भी स्थिति में अपने निरंतरता में बाध्यता नहीं आने देती है। यह हर पल चलती ही रहती है। हम मानव के जीवन में इसका सबसे अधिक महत्व है।

 

हमारी सफलता और असफलता इसी पर निर्भर करती है। क्योंकि सदियों से हमारे जीवन में ऐसा होता आया है कि, अगर सही समय पर हम किसी भी काम को सही ढंग से करते हैं। तो हमें निश्चित रूप से सफलता हासिल होती है। परंतु उसी काम को सही ढंग से करने के बावजूद भी अगर उसे सही समय पर नहीं करते हैं। तो हमारा असफल होना निश्चित सा हो जाता है। समय हमारे जीवन का वह बहुमूल्य तथ्य है। जिसे एक बार खो देने के बाद, पुनः हाँसिल नहीं किया जा सकता है। अतः निश्चित रूप से हमें अपने जीवन में सफल होने के लिए इसके महत्व को आत्मसात करना आवश्यक है। 

 

हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक “समय नामक यह शब्द हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा होता है। अपने जीवन में समय का कुशलता पूर्वक उपयोग करना ही कहलाता है। समय किसी का इंतजार नहीं करती है। यह हर-हमेशा चलती ही रहती है। इसकी अमूल्यता का अनुमान हम इन बातों से भी लगा सकते हैं कि, हर सफल आदमी से अगर उसकी सफलता का मूल मंत्र पूछा जाता है। तो, उनके सभी बातों के अलावा एक बात “समय को पहचानना” निश्चित जुड़ा होता है। जो मनुष्य जीवन में समय की मूल्यता को नहीं समझता है। उसके द्वारा जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता हाँसिल करना असंभव है।

 

जिस प्रकार दूध से एक बार दही बना देने के बाद उसे पुनः दूध के रूप में प्राप्त नहीं किया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार जीवन में जो क्षण बीत जाता है। उसे पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है। हर मनुष्य के जीवन में एक सीमित समय होता है और जब इसका अंत हो जाता है। तो हमारे जीवन का भी अंत हो जाता है। समय वह रत्न है, जिसका सही ढंग से उपयोग करने पर गरीब भी अमीर बन जाता है और गलत ढंग से प्रयोग करने पर अमीर-से-अमीर व्यक्ति भी गरीब हो जाता है। अर्थात जो लोग समय को बर्बाद करते हैं। समय उसे बर्बाद कर देती है। समय के महत्तता और निरंतरता को ध्यान में रखते हुए कविवर कबीरदास जी ने ठीक ही लिखा है _ “काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलै होएगी, बहुरी करौगे कब॥”

 

अर्थात हमें शीघ्रता से समय रहते अपना काम पूरा कर लेना है। अन्यथा हम मुंह ताकते रह जाएंगे। अतः निश्चित रूप से किसी भी मनुष्य को अपने जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए समय का सदुपयोग करना अनिवार्य है मानव जीवन का प्रत्येक क्षण अमूल्य है। यदि एक क्षण का भी दुरुपयोग होता है। तो मानव सभ्यता का विकास चक्र रुक जाता है। एक पल की शिथिलता जीवन भर का पश्चाताप बन जाती है।

 

संसार में आज तक जिस मनुष्य ने समय के मूल्य को पहचाना है और उसका सदुपयोग किया है। उन्होंने ही दुनिया के समक्ष अपना लोहा मनवाया है। हम मानव समय के साथ निरंतर चल नहीं पाते हैं। जबकि समय नामक अमूल्य संपदा का भंडार हमेशा हमारे पास होता है। और जब हम इस मूल्यवान संपदा को बिना सोचे समझे खर्च कर देते हैं। तब हमें इसकी महत्ता समझ में आती ।है परंतु यह एक ऐसी चीज है। जिसे एक बार खो देने के बाद हमें पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता है। इसलिए तो विद्वानों ने भी कहा है कि, समय रहते हमें समय की महत्ता को समझ लेनी चाहिए तभी हम जीवन में सफल हो पाएंगे। इतना ही नहीं कई विद्वानों ने तो समय की महत्ता को स्पष्ट करने हेतु अपना विचार भी लिखे हैं।

 

समय ही एक ऐसी चीज है। जो हमें ऊंचाई की शिखर तक पहुंचा सकती है। और हमें गर्त में भी ले जा सकती है। समय दुनिया के उन चीजों में अपना स्थान रखती है जिस पर दुनिया के किसी भी चीज का वश नहीं चलता है। क्योंकि इसे न कोई शुरू कर सकता है, न अंत। न कोई खरीद सकता है, न कोई बेच सकता है। कुल मिलाकर कहें तो, समय पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। यह एक ऐसा शासक है, जो दुनिया के समस्त संपदा को अपने अनुसार चलाती है। यहां तक कि हमारी प्रकृति भी समय के अनुसार ही चलती है। 

 

मानव खोए हुए स्वास्थ्य को भी बुद्धिमान वेदो की सम्मति पर चलकर, पुष्टि-कारक औषधियों का सेवन करके तथा संयम जीवन व्यतीत करके एक बार फिर प्राप्त कर लेता है। भूली हुई और खोए हुए प्रतिष्ठा को मनुष्य थोड़े से शर्म से पुनः प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। सदियों के भूले-बिछड़े मिल जाते हैं। परंतु जीवन के जो छन एक बार चले गए। वह फिर इस जीवन में नहीं मिलता। कितनी अमूल्यता है क्षणों की, कितनी तीव्रता है, इसकी गति में। जो न आते मालूम पड़ते हैं, न जाते। परंतु चले जाते हैं।

 

जो अपने एक क्षण का भी अपव्यय नहीं करते, अपितु अधिक से अधिक उसका उपयोग अर्थात समय का सदुपयोग करते हैं। यही कारण है कि, संसार का महान से महान और कठिन से कठिन कार्य भी उनके लिए सुलभ हो जाता है। अब यह आपके ऊपर है कि, इन क्षणो का आप कैसे उपयोग करते हैं?

 

निद्रा में या निजी कार्य पूर्ति में, विद्या में या विवाद में, मैत्री में या कलह में, रक्षा में या परपीडन में। समय की अमूल्यता की घोतक कबीर की पंक्तियां भी कितनी महान है। “काल करै सो आज करै, आज करै सो अब, पल में परलै होएगी बहुरी करैगा कब

 

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

शोध प्रशिक्षक एवं साहित्यकार

पोस्ट - गोमती नगर. जनपद - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

*नक्कारखाने में उम्मीदों को जीती कविताएं- प्रो.बी एल आच्छा* सरल काव्यांजलि की  ऑन लाइन पुस्तक समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न

*नक्कारखाने में उम्मीदों को जीती कविताएं- प्रो.बी एल आच्छा*

 

सरल काव्यांजलि की  ऑन लाइन पुस्तक समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न

 

उज्जैन।  'श्री सन्तोष सुपेकर के तीसरे काव्य संग्रह 'नक्कारखाने की उम्मीदें' की कविताएं यथार्थ और आशा के बीच नक्कारखाने में उम्मीदों को जीतीं  हैं।ये कविताएं अपने रोजमर्रा के परिदृश्यों में केवल आत्मवृत्त ही नही बनातीं बल्कि चिड़ियों के दर्द से लेकर बाज़ार की दुनिया तक और स्मृति से लेकर तकनीक के आधुनिक छोर तक ले जातीं हैं।'ये विचार चेन्नई के प्रो.बी. एल . आच्छा ने सरल काव्यांजलि संस्था, उज्जैन द्वारा आयोजित ऑन लाइन समीक्षा गोष्ठी में व्यक्त किये।जानकारी देते हुए संस्था के श्री संजय जौहरी ने बताया कि वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर पुष्पा चौरसिया ने  इन कविताओं को  सकारात्मक सोच का आव्हान करती निश्छल प्रेम की रचनाऐं बताया।उन्होंने कहा कि सुपेकर की कविताओं में मानवता के स्वर औदात्य के साथ अभिव्यक्त हुए हैं।माधव कॉलेज के प्राधापक , वरिष्ठ साहित्यकार 

डॉक्टर रफीक नागौरी ने इस संग्रह की रचनाओं को विसंगतियों की आवाज बुलंद करने वाली बताते हुए कहा कि सुपेकर का लघुकथाकार इन कविताओं पर हावी है।कई रचनाओं में रूपकों का प्रयोग नही है जो संग्रह की कमज़ोरी है।वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर वन्दना गुप्ता के अनुसार कवि ह्रदय की संवेदनाएं इनमे मुखरित हुई हैं जिन्हें पढ़ते हुए पाठक की अनुभूतियां जीवंत होकर उसे उनके परिवेश से गुजरने का अहसास दिलाती हैं। वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती ज्योति जैन(इंदौर) ने कहा कि सुपेकर जी की कविताओं की खासियत है कि वे उनकी लघुकथाओं की तरह पैनी हैं व अपनी विशिष्ट मारक क्षमता के साथ पाठक को झकझोरतीं हैं।उनकी छोटी छोटी कविताएं महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गई हैं।वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण' ने कहा कि कवि का आहत मन ,शीर्षक कविता 'नक्कारखाने की उम्मीदें'में दिखाई देता है।कवि,संग्रह में उपयोग किये अंग्रेजी  शब्दों का  अर्थ  भी पाठकों को बताते चलते तो ठीक रहता।'व्यथा -ए-विकास' कविता का शीर्षक 'व्यथा एक विकास की' होता तो ज्यादा उचित होता।  श्री नितिन पोल ने कहा कि ये कविताएं छंद और यमक से मुक्त होकर गद्य में होने से पाठक पर सीधा प्रभाव छोड़तीं हैं।संग्रह में सामाजिक विषमताओं पर प्रहार के साथ साथ पर्यावरण,सामाजिक दायित्व पर भी प्रभावी ढंग से कलम चलाई गई है।

वरिष्ठ लेखक श्री दिलीप जैन ने कहा कि सुपेकर जी के दिल मे व्यवस्था में विसंगतियों के खिलाफ एक ज्वाला प्रज्वलित है जो कविता बनकर कागज़ पर उतरी है।उनकी भाषा  दुरूहता से मुक्त होकर सहज व बोधगम्य है ।

    आभासी अतिथि स्वागत श्री विजयसिंह गहलोत'साकित उज्जैनी' एवं श्री वीरेंद्रकुमार गुप्ता ने  किया व अंत मे आभार संस्था सचिव डॉक्टर संजय नागर ने माना।

Saturday, August 15, 2020

शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्र को भाषा की दरकार है।

   कुछ बातें प्रकट होने पर भी हमारे ध्यान में नहीं आतीं और हम हम उनकी उपेक्षा करते जाते हैं और एक समय आता है जब मन मसोस कर रह जीते हैं कि काश पहले सोचा होता. भाषा के साथ ही ऐसा ही कुछ होता है. भाषा में दैनंदिन संस्कृति का स्पंदन और प्रवाह होता  है. वह जीवन की जाने  कितनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है. उसके अभाव की कल्पना बड़ी डरावनी है. भाषा की  मृत्यु के साथ एक समुदाय की पूरी की पूरी विरासत ही लुप्त होने लगती है. कहना न होगा कि जीवन को समृद्ध करने वाली हमारी सभी महत्वपूर्ण उपलब्धियां जैसे-कला, पर्व, रीति-रिवाज आदि सभी जिनसे किसी समाज की पहचान बनती है उन सबका मूल आधार भाषा ही होती है.  किसी भाषा का व्यवहार में बना रहना उस समाज की जीवंतता और सृजनात्मकता को संभव करता है. आज के बदलते माहौल में अधिसंख्य भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी को लेकर भी अब इस तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं कि उसका सामाजिक स्वास्थ्य कैसा है और किस तरह का भविष्य आने वाला है.


 हिंदी के बहुत से रूप हैं जो उसके साहित्य में परिलक्षित होते हैं पर उसकी जनसत्ता कितनी सुदृढ है यह इस बात पर निर्भर करती है कि जीवन के विविध पक्षों में उसका उपयोग कहां, कितना, किस मात्रा में और किन परिणामों के साथ किया जा रहा है. ये प्रश्न सिर्फ हिंदी भाषा से ही नहीं भारत के समाज से और उसकी जीवन यात्रा से और हमारे लोकतंत्र की उपलब्धि से भी जुड़े हुए हैं. वह समर्थ हो सके इसके लिए जरूरी है कि हर स्तर पर उसका समुचित उपयोग हो. वह एक पीढी से दूसरे तक पहुंचे, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढे, हमारे विभिन्न कार्यों का माध्यम बने, विभिन्न कार्यों के लिए उसका दस्तावेजीकरण हो, और उसे  राजकीय समर्थन भी प्राप्त हो.


 वास्तविकता यही है कि जिस हिंदी भाषा को आज पचास करोड़ लोग मातृ भाषा के रूप में उपयोग करते हैं उसकी व्यावहारिक जीवन के तमाम क्षेत्रों में उपयोग असंतोषजनक है. आजादी पाने के बाद वह सब न न हो सका जो होना चाहिए था. लगभग  सात दशकों से हिंदी भाषा को इंतजार है कि उसे व्यावहारिक स्तर पर पूर्ण राजभाषा का दर्जा दे दिया जाय और देश में स्वदेशी भाषा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संचार और संवाद का माध्यम बने. संविधान ने अनुछेद 350 और 351 के तहत भारत संघ की राज भाषा का दर्जा विधिक रूप से दिया है.   संविधान के में हिंदी के लिए दृढसंकल्प के उल्लेख के बावजूद और हिंदी सेवी तमाम सरकारी संस्थानों और उपक्रमों के बावजूद हिंदी को लेकर हम ज्यादा आगे नहीं बढ सके हैं.


आज की स्थिति यह है कि वास्तव में शिक्षित माने अंग्रेजीदां होना ही है. सिर्फ हिंदी जानना अनपढतुल्य ही माना जाता है. हिंदी के ज्ञान पर कोई गर्व नहीं होता है पर अंग्रेजी की दासता और सम्मोहन  अटूट है. अंग्रेजी सुधारने के विज्ञापन ब्रिटेन ही नहीं भारत के तमाम संस्थाएं कर रही हैं और खूब चल भी रही हैं. हिंदी क्षेत्र समेत अनेक प्रांतीय सरकारें अंग्रेजी स्कूल खोलने के लिए कटिबद्ध हैं.  भाषाई साम्राज्यवाद का यह जबर्दस्त उदाहरण है. ज्ञान के क्षेत्र में जातिवाद है और अंग्रेजी उच्च जाति की श्रेणी में है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएं अस्पृश्य बनी हुई हैं. उनके लिए या तो पूरी निषेधाज्ञा है या फिर ‘ विना अनुमति के प्रवेश वर्जित है’ की तख्ती टंगी हुई है. इस  करुण दृश्य को पचाना कठिन है क्योंकि वह  सभ्यता के आगामे विकट  संकट प्रस्तुत कर रहा है. आज बाजार का युग है और  जिसकी मांग है वही बचेगा. मांग अंग्रेजी की ही बनी हुई है.


 यह विचारणीय है कि बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में राजा राम मोहन राय, केशव चंद्र सेन, दयानंद सरस्वती बंकिम चंद्र चटर्जी भूदेव मुखर्जी जैसे शुद्ध अहिंदीभाषी  लोगों हिंदी को राष्ट्रीय संवाद का माध्यम बनाने की जोरदार वकालत की थी. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1936 में वर्धा में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति‘ की स्थापना की जिसमें राजेंद्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, जमना लाल बजाज, बाबा राघव दास, माखन लाल चतुर्वेदी और वियोगी हरि जैसे लोग शामिल थे. उन्होने अपने पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति का काम सौंपा. यह सब हिंदी के प्रति राष्ट्रीय भावना  और समाज और संस्कृति के उत्थान के प्रति समर्पण को बताता है.


 ‘ हिंद स्वराज’  में गांधी जी स्पष्ट कहते हैं कि ‘ हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हिंदी ही होनी चाहिए’ .  इसके पक्ष में वह कारण भी गिनाते हैं कि राष्ट्रभाषा वह भाषा हो जो सीखने में आसान हो , सबके लिए काम काज कर पाने संभावना  हो, सारे देश के लिए जिसे सीखना सरल हो, अधिकांश लोगों की  भाषा हो. विचार कर वह हिंदी को सही पाते हैं और अंग्रेजी  को इसके लिए उपयुक्त नहीं  पाते हैं . उनके विचार में अंग्रेजी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती. वह अंग्रेजी मोह को स्वराज्य लिए घातक बताते हैं. उनके विचार में ‘ अंग्रेजी की शिक्षा गुलामी में ढलने जैसा है’ . वे तो यहां तक कहते हैं कि ‘ हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं. राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी हम पर पड़ेगी’ . वे  अंग्रेजी से से मुक्ति को  स्वराज्य की लड़ाई का एक हिस्सा मानते थे . वे मानते हैं कि सभी हिंदुस्तानियों को हिंदी का ज्ञान होना चाहिए . उनकी हिंदी व्यापक है और उसे नागरी या फारसी में लिखा जाता है. पर देव नागरी लिपि को वह सही ठहराते हैं.


गांधी जी मानते हैं कि हिंदी का फैलाव ज्यादा है. वह मीठी , नम्र और ओजस्वी  भाषा है. वे अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि ‘ मद्रास हो या मुम्बई भारत में मुझे हर जगह हिंदुस्तानी बोलने वाले मिल गए’ . हर तबके के लोग यहां तक कि मजदूर , साधु, सन्यासी सभी हिंदी का उपयोग करते हैं. अत: हिंदी ही शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है.  उसे आसानी से सीखा जा सकता है. यंग इंडिया में में वह लिखते हैं कि यह बात शायद ही कोई मानता हो कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले सभी तमिल-तेलुगु भाषी लोग हिंदी में खूब अच्छी तरह बातचीत कर सकते हैं .  वे अंग्रेजी  के प्रश्रय को को ‘ गुलामी और घोर पतन का चिह्न’  कहते हैं . काशी हिंदू विश्व विद्यालय में बोलते हुए गांधी जी ने कहा था :


 ‘ जरा सोच कर देखिए कि अंग्रेजी भाषा में अंग्रेज बच्चों के साथ होड़ करने में हमारे बच्चों को कितना वजन पड़ता है. पूना के कुछ प्रोफेसरों से मेरी बात हुई , उन्होने बताया कि चूंकि हम भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान संपादित करना पड़ता है , इस्लिए उसे अपने बेशकीमती वर्षों में से कम से कम छह वर्ष अधिक जाना पड़ता, श्रम और संसाधन का घोर अपव्यय होता  है. 1946 में ‘ हरिजन’ में गांधी जी लिखते हैं कि ‘ यह हमारी मानसिक दासता है कि हम समझते हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता . मैं इस पराजय की भावना वाले विचार को कभी स्वीकार नहीं कर सकता’ अभाव है. आज वैश्विक ज्ञान के बाजार में हम हाशिए पर हैं और शिक्षा में सृजनात्मकता का बेहद अभाव बना हुआ है. अपनी भाषा और संंस्कृति को खोते हुए हम वैचारिक गुलामी की ओर ही बढते हैं.  


 हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर के मार्च 1918 के अधिवेशन में बोलते हुए गांधी जी ने दो टूक शब्दों में आहवान किया था : ‘ पहली माता (अंग्रेजी) से हमें जो दूध मिल रहा है, उसमें जहर और पानी मिला हुआ है , और दूसरी माता (मातृभाषा ) से शुद्ध दूध मिल सकता है. बिना इस शुद्ध दूध के मिले हमारी उन्नति होना असंभव है . पर जो अंधा है , वह देख नहीं सकता . गुलाम यह नहीं जानता कि अपनी बेडियां किस तरह तोड़े . पचास वर्षों से हम अंग्रेजी के मोह में फंसे हैं . हमारी प्रज्ञा अज्ञान में डूबी रहती है . आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें . हिंदी सब समझते हैं . इसे राष्ट्रभाषा बना कर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए’ . 


 स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हिंदी के साथ हीलाहवाली करते हुए हम अंग्रेजी को ही तरजीह देते रहे . ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करते रहे जिसका शेष देश वासियों से सम्पर्क ही घटता गया और जिसका संस्कृति  का स्वाद देश से परे वैश्विक होने लगा . हम मैकाले के तिरस्कार से भी कुछ कदम आगे ही बढ गए. देशी भाषा  और संस्कृति का अनादर जारी  है.  गांधी जी के शब्दों में ‘ भाषा माता के समान है . माता पर हमारा जो प्रेम होना चाहिए वह हममें नहीं है’ .  मातृभाषा से मातृवत स्नेह से साहित्य , शिक्षा , संस्कृति , कला और नागरिक जीवन सभी  कुछ गहनता और गहराई से जुड़ा  होता है.  इस वर्ष महात्मा गांधी का विशेष स्मरण किया जा रहा है . उनके भाषाई सपने पर भी सरकार और समाज सबको विचार करना चाहिए. अब जब नई शिक्षा शिक्षानीति को अंजाम दिया जा रहा है यह आवश्यक होगा कि देश को उसकी भाषा में शिक्षा दी जाय. 


सबसे प्यारा तिरंगा हमारा

सबसे प्यारा तिरंगा हमारा

कर रहा वन्दन देश तुम्हारा

अभी पूर्ण स्वाधीन नहीं है हम 

स्वार्थ, शोषण पराधीनता है सम

आओ अब बदलते अपने विचार है

सभी को जन-गण-मन स्वीकार है

जन-जन को मातृहित स्वीकार हो जब

हम करें मातृभूमि का सम्मान अब

हर जगह लहराएगा तिरंगा जब

होगा हिंदुस्तान का गर्वित मस्तक तब

सबसे प्यारा तिरंगा हमारा

कर रहा वन्दन देश तुम्हारा।।

 

नाम-दिनेश प्रजापत"दिन"

गांव-मूली, जालोर (राज)

Friday, August 14, 2020

भारत देश

भारत देश


भारत देश हमारा है,
विश्व मे सबसे न्यारा है....


हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,
इसमे सब त्योहार मनाते है!
मंदिर, मस्जिद, तीर्थ, द्वारे,
सब मिलकर सजाये जाते हैं!!


स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस हो,
यहां तिरंगा फहराया जाता है!
बड़ी धूमधाम के साथ इसमें,
हर त्यौहार मनाया जाता है!!


भिन्न-भिन्न तरह की भाषा यहां,
भिन्न-भिन्न तरह का बाणा है!
भिन्न-भिन्न हैं रंग-रूप इसमें,
भिन्न-भिन्न तरह का खाणा है!!


गर्व है मुझे मेरे देश पर,
मेरा भारत देश महान है!
तिरंगा झंडा भारत की,
आन,बान और शान है!!


लहराता रहे तिरंगा हमेशा,
ये कभी भी ना झुकने पाए!
प्रगति की तरफ बढ़ते कदम,
मेरे देश के ना रुकने पाए!!


सुषमा मलिक, रोहतक 
महिला प्रदेशाध्यक्ष CLA हरियाणा


भारत को आगे बढ़ाएं!

भारत को आगे बढ़ाएं!

आओ हम सब मिलकर

इस आजादी को नमन करें

आओ हम इस मिट्टी का तिलक करें

यह धरती है वीर-जवानों और बलिदानों की

आओ हम सब मिल कदम बढ़ाएं

भारत को आगे बढ़ाएं!

कलाम की इंसानियत को अपनाएं

जात-पात, ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, भेद-भाव

और बदले की भावना से ऊपर उठें

अगर कोई धर्म अपनाना है

तो इंसानियत का धर्म अपनाएं।

क्योंकि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता

आखिर में इंसान ही इंसान के काम आता है।

 

- बरुण कुमार सिंह

करते सिक्के शोर !

करते सिक्के शोर !

क़तर रहे हैं पंख वो, मेरे ही लो आज !
सीखे हमसे थे कभी, भरना जो परवाज़ !!

आखिर मंजिल से मिले, कठिन साँच की राह !
ज्यादा पल टिकती नहीं, झूठ गढ़ी अफवाह !!

अब तक भँवरा गा रहा, जिसके मीठे राग !
वो तितली तो उड़ चली, कब की दूजे बाग़ !!

वक्त-वक्त का खेल है, वक्त-वक्त की बात !
आज सभी वो मौन हैं, जिनसे था उत्पात !!

जिनके सिर हैं पाप की, ब्याज समेत उधार!
बनकर साहूकार वो, करने चले सुधार !!

नोट कहाँ कब बोलते, करते सिक्के शोर !
केवल औछे लोग ही, दिखलाते हैं जोर !!

बौने खुद औकात का, रखते कहाँ ख्याल !
काँधे औरों के चढ़े, नभ से करें सवाल !!

जीवन पथ पे जो मिले, सबका है आभार !
काँटे, धोखा, दर्द जो, मुझे दिए उपहार !!

क्या पाया,क्या खो दिया,भूलों रे नादान !
किस्मत के इस केस में, चलते नहीं बयान !!

वक्त न जाने कौन तू, वक्त बड़ा बलवान !
भेजे वन में राम को, हरिश्चंद्र श्मशान !!

जब तक था रस बांटता, होते रहे निहाल!
खुदगर्जी थोड़ा हुआ, मचने लगा बवाल !!

✍ ---प्रियंका सौरभ   


Wednesday, August 12, 2020

हिन्दी के पाणिनि : आचार्य किशोरीदास वाजपेयी

हिन्दी के पाणिनि कहे जाने वाले आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ( 15.12.1998- 12.8.1981) का जन्म कानपुर के बिठूर के पास रामनगर नामक गांव में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा गांव में, संस्कृत की शिक्षा वृंदावन में और आगे की शिक्षा बनारस तथा पंजाब में हुई. कुछ वर्ष तक उन्होंने हिमांचल प्रदेश में अध्यापन का कार्य किया और उसके बाद वे स्वतंत्र वृत्ति से कनखल ( हरिद्वार ) में अत्यन्त आर्थिक असुविधाओं के साथ जीवनयापन करते रहे. उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के कोश विभाग में भी कार्य किया. वाजपेयी जी अत्यंत स्वाभिमानी और अक्खड़ स्वभाव के व्यक्ति थे. निर्भीकतास्पष्टवादिता और स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थे. अपनी निर्भीकता के कारण वे "अक्खड कबीर" और स्वाभिमान के कारण "अभिमान मेरु" कहाये जाने लगे थे.


वाजपेयी जी ने खड़ी बोली हिन्दी के व्याकरण की निर्मिति में मुख्य भूमिका निभाई है. उन्होंने हिन्दी को परिष्कृत करके उसे आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के योग्य बनाया. इसके पूर्व आधुनिक हिन्दी का प्रचलन तो हो चुका था किन्तु उसके व्याकरण का कोई सुव्यवस्थित और मानक रूप नहीं बन सका था. वाजपेयी जी ने हिन्दी को परिष्कृत भी किया और उसका मानक व्याकरण भी बनाया.


वाजपेयी जी को अपनी स्थापनाओं पर इतना विश्वास था कि वे किसी भी चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे. पं. सकलनारायण शर्मा का एक लेख माधुरी में छपा था जिसमें हिन्दी व्याकरण पर टिप्पणी के साथ ही हिन्दी व्याकरण सबंधी अनेक जिज्ञासाएं भी प्रकट की गई थीं. वाजपेयी जी ने उसका जवाब देते हुए माधुरी में एक लेख लिखा जिसका हिन्दी जगत पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा और उसके बाद व्याकरणाचार्य के रूप में वे प्रतिष्ठित हो गए. वाजपेयी जी ने भाषा विज्ञान, व्याकरण, साहित्य- समालोचना एवं पत्रकारिता आदि सभी क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराकर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है. फिर भी उनकी मुख्य देन हिन्दी शब्दानुशासन ही है.


वाजपेयी जी की हिन्दी भाषा और व्याकरण संबंधी अन्य पुस्तकों में ब्रजभाषा का व्याकरणराष्ट्रीय भाषा का प्रथम व्याकरणहिन्दी निरुक्त,  हिन्दी शब्द मीमांसा,  भारतीय भाषा विज्ञानहिन्दी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषणब्रजभाषा का प्रौढ़ व्याकरणअच्छी हिन्दीअच्छी हिन्दी का नमूना, सरल शब्दानुशासन, राष्ट्रभाषा का इतिहास, लेखन कलासाहित्य- निर्माण की शिक्षासाहित्य मीमांसा संस्कृति का पांचवां अध्याय, आदि प्रमुख हैं.


हिन्दी शब्दानुशासन उनकी सर्वाधिक प्रतिष्ठित और चर्चित पुस्तक है. इसकी पूर्वपीठिका में हिन्दी की उत्पत्तिविकास-पद्धतिप्रकृति और विकास आदि के अतिरिक्त नागरी लिपिखड़ी बोली का परिष्कार आदि पर बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से विचार किया गया है। पूर्वार्ध के सात अध्यायों में वर्ण, शब्द, पद, विभक्ति, प्रत्यय, संज्ञा, सर्वनाम, लिंग-व्यवस्था, अव्यय, उपसर्ग, यौगिक शब्दों की प्रक्रियाएं, कृदंत और तद्धित शब्द व समास, क्रिया-विशेषण, वाक्य संरचना, वाक्य भेद, पदों की पुनरुक्ति, विशेषणों के प्रयोग, भावात्मक संज्ञाओं और विशेषण आदि पर विचार किया गया है.


उत्तरार्द्ध में कुल पाँच अध्याय हैं. इसमें क्रिया से जुड़े तत्वों, उपधातुओं के भेदसंयुक्त क्रियाएँनामधातु और क्रिया की द्विरुक्ति का विवेचन है. इसके परिशिष्ट में हिन्दी की बोलियाँ और उनमें एकसूत्रता आदि का विश्लेषण है. इसमें राजस्थानीब्रजभाषाकन्नौजी या पाञ्चालीअवधीभोजपुरी (मगही) और मैथिली बोलियों के विभिन्न अवयवों पर विचार किया गया है. इसके अलावा इसमें पंजाबी भाषा एवं व्याकरण और भाषाविज्ञान पर भी विचार किया गया है.


सबसे पहले वाजपेयी जी ने ही घोषित किया कि हिन्दी एक स्वतंत्र भाषा है. वह संस्कृत से अनुप्राणित अवश्य है किन्तु अपने क्षेत्र में वह सार्वभौम सत्ता रखती है. यहां उसके अपने नियम कानून लागू होते हैं.


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार अभी तक हिन्दी के जो व्याकरण लिखे गएवे प्रयोग निर्देश तक ही सीमित हैं. “हिन्दी शब्दानुशासन” में पहली बार व्याकरण के तत्वदर्शन का स्वरूप स्पष्ट हुआ है.


ब्रजभाषा व्याकरण नामक वाजपेयी जी की पुस्तक भी बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें केवल व्याकरण ही नहीं, ब्रजभाषा के उद्भव, विकास और उसके स्वरूप का भी गहन अध्ययन प्रस्तुत किया गया है.


आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की स्थापनाओं में से एक महत्वपूर्ण स्थापना यह भी है कि भारतीय आर्यभाषाओं का विकास संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश के क्रमिक विकास के रूप में (वंशवृक्ष की तरह) नहीं हुआ है और न तो संस्कृत, सारी भारतीय आर्यभाषाओं की जननी ही है. वास्तव में भाषाओं का विकास नदी की धारा की तरह होता है जैसे गंगा के समुद्र में मिलने से पूर्व मार्ग में बहुत सी छोटी बड़ी नदियां मिलती जाती है, उसी तरह से छोटी- छोटी भाषाएं भी बड़ी भाषाओं में समाहित होती जाती हैं. दुनिया में भाषाएं सिर्फ मर रही हैं. समाज के ऐतिहासिक विकास-क्रम में लघु जातियों की भाषाएं महाजातियों की भाषाओं में समाहित होती जाती हैं. रामविलास शर्मा ने अपनी स्थापना की पुष्टि में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को उद्धृत किया है. वे लिखते हैं,


1953 में प्रकाशित एक लेख में मैने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश वाली मंजिलों का विरोध किया था. इस सिलसिले में श्री नामवर सिंह ने अपने गवेषणापूर्ण ग्रंथ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग में लिखा है,  किन्तु कुछ विद्वानों को भारतीय आर्यभाषा के विकास में संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश वगैरह इतनी मंजिलें गिनाना असंगत प्रतीत होता है.  डॉ. चाटुर्ज्या से जो उद्धरण पहले दिए गए हैं, उनसे स्पष्ट है कि इन मंजिलों की असंगति स्वीकृत पद्धति के भाषा- वैज्ञानिकों को भी मालूम हुई है. श्री किशोरीदास वाजपेयी ने अपने ग्रंथ हिन्दी शब्दानुशसन में इस मंजिल को स्वीकार नहीं किया. इस दोनो विद्वानों के ग्रंथ पढ़ने के बाद मेरी यह धारणा और भी दृढ़ हो गयी कि यह मंजिलों की कल्पना अवैज्ञानिक है. ( भाषा और समाज, पृष्ठ-203)


भाषा विज्ञान और व्याकरण के अलावा भी साहित्यशास्त्र सहित दूसरे विविध विषयों पर उनकी अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं. इनमें काव्य प्रवेशिकासाहित्य की उपक्रमणिकाकाव्य में रहस्यवादरस और अलंकारसाहित्य प्रवेशिकाअलंकार मीमांसाआचार्य द्विवेदी और उनके संगी साथीसाहित्यिक जीवन के संस्मरणवैष्णव धर्म और आर्य समाजवर्ण व्यवस्था और अछूतस्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री सुभाषचंद्र बोसराष्ट्रपिता लोकमान्य तिलककांग्रेस का संक्षिप्त इतिहासमानव धर्म मीमांसामेरे कुछ मौलिक विचारसंस्कृत शिक्षण कला और अनुवाद विषय आदि प्रमुख है.


व्याकरणाचार्य के साथ- साथ किशोरीदास वाजपेयी एक सुधी समीक्षक भी थे. बिहारी सतसई और उसके टीकाकार लेखमाला के प्रकाशित होने के बाद एक सुधी आलोचक के रूप में भी उनकी पहचान हो गई थी. उन्होंने तरंगिणी में ओजस्वी कविताएं भी लिखीं जिसके कारण उन्हे जेल भी जाना पड़ा था.


आचार्य वाजपेयी की पुस्तक भारतीय भाषाविज्ञान की भूमिका में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, आचार्य वाजपेयी हिन्दी के व्याकरण और भाषा विज्ञान पर असाधारण अधिकार रखते हैं. वे मानो इन्ही दो विधाओं के लिए पैदा हुए हैं....... मेरा बस चलता तो वाजपेयी जी को अर्थचिन्ता से मुक्त करके, उन्हें सभी हिन्दी (आर्य भाषा वाले) क्षेत्रों में शब्द-संचय और विश्लेषण के लिए छोड़ देता. उन पर कोई निर्बंध (कार्य करने की मात्रा) न रखता. जिसके हृदय में स्वत: निर्बंध है, उसे बाहर के निर्बंध की आवश्यकता नहीं.


विष्णुदत्त राकेश ने आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली का छह खण्डों में संपादन किया है.


12 अगस्त 1981 को कनखल ( हरिद्वार) में इस महान वैयाकरण का निधन हो गया. उनकी पुण्यतिथि पर हम हिन्दी भाषा, साहित्य और समाज क क्षेत्र में उनके महान योगदान का स्मरण करते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.


( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)