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Tuesday, September 15, 2020

*"भाषा साहित्य और समाज समकालीन परिपेक्ष"* 

*"भाषा साहित्य और समाज समकालीन परिपेक्ष"*     

 

*परिचय:-* मातृभाषा किसी व्यक्ति,  समाज, भारत देश एक सांस्कृतिक देश है। जो पूरी दुनिया में अपनी प्राचीन संस्कृति और प्राचीन सभ्यता के लिए मशहूर है। आज के भारत देश को प्राचीन संस्कृति से बहुत कुछ विरासत में मिल है।

 

जैसे की त्योहार, धर्म, संस्कार, रहन-सहन, ज्ञान और ऐसे ही बहुत कुछ जो हमे प्राचीन समय से मिलता आ रहा है। अपने भारत देश में आज भी लोग कई सारी पुरानी परंपराये और पुरानी संस्कृति का पालन कर रहे है।

 

 *हर चीज में संस्कृति* 

पुरानी पीढ़ियों के लोग अपनी अगली पीढ़ियों के लिए अपनी संस्कृतियों और मान्यताओं को पारित करते हैं, इसलिए, यहां हर बच्चा दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करता है, क्योंकि वह पहले से ही माता-पिता और दादा-दादी से संस्कृति के बारे में जानता था।

 

हम यहां हर चीज में संस्कृति को देख सकते हैं जैसे नृत्य, फैशन, कलात्मकता, संगीत, व्यवहार, सामाजिक मानदंड, भोजन, वास्तुकला, ड्रेसिंग सेंस आदि।

 

भारत एक बड़ा पिघलने वाला बर्तन है जिसमें विभिन्न मान्यताएं और व्यवहार हैं, जिसने यहां विभिन्न संस्कृतियों को जन्म दिया।

 

 *विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति* 

यहाँ के विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति लगभग पाँच हज़ार वर्ष से बहुत पुरानी है। यह माना जाता है कि हिंदू धर्म की उत्पत्ति वेदों से हुई थी। सभी पवित्र हिंदू शास्त्रों को पवित्र संस्कृत भाषा में लिखा गया है।

 

यह भी माना जाता है कि जैन धर्म की प्राचीन उत्पत्ति है और उनका अस्तित्व सिंधु घाटी में था। बौद्ध धर्म एक और धर्म है जो देश में भगवान गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के बाद उत्पन्न हुआ था। ईसाई धर्म बाद में लगभग दो शताब्दियों तक लंबे समय तक शासन करने वाले फ्रांसीसी और ब्रिटिश लोगों द्वारा यहां लाया गया था।

 

अपने देश में जो विभिन्न धर्म है, उसमे से कुछ धर्म की उत्पत्ति प्राचीन समय में हुई थी। इसलिए वो धर्म प्राचीन समय से चले आ रहे है। जैसे की हिंदू और जैन धर्म। इसके विपरीत कई सारे धर्म है जो, अपने देश में बाहर से आए है। मतलब कई सारे दूसरे देशों के संस्कृती से यहा आए है। इसमे सभी धर्म के लोग अपने अनुष्ठानों और मान्यताओं को प्रभावित किए बिना शांति से यहाँ रहते हैं।

 

 *संस्कृति का प्रभाव* 

युगों की विविधता आई और चली गई लेकिन हमारी वास्तविक संस्कृति के प्रभाव को बदलने के लिए कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था। युवा पीढ़ी की संस्कृति अभी भी गर्भनाल के माध्यम से पुरानी पीढ़ियों से जुड़ी हुई है।

 

हमारी जातीय संस्कृति हमेशा हमें अच्छा व्यवहार करने, बड़ों का सम्मान करने, असहाय लोगों की देखभाल करने और हमेशा जरूरतमंद और गरीब लोगों की मदद करने की सीख देती है।

 

  यह हमारी धार्मिक संस्कृति है कि हम उपवास रखें, पूजा करें, गंगाजल चढ़ाएं, सूर्य नमस्कार करें, परिवार में बड़े लोगों के चरण स्पर्श करें, दैनिक रूप से योग और ध्यान करें, भूखे और विकलांग लोगों को भोजन और पानी दें। यह हमारे राष्ट्र की महान संस्कृति है जो हमें हमेशा अपने मेहमानों का स्वागत एक भगवान की तरह करना सिखाती है, यही कारण है कि भारत “अतीथि देवो भव” जैसे एक आम कहावत के लिए प्रसिद्ध है। हमारी महान संस्कृति की मूल जड़ें मानवता और आध्यात्मिक अभ्यास हैं।संस्कृति या राष्ट्र की पहचान होती है l वास्तव में भाषा एक संस्कृति है, उसके भीतर भावनाएं,  विचार  और सदियों की जीवन पध्दति समाहित होती है l मातृभाषा ही परम्पराओं और संस्कृति से जोड़े रखने की एक मात्र कड़ी है l राम-राम या प्रणाम आदि सम्बोधन व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समष्टि से जोड़ने वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां हैं l उदाहरण के लिए प्रथम सम्बोधन के समय हम हाथ मिलाकर गुड मार्निंग नहीं करते हैं, बल्कि हाथों को जोड़कर राम या अन्य भगवान का नामोच्चारण करते हैं l यह नामोच्चारण एक तरफ हमें मर्यादा अथवा सम्बन्धित भगवान की विशेषता के कारण अर्जित युग-युगान्तकारी ख्याति की याद दिलाता है तो दूसरी तरफ राम जैसे शब्दों का उच्चारण हमारी अन्त:स्रावी (एंडोक्राइन) ग्रंथियों योग की भाषा में चक्रों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है l हाथ मिलाकर हम रोगकारी जीवाणुओं के विनिमय से भी बच जाते हैं l हाल ही में स्वाइन फ्लू से अपने नागरिकों को बचाने के लिए ओबामा दम्पति ने हाथ मिलाने से रोकने हेतु मुठ्ठी भिड़ाने (फिस्ट बम्प) अभियान चलाया था I अमेरिकी वैज्ञानिकों ने फिस्ट बम्प से भी दस प्रतिशत रोगाणुओं के विनिमय का खतरा बताया था यानी हाथ जोड़ना स्वत: ही श्रेष्ठ सिद्ध हो चुका है I

 

पहले घर के बाहर स्वस्तिक बनाते थे और सुस्वागतम् लिखा होता था और अब कुत्तों से सावधान I बोविस और उनके साथी वैज्ञानिक ने अध्ययन के बाद सिद्ध किया कि स्वस्तिक से सर्वाधिक सकारात्मक ऊर्जा निकलती है और यह विश्व की समस्त धार्मिक या अन्य आकृतियों के मुकाबले अनेक गुना ऊर्जा देने वाली आकृति है, जिससे एक मिलियन बोविस ईकाई की ऊर्जा निकलती है I इसीतरह पहले हमारे साथ कुछ अनपेक्षित घटित हो जाता था तो हम भगवान का नाम (हाय राम, या हे भगवान आदि) लेते थे I इसतरह हमारी अपेक्षा परमात्मा की कृपा पाने की होती थी, ताकि परमात्मा को याद दिला सकें कि तेरी कृपा की जरूरत है I जबकि इन दिनों नई पीढ़ी ऐसे अवसरों पर ओह शीट अर्थात् मानव मल को याद करती है, दूसरे शब्दों में कहें तो तत्कालीन अनपेक्षित स्थिति में उनकी अपेक्षा विष्ठा से मदद की हो गई है I भारतीय परम्पराओं के अनुसार तो ऐसे विकट या संकट की घड़ी में भगवान के नाम की तरह अशुभ वस्तु का स्मरण अनिष्ट को आमन्त्रित करने जैसा माना जाता है I विदेशों में सुबह के नमस्कार के लिए गुड मॉर्निंग शब्द का उपयोग होता है I वास्तव में यह गुड मार्निंग शब्द एक तरह से शुभकामना है कि आपको आज सूर्य के दर्शन हो जाएं, क्योंकि कई देशों में सूर्य भगवान साल में केवल 150 -200दिन ही दिखाई देते हैं l इसकारण वहां के लगभग 20% नागरिक सर्दियों में सीजनल अफेक्टिव डिसआर्डर (सेड)से ग्रस्त हो जाते हैं I हम पर तो सूर्य भगवान लगभग हर दिन ही कृपा करते हैं l हमारी मार्निंग तो उस दृष्टि से वैसे ही हर दिन गुड होती है l हाथ जोड़ने, नमन और झुकने की अपनी वैज्ञानिकता है l अर्थात् एक भाषा के नष्ट होने का अर्थ संस्कृति, विचार और एक जीवन पद्धति का मर जाना होता है l इसलिए भाषा को बचाना बहुत जरूरी है lइसे फौरीतौर पर नहीं लिया जाना चाहिए l

 

भारतीय भाषाओं की वैज्ञानिकता

फ्लोरिडा स्थित विश्वविद्यालय ने बताया था कि देवनागरी ऐसी भाषा है, जिसमें जीभ के सभी स्नायुओं का उपयोग होता है, रक्त संचार बढ़ता है, मस्तिष्क शान्त, (माइंड रिलेक्स), मस्तिष्क की बेहतर क्रियाशीलता (बेटर फंक्शनिंग ऑफ़ ब्रेन) और स्फूर्ति I इसके अतिरिक्त रोग रोधक शक्ति का विकास यानी बीमारियों से बचाव भी और रोग हो जाए तो उनसे रक्षा भी I

 

आत्मीयता बनाम आवश्यकता और उपयोगिता – नेशनल ब्रेन सेंटर में सम्पन्न एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार “हिन्दी या भारतीय भाषाएं पढ़ते और लिखते समय मस्तिष्क के दोनों तरफ के गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं l जबकि अंगरेजी पढ़ते समय केवल बांया ही जागता है l” यह वैज्ञानिक मत है कि  बांया मस्तिष्क तर्क, विश्लेषण, खण्ड खण्ड दृष्टि और गणित से सम्बध्द है और दांया आत्मीयता, भावना, संवेदना, कला,दया, ममता, करुणा, संगीत, काव्य, वात्सल्य, वस्तु को समग्रता से देखने आदि का प्रतिनिधित्व करता है lउक्त अध्ययन के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी या भारतीय भाषा पढ़ने वाले व्यक्ति का विकास संतुलित रूप से होगा,  इसके सम्भावना अधिक रहती है l यह बात सौ प्रतिशत सही है कि तर्क और गणित यानी आवश्यकता और उपयोगिता प्रधान व्यक्ति दया, ममता, करुणा आदि गुणों कि दृष्टि से उतना सम्पन्न नहीं रहेगा l अंगरेजी भाषा से बांया मस्तिष्क ज्यादा सक्रिय और विकसित होता है अथवा नहीं, इस बात का निर्णय दो तीन उदाहरणों से आप तय कर सकेंगे I अंगरेजी भाषा वाले देशों में पति-पत्नी के बीच तलाक की नौबत जरा-जरा सी बातों के कारण आ जाती है I ऐसी छोटी छोटी बात कि विश्वास ही नहीं हो पाता है I कुछ साल पहले अखबार में खबर पढ़ी थी कि अमेरिकी दम्पति के बीच टूथ पेस्ट ज्यादा लगाने का विवाद इतना बढ़ा कि तलाक हो गया था I वैसे भी वहां विवाह तो बड़ी बात है, प्रेम और मित्रता तक तर्क और गणित यानी आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर होते हैं तथा इसीलिए ये पवित्र सम्बन्ध भी ज्यादा लम्बे नहीं चल पाते हैं I अमेरिका जैसे देशों में मां-बाप अपनी सन्तानों को 14 -15 साल की उम्र में आत्मनिर्भर होने के लिए कहने लगते हैं l कहीं-कहीं तो घर से ही निकाल दिया जाता है जबकि भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को सुशिक्षित करने के बाद ही कमाने का आग्रह करते हैं, चाहे वे तीस साल के हो जाएं I मेडिकल के विद्यार्थी तो30 -32 साल की उम्र के पहले जीविकोपार्जन लायक नहीं हो पाते हैं l जहां तक अपने लाड़लों को घर से निकालने का प्रश्न है, वह तो सामान्यतया भारत में असम्भव है I भारत में भी अंगरेजी माध्यम से पढ़े बच्चे, बड़े होकर (तर्क और गणित को ध्यान में रखते हुए) मां-बाप को पैसा तो भेज देते हैं, पर बेटों से श्रवणकुमार जैसे एक प्रतिशत आत्मीयता के लिए मां-बाप मरते दम तक तरसते रहते हैं l आजकल तो विवाह का आधार आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर होने लगा है कि पति या पत्नी की शिक्षा-दीक्षा एकदूसरे के व्यवसाय के अनुकूल होगी या नहीं I दाम्पत्य जीवन में यदि आवश्यकता और उपयोगिता का सिद्धान्त हावी होगा तो फिर दम्पति में परस्पर आत्मीयता का आविर्भाव भला कैसे होगा I बोया हुआ आवश्यकता और उपयोगिता का बीज ही तो फलीभूत होगा I कहीं – कहीं तो वापरो और फेंको (यूज एंड थ्रो) का सूत्र काम करने लगा है l  मैं तो उक्त वैज्ञानिक अध्ययन को सौ प्रतिशत सही मानता हूं और मां-बाप को घर से बाहर करने की घटनाओं के पीछे अंगरेजी भाषा के हाथ को तर्क और गणित के आधार पर सही मानता हूं I फिर चाहे रेमंड कम्पनी के मालिक का मामला हो या फिर आशा साहनी के कंकाल की ही बात क्यों ना हो,सोचिए ना, क्या श्रवणकुमार के देश का एक बेटा अपनी अकेली रह रही ममतामयी माता की खैर खबर साल डेढ़ साल तक क्यों नहीं ले रहा था I हालांकि इतनी घोर वीभत्स और अनपेक्षित घटनाएं अपवाद हो सकती हैं, परन्तु माँ-बाप को जमीन-जायदाद और धन के लिए मार डालने का सिलसिला तो भारत में भी शुरू हो चुका है I

 *भाषा और मनोविज्ञान** 

अभी तक हुए अध्ययनों के आधार पर मनोवैज्ञानिकों की यह स्पष्ट मान्यता है कि  सम्प्रेषण की भाषा वही होना चाहिए, जिस भाषा मे वह सोचता और चिन्तन मनन करता है l वे मानते हैं कि इससे संप्रेषणीयता सटीक और सहज तो होती ही है, साथ-साथ व्यक्ति की ग्रहण क्षमता और कार्य क्षमता भी अधिक होती है l हमारे महाविद्यालय (महात्मा गांधी स्मृति मेडिकल कॉलेज, इन्दौर) में सम्पन्न एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि विश्विद्यालयीन परीक्षाओं में मेरिट में आने वाले विद्यार्थियों में उन विद्यार्थियों का वर्चस्व रहता है, जिनकी मेडिकल में प्रवेश के पूर्व पढ़ाई हिन्दी माध्यम से हुई थी I भारतरत्न स्व.डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम की स्पष्ट मान्यता थी कि मातृभाषा में शिक्षा सर्वोत्तम परिणामदायी होती है lउन्होंने 19 जनवरी 2011 को नागपुर के धर्मपीठ साइंस कॉलेज की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर कहा था कि मैंने अपनी दसवीं तक की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में ही की थी I उन्होंने श्रोताओं को सलाह दी थी कि यदि बच्चों में रचनात्मकता का विकास करना है और उनकी ग्रहण क्षमता (ग्रास्पिंग पॉवर) विकसित करना चाहते हैं तो उसे मातृभाषा में ही पढ़ाना चाहिए I पाकिस्तान की एक प्रोफ़ेसर इरफ़ाना मल्लाह का कहना है कि मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने से बच्चों की रचनात्मक क्षमताओं में वृद्धि होती है जबकि दूसरी भाषाओं में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की यह क्षमता सीमित हो जाती है। उनका कहना है कि जो बच्चे विदेशी भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं वह अपने इतिहास और सभ्यता से दूर हो जाते हैं।

 

 *मातृभाषा श्रेष्ठ क्यों ?* 

 

मातृभाषा सर्वश्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि मातृभाषा विद्यार्थी को आत्मविश्वासी और योग्य बनाती है lमातृभाषा में पढ़ाई से कक्षाओं में शिक्षक – विद्यार्थी एवं विद्यार्थी – विद्यार्थी के मध्य पारस्परिक ज्ञान का विनिमय ज्यादा और अधिक प्रभावी होता है l अनेक अध्ययनों और अब तक सरकार द्वारा बिठाए गए भाषाई आयोगों के निष्कर्षों से ज्ञात हुआ है कि हिन्दी अथवा मातृभाषा में पढ़ रहे विद्यार्थी ज्यादा जिज्ञासु और आत्मविश्वासी होते हैं l शोध अध्ययनों और व्यक्तिगत अनुभवों में भी यह बात सामने आई है कि मातृभाषा से दूर करने पर या अंगरेजी थोपने से विद्यार्थियों के ज्ञानार्जन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता हैl

 

वास्तव में बच्चों में भाषायी और व्याकरण सम्बन्धी समझ जन्मजात होती है। वे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं, अर्थात् सहज और स्वाभाविक व्याकरण उनकी जन्मजात (आनुवांशिक) संवेदनशीलता का संकेत देती है । जिस तरह तैराकी सिखाए बिना ही व्यक्ति को पानी में कूदने को कह दिया जाए,  तो वह तैर नहीं सकता है, ठीक वैसे ही यदि विद्यार्थियों को ऐसी भाषा में निर्देश या उपदेश दिए जाएं जो उनकी समझ में न आती हो,  तो वे विषय को ठीक से नहीं समझ पाएंगे I

ख्यातिलब्ध विद्वानों का कहना है कि ऐसे बच्चें जो अपनी पैदायशी भाषा में शिक्षा नहीं ग्रहण करते हैं,  उन्हें सीखने में ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और उनमें बीच में ही पढ़ाई या शाला छोड़ने की दर भी ज्यादा होती है।

यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मातृभाषा में शिक्षा से बच्चे भी ज्यादा संवादात्मक रुख अपनाते हैं और सवाल-जवाब करने में दिलचस्पी लेते हैं। जो बच्चे अपनी मातृभाषा में ठोस आधार लेकर आते हैं, वे दूसरी भाषा में बेहतर योग्यता प्राप्त करते हैं, क्योंकि जो भी बच्चों ने अपने घर में अपनी मातृभाषा में सीखा है वह ज्ञान,  वे अवधारणाएं तथा कौशल अन्य भाषा में सहज ही सीख जाते हैं, अर्थात् मातृभाषा के उपयोग को रोकना बच्चे के विकास में कदापि सहायक नहीं होता है बल्कि कालान्तर में वह बच्चे के समग्र विकास में बाधा या अभिशाप सिद्ध हो सकता है ।  शिक्षण संस्थानों द्वारा किसी भी बच्चे को मातृभाषा को ठुकराने के लिए बाध्य करने से बच्चों को यह संदेश भी अपने आप ही चला जाता है कि अपनी भाषा के साथ-साथ अपनी संस्कृति भी संस्थान के बाहर छोड़ कर आना है I इसके कारण बच्चे अपनी अस्मिता और संस्कारों का कुछ हिस्सा भी धीरे धीरे बाहर छोड़ने लगते हैं । भाषा विज्ञानियों का मत है कि इसीलिए मातृभाषा में शिक्षा तथा उसका सम्मान संस्कृति की अस्मिता बचाए रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखनी चाहिए, अवश्य सीखनी चाहिए, लेकिन उसे एक उपयोगी विदेशी भाषा की तरह ही सीखना चाहिए ।

 

 *मातृभाषा में पढाएं – हिलेरी* क्लिंटन

 

बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने का समर्थन करते हुए अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अपने भारत प्रवास में कहा था कि  अमेरिका में इस मुद्दे पर बहस जारी है। हिलेरी, जेवियर कॉलेज के विद्यार्थियों के साथ खास पारस्परिक संवाद – सत्र में हिस्सा लेने आई थीं। शिक्षा के माध्यम पर हिलेरी का कहना था, न्यूयॉर्क सिटी में प्रमुख स्कूल स्पैनिश, चाइनीज, रशियन भाषा के हैं। समाज का बड़ा हिस्सा कहता है कि बच्चों को उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाए। लेकिन दिक्कत यह है कि न्यूयॉर्क सिटी के स्कूलों में एक से अधिक भाषा जानने वाले टीचर ज्यादा नहीं हैं। अमेरिका में शिक्षा की चुनौतियों पर हिलेरी का कहना था कि अमेरिका में शिक्षा पर काफी पैसा खर्च होता है लेकिन हम उन बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं जो पीछे रह जाते हैं। वहां बहुत ज्यादा असमानता है। उन्होंने कहा था कि भारत में तकनीकी शिक्षा दुनिया में सबसे श्रेष्ठ है।

 

मातृभाषा परम्परा की धरोहर

प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक श्यामाचरण दुबे ने कहा था कि “शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य परम्परा की धरोहर को एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में परम्परा का सृजनात्मक मूल्यांकन भी शामिल होता है, लेकिन क्या हमारी शिक्षा संस्थाएं भारतीय परम्परा की तलाश कर रही हैं ?”  ख्यात साहित्यकार प्रभु जोशी का कथा है कि एक तरफ तो ताजमहल और लाल किले जैसी राष्ट्रीय धरोहर की एक भी ईंट तोड़ने पर अपराध कायम हो जाता है, तो दूसरी तरफ भाषा जैसी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक धरोहर को पूरी तरह नष्ट किया जा रहा है  और हम चुप हैं l और तो और हम भी उसमें सम्मिलित हो चुके हैं l यह हमारी आत्महीनता की पराकाष्ठा है l

 

 *मातृभाषा और मानव विकास* 

 

मानव विकास के क्रम में भाषा का एक विशिष्ट अधिकार  है, उसकी अधिमानता है और वरीयता है। व्यक्ति जो भाषा अपने परिवार में बोलता है, जिस भाषा में अपने संदेशों को संप्रेषित करता है अथवा जो भाषा स्थानीय समुदाय में प्रभावशाली होती है, उसमें अगर कोई अनुदेश या उपदेश दिया जाता है तो उसके कई फायदे होते हैं। मानव मस्तिष्क मातृभाषा में दिए गए संदेश को ग्रहण करने के प्रति काफी संवेदनशील होता है।

मातृभाषा में शिक्षा न देना क्रूरता है

चीन ने यह शैक्षिक अवधारणा भी पूरी तरह मान ली है कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए और ऐसा न करना बच्चों के साथ मानसिक क्रूरता है। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हुए बच्चे अन्य भाषा आनन्दपूर्वक सीखें तो यह सर्वथा न्यायसंगत तथा उचित होगा। लगभग सात दशक के अनुभव के बाद भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनेक कमियां बनी हुई हैं, जिनका निराकरण केवल दृढ़ इच्छाशक्ति से ही संभव है।

 

भारत में राजभाषा को कुएं में धकेलने का षड्यन्त्र

हमारे देश में हिन्दी को येन केन प्रकारेण जबान और चलन से गायब करने की जोरदार साजिश चल रही है और हम पूरीतरह बेखबर हैं I इसके समानान्तर अंगरेजी को भारत की मातृभाषा और राष्ट्रभाषा बना दिया जाए,  इसकी पूरजोर कोशिशें अनेक स्तर और विविध आयामी तरीकों से निरन्तर की जा रही है। दुनिया के अन्य देशों में उनकी अपनी मातृभाषा की क्या स्थिति है,  मातृभाषा के संरक्षण, उसकी समृध्दि के लिए कहां क्या हो रहा है,  इसका अध्ययन किए बिना ही हिन्दी को राष्ट्र से निर्वासित कर कूड़ेदान में फेंकने का काम निर्बाध गति से चुपचाप चल रहा है I टीवी चैनल्स और अखबार बहुत ही तेज गति से पढ़ने-लिखने और बोलचाल में हिन्दी के सरल शब्दों को चुपचाप हाशिए पर डाल अंगरेजी के शब्दों को भारत के आम नागरिक के दिलोदिमाग में डालने में निरन्तर सफल होते जा रहे हैं, यह बहुत ही गम्भीर चिन्तन, मनन का विषय है और कुछ सार्थक तथा ठोस रणनीति की अनिवार्यता का स्पष्ट सन्देश और संकेत देता है I सरकारों से लेकर कार्पोरेट और कार्पोरेट-हित-साधक अखबार, उसके प्रवक्ता बनकर लिखने वाले सब के सब इस जुगत में हैं कि मातृभाषा शब्द ही भारतीय मानस और बुध्दि से बाहर हो जाए ।

ज्ञान नहीं अज्ञान की ओर अग्रसर

तमाम बाल मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, विद्वानों की गुहार को दरकिनार कर सरकारों ने कक्षा एक से अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया, जबकि यह सिध्द हो चुका है कि मातृभाषा में शिक्षा बालक के उन्मुक्त विकास में ज्यादा कारगर होती है। वैसे भी अलग-अलग आर्थिक परिवेश के बालकों में विषय को ग्रहण करने की क्षमता समान नहीं होती है । उनके लिए अंगरेजी में पढ़ाए जाने पर और भी अधिक कठिनाई होती है। जिनका पूरा परिवेश ही अंगरेजी भाषामय हो, ऐसे परिवार देश में बहुत कम हैं I  यह बात सभी जानते हैं और साक्षी भी हैं कि हिन्दी अथवा मातृभाषा के माध्यम से जब पढाया जाता है तो बालकों के चेहरे प्रफ्फुलित दिखाई देते हैं।

 

अपनी भाषा अपना स्वाभिमान

रुमानिया,  डेनमार्क, मिश्र जैसे पिछड़े देश तक अपनी भाषा में शिक्षा देने को राष्ट्रीय गौरव मानते हैं l स्पेन और लातिन अमेरिका के ज्यादातर देशों मे स्पेनिश भाषा मे शिक्षा देते हैं l जापान और जर्मनी जैसे छोटे-छोटे देश जब अपनी भाषा में शिक्षा देकर तकनीकी और गैर तकनीकी क्षेत्रों में दुनिया के सिरमौर बने हुए हैं I रुस, चीन  फ्रांस आदि सब देशों में उच्च शिक्षा भी अपनी मातृभाषा में दीk जाती है, तथा अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण कर इन देशों के नागरिक अपने देश को शक्तिशाली बना रहे हैं l नये-नये आविष्कार कर रहे हैं । लेकिन दुनिया को ज्ञान-विज्ञान, गणित, योग, आध्यात्म देकर जगदगुरु कहलाने वाले देश के बुद्धि सम्पन्न नागरिक विदेशी भाषा पढ़ कर कोई आविष्कार करना तो दूर की बात, कालिदास की तरह अपनी संस्कृति सभ्यता का ही नाश करने में जुटे हुए हैं । यक्ष प्रश्न यह है कि जब दुनिया भर के देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा देकर अपने देश को शक्तिशाली बना रहे हैं, तो भारत में ऐसा क्यों नही हो रहा है? देश के युवकों को उनकी मातृभाषा में उच्च तकनीकी, विज्ञान और चिकित्सा शिक्षा देने की व्यवस्था आजादी से अब तक नहीं की गई और न ही इस दिशा में आशा की कोई किरण दिखाई दे रही है । जापान और जर्मनी जैसे छोटे-छोटे देश जब अपनी भाषा में शिक्षा देकर तकनीकी और गैर तकनीकी क्षेत्रों में दुनिया के सिरमौर बने हुए हैं l और हम अपनी जमीन खोने और अपनी जड़ों को नष्ट लारने के लिए उतावले हो रहे हैं I

हमारे देश के नागरिकों को यह बताया जाना चाहिए कि स्पेन, पुर्तगाल, फ़्रांस,  इटली,  जर्मनी, हालैंड, रूस, चीन, जापान,  अरब देश आदि में शिक्षा का माध्यम अंगरेजी नहीं है I इन देशों में प्रति 5 -7लाख व्यक्तियों में से एकाध ही टूटी फूटी अंगरेजी जानता है | अर्थात् वहाँ सबने अपनी अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति की है और वे विश्व में किसी से पीछे नहीं है l अंगरेजी की अनिवार्यता के कारण क्या हमारी प्रतिभा कुंठित नहीं हो रही है ? अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि अमेरिका के प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी और अरबी पढ़ाना शुरू करना चाहिए l क्योंकि इन भाषाओ को न जानने के कारण वहां के लोग क्या सोच रहे हैं, हम समझ नहीं पाते l अंग्रेज, अंग्रेजी तथा अंग्रेजियत के समक्ष अपने को हीनतम मानने की हमारी प्रवृत्ति सदियों पुरानी है, लेकिन व्यवस्था ने अभी भी उसे बनाए रखा है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अनेक देश स्वतंत्र हुए थे तथा इनमें से अनेक ने अभूतपूर्व प्रगति की है। उसके पूर्व चीन,सोवियत संघ और जापान के उदाहरण हैं। जिस भी देश ने अपनी भाषा को महत्व दिया वह अंग्रेजी के कारण पीछे नहीं रहा। रूस ने जब अपना पहला अंतरिक्ष यान स्पुतनिक अंतरिक्ष में भेजा था तब अमेरिका में तहलका मच गया था। उस समय रूस में विज्ञान और तकनीक के जर्नल केवल रूसी भाषा में प्रकाशित होते थे। पश्चिमी देशों को स्वयं उनके अनुवाद तथा प्रकाशन का उत्तरदायित्व लेना पड़ा। चीन की वैज्ञानिक प्रगति कभी भी अंगरेजी भाषा पर निर्भर नहीं रही है ।

अस्तु, अंगरेजी को अपना कर और उसको राष्ट्रीय तथा राजकीय स्तर पर बढ़ावा देना का सीधा सीधा अर्थ यही है कि हम अंग्रेजी के व्यामोह में पतंगों की तरह आत्मघात कर रहे हैं I

राष्ट्र, संस्कृति और अपनी अस्मिता के लिए कटिबद्ध महानुभावों से करबद्ध निवेदन है कि आपसी मतभेदों को दरकिनार कर अपनी भाषा को बचाने के लिए जी जान से ठोस, सार्थक और सफल प्रयास करें Iअभी नहीं तो कभी नहीं ।                         भारत देश एक सांस्कृतिक देश है। जो पूरी दुनिया में अपनी प्राचीन संस्कृति और प्राचीन सभ्यता के लिए मशहूर है। आज के भारत देश को प्राचीन संस्कृति से बहुत कुछ विरासत में मिल है।

 

जैसे की त्योहार, धर्म, संस्कार, रहन-सहन, ज्ञान और ऐसे ही बहुत कुछ जो हमे प्राचीन समय से मिलता आ रहा है। अपने भारत देश में आज भी लोग कई सारी पुरानी परंपराये और पुरानी संस्कृति का पालन कर रहे है।

 

 *हर चीज में संस्कृति* 

पुरानी पीढ़ियों के लोग अपनी अगली पीढ़ियों के लिए अपनी संस्कृतियों और मान्यताओं को पारित करते हैं, इसलिए, यहां हर बच्चा दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करता है, क्योंकि वह पहले से ही माता-पिता और दादा-दादी से संस्कृति के बारे में जानता था।

 

हम यहां हर चीज में संस्कृति को देख सकते हैं जैसे नृत्य, फैशन, कलात्मकता, संगीत, व्यवहार, सामाजिक मानदंड, भोजन, वास्तुकला, ड्रेसिंग सेंस आदि।

 

भारत एक बड़ा पिघलने वाला बर्तन है जिसमें विभिन्न मान्यताएं और व्यवहार हैं, जिसने यहां विभिन्न संस्कृतियों को जन्म दिया।

 

 *विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति* 

यहाँ के विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति लगभग पाँच हज़ार वर्ष से बहुत पुरानी है। यह माना जाता है कि हिंदू धर्म की उत्पत्ति वेदों से हुई थी। सभी पवित्र हिंदू शास्त्रों को पवित्र संस्कृत भाषा में लिखा गया है।

 

यह भी माना जाता है कि जैन धर्म की प्राचीन उत्पत्ति है और उनका अस्तित्व सिंधु घाटी में था। बौद्ध धर्म एक और धर्म है जो देश में भगवान गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के बाद उत्पन्न हुआ था। ईसाई धर्म बाद में लगभग दो शताब्दियों तक लंबे समय तक शासन करने वाले फ्रांसीसी और ब्रिटिश लोगों द्वारा यहां लाया गया था।

 

अपने देश में जो विभिन्न धर्म है, उसमे से कुछ धर्म की उत्पत्ति प्राचीन समय में हुई थी। इसलिए वो धर्म प्राचीन समय से चले आ रहे है। जैसे की हिंदू और जैन धर्म। इसके विपरीत कई सारे धर्म है जो, अपने देश में बाहर से आए है। मतलब कई सारे दूसरे देशों के संस्कृती से यहा आए है। इसमे सभी धर्म के लोग अपने अनुष्ठानों और मान्यताओं को प्रभावित किए बिना शांति से यहाँ रहते हैं।

 

 *संस्कृति का प्रभाव* 

युगों की विविधता आई और चली गई लेकिन हमारी वास्तविक संस्कृति के प्रभाव को बदलने के लिए कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था। युवा पीढ़ी की संस्कृति अभी भी गर्भनाल के माध्यम से पुरानी पीढ़ियों से जुड़ी हुई है।

 

हमारी जातीय संस्कृति हमेशा हमें अच्छा व्यवहार करने, बड़ों का सम्मान करने, असहाय लोगों की देखभाल करने और हमेशा जरूरतमंद और गरीब लोगों की मदद करने की सीख देती है।

 

 *निष्कर्ष* 

यह हमारी धार्मिक संस्कृति है कि हम उपवास रखें, पूजा करें, गंगाजल चढ़ाएं, सूर्य नमस्कार करें, परिवार में बड़े लोगों के चरण स्पर्श करें, दैनिक रूप से योग और ध्यान करें, भूखे और विकलांग लोगों को भोजन और पानी दें। यह हमारे राष्ट्र की महान संस्कृति है जो हमें हमेशा अपने मेहमानों का स्वागत एक भगवान की तरह करना सिखाती है, यही कारण है कि भारत “अतीथि देवो भव” जैसे एक आम कहावत के लिए प्रसिद्ध है। हमारी महान संस्कृति की मूल जड़ें मानवता और आध्यात्मिक अभ्यास हैं।                                 

 *सन्दर्भ सूची:-*                           

1.  समकालीन भारतीय साहित्य।               

2. साक्षात्कार पत्रिका।                     

3. भाषा साहित्य रामविलास शर्मा।                                               

4. भारतीय संस्कृति और हिन्दी खण्ड डा0 रामविलास शर्मा।         

 

 प्रो 0 बाबुलाल भूरा                           

ग्रंथपाल                                       

शासकीय महाविद्यालय चंद्रशेखर आजाद नगर भाबरा जिला अलिराजपुर मध्य प्रदेश 457882

हिंदी  प्रगीत का समाजशास्त्र 


हिंदी  प्रगीत का समाजशास्त्र 

 

काव्य  में  विचार  की अपेक्षा  भाव की प्रमुखता  होती  है।यह विधा अनुभूति  प्रधान  है ;इसलिए  काव्य  साहित्य  के समाजशास्त्र  के लिए  एक चुनौती  है। काव्य  के समाजशास्त्र  पर लुकाच,गोल्डमान, लियो लावेंथल  ,रेमंड  विलियम्स विचार  करते हैं। 

समाजशास्त्र और साहित्य  परस्पर  परिपूरक हैं। साहित्य  समाज  के मूल्यों,मानों,परिवर्तनों और उपलब्धियों  को स्वर  देता  है और समाजशास्त्र  उनकी व्याख्या के साथ  मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन  करता  है। "समाज  व्यक्तियों  का समूह  न हो कर मनुष्य  के बीच  होने  वाली अंतर्क्रियाओं और इनके  प्रतिमानों का प्रतिरूप है।"1

समाजशास्त्र सामाजिक अंत्क्रियाओं और प्रतिमानों  की व्याख्या करता  है।"प्रतीकों  की सुविधा और सूखता,उनकी उत्पत्ति संबंधी वैधता से अधिक  महत्वपूर्ण  है समाज  के लिए  जिसकी सार्थकता  का विवेचन  समाजशास्त्र करता  है।"2 समाजशास्त्रसाहित्य  में  व्यक्त समाज,सामाजिक संबंधों, सामाजिक  अंतर्क्रियाओं,और परिवर्तनों  का अध्ययन  करता  है।"वह साहित्य में व्यक्त समाज  का समग्र  रूप  में व्यवस्थित वर्णन  और व्याख्या   करता है।"3 दुर्खीम  सामूहिक प्रतिनिधानों का विज्ञान  मानते  हैं  समाजशास्त्र को।" यह उन मानसिक संबंधों का अध्ययन  है जो व्यक्तियों  को परस्पर  बांधते हैं।" 4

समाजशास्त्र साहित्य  की विविध विधाओं  में  व्यक्त  जीवन-यथार्थ  और मूल्यों का विश्लेषण -मूल्यांकन करता  है।

 

काव्य  में  भाषाई संरचना उपन्यास  और नाटक  से अधिक  महत्वपूर्ण  होती  है।सेंट जान पर्सी काव्य  की अनुभूति और भाषाई संरचना  का विश्लेषण  करते हैं। कवि की संवेदना  गौण है।

काव्य  में  भी यथार्थवाद का अंकन  होता  है,लेकिन  वर्णनात्मक और कथात्मक  काव्य  में  यथार्थ  की अभिव्यक्ति  अधिक  होती  है। प्रगीतात्मक काव्य  में  यथार्थ  गौण  और अनुभूति  प्रधान  होती  है। प्रगीत  के आत्मपरक, रोमांटिक, बिंबाश्रित और प्रतीकात्मक  होने पर यथार्थ  गौण  होता  है। नागार्जुन  के प्रगीत  कथात्मक  हैं,  इसलिए  अनुभूति  कम, विचार  अधिक  हैं। नागार्जुन  की 'अब तो बंद  करो देवी इस चुनाव  का प्रहसन' या 'तुम रह जाते दस साल औ'र या' सत्य को लकवा  मार  गया  है'जैसी कविताओं का सामाजिक  अर्थ और अभिप्राय यथार्थ  से युक्त  है।लेकिन ' कालिदास सच सच बतलाना 'या 'श्याम घटा हित बिजुरी रेह','सुजान नयन मनि','मेघ बजे 'आदि  कविताओं की कला यथार्थ  की सीमा  से बाहर पड़ती  है। कविता  में  व्यंजना  की पद्धति प्रायः  प्रतीकात्मक अधिक  होती  है।

काव्य  में  यथार्थ  और अनुभव की सीधी अभिव्यक्ति  नहीं  होती। उसमें  पुनर्रचित यथार्थ और अनुभव  की अभिव्यक्ति  होती  है;इसलिए काव्य  का यथार्थ  जीवन के यथार्थ  से भिन्न  होता  है। कविता  में  कभी-कभी  मानवीय वास्तविकता  से जीवनाकांक्षा की व्यंजना  अधिक  होती  है, लेकिन काव्य  की   नितांत निजी अनुभूति  में  भी समाज की आकांक्षा  निहित होती  है। काव्य  के सौन्दर्य  का एक रूप भाषिक सृजनशीलता के सौन्दर्य  में  होता  है। पाब्लो नेरूदा काव्य  को यथार्थ-विरोधी  मानते  हैं। समाजशास्त्र  जीवन के सामाजिक यथार्थ  और मूल्यों  से संबद्ध  है ।यह संबंधों  और व्यवहारों  पर निर्भर  है। वह समाज की वास्तविकता  के अमूर्तन  का सैद्धांतिक  सार है। उसमें  समाज  से स्वतंत्र व्यक्तियों की सत्ता  का कोई  विशेष महत्त्व  नहीं  होता। अडोर्नो का कहना  है कि काव्य  समाज  का विरोधी  और व्यक्ति  का पक्षधर  होता  है। वह भौतिक  जीवन के दमनकारी  प्रभावों और उपयोगितावादी दबावों  से बचाने  का माध्यम  है ।वह मानवता  और मूल्य  ,मानवीय अस्मिता और स्वाधीनता  का पक्षधर  है।यही इसकी  मानवीयता और सामाजिकता है।

ओडोर्नो का कहना  है कि "प्रगीत की पुकार  का मर्म  वही  समझ  सकता  है जो उसकी  आत्मपरकता में  निहित मानवीयता  की आवाज  सुन पाता  है।"5

मुक्तिबोध  'कामायनी' की समाजशास्त्रीय व्याख्या  करते हैं  लेकिन  सौंदर्य  -बोध  रहित।

समाजशास्त्र  की वस्तुपरकता और प्रगीत की आत्मपरकता  में  समन्वय  का अभाव  होता  है, लेकिन  प्रत्येक  महत्वपूर्ण  प्रगीत में वस्तु  से चेतना  का और समाज  से व्यक्ति  का ऐतिहासिक  संबंध  व्यक्त  होना अपेक्षित  है। प्रगीत में यह संबंध  जितना  प्रच्छन्न  होगा प्रगीत  उतना  ही अर्थपूर्ण  होगा। इसमें  समकालीन  जीवन की संवेदना  होती  है। काव्य और प्रगीत में आत्मीयता  और संश्लेषणात्मकता होती  है। प्रतीक,बिंब फैंटेसी आदि काव्य  की संप्रेषणीयता  के साधन होते हैं। लय,प्रवाह और संगीत  काव्य  के वैशिष्ट्य  हैं। इसमें  भाषा  की भूमिका  निर्णायक  और महत्वपूर्ण  होती  है।इसकी भाषाई संवेदनशीलता  में सामाजिक  संवेदनशीलता  निहित होती  है।अडोर्नो  का कहना  है कि "उदात्त  प्रगीत वे होते हैं जिनमें  कवि  अपनी भाषा  में खुद  को इस तरह विलीन कर देता है कि उसकी उपस्थिति  का आभास  नहीं  होता और भाषा का अपना  स्वर काव्य  में  गूंजने लगता है। इसी प्रक्रिया  में जब भाषा  के स्तर  पर काव्य  समाज  से जुड़ता  है तब उसकी भाषा  केवल कवि -मानसिकता  को ही व्यक्त नहीं  करती ,वह अपने  समय और समाज की मानसिकता  को भी व्यक्त करती है।"6 ऐसी स्थिति  में  कवि की भाषा-चेतना उसके जीवन -बोध  का पर्याय  बन जाती है। कवि त्रिलोचन  का कहना  है-

भाषा की लहरों  में  जीवन का हलचल है

ध्वनि  में  क्रिया  भरी है और क्रिया में बल है।

कवि दिनकर, प्रसाद,निराला और नागार्जुन  के अनेक  प्रगीत सामाजिक  जीवन -बोध  और सौंदर्य  -बोध  से युक्त हैं  ।ये सामाजिक -राजनीतिक यथार्थ के साथ  मानवता और मानवीय अस्मिता-स्वाधीनता को व्यक्त  करते हैं।

संदर्भ ग्रंथ सूची-।

1 Sociology ,Lapier R.T.P 37

2Principal of Sociology-Harbert Spencer,Prefece

3 समाजशास्त्र-जी के अग्रवाल,एस बी पी डी पब्लिकेशन्स,आगरा ,पृष्ठ 3

4 वही  पृष्ठ 7

5 साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका -डाॅक्टर मैनेजर पाण्डेय  हरियाणा  ग्रंथ अकादमी पृष्ठ  334.

वही  पृष्ठ  335.

 


सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह ,हिंदी  विभाग,

 बी एन मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा



Monday, September 14, 2020

देवनागरी लिपि के पथ की बाधाएँ और उपाय ।

देवनागरी लिपि के पथ की बाधाएँ और उपाय ।


डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’


 


यह सर्वमान्य तथ्य है कि यदि हमें अपनी भाषाओं का प्रचार - प्रसार करना है तो भाषा के साथ-साथ इनकी लिपियों को बचाए रखना भी अत्यंत आवश्यक है। लेकिन पिछले कई वर्षों में यह देखने में आ रहा है कि हिंदी ही नहीं अन्य ऐसी भाषाएं जो देवनागरी में लिखी जाती हैं उन्हें भी ज्यादातर लोग कंप्यूटर मोबाइल तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर रोमन लिपि में लिखने लगे हैं। निश्चित रुप से देवनागरी लिपि पर पड़ने वाली चोट प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी और भारतीय भाषाओं पर पड़ने वाली चोट है। इसलिए यह आवश्यक है कि देवनागरी लिपि के गुणगान के बजाय हम देवनागरी लिपि की राह की चुनौतियों और समस्याओं को समझ कर इन्हें दूर करने के उपाय करें।


किसी भी व्यक्ति के कानों में सर्वप्रथम अपनी मां की भाषा के शब्द ही पड़ते हैं  इसलिए उसे मातृभाषा कहा जाता है। इसी प्रकार दुनिया में  जब  कहीं कोई विद्यालय में पढ़ने के लिए जाता है उसका सर्वप्रथम साक्षात्कार मातृभाषा की लिपि से ही होता है । भारत में हिंदी, मराठी, कोकणी , नेपाली, मैथिली डोंगरी, बोडो  आदि भाषाएं जो कि  लोगों की मातृभाषाएं है और देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं । अन्य देशों की तरह  हमारे देश में  भी इन भाषाओं के बच्चों  का प्रथम साक्षात्कार अपनी मातृभाषा की लिपि यानी देवनागरी लिपि से भी तभी होना चाहिए जब वे पहले पहल विद्यालय में पहुंचते हैं। लेकिन अग्रेजी माध्यम के दौर और दौरे के चलते  हम इस स्वभाविक राह को छोड़ते जा रहे हैं। अब हमारे देश में हमारे विद्यालयों द्वारा अपनी भाषा के साथ-साथ अपनी भाषा की लिपि को पछाड़ने की शुरूआत  तभी से हो जाती है जब वह  माँ-बाप की गोदी में बैठ कर स्कूल में प्रवेश करता है।  बच्चों को  ढाई – तीन साल का होते - होते नर्सरी स्कूलों में भेज दिया जाता है जहां उन्हें अंग्रेजी और अंग्रेजी की लिपि यानी रोमन लिपि रटाई जाती है। तब बच्चा  ‘क, ख, ग’ नहीं बल्कि  दिन रात वह  ‘ए.बी. सी... ‘ रटता है। उसका प्रथम साक्षात्कार अपनी मां की भाषा और उसकी लिपि से न  होकर रोमन लिपि से होता है और वह सालों तक उसे ही रटता रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि उनके लिए लिपि का अर्थ, मुख्यतः रोमन लिपि ही हो जाता है।


आगे चल कर जब प्राथमिक कक्षाओं में आने के पश्चात उन्हें हिंदी विषय पढ़ाया जाता है तब उनका देवनागरी लिपि के परिचय होता है। लेकिन वहां भी स्थिति  गंभीर होती है क्योंकि एक तो विद्यार्थी के माता-पिता और स्कूल प्रबंधन हिंदी को इतना महत्व ही नहीं देता जितना दिया जाना चाहिए। उस पर स्थिति यह भी है कि शिक्षक भी देवनागरी लिपि को वैज्ञानिक लिपि होने के बावजूद वैज्ञानिक विधि से नहीं पढ़ाते। मैंने स्वयं हिंदी और मराठी माध्यम तथा हिंदी विषय से पढ़ कर आए ऐसी अनेक युवाओं को देखा है जिन्हें 10- 12 वर्ष तक देवनागरी लिपि में हिंदी या मराठी आदि पढ़ने के बावजूद देवनागरी लिपि में बहुत से शब्दों और वर्णों को  लिखने या उनके सही उच्चारण की जानकारी नहीं होती । यही कारण है कि रोमन लिपि के तार्किक और वैज्ञानिक न होने के बावजूद एक-एक शब्द की वर्तनी को रट-रट कर बच्चे सीख लेते हैं लेकिन देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक व सरल होने के कारण बच्चे सीख नहीं पाते । इस स्थिति की गंभीरता का अंदाज मुझे तब हुआ जब मैंने उत्तर प्रदेश में माध्यमिक कक्षा में पढ़नेवाली अपने रिश्तेदार की बेटी को हिंदी का पत्र रोमन लिपि में लिखते देखा । हालांकि रोमन लिपि में उसकी हिंदी को समझना भी


हिन्दी की दशा और दुर्दशा 

हिन्दी की दशा और दुर्दशा 


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कहा जाता है कि भाषा संप्रेषण का सशक्त साधन होता है|जीवंतता,स्वायत्तता तथा लचीलापनभाषा के प्रमुख लक्षण हैं|१४सितंबर १९४९ को संविधान की भाषा समिति ने हिंदी को राजभाषा पदपर पीठासीन किया और १९६३ में राजभाषा अधिनियम जारी हुआ|विश्व में ७० करोड़ लो हिंदीभाषी हैंऔर यह तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है|लेकिन हिंदी प्रचार प्रसार के लिएसरकारों द्वारा सराहनिय क़दम नहीं उठाए गए |भले ही विश्व के विश् विद्यालयों में हिंदी अध्यापनहो रहा है परंतु विडंबना यह है कि हिंदी भाषा अपने ही घर में पेक्षित ज़िन्दगी जी रही है|यहाँगुडमॉरनिंग से सुर्योदय और गुडनाइट से सूर्यास्त होता है|हैप्पी बर्थ डे से जन्म और रीप से मरणसंदेश भेजे जाते हैं|अंग्रेजी बोलने वाले को बुद्धिमान और हिंदी बोलने वालों को समाज में सम्मानकी दृष्टि से नहीं देखा जाता है|जब भी हिंदी दिवस आता है हम हिंदी पखवाड़ा मना कर "हिंदी मेरीशान हिंदी मेरी जान "बोल  इतिश्री कर लेते हैंहम माताएँ भी कम दोषी नहीं अपने बच्चों कोजब वे बोलने की कोशिश करते हैं तो उन्हें अंग्रेज़ी परोसने लगते हैं|हिंदी की दशा हमारी दोहरीनीति का शिकार हो गई है|


 


हिंदी को कभी सर्वश्रेष्ठ भाषा का दर्जा प्राप्त था |आज उसकी सी दुर्दशा जिसे लोग बोलने में,संदेश भेजने में शर्म का अनुभव करते हैं |अंग्रेज़ी में संवाद लिख या बोल कर क्लासी महसूस करतेहैं|हिंदी और अंग्रेज़ी मिश्रित भाषा का प्रचलन (हिंगलिशशहरों में तो आम बात है ,अब गाँव में भीदेखने ,सुनने को मिलती है|


हिंदी की दुर्दशा का आकलन तो इसी बात से लगाया जा सकता कि इंग्लिश मिडियम स्कूलों मेंहिंदी का आस्तित्व बचाने के लिए अनिवार् विषय के रुप में पढ़ाने के लि सरकार को प्रयासकरने पड़ रहे हैं|विदेशी भाषा के ज़ंजीर से कड़ी हिंदी को दोयम का दर्जा प्राप्त है|


 


सविता गुप्ता-मौलिक 


राँची झारखंड 


है हिंदी यूं हीन ।।

है हिंदी यूं हीन ।।
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बोल-तोल बदले सभी, बदली सबकी चाल ।
परभाषा से देश का, हाल हुआ बेहाल ।।



जल में रहकर ज्यों सदा, प्यासी रहती मीन ।
होकर भाषा राज की, है हिंदी यूं हीन ।।


अपनी भाषा साधना, गूढ ज्ञान का सार ।
खुद की भाषा से बने, निराकार, साकार ।।


हो जाते हैं हल सभी, यक्ष प्रश्न तब मीत ।
निज भाषा से जब जुड़े, जागे अन्तस प्रीत ।।


अपनी भाषा से करें, अपने यूं आघात ।
हिंदी के उत्थान की, इंग्लिश में हो बात ।।


हिंदी माँ का रूप है, ममता की पहचान ।
हिंदी ने पैदा किये, तुलसी ओ" रसखान ।।


मन से चाहे हम अगर, भारत का उत्थान ।
परभाषा को त्यागकर, बांटे हिंदी ज्ञान ।।


भाषा के बिन देश का, होता कब उत्थान ।
बात पते की जो कही, समझे वही सुजान ।।


जिनकी भाषा है नहीं, उनका रुके विकास ।
परभाषा से होत है, हाथों-हाथ विनाश ।।


 


  प्रियंका सौरभ 



Wednesday, September 9, 2020

हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत : भारतेन्दु हरिश्चंद्र

हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत : भारतेन्दु हरिश्चंद्र


भारतेंदु हरिश्चंद्र


“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल” अर्थात अपनी भाषा की प्रगति ही हर तरह की प्रगति का मूलाधार है. इस सत्य का साक्षात्कार भारतेन्दु हरिश्चंद्र ( 9.9.1850-6.1.1885) ने आज से डेढ़ सौ साल पहले ही कर लिया था. इसीलिए हम भारतेन्दु को ‘आधुनिक हिन्दी का अग्रदूत’ कहते है. मात्र 34 वर्ष 4 माह की अल्पायु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. इस छोटी सी आयु में साहित्य के विविध क्षेत्रों में उन्होंने जो काम किया है वह अविश्वसनीय लगता है. उन्होंने ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’, ‘कविवचनसुधा’, ‘बालाबोधिनी’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया, अनेक नाटक लिखे, नाटकों के अनुवाद किए और उसमें अभिनए किए, कविताएं, निबंध, व्यंग्य और आलोचनाएं लिखीं. भारतेन्दु मंडल के माध्यम से काशी के साहित्यकारों को एकजुट करके उनका नेतृत्व किया. साहित्यिक संस्कार उन्हें अपने पिता गोपालचंद्र से मिले थे जो ‘गिरिधरदास’ के नाम से कविताएं करते थे.


भारतेन्दु आधुनिक हिन्दी आलोचना के भी अग्रदूत कहे जा सकते हैं. हिन्दी गद्य के विकास और रूप निर्धारण में उनकी पत्रिका ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ का विशेष योगदान है. इस पत्रिका ने उस युग के आधुनिक दृष्टि सम्पन्न लेखकों को अपनी प्रतिभा निखारने का अवसर दिया.  नाटक, भारतेन्दु की की सर्वाधिक प्रिय विधा रही. ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेरनगरी’, ‘नीलदेवी’ जैसे कई मौलिक नाटकों के साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला के नाटकों का अनुवाद भी किया. अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने ‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’ नामक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी. इस कृति से नाटक के विषय में उनकी आधुनिक दृष्टि का पता चलता है.


नाट्य रचना के अंतर्गत यथार्थवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता को महसूस करते हुए भारतेन्दु लिखते हैं कि, “ अब नाटकादि दृश्य काव्य में अस्वाभाविक सामग्री –परिपोषक काव्य, सहृदय सभ्यमंडली को नितान्त अरुचिकर है, इसलिए स्वाभाविक रचना ही इस काल के सभ्यगण की हृदयग्राहिणी है, इससे अब अलौकिक विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना उचित नहीं है.” (उद्धृत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएं, रामविलास शर्मा, पृष्ठ-148)


भारतेन्दु के समय हिन्दी नाटकों पर बंगला और अग्रेजी के साथ पारसी शैली के नाटकों का भी  प्रभाव पड़ रहा था किन्तु भारतेन्दु को पारसी नाटकों की अभिनय शैली पसंद नहीं थी. उन्होंने पारसी नाटकों की प्रस्तुति और शैली पर व्यंग्य करते हुए लिखा है, “ काशी में पारसी नाटक वालों ने नाचघर में जब शकुन्तला नाटक खेला और उसमें धीरोदात्त नायक दुष्यंत खेमटेवालियों की तरह कमर पर हाथ रखकर मटक- मटक कर नाचने और पतली कमर बल खाय यह गाने लगा तो डाक्टर थिबो, बाबू प्रमदादास मित्र प्रभृति विद्वान यह कहकर उठ आए कि अब देखा नहीं जाता.“ ( वही, पृष्ठ- 21)


भारतेन्दु ने आलोचना के क्षेत्र में दो मूलभूत की स्थापनाएं की हैं.  प्रथम तो यह कि शास्त्रीय सिद्धात परिवर्तनशील हैं. उनका युगानुकूल पुनराख्यान होना चाहिए.  दूसरा यह कि काव्य का मूल्यांकन सामाजिक चेतना को भी दृष्टि में रखकर करना चाहिए.  शास्त्रीय मर्यादा से युक्त होते हुए काव्य कृति तभी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है जब उसमें समाज संस्कार की चेतना और देश भक्ति की भावना हो. भारतेन्दु के इस दृष्टिकोण का ही प्रभाव था कि आगे चलकर पं. बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ और प्रतापनारायण मिश्र जैसे आलोचकों ने साहित्य को जीवन के साथ संपृक्त करके देखा और साहित्य में संयम, मर्यादा और शुद्धाचरण की प्रतिष्ठा पर अधिक बल दिया.  बाद में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया.


डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने नाटक-केन्द्रित भारतेन्दु की आलोचना दृष्टि का विश्लेषण करते हुए लिखा है, “भारतेन्दु ने नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति, समसामयिक जनरुचि एवं प्राचीन नाट्यशास्त्र की उपयोगिता पर विचार किया है. उन्होंने बदली हुई जनरुचि के अनुसार नाट्यरचना में परिवर्तन करने पर विशेष बल दिया है. भारतेन्दु के नाटक विषयक लेख में आलोचना के गुण मिल जाते हैं. ऐसी दशा में उन्हें आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रथम आलोचक कहना अनुचित न होगा.” (हिन्दी आलोचना, पृष्ठ-19)


कविता के संबंध में भारतेन्दु के विचार हमें उनके निबंध ‘जातीय संगीत’ में मिलते है.  इसमें उन्होंने लिखा है, “ यह सब लोग जानते हैं कि जो बात साधारण लोगों में फैलेगी उसी का प्रचार सार्वदेशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना ग्राम- गीत शीघ्र फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर चित्त पर प्रभाव होता है उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता. इससे साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है.”( भारतेन्दु ग्रंथावली, (सं.) ओमप्रकाश सिंह, खंड-6, पृष्ठ-102 )


     हिन्दी के महत्व और उसकी प्रगति के लिए भारतेन्दु का चिन्तन बहुत महत्वपूर्ण है. भारतेन्दु का बलिया वाला मशहूर भाषण ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ का अन्तिम वाक्य है, “परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो. अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो.“ 


 हिन्दी की उन्नति को आधार बनाकर भारतेन्दु ने 98 दोहों का एक संकलन तैयार किया है. इसी का एक प्रसिद्ध दोहा है,


“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल.”


 भाषा के संबंध में भारतेन्दु की यही मूल स्थापना है. उनका विश्वास है कि कोई भी जाति सिर्फ अपनी भाषा के माध्यम से ही प्रगति कर सकती है. पराई भाषा के माध्यम से पढ़ाई करने वाला व्यक्ति सिर्फ नकलची बन सकता है. उसके भीतर स्वाभिमान नहीं जग सकता. अपनी भाषा के बिना मनुष्य अपनी हीनता से मुक्त नहीं हो सकता. भारतेन्दु हमारा ध्यान अंग्रेजों की ओर आकर्षित करते हैं और कहते हैं कि अंग्रेजों ने कैसे प्रगति की ? उन्होंने अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति की. यह बात हमें उनसे सीखनी चाहिए. ( दोहा संख्या-35)  अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि इनकी भाषा बहुत अटपटी है. लिखा कुछ जाता है, पढ़ा कुछ जाता है. लेकिन इस अटपटेपन के होते हुए भी अंग्रेजों ने अपनी भाषा नहीं छोड़ी. ( दोहा- 36) अंग्रेजी में जो ज्ञान- विज्ञान है उसे सीखकर हिन्दी में ले आना चाहिए. ( दोहा-38-39)


भारतेन्दु का प्रस्ताव है कि हिन्दी के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा सबके लिए सुलभ होनी चाहिए. सारी उन्नति की जड़ है- भाषा की उन्नति. इसके लिए सब लोगों को मिलकर प्रयास करनी चाहिए.


“तासों सब मिलि छाँड़ि के दूजे और उपाय / उन्नति भाषा की करौ अहौ भ्रातगण आय.”


उनका आग्रह है कि राज- काज और दरबार में सब जगह अपनी भाषा का व्यवहार करो


“प्रचलित करहु जहान में निज भाषा करि यत्न / राज- काज दरबार में फैलाओ यह रत्न.”


हिन्दू –मुस्लिम एकता का महत्व भारतेन्दु भली- भाँति समझते हैं. वे हिन्दुओं और मुसलमानों- दोनो से अपने- अपने सुधार की बात करते हैं.  मुसलमानों से वे कहते हैं, “ मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वे लोग हिन्दुओं को नीचा समझना छोड़ दें. ठीक भाइयों की भाँति हिन्दुओं से व्यवहार करें.  ऐसी बात जो हिन्दुओं के जी दुखाने वाली हों न करें. घर में आग लगे तब जिठानी द्यौरानी को आपस का डाह छोड़कर एक साथ वह आग बुझानी चाहिए.  जो बात हिन्दुओं को नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है. उनमें जाति नहीं, खाने –पीने में चौका- चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक –टोक नहीं, फिर भी बड़े सोच की बात है, मुसलमानों ने भी अब तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी.“ ( भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ- 901)


भारतेन्दु हिन्दी और उर्दू को बुनियादी रूप से एक ही भाषा मानते हैं. वह केवल अरबी- फारसी से लदी हुई भाषा का विरोध करते हैं और चाहते हैं कि बोलचाल की भाषा में जो गद्य लिखा जाय उसकी लिपि देवनागरी हो. ‘अगरवालों की उत्पत्ति’ शीर्षक अपने लेख की भूमिका में वे कहते हैं, “इन अगरवालों का संक्षिप्त इतिहास इस स्थान पर लिखा जाता है. इनका मुख्य देश पश्चिमोत्तर प्रान्त है और बोली स्त्री और पुरुष सबकी खड़ी बोली अर्थात उर्दू है. “(उद्धृत, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, भाग-2, पृष्ठ 397). उन्होंने अन्यत्र लिखा है, “मुझे शिक्षा से सदा दिलचस्पी रही है. मैं संस्कृत, हिन्दी और उर्दू का कवि हूँ तथा गद्य और पद्य में मैने बहुत सी चीजें लिखी हैं.” ( भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ -1054) वे उर्दू में भी ‘रसा’ उपनाम से कविताएं लिखते थे. उनकी सपष्ट मान्यता है कि, “इस खड़ी बोली में जब फारसी शब्दों की बहुतायत होती है और वह फारसी लिपि में लिखी जाती है तब उसे उर्दू कहा जाता है, जब इस तरह की विदेशी मिलावट नहीं होती और वह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, तब उसे हिन्दी कहा जाता है. इस तरह हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि उर्दू और हिन्दी में कोई वास्तविक भेद नहीं है.“ ( भारतेन्दु समग्र, पृष्ठ- 1056)


भारतेन्दु ने 1883-84 में ‘हिन्दी भाषा’ नाम से एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित की थी. इसमें शुद्ध हिन्दी के रूप में उन्होंने निम्नलिखित उद्धरण प्रस्तुत किया है,


“पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आए. क्या उस देश में बरसात नहीं होती ? या किसी सौत के फन्द में पड़ गए कि घर की सुध ही भूल गए. कहां (तो ) वह प्यार की बातें, कहां एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी भी न भिजवाना. हाय मैं कहां जाऊं, कैसी करूं, मेरी तो ऐसी कोई मुँहबोली सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊं, कुछ इधर- उधर की बातों ही से जी बहलाऊं.”


भारतेन्दु ने अपने नाटकों में इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया है. एक ओर तो इसमें तद्भव और देशज शब्दों एवं मुहावरों का प्राधान्य है और दूसरी ओर जनजीवन में घुले हुए विदेशी शब्दों से भी कोई खास परहेज नहीं है. रामविलास शर्मा के अनुसार भारतेन्दु न तो घोर उर्दू विरोधी थे, न संस्कृतनिष्ठता के कायल. बोलियों का प्रयोग ही भारतेन्दु की ताकत है. उसमें जनपदीय शब्दों का धड़ल्ले से व्यवहार होता है. यह सही है कि गद्य भारतेन्दु ने खड़ी बोली में लिखा किन्तु कविता के लिए वे ब्रजभाषा का ही इस्तेमाल करते रहे. ब्रजभाषा की मिठास के आकर्षण से वे अंत तक मुक्त नहीं हो सके.  


  भारतेन्दु के समसामयिक अधिकाँश लेखकों ने इसी शैली को अपनाया, परन्तु खेद है कि आगे चलकर बांग्ला के अनुवादों तथा आर्य समाज की एकान्त संस्कृनिष्ठता के कारण भाषा का यह रूप अधिक मान्य न हो सका.   


भारतेन्दु ने 1882 ई. में शिक्षा आयोग के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा था, “ सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है. यही ऐसा देश है जहां न तो अदालती भाषा, शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की....... हिन्दी का प्रयोग होने से जमींदार, साहूकार और ब्यापारी सभी को सुविधा होगी क्योंकि सभी जगह हिन्दी का ही प्रयोग है.”


निसंदेह, भारतेन्दु के भाषा संबंधी चिन्तन का तत्कालीन हिन्दी- समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा. खासतौर पर भारतेन्दु -मण्डल के लेखकों ने भाषा के इस रूप को आगे बढ़ाने में महती भूमिका निभाई.


भारतेन्दु द्वारा संपादित ‘कविवचन सुधा’ (1868 ई.) और ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ (1873 ई.) में समीक्षा के स्तंभ भी रहते थे. हाँ, यह सही है कि 1880 ई. के पूर्व पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली आलोचनाएं परिचयात्मक और साधारण कोटि की होती थीं.


भारतेन्दु के भीतर की इस आधुनिकता के मूल में बंगाल के नवजागरण की महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने बंगाल की एकाधिक यात्राएं की थीं. बंगाल के नवजागरण के प्रमुख नायक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से उनकी गहरी मैत्री थी. विद्यासागर की माँ भगवती देवी के काशीवास करने पर भारतेन्दु ही उनकी देखरेख कर रहे थे. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने जिस ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का संपादन किया था उसकी अलग- अलग तीन प्रतियां भारतेन्दु ने अपने निजी पुस्तकालय से उन्हें भेंट की थी. अपनी पुस्तक की भूमिका में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने इस बात का बड़े सम्मान के साथ उल्लेख किया है. भारतेन्दु ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रशंसा में एक लावनी भी लिखी है,


“सुंदरबानी कहि समुझावै, विधवागन सौं नेह बढ़ावै;


दयानिधान परमगुन सागर, सखि सज्जन नहिं विद्यासागर.” 


भारतेन्दु ने यात्राएं भी खूब कीं. वे बैलगाड़ी से यात्राएं करते थे. बस्ती ( उत्तर प्रदेश का एक जिला मुख्यालय ) से गुजरने पर उन्होंने टिप्पणी की थी, “बस्ती को बस्ती कहौं तो काको कहौं उजाड़?” और बालूशाही मिठाई का स्वाद चखकर कहा था, “बालूशाही तो सचमुच बालू सा ही.”


 निश्चित रूप से भारतेन्दु असाधारण प्रतिभा के व्यक्ति थे. राधाकृष्ण दास ने भारतेन्दु द्वारा विभिन्न भाषाओं और विषयों पर रचित, अनूदित और संपादित दो सौ अड़तालीस ग्रंथों का उल्लेख किया है. चौंतीस वर्ष चार महीने की अल्पायु में दिवंगत होने वाले व्यक्ति के लिए यह एक चमत्कार जैसा है.


जन्मदिन के अवसर पर हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चंद्र की असाधारण देन का हम स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं.


                  प्रो. अमरनाथ शर्मा   


              (लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)


Saturday, September 5, 2020

गुरू / शिक्षक

गुरू / शिक्षक
👍👍👍👍👍

मेरे उस्ताद जी मेरे गुरू जी
मुझ पर अनन्त कृपा आपकी
सौम्य अति प्रसन्न रुप आपका
आपके दर्शन ही है सुखकारी ।

तुम किसी संत से कम नहीं
आपकी सुन्दर मूरत ही न्यारी
ज्ञान का जो दान देकर मुझे
आपने ही बनाया था संस्कारी ।

मेरे मन के विकार सब दूर हुवै
जब से गुरुवर दर्शन लाभ हुवै
धर्म-कर्म दुनियाँ का ज्ञान दिया
जीवन भर का मैं हूँ आभारी ।

गुरू-उस्ताद बिन ज्ञान अधूरा
इनकी कृपा से ही जीवन पूरा
सृष्टि की अतुल्य निधि हो आप
"नाचीज" की नैया आपने तारी ।

💚💚💚💚💚💚💚💚💚
स्वरचित/ मौलिक
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मईनुदीन कोहरी " नाचीज बीकानेरी "
बीकानेर , राजस्थान


भारत द्वारा चीन की शिकस्त

भारत द्वारा चीन की शिकस्त

 

पैंगोंग लेक के फिंगर एरिया में चार महीने से विवाद चल रहा है। पैंगोंग लेक के आसपास पहाड़ी के निकले छोर फिंगर एरिया कहलाते हैं। ऐसे आठ छोर निकले हुए हैं। 5-6 मई को चीन ने फिंगर-4 की ऊंची जगह पर कब्जा कर लिया था। चीनी सेना ने फिंगर 5-8 के बीच अपने सैनिकों की तैनाती कर दी थी। इस इलाके में टेंट, बैरक और हेलीपैड भी बना लिए थे। बातचीत के बाद भी चीन पीछे हटने को तैयार नहीं था। चीन को अपनी सेना और तकनीक का इतना गुरूर है कि वो मनमानी करने पर उतारू है। किंतु भारतीय सेना के पराक्रम ने चीन को चारों खाने चित कर दिया है। पर चीन भी इतना ढीठ है कि वह भारत से बार-बार मुंह की खाने के बाद भी मानने को तैयार ही नहीं है।

      चालबाज चीन ने 29 और 30 अगस्त की रात को पैंगोंग झील के दक्षिणी हिस्से में स्थित ब्लैक टॉप नाम की चोटी पर घुसपैठ करने की कोशिश की थी जिसे भारतीय सेना ने अपने पराक्रम से नाकाम कर दिया।भारतीय सेना ने उन्हें पीछे धकेल कर 15000 फीट ऊंचाई पर स्थित ब्लैक टॉप पर अपना अधिकार जमा

 लिया है।ब्लैक टॉप से चीन की सेना के हर मूवमेंट पर सीधे नजर रखी जा सकती है। ब्लैक टॉप पैंगोंग से गुजर रही एलएसी की सबसे ऊंची चोटी है।यहां से पैंगोंग तक नजर रखी जा सकती है। भारतीय सेना की इस कार्यवाही से चीन बौखलाया हुआ है।

       यदि चीन 29 अगस्त की रात को इस ब्लैक टॉप पर कब्जा कर लेता तो वह पूरे चुशूल सेक्टर पर नजर रख सकता था और यह स्थित भारत के लिए बहुत नुकसानदायक होती। इस इलाके में भारतीय सेना की एक हवाई पट्टी है, कई जरूरी मिलिट्री इन्फ्रास्ट्रक्चर यहां मौजूद हैं। यह इलाका इतना समतल और चौड़ा है कि यहां बड़े-बड़े टैंकों और तोपों को आसानी से तैनात किया जा सकता है।   

        ऑपरेशन ब्लैक टॉप के अंतर्गत ब्लैक टॉप के पास मौजूद 300 चीनी सैनिकों के इरादों को भांपकर भारतीय फौज ने पहले एक्शन लिया। इसमें स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का इस्तेमाल किया गया।स्पेशल फ्रंटियर फोर्स भारत की वह स्पेशल फोर्स है जिसमें तिब्बती लोग भर्ती किए गए हैं।

        इसके बाद 30 और 31 अगस्त की रात को भी चीन की सेना ने दोबारा आगे बढ़ने की कोशिश की तो इसके जवाब में भारतीय सेना ने पास की और कई पहाड़ियों पर (हाइट्स पर) कब्जा कर लिया।भारतीय सेना की यह कार्यवाही पेट्रोलिंग पॉइंट 27 से पेट्रोलिंग पॉइंट 31 के बीच की गई है। इन सारे पेट्रोलिंग पॉइंट को 1962 के युद्ध में चीन ने भारत से छीन लिया था। जिन्हें अब 2020 में भारतीय सेना ने चीन की सेना से छीन कर वापस अपने अधिकार में ले लिया है।इस समय पेंगोंग के दक्षिणी किनारे से लेकर रेजांगला तक हर पहाड़ी पर भारतीय सेना ने अपना कब्जा कर लिया है। इस कारण हालात बहुत तनावपूर्ण हो गए हैं और चीन फिर से कोई दुस्साहस करने की तैयारी में है।

       चीन पैंगोंग लेक के दक्षिणी हिस्से पर नियंत्रण करके भारत के खिलाफ एक नया मोर्चा खोलना चाहता था। लेकिन 29 और 30 अगस्त की रात भारतीय सेना ने चीन की इस योजना पर पानी फेर दिया। युद्ध के दौरान जो सेना जितनी ज्यादा हाइट्स पर होती है, उसे रणनीतिक तौर पर उतना ही फायदा मिलता है और इस समय सभी ऊंची चोटियों पर भारतीय सेना का अधिकार हो गया है, जबकि चीन की सेना अब निचले इलाकों में है।ऊंची चोटियों पर तैनात होने से भारतीय सेना, चीन के दक्षिणी इलाके पर, पैंगोंग लेक के कब्जे वाले इलाके में और चुशूल वैली में भी नजर रख पाएगी। पैंगोंग लेक के दक्षिणी किनारे पर कब्जा करने से, भारत चीन को फिंगर एरिया, देप्सांग और गोगरा से हटाने की कार्यवाही भी कर सकता है।

       अब स्थिति यह है कि चीन ने पैंगोंग के उत्तरी हिस्से में 8 किलोमीटर इलाके पर कब्जा किया हुआ है तो भारत ने दक्षिणी हिस्से में 40 किलोमीटर के इलाके में तैनाती कर दी है।

       अब एलएसी पर दोनों सेनाएं आमने-सामने हैं और स्थिति बहुत ही तनावपूर्ण है। ब्रिगेडियर स्तर के अधिकारियों के बीच बातचीत जारी है, किंतु कोई परिणाम नहीं निकल रहा। चीन भारत पर सीमा उल्लंघन करने का आरोप लगा रहा है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद में अमेरिका अब खुलकर भारत का साथ दे रहा है।अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने एक न्यूज़ चैनल से बातचीत के दौरान कहा है कि चीन को रोकने के लिए अमेरिका भारत जैसे देशों का साथ देगा।

      भारत के इस पराक्रम पर पूरी दुनिया हैरान है। कई देश जो चीन का मुकाबला करना चाहते हैं, किंतु हिम्मत नहीं जुटा पा रहे,वो सभी देश भारत के इस पराक्रम पूर्ण रवैए से जरूर प्रेरित और उत्साहित होंगे और चीन के खिलाफ खड़े होने की शक्ति और मनोबल जुटा पाएंगे।

          अब उत्तर की दिशा में भी भारतीय सेना ऐसी ही कार्यवाही कर सकती है। क्योंकि चीन बार-बार बातचीत के बाद भी मानने को तैयार नहीं है। भारत ने चीन को ऐसा करारा जवाब दिया है, जिसकी चीन ने उम्मीद भी नहीं की थी।

 

रंजना मिश्रा ©️®️

कानपुर, उत्तर प्रदेश

कैसा है ये जीवन


कैसा है ये जीवन

 

बारिश के रुके हुए पानी सा है जीवन,

हर अगले पल , धरा में धसता जीवन।

 

बारिश  की  दलदल  सा  बनता  जीवन,

अपने सपनो के मकड़जाल फसता जीवन।

 

भारी बारिश के बाद,बाढ़ के रुके पानी सा जीवन,

अपनी मिटती सब इच्छाओं पर भी हँसता जीवन।

 

ना जाने किस और भटकता हर पल मेरा ये मन,

तेज हवाओं में बारिश सा दिशा बदलता मेरा जीवन।

 

नीरज त्यागी

ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).


भीतर-भीतर जंग !

भीतर-भीतर जंग !

उबल रहे रिश्ते सभी, भरी मनों में भांप !
ईंटें जीवन की हिली, सांस रही हैं कांप !!

बँटवारे को देखकर, बापू बैठा मौन !
दौलत सारी बांट दी, रखे उसे अब कौन !!

नए दौर में देखिये, नयी चली ये छाप !
बेटा करता फैसले, चुप बैठा है बाप !!

पानी सबका मर गया, रही शर्म ना साथ !
बहू राज  घर- घर करें, सास मले बस हाथ !!

कुत्ते बिस्कुट खा रहे, बिल्ली सोती पास !
मात-पिता दोनों कहीं ,करें आश्रम वास !!

चढ़े उम्र की सीढियाँ, हारे बूढ़े पाँव !
आज बुढ़ापे में कहीं, ठौर मिली ना छाँव !!

कैसा युग है आ खड़ा, हुए देख हैरान !
बेटा माँ की लाश को, नहीं रहा पहचान !!

कोख किराये की हुई, नहीं पिता का नाम !
प्यार बिका बाजार में, बिल्कुल सस्ते दाम !!

भाई-भाई से करें, भीतर-भीतर जंग !
अपने बैरी हो गए, बैठे गैरों संग !!

रिश्तों नातों का भला, रहा कहाँ अब ख्याल !
मात-पिता को भी दिया, बँटवारे में डाल !!

कैसे सच्चे यार वो, जान सके ना पीर !
वक्त पड़े पर छोड़ते, चलवाते हैं तीर !!

✍  --- डॉo सत्यवान सौरभ,   


दोहा

दोहा 🌹

 

दुनिया की इस भीड़ में गुरु से बड़ा न कोय

गुरु के ही आदर्श को अंजू सिर पर ढोय ।।

 

ये ही है जीवन सुधा मिटती इनसे प्यास 

अंजू मत करना कभी गुरु का तुम उपहास ।।

 

लाते है खुशहालियाँ गुरु के ही संदेश 

महक उठे पूरी धरा सुन इनके उपदेश ।।

 

निर्मलता के नाम पर गुरू होते भगवान

अंजू सुबहो शाम तक करती इनका ध्यान ।।

 

आप सभी मित्रों को  शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाई हो

 

अंजु कुमारी दास गीतांजलि

पूर्णियां बिहार की क़लम से