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Thursday, August 20, 2020

जागरुक पहरुये के बयान: विवेक रंजन के व्यंग्य

 विवेक रंजन श्रीवस्तव व्यवसाय से इंजीनियर हैं, और हृदय से साहित्यकार।
साहित्य में उनकी आत्मा बसती है, साहित्य के प्रति प्रेम उन्हें अपने
परिवार से  विरासत में मिला है। उनके पिता पिता श्री चित्रभूशण
श्रीवास्तव जी हिन्दी के वरिष्ठ कवि , अनुवादक व चिंतक हैं . उनके पितामह
स्.व सी एल श्रीवास्तव आजादी के आंदोलन के सहभागी तथा मण्डला के सुपरिचित
हस्ताक्षर रहे थे .
        हिन्दी व्यंग्य विधा में विवेक रंजन श्रीवास्तव ने अपना विषिश्ट स्थान
बनाया है । वे एक अच्छे व्यंग्यकार इसलिये हैं क्योंकि वे एक अच्छे समाज
दृष्टा हैं । परिवार, समाज, राजनीति, धर्म, अर्थव्यवस्था जैसे विषयों की
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना पर वे सतत अपनी पैनी नजर रखते हैं । एक
व्यंग्यकार के रूप में उन्होंने अपने संचित अनुभवों और समाज के प्रति
प्रतिबद्धता तथा बहुत ही दोस्ताना शैली में समाज के प्रत्येक छद्म विषय
पर अपनी लेखनी चलायी हैं । जब विवेक रंजन जी सामाजिक विसंगतियों पर,
राजनैतिक छद्म पर, धार्मिक पाखंड पर अपनी रचनात्मक कलम चलाते हैं तब उनके
मन में समाज को बदलने की बलवती स्पृहा होती है । उनकी इसी सकारात्मक
परिवर्तनकामी दृष्टि से उनके व्यंग्यों का जन्म होता है । दरअसल व्यंग्य
रचना एक गंभीर कर्म है। विवेक रंजन श्रीवास्तव बीस-पच्चीस वर्षो से
अनवरत् व्यंग्य लिख रहे हैं । चाहे कोई भी घटना हो उनका ध्यान उस घटना के
मूल कारणों पर जाता है और वे एक मारक, मार्मिक तथा तीखे व्यंग्य लेख की
रचना कर देते हैं , जिसके अंत में प्रायः वे समस्या का समुचित समाधान भी
सुझाते हैं , इस दृष्टि से वे अन्य हास्य व्यंग्य के कई लेखको से भिन्न
हैं । विवेकरंजन के तीन व्यंग्य संग्रह ‘राम भरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’,
और ‘मेरे प्रिय व्यंग्य लेख’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं । चौथा
व्यंग्य संग्रह धन्नो बसंती और बसंत ई बुक के रूप में मोबाईल पर सुलभ है
.
        विवेक रंजन जी बहुत ही पारिवारिक अंदाज में अपने व्यंग्यों का प्रारंभ
करते हैं बात पत्नी बच्चों से आरंभ होती है और देश की किसी बड़ी समस्या पर
जाकर समाप्त होती है ‘भोजन-भजन’, फील गुड, आओ तहलका- तहलका खेलूँ,
रामभरोसे की राजनैतिक सूझ-बूझ आदि ऐसे ही व्यंग्य लेख हैं । रामभरोसे जो
इस देश का आम वोटर है , मिस्टर इंडिया जो गुमशुदा , सहज न दिखने वाला आम
भारटिय नागरिक है तथा उनकी पत्नी उनके वे प्रतीक हैं जिनसे वे अपने
व्यंग्य बुनते हैं . विवेक रंजन ने अपने व्यंग्य ‘आल इनडिसेंट इन ए
डिसेंट वे’ में आज के युग में विवाह समारोहों में किये जा रहे वैभव
प्रदर्शन, फूहड़ता, आत्मीयता का अभाव, अपव्ययता आदि पर विचार किया है । इस
व्यंग्य के मूल में समाज-सुधार का भाव गहराई से निहित है ।
        ‘नगदीकरण मृत्यु का’, ‘चले गये अंग्रेज’ आदि व्यंग्यों में व्यवस्था के
तमाम अंतर्विरोध उजागर हुए हैं । आजादी के बाद भारत में जो स्थितियाँ बनी
, सामाजिक राजनैतिक जीवन में जो विसंगत स्थितियाँ उपजीं , भ्रष्टाचार का
बोलबाला बढ़ा, धर्म के क्षेत्र में पाखंडी बाबाओं का अतिचार बढ़ा अर्थात
भारतीय समाज के सभी घटकों में इतनी असंगतियाँ बढ़ी कि तमाम साहित्यकारों
का ध्यान इस ओर गया । हरिशँकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी,
श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के.पी.सक्सेना, लतीफ
घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी के साथ विवेक रंजन श्रीवास्तव ने जीवन यथार्थ के
जटिलतम रूपों का बड़ी गहराई से अध्ययन करके अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक
व्यंग्य लिखे । विवेक रंजन के व्यंग्य एक बुद्धिजीवी, सच्चे समाज दृष्टा,
ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति तथा समाज सचेतक की कलम से निकले व्यंग्य है
। इन व्यंग्यों में सदाशयता है तो विसंगतियों के प्रति तीव्र दायित्व बोध
और आक्रामकता भी है ।
        ‘जरूरत एक कोप भवन की’ में भगवान राम के त्रेता युग से प्रारंभ करते हुए
विवेक रंजन कोप भवन की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हुए वर्तमान युग में कोप
भवन की प्रासंगिकता को सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि - ‘आज कोप भवन पुनः
प्रासंगिक हो चला है । अब खिचड़ी सरकारों का युग है । .......... अब जब
हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक
राज्य की राजधानी में जैसे       विधानसभा भवन और दिल्ली में संसद भवन
है, उसी तरह का एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे । इससे बड़ा लाभ मोर्चा के
संयोजकों को होगा । विभाग के बँटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर,
अपनी गलत सही माँग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा वह कोप भवन
में चला जायेगा । रेड अलर्ट का सायरन बजेगा संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख
अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुँचे, रूठे को मना लेंगे, फुसला लेंगे ।
लोकतंत्र पर छाया खतरा कोप भवन की वजह से टल जायेगा ।’’ इस उद्धरण में
हास्य के पुट के साथ देश की राजनैतिक स्थिति पर बड़ा पैना व्यंग्य है।
विवेक रंजन ने अपनी एक भाषा निर्मित की है। वे शब्द की स्वाभाविक
अर्थवत्ता को आगे बढ़ाकर चुस्त बयानी तक ले जाते हैं । सही शब्दों का चयन
उनका संयोजन, शब्दों के पारंपरिक अर्थों के साथ उनमें नये अर्थ भरने की
सामथ्र्य ही उनकी व्यंग्य भाषा को विशिष्ट बनाती है । उदाहरण के लिये
‘पिछड़े होने का सुख व्यंग्य की ये पंक्तियाँ जो एक कहावत से प्रारंभ होती
है -
                ‘‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम,
                दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।’’
‘‘इन खेलों से हमारी युवा पीढ़ी पिछड़ेपन का महत्व समझकर अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर भारत का नाम रोशन कर सकेगी । दुनिया के विकसित देश हमसे
प्रतिस्पर्धा करने की अपेक्षा अपने चेरिटी मिशन से हमें अनुदान देंगे।
बिना उपजाये ही हमें विदेशी अन्न खाने को मिलेगा । ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’
का हवाला देकर हम अन्य देशो के संसाधनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित कर
सकेंगे । दुनिया हमसे डरेगी । हम यू.एन.ओ.में सेन्टर आफ अट्रेक्शन
होंगे।’’ वस्तुतः यह व्यंग्य हमारे देश में आज तक जारी आरक्षण व्यवस्था
पर है । अपने व्यंग्यों के माध्यम से विवेक रंजन जी आज के बदलते परिवेश
और उपभोक्तावादी युग में मनुष्य के स्वयं एक वस्तु या उत्पाद में तब्दील
होते जाने को, इस हाइटेक जमाने की एक-एक रग की बखूबी पकड़ा है । उनके
शब्दों में निहित व्यंजना और विसंगतियों के प्रति क्षोभ एक साथ जिस
कलात्मक संयम से व्यंग्यों में ढलता है वही उनके व्यंग्य लेखों को
विषिश्ट बनाता है । विवेक रंजन के पास विवेक है जिसका उपयोग वे किसी
घटना, व्यक्ति या स्थिति को समझने में करते हैं, सच कहने का साहस है
जिससे बिना डरे वे अपनी मुखर अभिव्यक्ति या असंगत के प्रति अपनी असहमति
दर्ज कर सकते हैं, संत्रास बोध और तीव्र निरीक्षण शक्ति और संतुलित
दृष्टि बोध है, परिहास और स्वयं को व्यंग्य के दायरे में लाकर स्वयं पर
भी हँसने का माद्दा है । अनुभवों का ताप और संवेदना की तरलता के साथ
सकारात्मक परिवर्तनकारी सोच तथा एक  धारदार भाषा है जो सीधे पाठक को
संबोधित और संप्रेषित है।
        निष्कर्शतः विवेक रंजन जी के व्यंग्य पाठक को सोचने के लिये  बाध्य करते
है क्योंकि वे उपर से सहज दिखने वाली घटनाओं की तह में जाते हैं और भीतर
छिपे हुए असली मकसद को पाठक के सामने लाने में सफल होते हैं । हाँ कुछ
व्यंग्य लेखों में उतना पैनापन नहीं आ पाया है इस कारण वे हास्य लेख बन
गये हैं । यद्यपि ऐसे व्यंग्य लेखों की संख्या कम ही है । उनके सफल
व्यंग्यों में जीवन की जटिलता और परिवेशगत विसंगति अपनी संपूर्ण तीव्रता
के साथ व्यक्त हुई । वे जितने कुशल सिविल इंजीनियर हैं उतने ही कुशल
सोशियो इंजीनियर भी हैं। इसी सोशियो इंजीनियरी ने विवेक रंजन के
व्यंग्यों को इतना सशक्त और धारदार बनाया है।वे अनवरत व्यंग्य लिख रहे
हैं , अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर प्रायः उनकी उपस्थिति दर्ज हो रही है
. उनसे हिन्दी व्यंग्य को दीर्घकालिक आशायें हैं .


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Aksharwarta International Research Journal May - 2024 Issue