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Tuesday, December 10, 2019

''श्रीमद्भागवत में नारी पात्र देवहूतिÓÓ एक अनुशीलन                

 श्रीमद्भागवत में अनेक उत्तम नारियों का वर्णन है, उनमें से देवहूति का विशिष्ट स्थान है। देवहूति की माता का नाम शतरुपा था। वे बर्हिष्मति पुरी के निवासी भगवान स्वयंभूव मनु की पुत्री एवं ऋषि कर्दम की पत्नी, प्रियव्रत व उत्तानपाद की बहिन थी। 
स भवान्दुहितृस्नेहपरिक्लिष्टात्मनो मम।1
''श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने।। 
प्रियव्रतोत्तानपदो: स्वसेयं दुहिता मम। 2
अन्विच्छति पतिं युक्तं वय: शीलगुणादिभि:।।
 मनु महाराज ने ऋषि कर्दम से निवेदन किया कि जब से दिति ने आपके शीलगुणों का वर्णन श्रीनारदजी के मुख से सुना है, तभी से ये आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर चुकी है। 
''यदा तु भवत: शीलश्रुतरूपवयोगुणान्।3
        अश्रृणोन्नारदादेषा त्यय्यासीत्कृतनिश्चया।।''
 मनुमहाराज श्री कर्दममुनि से देवहूति की प्रशंसा करते हुए यह भी कहते हैं कि देवहूति गृहकार्यों में भी निपुण है और इस प्रकार अपनी कन्या को स्वीकार करने का आग्रह करते हैं। तब ऋषि कर्दम एक शर्त के साथ विवाह करना स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूंगा, किन्तु जब तक देवहूति को सन्तान नही होगी तब तक। जब सन्तान प्राप्ति हो जाएगी तब भगवान के बताए हुए सन्यास प्रधान हिंसारहित षदमादि धर्मों को ही अधिक महत्व दूंगा। तब कर्दमजी के हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया। तब मनुजी ने देखा कि महारानी शतरूपा और राजकुमारी देवहूति की स्पष्ट अनुमति है, अत: उन्होने अनेक गुणों से सम्पन्न कर्दमजी को उन्ही के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया।
''सोऽनुज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितु: स्फुटम्।4
      तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षित:।।''
 तब  कर्दमजी ने कहा कि आपकी इस कन्या के साथ विवाह होना उचित ही होगा। वे कहते हैं वेदोक्त विवाह विधि में प्रसिद्ध जो ''गृभ्णामि ते''् इत्यादि मन्त्रों में बताया गया सन्तानोपादन मनोरथ है, जो पूर्ण होगा। ऋषि कर्दम कहते हैं कि आपकी कन्या से कौन विवाह करना नही चाहेगा। 
देवहूति अत्यन्त सुन्दर कन्या थी, बचपन में वे गेंद खेल रही थी तब इनकी पायल की झनकार करती थी, वहीं से विश्वावसु गन्धर्व इन्हें देखकर अपने विमान से अचेत होकर गिर पडे थे । 
       ''यां हम्र्यपृष्ठे क्वणदंघ्रिशोभां।5
    विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम्।। 
  विश्वावसुन्र्यपतत्स्वादिमाना।
      द्विलोक्य सम्मोहविमूढचेता:।।''
 देवहूतिजी के गुणों का वर्णन करते हुए श्री कर्दम मुनि कहते हैं कि 'जब वह स्वयं विवाह के लिए प्रार्थना कर रही है, जो उत्तानपाद की बहिन और रमणियों में रत्न के समान है,उन्हें तो इनका  दर्शन भी नही हो सकता, अत: मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूंगा।
 ''तां प्रार्थयन्तीं ललनाललामए मसेवितश्रीचरणैरदृष्टाम्।6
 वत्सां मनोरुच्चपद: स्वसारंए को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम्।।
 मुनि कर्दम के इस प्रकार के विचार जानकर मनु महाराज बहुत प्रसन्न हुए एवं सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर निश्चिन्त हो गए। उन्हें गृहोचित वस्त्र आभूषण दिए, फिर ऋषि कर्दम से आज्ञा लेकर अपनी राजधानी चले गए। माता-पिता के चले जाने के पश्चात देवहूति पूर्ण मनोभाव से अपने पति कर्दम की सेवा-सुश्रुषा करने लगी। देवहूति काम-वासना, द्वेष,लोभ,मद त्यागकर सावधानी से सेवा करने लगी। अपनी मधुर वाणी से  उसने अपने पति को सन्तुष्ट कर लिया। इस प्रकार बहुत दिनों तक पति की सेवा करने से देवहूति अत्यन्त दुर्बल हो गई।
 देवहूति की सेवा से ऋषि कर्दम अत्यन्त प्रसन्न हो गए, उन्होने कहा कि तुमने मेरी सेवा करके अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर लिया है और अपनी परवाह भी नही की है, अत: अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप,समाधि,उपासना और योग के द्वारा जो भय,शोकरहित भगवतप्रसाद स्वरूप विभूतियां प्राप्त हुई हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है । 
 कर्दम ऋषि देवहूति को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हुए कहते हैं कि संसार का सारा वैभव पतिव्रत धर्म पालन करने से तुम्हें प्रदान करता हूं। 
  ''ये मे स्वधर्मनिरतस्य तप: समाधि।7
  विद्यात्मयोगविजिता भगवत्प्रसादा:।।
  तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्।
                        दृष्टिं प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान्।।''
 पति के इस प्रकार के वचनों को सुनकर देवहूति उनको दिए गए वचन का स्मरण करवाती है और कहती है कि उसकी पूर्ति होनी चाहिए। ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी देवहूति की कामना को पूर्ण करने के लिए सर्व एैश्वर्यसम्पन्न एक महल की रचना की, एक दिव्य विमान भी निर्मित किया। 
देवहूति को पुन: युवावस्था प्रदान की और दीर्घकाल तक दोनों ने कुबेरजी के समान मेरूपर्वत की घाटियों में विहार किया। आत्मज्ञानी कर्दमजी सब प्रकार के संकल्पों को जानते थे, अत: देवहूति को सन्तानप्राप्ति हेतु उत्सुक देख देवहूति को  नौ कन्याओं की माता होने का सौभाग्य प्रदान किया । 
 ''प्रियाया: प्रियमन्विच्छन् कर्दमो योगमास्थित:।8
 विमानं कामगं क्षत्तस्तहर्येवाविरचीकरत्।।'' 
 फिर भी वह अपनी कन्याओं कि लिए योग्य वर के अन्वेषण हेतु ऋषि कर्दम से प्रार्थना करती हैं और कहती हैं कि आपके जाने के बाद भी मेरा जन्म.मरण का शोक दूर करने के लिए कोई होना चाहिए। देवहूति की इस प्रकार वैराग्ययुक्त बातें सुनकर कर्दमजी को भगवान विष्णु के कथन का स्मरण हुआ और उन्होने देवहूति से कहा-'तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। तुमने बहुत व्रत किए हैं अब तुम दु:खी मत होओ। अब तुम्हारा कल्याण होगा।  
  ''मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते।9
    भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते।।''
 कर्दमजी ने देवहूति को संयम नियम से तपादि करते हुए भगवान का भजन करने की आज्ञा दी। साध्वी देवहूति ने भी पति के वचनों पर पूर्ण विश्वास किया और निर्विकार भगवान पुरूषोत्तम की आराधना करने लगी। जब ब्रह्माजी को ज्ञात हुआ कि साक्षात परब्रह्म भगवान विष्णु सांख्यशास्त्र का उपदेश करने के लिए अपने तत्वमस अंश से अवतीर्ण हुए हैं तो स्वयं कर्दमजी के आश्रम जाकर कहने लगे कि तुमने जो मेरा सम्मान किया है, तुम्हारी निष्कपट भाव से मेरी सेवा सम्पन्न हुई है, और उनकी कन्याओं को उनके स्वभाव के अनुसार मरीचि आदि से विवाह करने का आदेश दिया। तत्पश्चात् देवहूति से भगवान विष्णु की उत्पत्ति के विषय में बताया कि उनका जन्म मोह की ग्रन्थियों को समाप्त करने के लिए हुआ है।
 ''एष मानवि ते गर्भं प्रविष्ट: कैटभार्दन:।10
 अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति।।''
 कर्दमजी के वन चले जाने के बाद ब्रह्माजी के वचनों को स्मरण कर देवहूति ने कपिलजी से कहा कि आप इस संसार के अज्ञान अंधकार से पार लगाने के लिए सुन्दर नेत्र रूप आप प्राप्त हुए हो एआप मेरे इस महामोह को दूर कीजिए।
 ''अथ में देव सम्मोहमपाक्रष्टुं त्वमर्हसि।11
 योऽवग्रहोऽहंममेतीत्येतस्मिन् योजितस्त्वया।।''
 वे कहने लगी कि आप संसार रूपी वृक्ष के लिए कुठार के समान हो एमैं आपकी शरण में आई हूं और आपको प्रणाम करती हूं। देवहूति भगवान कपिलजी से भक्ति के स्वरूप के विषय में पूछती है और स्वयं को कैसी भक्ति करनी चाहिए जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो, इत्यादि प्रश्न करने लगी। तब भगवान ने देवहूति की समस्त जिज्ञासाओं को शांत करते हुए भक्तियोग का उपदेश दिया। 
 ''एतावानेवलोकेऽस्मिन् पुंसां नि:श्रेयसोदय:।12
 तीवेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम्।।''
 कपिल भगवान के वचन सुनकर देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान कपिल मुनि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगी। 
 ''त्वं देहतन्त्र: प्रशमाय पाप्मनां।13
 निदेशभाजां च विभो विभूतये ।।
 यथावतारास्तव सूकरादय-।
 स्तथायमप्यात्मपथोपलब्धये।।''
 इस प्रकार देवहूति ने कपिलदेव के बताए हुए मार्ग द्वारा थोडे समय में नित्य मुक्त परमात्मस्वरुप को प्राप्त कर लिया जिस स्थान पर उनको सिद्धि मिली वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में 'सिद्ध पद' नाम से विख्यात हुआ ।
 तद्वीरासीत्पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम्।14
 नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी।।


निष्कर्ष:-
 निष्कर्ष रूप में देखा जाए तो माता देवहूति एक परमसाध्वी शीलगुणसम्पन्न महान नारी के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई हैं । आप में कई विशेषताएं हैं सौन्दर्य की दृष्टि से देखा जाए तो बचपन में ही विश्वावसु गन्धर्व उनके सौन्दर्य को देखकर विमान से मूच्र्छित होकर गिर गए थे। वे ऋषि कर्दम के गुणों को जब नारदजी द्वारा सुनती हैं तो उन्हें अपना पति बनाने की कामना मन में करती हैं एकिन्तु प्रत्यक्ष रूप से कभी उन्होने नही कहा। जब पिता ने आज्ञा दी तभी उनका विवाह कर्दममुनि के साथ सम्पन्न करवाया गया। यह गुण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के लिए अनुकरणीय है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिस प्रकार उन्होने पति की सेवा.सुश्रुषा करके सहज में ही ऋषि कर्दम की तपस्या का आधा पुण्य प्राप्त कर लिया था।  इसी प्रकार अगर सामान्य स्त्रियां भी अपना कर्तव्य निर्वाह करके देवहूति के चरित्र से प्रेरणा लें तो वे अपने जीवन को उच्च कोटि का बना सकती हैं। 


सन्दर्भ सूची :-
1  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/8 श्लोक
2  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/9 श्लोक
3  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/10 श्लोक
4  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/22 श्लोक
5  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/17 श्लोक
6  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/22/18 श्लोक
7  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/23/7 श्लोक
8  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/23/12 श्लोक
9  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/24/2 श्लोक
10  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/24/18 श्लोक
11  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/25/10 श्लोक
12  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/25/44 श्लोक
13  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/33/5 श्लोक
14  श्रीमद्भागवतमहापुराण 3/33/31 श्लोक


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