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Saturday, February 29, 2020

रंगरेजन फ़ातिमा

रंगरेजन फ़ातिमा


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कपड़े तो कितने ही


रंगती थी वो


किन्तु उसके हाथ


नहीं होते थे रंगों से सने हुए


 


रंगों की संलिप्तता से


एकदम असंपृक्त और धवल


होती थीं उसकी नरम हथेलियाँ


 


किसी भी कपड़े पर


पक्का रंग चढ़ाने का मर्दानी दावा करती थी वो


रंग उतरने पर पैसे वापस लौटाने के वायदे के साथ


 


दुकान के बाहर ही भट्टी पर खौलते रंगीन पानी में


डंडी के सहारे कपड़ों को उलटती.पलटती वह


परिवार के दर्जन भर पेटों के लिए


जुटाया करती थी दो वक्त की रोटी


 


वहीं पगडंडी पर चहलकदमी करते हुए


तरा&ऊपर के दो तीन बच्चों में से


किसी के द्वारा शरारत करने पर


गाल पर तमाचे के स्मृतिचिन्ह के साथ


वह बाँट दिया करती थी ukसपीटेष् की उपाधि


 


काम के वक्त न उसके बदन पर होता था


हिजाब और न चेहरे पर बुर्का


ढीले कुर्ते सलवार और चुन्नी रहित


उसकी छाती भी रहती थी


रंग आकांक्षितों की दृष्टि से बेखबर


 


काम के तगादों के कारण


कहाँ मिल पाता था उसे


इस सब के लिए सोचने का अवसर


 


उस समय जब किसी को


रंगवाने होते थे मूँगिया रंग में


रजाई के खोले तो लोग


बताया करते थे उसका पता .


Qkतिमा रंगरेजन सरगासूली के नीचे


000


ओ रुकमा !


 


वह बैठी


घम.&छांव में


ठंडी yw पर पीठ टेक


श्लथ थकी.&मांदी


नहाई स्वेद धारा से


 


खोल पोटली करभ.&सी मोटी रोटी की


छील.छील कांदे के छोडे़ करती दोपहरी


 


गोद में किलबिलाते


नन्हे f’k’kq को


ढंकती जर्जर पल्लू से


खोल वक्ष भर देती


रिरियाते मुंह में गोली अरीठे की


 


निहारती जब इक&टक


वात्सल्य&सिक्त आंखों से


तो लगती बरसने


ज्यों पय&धारा अमृत सी रीते घन से


 


अलसाये बेटे को


सुला चूनर के झूले में


लग जाती बच रही


आधे दिन की दिहाड़ी की चिन्ता में


झुला कर आते&जाते


बच्चे को वह करती निर्विघ्न अपने


dÙkZO;&पथ को


 


तू मां है ! तू श्रम देवी है !


तू ही है सृजन ! ओ रुकमा !


000


खींप के फूल


 


पत्थर हंसते हैं


जब मैं ठोकर खा कर


गिरता हूं सड़क पर


 


सम्हल कर उठते हुए


पड़ौस से नज़रें चुराते हुए


मैं ढूंढ़ने लगता हूं


शरीर में कहीं आईं हुईं


खरोंचो को


 


अफ़सोस है


कि पास ही पौधों पर


खिले हुए ये फूल भी


कितने बेपरवाह हैं


बहती तीखी हवाओं से


 


मेरे ठीक से चलते हुए भी


pलना सीखने कks कह रहh हैं


बाजार की ऊबड़&खाबड़ पगड़डियां


और गांव की सरहद पर लगे


बेतरतीब झाड़ियों के कांटे


 


इस बीच


Hkभूल्यों में उड़ते हुए


[khaप के सफेद रे’kमी फूल


तला’k रहे हैं दि’kkएं


 


वहीं एक पुरानी जर्जर


बावड़ी पर लगी


;हां नहाना मना है] की


चेतावनी को पढ़ कर


मैं चलने लगता हूं


अपने गन्तव्य की ओर


लंगड़ाते हुए


000


 


अचेतन में स्मृतियां


 


स्मृतियों के अरण्य में


अटके कोई विस्मृत संदर्भ


लौटते हैं स्वप्न में


जब&तब


 


स्वप्न में यों मूतZ हुए


वे अfuf’pत व अवि’oसनीय संदर्भ


स्प’kZ को तत्पर


अंगुलियों की आंखों में


सदा रहते हैं अदृष्य


 


लगता है कभी नहीं


गुजरे थे ये मेरे साथ


 


मुंदी हुई उनींदी आंखों


के बाहर फैले हुए


घोर अंधेरे में उभरते ये रंगीन चित्र


आखि़र चाहते हैं कुछ कहना


कुरेद कर स्मृति&अरण्य के कोनों को


 


जागता हूं या


खोलता हूं जब आंखें


तो सामने विस्तृत


सफेद रो’kनी के पर्दे पर


लिखी नहीं होती है


कोई भी इबारत


 


सही है यह कि


अनुभूतियों से ही जन्मती हैं स्मृतियां


किन्तु चेतन में ये


कुछ और होती हैं


व अचेतन में कुछ और


000


 


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Aksharwarta International Research Journal, April 2024 Issue