बच्चें राष्ट्र का भविष्य है। राष्ट्र के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए हमें बच्चों में ऐसे गुणों का विकास करना आवश्यक है जो आगे जाकर देश को मजबूती प्रदान कर सकें। चूँकि बच्चे कोरी स्लेट के समान है जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। इसीलिए स्लेटरुपी बच्चों के मनए मस्तिष्क पर हम संस्कार, नैतिकता, समसामयिक मुद्दे एवं देश प्रेम की भावना आदि इस प्रकार अंकित करें कि आगे चलकर बच्चें राष्ट्र के नवनिर्माण में अपना योगदान दे सकें। बच्चों के भीतर सद्गुणए संस्कार एवं नैतिकता के बीज उसके परिवारए परिवेश एवं साहित्य के माध्यम से प्रवेश होते है। बाल साहित्य दो शब्दों से मिलकर बना है। 'बाल'और 'साहित्य'। अर्थात् बच्चों का साहित्य। वह साहित्य जो बच्चों के मन और मनोभाव को परखकर उनकी भाषा में व उनके स्तर पर उतर कर लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य है। छोटी उम्र के बच्चों के मनोरंजन, शिक्षा, नैतिकता तथा सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर लिखा जाने वाला साहित्य बाल साहित्य कहलाता है।
बच्चों में ज्ञानोपार्जन एवं जिज्ञासा करने की अदम्य आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि केवल पाठ्यक्रम तो पगडंडी बनकर रहता है, जिस पर चलकर बच्चें मुख्य मार्ग को खोजना सीखते हैं।
पाठशाला की पुस्तकों में केवल ज्ञानार्जन एवं मनोरंजन के लिए लिखी गई पुस्तकों में मौलिक अंतर यही है कि पहली का उद्देश्य सैद्धांतिक एवं शिक्षा पद्धति के नियमों से आबद्ध ज्ञानार्जन कराना है। तथा दूसरी पुस्तकों का उद्देश्य बच्चों के लिए मनोरंजन, मानसिक एवं बौद्धिक संतुष्टि प्रदान करने के लिए साथ-साथ आंतरिक जीवन की भावनाओं तथा जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करना है। वास्तव में ये दूसरी प्रकार की पुस्तकें श्बाल साहित्यश् है।
बच्चे का संसार सर्वथा अलग होता है। वे नैतिकता नियम एवं शासन के बंधनों से अपने को मुक्त मानते हैं। वे किसी नेता, अफसर या पुलिस से भयभीत नहीं होते हैं। जिनमें सहदयता होती हैए उसे ही बच्चें अपना समझ लेते है। इसी तरह उनका साहित्य भी भिन्न होता है। जिस साहित्य में उनके मन के अनुकूल भाव होते हैं, उसे ही वे स्वीकार करते हैं और वही 'बाल साहित्य' हैं।
बाल साहित्य का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। हरियाणा के बाल साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने लिखा है किए ष्बीसवीं सदी को बालकों की सदी कहां जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगीए क्योंकि इस सदी में पहली बार स्वीकार किया गया कि बच्चों का स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है। इससे पहले वे केवल वे बड़ों का छोटा रूप ही माने जाते थे। बीसवीं सदी ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में, विशेषकर मनोविज्ञान के क्षेत्र में, नए आविष्कारों के कारण इसी भ्रम का निराकरण किया है। स्पष्ट है कि बच्चों के लिए स्वतंत्र साहित्य होना चाहिए।'बाल साहित्य कोई नया विषय नहीं है, अपितु बाल साहित्य प्राचीन समय से बच्चों को बहलाने तथा मनोरंजन के साथ उन्हें नैतिक सीख देने का काम करता हुआ आया है। बाल साहित्य का जन्म कविताए गीत से ना होकर नाना-नानी एवं दादा-दादी के द्वारा सुनाई जाने वाली प्राचीन समय की पौराणिक कहानियों के रूप में हुआ। नाना नानी एवं दादा दादी की कहानियों में राजा-रानियों, परियों, भूत-प्रेत, हास्यास्पद एवं शिक्षा से जुड़ी सीख देती हुई नजर आती है।
धीरे धीरे बाल साहित्य पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियों के रूप में विकसित हुआ। पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियों में पशु, पक्षी, चांद, सूरज, तारे, वृक्ष, नदी, पर्वत, परियां, देव और दानव के चित्रण वाले विषय मिलते हैं।
बाल साहित्य की लिखित परंपरा की शुरुआत आमिर खुसरो से मानी जाती है। खुसरो की मुकरियां और कुछ बाल पहेलियां बाल मनोरंजन के लिए लिखी गई इसीलिए खुसरो को बीज बाल साहित्य लेखक भी कह सकते है। प्रत्येक रचनाकार बाल साहित्य की भूमिका में रहता है।
भक्ति काल के सगुण मार्ग के कृष्ण काव्य धारा के प्रवर्तक सूरदास को श्री निरंकार देव 'सेवक'स्नेह अग्रवाल के मत का समर्थन करते हुए सूरदास को बाल साहित्य का आदि गुरु मानते हुए प्रतीत होते हैं। प्रारंभ में बड़ों के लिए जो साहित्य लिखा गया था बच्चे उसी में से अपने इच्छा की सामग्री छांट लिया करते थे। सूरदास और तुलसीदास क्रमश: कृष्ण वात्सल्य और राम विषयक रचनाएं इसका प्रमाण है।
बाल साहित्य की मौलिक आवश्यकता है। मनोरंजन, भाषा की सरलताए कथा में सद् विचार तथा ज्ञान। परम्परागत बाल साहित्य में इन सब तत्वों का भरपूर समावेश है।
आधुनिक हिंदी बाल साहित्य की प्रेरणा के रूप में डॉ हरिकृष्ण देवसरे को माना जाता है। श्री जयप्रकाश भारती को हिंदी में बाल साहित्य का युग प्रवर्तक माना जाता है। हिंदी में जहां अनुदित साहित्य के रूप में बाल साहित्य उपलब्ध हुआ वहां मौलिक बाल साहित्य भारतेंदु युग से ही उपलब्ध हुआ है।
बाल साहित्य की विधिवत शुरुआत भारतेंदु युग से ही होती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा से 1882 में 'बाल दर्पण' नामक बच्चों की पहली बाल पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। शिवप्रसाद सितारे हिंद को कुछ विद्वानों ने बाल कहानी के सूत्रपात का श्रेय दिया है। उनकी कुछ कहानियां है। राजा भोज का सपनाए बच्चों का इनाम, लड़कों की कहानियां।
आज बाल साहित्य की विकास यात्रा एक शताब्दी पार कर चुकी है। बीसवीं सदी के आरम्भ में द्विवेदी युगीन साहित्यकारों ने भी बाल साहित्य की ओर ध्यान दिया। स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी, राजा लक्ष्मण सिंहए श्रीधर पाठक एवं रामनरेश त्रिपाठी आदि निष्ठावान साहित्यकारों ने बालकों के लिए कहानियां, कविताएं और निबंध लिखकर बाल साहित्य को समृद्ध किया।
धीरे-धीरे बाल साहित्य के अंतर्गत विषयों की विविधता एवं ज्ञानवर्धक सामग्री को महत्व दिया जा रहा है। जैनेन्द्र कुमार ने अपनी बाल कहानियों में मनोवैज्ञानिकता का भरपूर समावेश किया। इनकी प्रमुख कहानियां जैसे,खेल, अनंतर, इनाम, पाजेब, फोटोग्राफी, किसका रुपया, चोर, अपना-अपना भाग्य आदि।
कविता के क्षेत्र में भी अद्वितीय साहित्य रचा गया है उसे ध्यान में रखते हुए श्री जयप्रकाश भारती ने इस समय को बाल साहित्य का स्वर्ण युग कहा है। विद्याभूषण 'विभु', द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सोहनलाल द्विवेदी आदि कितने ही रचनाकारों की रचनाएं अमर है। 'विभु' की एक बाल कविता का कवितांश इस तरह है.
'झूम हाथीए झूम हाथी
घूम हाथीए घूम हाथी
राजा झूमे, रानी झूमेए झूमे राजकुमार
घोडे झूमे, फ ौजे झूमे, झूमे सब सरदार'
स्वतन्त्रता के पश्चात् मनोरंजन के साथ-साथ बाल साहित्य में बच्चों के मानसिक विकास, राष्ट्रिय चेतना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि की आवश्यकता महसूस की। इस कारण वर्तमान में सभी समसायिक मुद्दों पर गद्य की सभी विधाओं में बाल साहित्य लिखा जा रहा है। 1970 के बाद के दौर की कविताओं को भले ही प्रकाश मनु ने विकास युग माना हो लेकिन ऊंचाइयां इस युग में भरपूर है। बहुत से बाल साहित्यकार हैं जो गद्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से वर्तमान में बच्चों की भविष्य के मार्ग को प्रशस्त करते हुए नजर आते हैं। वर्तमान में प्रमुख बाल साहित्यकार- प्रकाश मनु, परशुराम शुक्ल, मनोहर वर्मा, डॉ. विभा शुक्ल, मालती जोशी, दीनदयाल शर्मा, बुलाकी शर्मा, आशा शर्मा, गोविन्द शर्मा, डॉ. विमला भंडारी, डॉ.भेरूलाल गर्ग, राजकुमार जैन,सत्यनारायण 'सत्य', संगीता सेठी आदि।
बाल जीवनी साहित्य बालकों के चरित्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। जीवनी साहित्य के अंतर्गत आत्मकथा, संत चरित्र, ऐतिहासिक चरित्र, राजनीतिक चरित्र, वेदेशीय चरित्र एवं वैज्ञानिक चरित्र आदि आते है। देवीप्रसाद मुंसिफ, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रूपनारायण पांडेय, महात्मा गांधी, बाबू राजेंद्र प्रसाद, बाल कृष्ण, विष्णु प्रभाकर, हरीकृष्ण देवसरे, जयप्रकाश भारतीए परशुराम शुक्ल आदि जीवनी साहित्य लिखा है।
महात्मा गांधी के व्यक्तित्व का बच्चों पर विशेष प्रभाव पडता है। किस तरह मोहनदास करमचंद गांधी अपने कर्मों से महात्मा बन कर राष्ट्रपिता कहलाये। जब बच्चें महात्मा गांधी के बचपनए युवा एवं प्रौढ अवस्था की ओर अपनी दृष्टि डालेंगे तो निश्चित ही अपने व्यक्तित्व को अद्वितीय बना लेंगे।
बच्चे के मस्तिष्क पर परिवार के सदस्यों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है तथा माता-पिता से ही बच्चों को स्कूली शिक्षा से पूर्व का ज्ञान प्राप्त होता है। गांधीजी भी कहते हैं कि 'आजकल जिसे हम गुजराती की पांचवी किताब का ज्ञान कहते हैं उतनी शिक्षा अपने पिताजी से मिली होगी।' बालक की प्रथम पाठशाला मां होती है। गांधीजी अपनी मां का जिक्र करते हुए कहते हैं कि माता साध्वी स्त्री थी। वे बहुत ही श्रद्धालु थी। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करती थी। बच्चे किसी भी चीज को जानने के बड़े इच्छुक होते हैं इसी कारण गांधी जी बचपन में जब इनकी माता ने एक बार चातुर्मास का व्रत लिया था कि सूर्य नारायण के दर्शन करके ही भोजन करेगी। यह तो सब जानते हैं कि चौमासे में अकसर सूर्य दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। मुझे ऐसे दिन याद है कि जब हम सूरज को देखते और कहते माँ-माँ सूरज दिखाय उतावली हो कर आती। इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जाती कि 'कोई बात नहीं आज भाग्य में भोजन नहीं है।' और अपने काम में डूब जाती। मां का व्रत के प्रति श्रद्धा बच्चे की भीतर श्रद्धा और आस्था का बीजारोपण करती है।
बच्चे कितने शरारती होते हैं। इस बात को हम भलीभांति समझते हैं क्योंकि हम भी कभी बच्चे रहे हैं। इसी तरह गांधीजी भी बचपन में अपने हम उम्र साथियों के साथ शरारत किया करते थे। जैसे उनके द्वारा स्कूल के अध्यापकों को किस प्रकार से छेड़ा जाता था-
'एकडे एक, पापड़ शेकय, पापड़ कच्चो,........मारो........'
पहली खाली जगह में मास्टर का नाम होता था तथा दूसरी खाली जगह में छोड़ी हुई गाली रहती थी। जिसे भरने की आवश्यकता नहीं।
गांधी जी बचपन से संस्कारी बालक थे उनके बचपन से बच्चें बहुत कुछ अपने जीवन में सीख सकते है। गांधीजी ने बचपन में प्राथमिक शिक्षा के समय भी कभी नकल नहीं की। एक बार शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स विद्यालय का निरीक्षण करने आए उस समय उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पांच शब्द लिखाये। उनमें एक शब्द 'कैटल'था। मैंने हिज्जे गलत लिखे थे। शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। शिक्षक चाह रहे थे कि पास वाले लड़के की पट्टी देखकर सही कर ले, लेकिन मैं मान रहा था कि शिक्षक यह देख रहे हैं कि एक दूसरे की पट्टी मंप देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचो शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मेरी बेवकूफी बाद में समझायीय लेकिन मेरे मन पर उनके समझाने का कोई असर न हुआ मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देख कर चोरी करना कभी न सीख सका।
गांधीजी के अनुसार बचपन से ही बालक की मन में बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए वे जो कहे सो करना य करें उसके काजी न बनना आदि भाव होने चाहिए।
बाल मन पर आसपास के वातावरण व साहित्य का बहुत हद तक प्रभाव पड़ता है। बालक जैसे साहित्य पड़ेगा वैसा ही बनने की कोशिश करेगा। गांधी जी अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि एक बार पिताजी की खरीदी हुई पुस्तक को देखा नाम था- श्रवण पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढऩे की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पड़ गया उन्हीं दिनों शीशे में चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उसके पास में ने श्रवण का वह दृश्य देखा जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बिठाकर यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा हुई कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए।
बालक समाज से बहुत कुछ सीखता है। गांधीजी भी गांव में आयोजित होने वाले नाटकों से बहुत कुछ सीखे। बच्चे किसी वस्तु को देखने पर बड़े आश्चर्यचकित होते हैं और जानने का प्रयास करते हैं कि इस विचार का औचित्य क्या है। महात्मा गांधी ने बचपन में हरिश्चंद्र नाटक देखा। गांधी अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि मुझे हरिश्चंद्र के सपने आते थे। हरिश्चंद्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते हैंघ् उनके भीतर सत्यवादी बनने की धुन बनी रहती।
गांधी जी का बाल विवाह हुआ। बाल विवाह क्यों होते है इसके कारण भी बताये है कि घर में बार-बार बड़े आयोजन करने से आर्थिक नुकसान होता है। ढंग से आयोजन की व्यवस्था भी नहीं कर सकते हैं तथा जब बडे भाइयों या बहिनों की शादियां हो रही होती है तो उनके साथ छोटो की भी शादी कर देते है चूँकि बहुत-सी शादियां अलग-अलग करने से बेहतर है कि परिवार में एक साथ दो या तीन शादियों को करें ताकि खर्च कम होने पर भी हो अच्छी शादियां हो सकें। इसी वजह से गांधी जी का भी बाल विवाह हो गया। साहित्य समाज का दर्पण है इसी कारण साहित्य का हर समय प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व या बालक के बालमन पर साहित्य का प्रभाव पडे बिना नहीं रह सकता। जब गांधीजी बाल विवाह हुआ। उन दिनों में भी गांधी जी पर साहित्य का प्रभाव पड़ा। गांधीजी ने बताया कि मैंने पढ़ा था एक पत्नी व्रत पालना पति का धर्म है। यह बात हृदय में रम गयी। सत्य का शौक तो था ही, इसीलिए पत्नी को धोखा तो दे नहीं सकता था। इसी में यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री के साथ संबंध नहीं रखना चाहिए।
बच्चे के भीतर कैसे सकारात्मक या नकारात्मक प्रवेश करती है। गांधी जी के बचपन से सीख सकते है। गांधी जी अपने आचरण के विषय में बहुत सजग थे। उनके आचरण में दोष आने पर रुलाई आ जाती थी। गांधी जी के हाथों कोई भी ऐसा काम बने जिससे शिक्षकों को उन्हें डाँटना पडा हो। पढ़ाई में सुंदर लेखन बहुत ही आवश्यक है। गांधी जी ने कहा है कि 'मैंने अनुभव किया कि खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी मानी जानी चाहिए।' गांधी जी के जीवन से हम जान सकते हैं कि संगत का असर हमारे व्यक्तित्व पर अवश्य पड़ता है। अच्छी आदतें सीखने से ज्यादा बुरी आदतें जल्दी से सीखी जाती है। गांधीजी और इनके परिवार में कोई मांसाहारी नहीं था, लेकिन गांधीजी अपने एक मित्र के उदाहरण सहित सुझावों के माध्यम से मांसाहारी बन जाते हैं। यह एक प्रकार की बुरी आदत थी जिसे अपनाकर गांधी जी मन ही मन पछता रहे थे इसीलिए गांधी जी ने इस आदत को छोडऩे की लिए मन में ठान लिया। चूँकि गांधीजी सत्य में विश्वास करते थे इसलिए उन्होंने तय किया कि चि_ी लिखकर दो स्वीकार किया जाए और क्षमा मांग ली जाए। गांधी जी ने चिठ्ठी लिखकर अपने पिताजी को हाथों.हाथ दे दी। चिठ्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक विनती की कि वे अपने को दुख में ना डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की। गांधी जी के पिताजी ने चिठ्ठी पडी। उनकी आंखों से मोती की बुँदे टपकी। चिठ्ठी भीग गयी। उन्होंने क्षणभर के लिए आंखें मूंदी, चि_ी फाड़ डालीए और स्वयं पढऩे के लिए उठ बैठे थेए सो वापस सो गए।
इस प्रकार गांधीजी के भीतर संस्कारए नैतिकता एवं वह जीवन जीने की राह पुस्तकें पढऩे से मिली। साल्ट की पुस्तक ने आहर के विषय में अधिक पुस्तकें पढऩे की गांधीजी की जिज्ञासा को तीव्र बना दिया। गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग के 'सभ्य पोशाक में' में बताया है कि डॉक्टर मिसेज ऐना किंग्सफर्ड की 'उत्तम आहार की नीति'नामक पुस्तक आकर्षक लगी। गांधीजी ने विद्यार्थियों को छद्म आकर्षणों से परे रहकर विद्यार्थी बनने की सलाह भी दी है। इस तरह गांधीजी के बचपन से बालक अपने जीवन के पथ को सुगम बना सकते हैं।
गांधीजी का बालकों से विशेष प्रेम था। एक बार गांधीजी को आश्रम में एक बच्चे की हाथ में एक पैसा दिख पडा। बस बापू को मौका मिल गया।
उन्होंने कहा- 'अरे भाई पैसा मुझे दे दे।'
बालक ने कहा- 'मलाई बर्फ खाइंगे।'
बापू ने कहा - 'हमको तो मलाई की बर्फ मिलती नहीं।'
बालक ने कहा - 'हमारे घर चलो हम तुमें खूब खवावेंगे।'
इसके बाद बापू ने कुछ कहा जिसमें श्शुश् गुजराती शब्द आया था। जिसकी मानी है. 'क्या।' वह बच्चा समझ ना सका और सब महिलाएँ हंस पड़ीए बापू भी हंस पड़े। दूसरे दिन लड़के के पिता ने बापू की सेवा में उपस्थित होकर माफी मांगी तो बापू ने हंसते हुए सिर्फ इतना ही कहा 'अरे वह बच्चा तो मेरा पुराना दोस्त है।'
सार संग्रह:-
बस्ते के बढ़ते बोझ, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषित वातावरण, कार्टून फिल्मए बच्चों की धारावाहिक देखने की आदत जैसे छोटा भीम, बालवीर, तारक मेहता का उल्टा चश्मा आदि पर बालकों के टेलीविजन से चिपक कर रहने तथा घड़ी की घूमती सुइयों एवं स्कूल की बसों के हॉर्न के भय से यंत्रवत भागते हैं। दूधए नाश्ते और भोजन के स्वाद का आनंद लेने के लिए उन्हें फुर्सत नहीं है। उनके मासूम चेहरे की मुस्कान छीन गई है लगता है वह कहना चाहते हैं। हम कच्ची उम्र के बाल हैं, हम खेलना चाहते हैं, हमारा बचपन मत छीनो। वर्तमान युग विज्ञान प्रौद्योगिकी का युग है। विज्ञान ने अपने क्षेत्र में कई आविष्कार किए है जिसका प्रभाव बाल साहित्य दृष्टि गोचर होता है। कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, ईमेल आदि आवश्यकताओं की श्रेणी में आंके जाने लगे हैं। हमारी वर्तमान शिक्षाए सामाजिक व्यवस्था तथा अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओ को देखते हुए बालक अनुभव कर रहे है कि दिन में 24 घंटे का समय उनके लिए कम है। ऐसी विकट परिस्थिति में बालकों को परोपकार की भावनाए मानव सेवा की भावनाए निस्वार्थता का भाव, राष्ट्रप्रेम जागृत करने के लिए महात्मा गांधी के बाल जीवन को जानने के साथ वर्तमान में बाल साहित्यकारों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य पढऩे की रूचि बच्चों के भीतर पैदा करनी अतिआवश्यक है।
संदर्भ सूची :-
1. मनोहर वर्मा : भारतीय बाल साहित्य: एक विवेचन, राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर, 1987
2. दिविक रमेश: हिंदी का बाल साहित्य- परंपरा, प्रगति और प्रयोग
3. डॉ. परशुराम शुक्ल एवं विभा शुक्ल-इक्कीसवीं सदी का बाल साहित्य:चुनोतियाँ और संभावनाएं
4. मोहनदास करमचंद गांधी:सत्य के प्रयोग,काशीनाथ त्रिवेदी- नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, दिसंबर 2017
5 माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर: पीयूष प्रवाह, राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल, 2.2,झालाना डूंगरी, जयपुर, 2017
6 माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर:आलोक, राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल, 2.2,झालाना डूंगरी, जयपुर, 2017
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