भारत ने ही सर्वप्रथम "ष्वसुधैव कुटुम्बकम"की घोषणा की थी द्य हमारे पूर्वजों ने कहा था कि पूरी सृष्टि एक घर जैसी है! यह विशाल सोच हमारी ही देन है किंतु इस प्राचीन दर्शन में खंडित करने का भाव कदापि नहीं था! उसमें सबक़ो अपना समझकर प्रेम देने का मंतव्य था! उस समय रिश्तों में व्यापार नहीं पनपा था ! तब आपस में स्नेह और अपनापनथा ! खुद को वंचित रखकर भी दूसरों का भला करने का भाव था! इसलिए भारतीय संकृति पूरी दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ मानी जातीहै! आज का वैश्वीकरण उस 'ष्वसुधैव कुटुम्बकम' से भीन्न! इसमें व्यापार है, बाँटने की कला है, लाभ कमाने की मनोवृति है!
प्राचीन काल में बाज़ार काअर्थ था! साप्ताहिक हाट, मेला, चौक चौराहों पर संचलित दुकानदारी ! इसमे कहीं.न.कहीं आदर्श स्थापित था! तब बाज़ार आज के जितना रंगीन नहीं था! उस समय भरे बाज़ार में कबीर जैसा दार्शनिक बीच बाज़ार में खड़े होकर लोक.कल्याण कि बात कर सकता था ! यहां कबीर का एक दोहा उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है! कबीर कहते है कि .
'श्कबीरा खड़ा बाज़ार में' सबकी माँगे ख़ैर!
न काहु से दोस्तीए न काहु से बैरश्द्यद्य1
इस से ज्ञात होत है कि प्राचीन काल में बाज़ार कितना सुरक्षित था द्य उस समय बाजार लेन - देन का केंद्र था ! किंतु आज बाजार में सब तरफ आराजकता फैली हुई है ! हर कोई एक.दुसरे को निचा दिखाने में व्यस्त है ! इसके लिये व्यक्ति किसी भी हद तक नीचे गिरने के लिये तैयार हो रहा है! अब प्रतिस्पर्धा के स्थान पर कब्जा करने की लालसा जागृत हो रही है! मनुष्य के हर कर्म पर बाजार का हस्तक्षेप बड़ रहा हैं ! बाजार के बदलते स्वरुप के विषय में डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल कहते है कि . श्अब इसका अर्थ और कुछ नहींए केवल एक ही है . पूरे विश्व को बाजार में बदल देना! इस मंडी में सब बिकाऊ है . तन-मन- संपूर्ण जीवन और हमारे सपने तथा आदर्श भी! इस बाजार का विस्तार अब चौराहा नहीं रहा हैं ! यह अब घर के आँगन से हमारे बेडरूम तक फैल चुका है! '2 इस कथन से बाजारवाद की बढ़ती व्यापकता ज्ञात होती है ! इस बढ़ते बाजारवाद का भाषा पर भी प्रभाव हुआ दिखाई देता है !
बाजारवादी दर्शन माननेवाले यह बात अच्छी तरह जानते है कि भाषा के मध्यम से अभिव्यक्त विचारों को समाप्त किए बिना किसी को अपना गुलाम नहीं बनाया जा सकता ! भूमंडलीकरण से किसी नए समाज की सृष्टि नहीं हो सकती! वह विरासत में प्राप्त बहुमूल्य आदर्शों को नष्ट.भ्रष्ट कर रह हैं! भूमंडलीकरण या बाजारवाद के दौर में भाषा में अधिक मात्रा में मिलावट हो रही है! नयी पीढ़ी इस मिलावट का स्वागत कर रहीहै ! साथ ही पूँजीपति वर्ग भी इसका स्वागत कर रहा है! जिसके लिये नयी पीढ़ी और भाषा दोनों भी केवल एक वस्तु ही है! बाज़ारवाद ने शुरुआत में जब भारत में प्रवेश किया तब उसकी अवधारणा नयी थीं, उसके लिये भारत के बाज़ार पर कब्जा करना विश्व के छठे भाग पर कब्जा करने के बराबर था! दुनियाँ के बाज़ारों में भारत चौथे नंबर का सुरक्षित बाजार है ! यहां कम जोखिम और कम अशांति है! यहां अधिक कच्चा माल और सस्ते मजदूर मिलते है, तथा शोषण की आजादी है! भारत में बाजारवाद ने हिंदी भाषा को अपना लक्ष्य बनाया है! इसके संबंध में प्रभाकर श्रोत्रिय कहते है कि 'श्बाजार के विस्तार के लिये सर्वसाधारण की एक भाषा की भी जरुरत थीं! क्योंकि उपभोक्ता मानस तो बन चुका था, इसका विस्तारभर करना था! बाज़ार ने समझ लिया थाएतमाम क्षेत्रीय भेद्भवो के बावजूद पुरे देश में प्रचलित भाषा हिंदी ही है ! इसलिए बाज़ार का मुख्य लक्ष्य रहा की हिंदी को बाजार की भाषा बनाया जाये! '3 इसमे कोई शक नही की हिंदी एक जीवंतऔर गतिशील भाषा है! उसमें अनेक मिश्रणए संश्लेषण और ग्रहण करने की सम्भावन, निहित है! लेकिन हिंदी भाषा को ज्ञान.विज्ञान.संस्कृति.सृजन से काट कर बाजार की भाषा के रुप में ढालने का प्रयास किया जा रहा है! उसके भीतर मिलावट की जा रही हैद्य जितनी तरह से उसे भ्रष्ट किया जा सकता हैए किया जा रहा है! बाज़ार हिंदी की जड़ें काट रहा है! इस बाजारु भाषा से हिंदी का कोई भला नहीं हो रहा हैद्यबल्कि बाजार का ही भला हो रहा है! यही बाजारवाद का भी लक्ष्य है! भाषा तो तभी लाभान्वित होती है, जब वह अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी सांस्कृतिक. बौध्दिक.सृजनात्मक संपदा का संरक्षण करती हो और उसे बढ़ाती हो! किंतु बाजरवाद ने हिंदी भाषा को बहुत हानी पहुंचाई है! इसके विषय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी कहते है कि -'श्बाजारवाद ने अपने उपयोग के लिए हिंदी को सबसे पहले उसके लिखित रुप से अलग किया, उसे उसने सिर्फ बोलचाल की भाषा में बदल दिया, फिर उस बोलचाल की भाषा को अपनी उपभोक्ता संस्कृति से जोड़ने के लिए तोड़.मरोड़कर अनेक तरह की भाषा को अपनी मिलावटो से बाजार की भाषा में बदल डाला! जितने भी उत्पाद हैं, यहां तक कि पोशाकें हैं - उन पर भी अँग्रेजी में इबादत लिखी होती है! संपूर्ण व्यापार-व्यवसाय-व्यवहार की लिखित भाषा अंग्रेजी बन गयी है! यह उस 96.97 प्रतिशत जनता से लाभान्वित हो रही है जो उससे परिचित ही नहीं है! बस, उसे परिचित कराने के लिए ही हिंदी और भारतीय भाषाओं को अपने रंग. ढंग में ढाल कर बोला जा रहा है! टी. वी. पर दिन में सैकडॊ बार हिंदी में उन्हीं चीजों के नाम लिये जाते हैं, जिनमें हिंदी की लिखित इबारत खारिज की जा चुकी है! यानी लिखित अँग्रेजी को अनिवार्य बनाया जा रहा हैए मौखिक हिंदी के माध्यम से समझाया जा रहा है कि अंग्रे़जी कितनी जरुरी है, कितनी अपरिहार्य है! हिंदी के माध्यम से बेचे जा रहे हैंउत्पाद, जो भारतीय साधन.स्त्रोतों से बने हैं, परंतु जिनको विदेशी लिबास और स्वार्थ ओढ़ा दिया गया है! '4इस तरह हमारी भाषा और हमारे देश का एक साधन के रूप में प्रयोग किया जा रहा है! दुर्भाग्य से बाजार की इस मनोवृत्ति से भारत का जनमानस भी बुरी तरह से प्रभावित है! वह सोच रहा है कि यही बाजार उसे लाभ पहुँचायेगा! बाजार बड़ी चालाक चीज हैए वह उप्भोक्ता की इस प्रवृत्ति और स्वभाव को जानता है! भाषा और स्वयं के प्रति उसकी उदसीनता को बाजार ने भांप लिया है! वह जानता है कि भारतीय लोग चल रही चीज को ज्यों का त्यों चलने देते हैद्यवे अपनी ओर से कोई विरोध नहीं दर्शाते! भारत का छोटा बाजार भी बडे बाजार का अनुकरण कर रहा है! देसी चीजों के यहां तक कि जड़ी.बूटियों, आयुर्वेदिक औषधियों के नाम भी अंग्रेजी में लिखे जा रहे हैं! वह भारतीय बाजार को समझने का प्रयास कर रहा है! क्योँकि उपभोक्तावाद ने भारत की स्वदेशी मानसिकता लगभग समाप्त कर दी है! उसे फैशन के अधिन बनाया जा रहा है! इसप्रकार बाजारवाद के कारण हिंदी भाषा के पतन को देखा जा सकता है! जो हिंदी और हिंदुस्थान दोनों के लिये भी खतरा बन रहा है! जिसको समय पर रोखने की आवश्यकता है
संदर्भ -
1. आर्चाय हजारीप्रसाद द्विेदी, कबीर, पृ- 227
2. संण् कमल किशोर गोयनका, हिंदी भाषा, पृ- 235
3. प्रभाकर श्रोत्रिय, बाजारवाद में हिंदी, पृ-40
4. प्रभाकर श्रोत्रिय, बाजारवाद में हिंदी, पृ-41
संपर्क
पी एच. डी. शोध छात्र, हिंदी विभाग,
डॉ ण्बासाहेबआंबेडकर मराठवाड़ा
विश्वविद्धालय,औरंगबाद;महाराष्ट्र-431004
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