इन दिनों सोशल मीडिया पर #बायकाट_छपाक ख़ूब ट्रेंड कर रहा है। वजह ये है कि कु़छ दिनों पहले छपाक फिल्म की अभिनेत्री दीपिका पादुकोण जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय गयीं थी!
सोचिए ज़रा कि हम समस्याओं को लेकर कितने उदासीन या सजग/चिंतित हैं? जिस समस्या को लेकर दीपिका विश्वविद्यालय गयीं उनके जाने के बाद ही वो समस्या गौड़ हो गयी और दीपिका जे एन यू गयी यह मूल और बेहद गंभीर समस्या बन गयी। हालांकि उस वक़्त जब हम निजी जीवन से ऊपर उठकर सार्वजनिक जीवन जी रहे होते हैं और लाखों लोग अनुसरण करने वाले हों तब हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारे किसी भी कदम से समाज में एक असंतुलित वातावरण का निर्माण हो सकता है! बहरहाल असली मुद्दा ये है कि जे एन यू में दीपिका का जाना बड़ा मुद्दा है या फिर एसिड अटैक? या फिर जे एन यू की अपनी मूल समस्या?
असली समस्या यही है कि हम सभी समस्याओं का घालमेल कर देते हैं? जे एन यू की अपनी समस्या अलग है, दीपिका का जे एन यू में जाना एक अलग समस्या और एसिड अटैक जैसी अमानवीय समस्या एक अलग समस्या पर हमनें इन सभी समस्याओं को एक मानकर ये फैसला ले लिया कि बस छपाक फिल्म का बहिष्कार कर देना ही सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा!
अब एक नए प्रकरण पर आते हैं! एसिड अटैक, ये एक बेहद गंभीर मसला है। फ़र्ज़ करिए ज़रा कितना मुश्किल का दौर होता होगा जब एक महिला या किसी की लाडली घर से निकलती हो और चेहरा एसिड से एकदम जला हुआ हो और उससे दो महीने पहले ही जब वो घर से निकलती रही होगी तो उसके सुंदरता का बखान होता रहा होगा?
तिल-तिल कर जीना और उसी के साथ घुट-घुट कर मरना, मतलब एक एसिड अटैक पीड़ित महिला एक ही साथ तिल-तिल कर जीने के साथ साथ घुट घुट कर मर भी रही होती होगी, शीशे के सामने खड़ा होकर क्या सवाल करतीं होगी वो लड़की जब वो शीशे में वही चेहरा जिसे देखकर, वो ख़ुद से ही मुस्करा उठती होगी अब क्या खयाल आता होगा उसके मन में उस डरावने चेहरे को देखकर?
असली पीड़ा तो तब होती होगी जब वो सोचती होगी कि किसी दरिंदे द्वारा मेरे साथ की गयी दरिंदगी की सज़ा ये जालिम समाज मुझे क्यूँ दे रहा है?
अब ज़रा फ़र्ज़ करिए कि पैसे कमाने के लिये ही सही इस पीड़ा को फिल्म के माध्यम से विश्वपटल पर लाने के दीपिका पादुकोण के प्रयास को जे एन यू से जोड़कर देखा जाना चाहिए? अगर हां तो इसका मतलब कु़छ लफंगों द्वारा किए गये फसाद को ज्यादा महत्व दे रहे हैं हम इस एसिड अटैक जैसे दरिंदगी भरी घटना से?
आखिर ये बात कहाँ से निकलकर आयी थी कि राजेश नाम है नदीम का फिल्म में? मुझे ना ही दीपिका से कोई लगाव है और ना ही जे एन यू के उन टुच्चो, लफंगों से। पर थोड़ी देर के लिये सोचिए कि ये राजेश नाम वाला मुद्दा एकाएक कब ट्रोल होना शुरू हुआ? एक सवाल और क्या हम सच में भेंड़ हो गये हैं? जब वो जे एन यू गयी? अगर जे एन यूं नहीं गयी होती तब दीपिका का चरित्र क्या होता? और एक सवाल क्या हमें सच में अपने समाज, विश्वविद्यालय और बालीवुड की चिंता है तो फिर सनी लियोनी जैसी घटिया पोर्न स्टार को बालीवुड में एंट्री किसने दिलवाया? एक भी उदाहरण हो हमारे इस बौद्धिक समाज के पास कि सनी लियोनी के किसी फिल्म का बहिष्कार हुआ हो पर वही दीपिका ऐसे समय में जब अभिनेत्री सुन्दर और सुन्दर एकदम हॉट पहले से और कैसे सुन्दर रिप्रजेंट किया जाये फिल्मों में उसने ख़ुद को मालती के रूप में प्रस्तुत किया क्या यह कम साहस भरा कदम रहा? क्या फिल्मों से समाज और समाज फिल्म से प्रभावित होते हैं? अगर हां तो क्या इस फिल्म के माध्यम से दशमलव में भी गुंजाइश बन सकती है इस अमानवीय घटना के खिलाफ? क्या यह फिल्म एक सकारात्मक संदेश दिया होता कि यह अमानवीय कृत्य कैसे भी हो पर रुकना चाहिए! और मेरा मानना है कि इस फिल्म के संदेश से अगर सिर्फ एक लड़की के चेहरा को जलने से बचाया जा सकता है तो वह जे एन यू, उन लफंगों से ज्यादा महत्वपूर्ण, सफल और सार्थक होगा!
आखिर हम इतने कमजोर क्यूँ होते जा रहे हैं कि ख़ुद स्वचिन्तन के आधार पर निर्णय नहीं ले पा रहे हैं कि क्या गलत है क्या सही? यह बेहद घातक है पहले से ही कोई आइडियोलजी दिमाग में बैठा लेना और उसी चश्में से सबकुछ देखते रहना तब निष्कर्ष यही आएगा कि किसी के बहन-बेटी का रेप होगा और हम दो चश्मे से देखना शुरू कर देंगे एक वाला चश्मा जीन-टी-शर्ट को वजह बातायेगा दूसरा हिंदु-मुसलमान बताएगा। पर निराश होने की जरूरत नहीं अभी भी कु़छ ऐसे हैं जो दोनों चश्मा निकालकर खुली आँखों से देखेंगे और यह देखेंगे कि एक नारी के साथ दुष्कर्म हुआ है और करने वाला दुष्ट, पापी एक दरिंदा है।
सुरेश राय चुन्नी
7905824502
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
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