भारत-जापान के सम्बन्ध न केवल ऐतिहासिक है अपितु दोनों देशों को सांस्कृतिक कारणों से इन सम्बन्धों को स्थायी स्वरूप प्राप्त हुआ है। बौद्ध धर्म के रूप में जापान को जो दर्शन और जीवन शैली भारत से मिली उससे हमारे देश को एक नई दिशा प्राप्त हुई। ये उद्गार जापान के प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान पद्मश्री डॉ. तोमिओ मिजोकामी ने विश्व हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा हिन्दी भवन भोपाल में ‘भारत-जापान सांस्कृतिक एवं आर्थिक’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि जब सामंती युग में जापान में ईसाई का प्रचार होने लगा तब इसे दबाने की कोशिश हुई, लेकिन कुछ सामंती ईसाई धर्म को अपनाने लगे थे| उन्हीं में तीन सामंतों ने मिलकर चार युवाओं को रोम भेजा था| वे गोवा होते हुए भारत पहुँचे थे| ये चारों युवा भारत की धरती पर पाँव रखने वाले पहले जापानी थे| आजाद हिन्द फ़ौज का जिक्र करते हुए डॉ. मिजोकामी ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जीवित होने की बात को निराधार बताया| उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में होने की पुष्टि कई स्रोतों से हो चुकी है|
उन्होंने कहा कि सैकड़ों वर्षों के बाद अब जापान-भारत सम्बन्ध बहुत मजबूत हो चुके हैं| रासबिहारी बोस ने हमेशा भारत-जापान के रिश्ते को बरकरार रखने का प्रयास किया था| इसका कारण रासबिहारी बोस की शादी जापानी लड़की से होनी थी, इसलिए दोनों देशों के बीच सांस्कृतिकता को एक कड़ी में जोड़ने का यह बेहतर माध्यम साबित हुआ था| भारत की संस्कृति और खान-पान में जापानी बहुत रूचि लेते हैं| उन्होंने फर्राटेदार हिन्दी में कहा कि जापानी के कई शब्द तो संस्कृत भाषा से लिए गए हैं| उदाहरण के रूप में छत को जापानी में कवाला कहा जाता है, जो कि संस्कृत के कपाला से लिया है| पंजाबी में इसका मिलता-जुलता रूप है खपरैल| श्री मिजोकामी ने भारत जापान के मध्य 300 वर्षों में हुई धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक प्रवृत्तियों के विकास को पॉवर प्वाइंट प्रस्तुति के माध्यम से अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया।
प्रारम्भ में हिंदी भवन के निदेशक डॉ. जवाहर कर्नावट ने श्री तोमिओ मिजोकामी का परिचय विस्तार से दिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री संतोष चौबे, कुलाधिपति, टैगोर विश्वविद्यालय ने अपने वक्तव्य में कहा कि हिंदी को वैश्विक स्तर पर सुदृढ़ करने का यह सही समय है। जापान में भारत के इंजीनियरों की मांग बहुत अधिक है। विश्व के देशों से जैसे-जैसे व्यापारिक संबंध बढ़ेंगे हमारी भाषाओं का प्रचार भी बढ़ेगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री सुखदेवप्रसाद दुबे ने की| स्वागत वक्तव्य श्री युगेश शर्मा ने प्रस्तुत किया| अंत में श्रीमती कान्ता रॉय ने आभार प्रकट किया| इस कार्यक्रम में समिति के मंत्री संचालक श्री कैलाशचन्द्र पन्त, पद्मश्री रमेशचंद्र शाह, श्री रमेश दवे, श्री बटुक चतुर्वेदी, डॉ. रंजना अरगड़े सहित बड़ी संख्या में लेखक एवं साहित्यकार उपस्थित रहे|
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