जाति व्यवस्था के ढाचें में बदलाव
(एक समाजशास्त्रीय अध्ययन)
प्रियंका कुमारी
नेट, समाजशास्त्र, आर.एस.के.डी.पी.जी. कॉलेज, जौनपुर, उप्र.
आज तक जाति की कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं बनी, जिसके आधार पर हम इसे स्पष्ट कर सकें। इसलिए जाति संबंधी अनेक सिद्धांतों के विचार व सिद्धांत सामने आते हैं। भारतीय जाति प्रथा जाने कितने प्रश्नों के साथ नत्थी है। जाने कितने प्रश्न एक के बाद एक किए जाते रहे हैं और आज भी है। भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने जाति प्रथा की उत्पत्ति के जटिल प्रश्न को समझाने का प्रयास किया, परंतु यह उलझता हि गया। एक विद्वान अपनी जाति संबंधी अवधारणा को कुछ विशेष बिंदु और तथ्यों के आधार प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है जबकि दूसरा अन्य तथ्यों के आधार पर इसे स्पष्ट करता है। इसका परिणाम यह हुआ कि जाति संबंधी अनेक तथ्य सामने आए मनुस्मृति के अनुसार जाति प्रथा ईश्वर-कृत है। कहा जाता है कि ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से चार वर्णों की उत्पत्ति हुई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र। हम इस तथ्य से परिचित है कि वर्ण और जाति में अंतर है। हालांकि यह चार वर्ण कालांतर में जाति के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें भी असंख्य उप जातियां हो गई यह एक प्रक्रिया है जातियों के टूटने और बनने की किसी ने कहा है की आर्यों के संघात से जाति प्रथा का जन्म हुआ है। किसी ने जाति प्रथा को कर्म और अकर्म पर ही आंका और किसी ने विभिन्न व्यवसायों और कार्यों को लेकर जाति की अवधारणा को स्पष्ट किया सभी विद्वानों की जाति की अवधारणा में कुछ तथ्य अवश्य झलकते है, परंतु कोई ऐसी परिभाषा नहीं है जिससे जाति का अर्थ स्पष्ट हो सके। पी.वी.काणे ने प्राचीन साहित्य का अन्वेषण एवं विश्लेषण कर यह प्रमाणित करने की चेष्टा की कि आरंभ में दो वर्ण (रंग) थे। आर्य और उनके विरोधी 'दस्यु' अथवा 'दास'। इन दोनों में अंतर मुख्यता वर्ण(रंग) एवं संस्कृति पर आधारित है। इस प्रकार वर्ण भेद एक तरफ परस्पर सांस्कृतिक संधात का परिणाम है और दूसरी तरफ अनुवांशिक भी प्रतीत होता है। यूरोप के अनेक विद्वानों ने कहा कि जाति प्रथा ब्राह्मणों की चतुर स्वार्थ पूर्ण योजना का परिणाम है। अबे डूबाय का कहना है कि ब्राह्मणों में अपनी सुरक्षा एवं स्वच्छता को बनाए रखने के लिए इस प्रकार की जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया। इबेटसन और जी.एस.घूरिये ने भी इसे स्वीकार किया। इबेटसन का मत है कि ब्राह्मणों ने अन्य वर्णों का शोषण करने हेतु अपने व्यवसाय एवं शासन वर्ग के व्यवसाय को छोड़कर अन्य सभी जातियों के व्यवसाय को निम्न बताया। इसका मुख्य कारण उनका स्वार्थपूर्ण उद्देश्य था। डॉ घूरिये का मत है कि ''जाति प्रथा इंडो आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का बच्चा है जो की गंगा और यमुना के मैदान में एवं वहां से अन्य भागों में पहुंचा'' वास्तव में भारत में जाने कितनी जातियां हैं, जो कार्य व व्यवसाय के आधार पर बन गए। जैसे लोहार, लोहे का काम करने वाला सुनार, सोने का काम करने वाला दर्जी, कपड़ा सिलने वाला बढ़ाई, लकड़ी का काम करने वाला आदि। क्षेत्र के आधार पर भी सामूहिक रूप में जाति की पहचान बन गए जैसे पहाड़ी, पहाड़ पर रहने वाला राजस्थानी, राजस्थान का रहने वाला इत्यादि। नेस्फील्ड का कहना है कि ''जाति प्रथा की उत्पत्ति का एकमात्र कारक समाज में पाया जाने वाला व्यवसायिक विभाजन था'।
भारतवर्ष में अनेक कारणों से असंख्य जातियां बन गई बल्कि मैं तो यह कहती हूं कि ''भारत जातियों का अजायबघर है'' तरह-तरह की छोटी, जातियां छोटी जातियों में भी निम्न जातियां, ऊंची जातियों में भी ऊंची और छोटी जातियां। यह सभी मिलकर जातियों की बनावट को पेचीदा बना देती है। आप कल्पना करें कि सफाई कर्मचारी जिसे हम मेस्तर कहते हैं। यानी शूद्र की श्रेणी में है इनमें भी निम्नतम शुद्ध है, लाल बेगी जो मरे पशुओं को उठाता है। उसके यहां उसी जाति के व्यक्ति जो अपने को सबसे ऊंचा कहते हैं भोजन आदि नहीं करते है।ं ब्राह्मणों के लिए भी एक कहावत है ''एक कनौजिया तेरह चूल्हा''अर्थात ब्राह्मणों में भी ऊंच-नीच की भावना है इसलिए आचार्य क्षितिमोह सेन शास्त्री लिखते हैं, भारतवर्ष में सबसे ऊंची जाति ब्राह्मण है। ब्राह्मण में भी ऊंच-नीच के असंख्य भेद है इसलिए यह कहना असंभव है कि ब्राह्मणों में कौन सी श्रेणी सबसे ऊंची है हिंदुओं में सबसे नीची जाति कौन हैं। यह कहना भी कठिन है । इस उभय कोटियों के मध्यवर्ती स्तरों को गिनना सहज नहीं हैं।
प्रश्न है वर्ण मात्र चार है जो आगे चलकर जाति के रूप में अपनी पहचान बनाते हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्ध किंतु इनके सैकड़ों उप-विभाग कैसे और क्यों हुए इसकी पृष्ठभूमि में कौन से पोषक तत्व है। ब्लूमफील्ड का कहना है कि ब्राह्मणों में ही दो हजार भेद हैं (रिलीजन ऑफ द वेदांश) एक सारस्वत ब्राह्मण में ही 469 शाखाएं हैं, क्षत्रियों की 590 शाखाएं हैं, और वैश्य शूद्र की शाखाएं 600 को भी पार कर जाती हैं। भारत के सभी प्रदेशों की यही दशा है।
वास्तव में प्रत्येक काल खंड में जातियों के नाम लुप्त होते रहते हैं या बदलते रहते है।ं वैदिक युग में जो जातियां थी, वह कबीलाई समाज में जुड़ी थी, आज वे जातियां नहीं है और उनके नाम हीं। आज भारत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों दलित जातियों के व्यक्तियों ने अपने नाम से वे शब्द हटा दिए, जिनसे जाति का बोध होता है जैसे कुमार प्रजापति लिखते हैं। गौतम क्षत्री भी हैं और हरिजन भी, चौहान ठाकुर भी है और तेली भी, अब लोग अपने नाम के आगे चमार धोबी, पासी, वाल्मीकि, सुनार, कुर्मी, आदि नहीं लगाते हैं। महानगरों में तो नाम से ज्ञात ही नहीं किया जा सकता है कि व्यक्ति किस जाति का है। वास्तव में मनुस्मृति की धारणा यह है कि व्यक्ति का नाम ऐसा हो जिससे जाति का बोध होता हो। 21वीं सदी की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक चेतना ने अनुसूचित जातियों, दलित जातियों और जनजातियों में यह भावना उत्पन्न की है कि नाम से जाति का बोध नहीं होना चाहिए यह हीनता की भावना उत्पन्न करती हैं। इसलिए निम्न जातियों ने सवर्णों की तरह अथवा किसी ऋषि आदि के नाम पर अपना सरनेम लिखना आरंभ कर दिया। परस्पर अनजान व्यक्तियों के मध्य हम यह नहीं पहचान पाते अमुक व्यक्ति किस जाति का है। पर सरकारी नौकरी, में कॉलेज में प्रवेश लेने पर, वजीफा प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को असली जाति का प्रमाण पत्र देना होता है।इस तरह उसकी जाति वही रहती है जो उसके जन्म के समय थी नगरों व महानगरों में एक चलन और चला है कि जातिसूचक सरनेम को न लिखना कुछ लोग कहते है की हम जातिवाद में विश्वास नहीं रखते। इसलिए नाम के साथ जातिसूचक सरनेम नहीं लगते है।ं
नेस्फील्ड ''जातिगत व्यवसाय को जाति भेद का एकमात्र आधार मानते हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि धातु का काम करने वाले कारीगरों की स्थिति टोकरिया बनाने वाले कारीगरों या उन आदिम व्यवसाय वालों से, जो धातु का इस्तेमाल नहीं करते, ऊंची है। वह जाति व्यवस्था को एक स्वाभाविक कृति मानते हैं, जिसकी रचना में धर्म का कोई हाथ नहीं है'' आधुनिक नगरीय भौतिक संस्कृति में व्यावसायिक जातिगत ढांचा लगभग बदल चुका है। आज असवर्ण सवर्ण का कार्य कर रहा है। सवर्ण छोटी जातियों का कार्य कर रहे हैं। जैसे लॉन्ड्री का कार्य धोबी ही नहीं, सवर्ण जाति के लोग भी कर रहे हैं । जूते बनाने की फैक्ट्री ऊंची जाति के लोग चला रहे है।ं सुनार ही सोने का काम या लोहार ही लोहे का काम नहीं कर रहे हैं बल्कि किसी भी जाति का व्यक्ति यह काम कर सकता है।
महानगरों को जातिगत चेतना का केंद्र कहा जा सकता है। यहां ग्रामीण समाज की तरह सामाजिक ढांचा कठोर नहीं है। यहां सब कुछ लचीला है। किसी को किसी की चिंता नहीं कोई किसी प्रकार का कार्य करता है, कोई नहीं पूछता है कि उसकी जाति क्या है और वह क्यों अमुक प्रकार का कार्य करता है। छोटी जाति का व्यक्ति भी बड़ी महत्वाकांक्षाओं को लेकर महानगरों में प्रवेश करता है, ऐसे खुले और मुक्त समाज में प्रवेश करता है जहां उसे संघर्ष भी करना पड़ता है और प्रतिस्पर्धा भी। यहां जातिगत प्रतिस्पर्धा नहीं है वरना अपने को स्थापित करने की, आगे बढऩे की और उन्नति करने की प्रतिस्पर्धा है। अपनी आर्थिक- सामाजिक स्थिति को बदलने की प्रतिस्पर्धा है। यही कारण है कि निम्न जाति के व्यक्ति भी ऊंचे पदों पर हैं और बड़े धनी व्यवसाय भी।यह महानगर की चेतना व ऊंची शिक्षा सुविधाओं की देन है । महानगरों में व्यक्ति अपने अस्तित्व को ठोस जमीन देने के लिए संघर्ष और प्रयास करता है। इसमें उसे बहुत कुछ सफलता भी मिली है। इसलिए जगजीवन राम लिखते हैं ''अनुसूचित जातियों की समस्या वर्तमान में भयंकर रूप में उलझ गई है। इनमें जो थोड़ी बहुत जागृति आई है। उसके परिणाम स्वरुप वह झुकते कदमों से उन अत्याचारों और अन्याय का विरोध करने की चेष्टा कर रहे हैं जो अत्यधिक लज्जा जनक ढंग से उन पर होते आए हैं। यह अत्याचार और दमन जिनका शिकार अनुसूचित जातियां हुई है,ऐसा है कि सभ्य समाज में उसकी कलपना भी नहीं की जा सकती हैं । प्राचीन उत्पीडऩके विरुद जातिगत चेतना 21वीसदी में सशक्त रूप में फूटी हैं। इसने निश्चय ही जाति-व्यवस्था के ढाचें को नया कार्यात्मक स्वरूप प्रदान किया हैं। जगजीवन राम आनुसूचित जातियों में चेतना उत्पन्न करने हेतु उनमे जोश भरते हैं की बेडिय़ों को तोड़ देंजो उन्हें सदियों से गुलाम बनाएं हुए हैं। जातिभेद की उत्पत्ति भारत की राजनीतिक संस्थाओं से हुई है, वह तो वंश परंपरागत व्यवसायों का समवाय(ट्रेड फील्ड) मात्र है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है अनुसूचित जातियों का मुक्ति आंदोलन आरंभ हो चुका है उनके रास्ते में बहुत सी कठिनाइयां और रुकावटे आते हैं।उनका शत्रु उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली है परंतु उन्हें अनवरत रूप से संघर्ष करना ही पड़ेगा हमें उन बेडिय़ों को काट कर फेंक देना है, जो हमारे पैरों में पड़ी हुई है, क्योंकि तभी मानवता दासता से मुक्त हो सकेगी स्वामी विवेकानंद जाति का कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि ''पुरोहितगण चाहे कुछ भी बके'' जाति व्यवस्था केवल एक सामाजिक विधान ही है, जिसका काम हो चुका अब तो यह भारतीय वायुमंडल में दुर्गंध फैलाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करते। यह तभी हटेगी जब लोगों को उनका खोया हुआ सामाजिक व्यक्तितव पुन: प्राप्त हो जाएगा।
नगरों, महानगरों और विराट नगरों में सवर्णजातियों की वह स्थिति नहीं रही जो सैकड़ों वर्ष पूर्व थी उनकी स्थिति व पद पर भी आंच आने लगी। उनके समकक्ष निम्न जातियों के व्यक्ति खड़े हो गए। शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ी जातियों, दलित और दुर्बल जातियों, की युवाओं को आगे बढ़ाने और प्रगति सुअवसर प्रदान किया। आधुनिक भारत में इन श्रेणियों के युवक बड़े से बड़े पद पर हैं राजनीति के गलियारों में किसी से पीछे नहीं केंद्र और राज्य की सरकारों में उनकी जाति के अनेक मंत्री हैं यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि जाति का अतीत का ढांचा नगरीय संस्कृति में बिखर गया। प्रतिस्पर्धा के खुले दौर में जो योग्य है, वही प्रगति करेगा जाति की इसमें कोई भूमिका नहीं रह गई यह कहा जा सकता है जाति के नए मूल्यांकन के मापदंड बन गए हैं जो उनके अस्तित्व को नए आयाम दे रहे हैं। बदलते समय के साथ-साथ जाति के ढांचे में जाति व्यवस्था के ढांचे में काफी कुछ परिवर्तन हो चुका है। फैक्ट्री, कारखानों और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में युवक और युवती साथ- साथ काम करते हैं। इसमें कोई भेदभाव जाति या राज्य को लेकर नहीं होता वे स्वतंत्र विचार और मुक्त समाज के पैरोकार हैं। अपने व्यक्तित्व को वह स्वयं बनाते हैं, वह स्वयं निर्णय करते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसमें से अधिकांश युवक एवं युवती अपनी जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं। नगरों के दंपतियों पर एक नजर डालें तो अंतरजातीय विवाहों की एक बड़ी सूची तैयार हो जाएगी। अब महानगरों में जातिगत ढांचे टूट रहे हैं। वर्ण व्यवस्था के काल्पनिक अवधारणा ने कुछ समय तक मनोवैज्ञानिक रूप में व्यक्तियों पर जादू किया कि यह व्यवस्था ईश्वर कृत है, किंतु समय के साथ हजारों जातियों की संख्या ने इस भ्रम को तोड़ दिया। सवर्णों की हजारों वर्षों से चली आ रही मान मर्यादा स्वतंत्रता के पश्चात बहती नजर आने लगी। जातियों की सरकारी सूचियाँ बनने लगी। जाति व्यवस्था मे इतने सकारात्मक और नकारात्मक सिद्धांतों ने इसको समझने में जटिलता पैदा कर दी है फिर भी भारत में जाति व्यवस्था बनी हुई ह।ै इसका सकारात्मक पहलू लुई डुयूमा द्वारा प्रस्तुत किया गया जिन्होंने जाति को भारत के लिए आवश्यक माना और बताया कि अगर जाति व्यवस्था को समझना है, तो भारत में इसकी उपयोगिता को समझइए। यह जाति समाज में सकारात्मक व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है। वहीं पर के.एम.कपाडिय़ा ने बताया कि जाति के संदर्भ में भारत में लोगों की स्थितियों में परिवर्तन हुआ है, परंतु विचारों में नहीं। इनका मत है कि भारत में जाति लोगों के रक्त में प्रवाहित होती है। दिन प्रतिदिन जाति के नकारात्मक पहलू पर आए दिन हमको देखने को मिल जाता है।
संदर्भ सूची :-
1. नगरीय समाजशास्त्र, बी.एन. सिंह और जन्मेजय सिंह
2. भारतीय समाज, श्यामाचरण दुबे