माई - बाप
रॉय विला आज दुल्हन की तरह सजी हुई थी. हर तरफ कृतिम प्रकाश की जगमगाहट थी. वैसे भी हमारा जीवन कृतिम प्रकाश में ही जगमगाता है. सूरज के तेज के सामने टिकने की हमारी न औकात बची है न क्षमता. गार्डेन का पोर-पोर रोशनी से जगमग कर रहा था. फूलों के पौधों पर फूल की जगह लाइट के बल्ब खिले थे और घर के कोने- कोने में फूल खुशबू बिखेर रहे थे. जैसे जीते जी इंसान पर लानत भेजने के हम आदी हैं लेकिन मरने के बाद ही कहते हैं फलां बहुत अच्छा था. अपनी इच्छाई को साबित करने के लिए हमें मरना पड़ता है. हमें डाली पर खिला फूल कहां भाता है, जब तक उसे तोड़कर उसकी खुशबू न सूंघ लें, हमें उसकी खुशबू नहीं समझ आती और उस खुशबू के लिए हम उसे तोड़ ही लेते हैं. अक्सर ही डाली पर खिले फूलों की खुशबू हमें महसूस नहीं होती. रॉय विला में भी हर तरफ चंपा की बगिया खिली थी. भगत चाचा भी चहक - चहककर काम करवा रहे थे. विला को सजाने की जिम्मेवारी उन्हीं की थी. वो अपने उत्साह के दोगुने जोश से काम में लगे थे और लगें भी क्यों न ? चार साल बाद जो घर का लाडला विदेश से वापस आ रहा था. वैसे वो आठवीं क्लास से ही घर से बाहर रहा. वो दिल्ली में पढ़ा –लिखा. फिर उसे कैंब्रिज भेजा गया, एमबीए करने के लिए और फिर वो वहां से वापस नहीं आना चाहता था लेकिन बहुत कहने- सुनने के बाद वो भारत वापस आने के लिए राजी हो गया. इस कारण घर के सभी लोग खुश थे कि इकलौता वारिस वापस आ रहा था और भगत चाचा भी बहुत खुश थे क्योंकि उनका अवि बाबा जो आ रहा था. भगत चाचा ने उसे गोदी में खिलाया था. उसके लिए रोज घोड़ा वही बनते थे. जब भी अवि यानी अविनाश गुस्सा होता, बस भगत चाचा के घोड़ा बनते ही वो खिलखिलाने लगता. भगत बीच की लॉबी में खड़े होकर यही सोच रहा था कि अवि बाबा यहीं तो उसकी पीठ पर चढ़ा करते थे और यही वो तीन- तीन घंटे घोड़ा बनकर उसे घुमाया करता था. तभी आवाज आई.
‘भगत... ओ भगत...’ भगत की तंद्रा टूटी और वो बोला
‘जी मालकिन आया...’
‘ये क्या !!! तू यहां खड़े- खड़े क्या सोच रहा है ? अभी तक सीढ़ियों की रेलिंग पर चंपा की लड़ियां नहीं लगीं.’
‘जी मालकिन, बस यही बाकी है. दस मिनट में लग जाएगी.’
‘तू जानता है फ्लाइट आ चुकी है. अवि आधा- पौन घंटे में ही घर आ जाएगा.’
‘बस मालकिन दस मिनट में सब काम खत्म हो जाएगा.’ कहकर भगत काम में लग गया. जैसे ही वो सीढ़ी पर चढ़ा उसे फिर याद आया कि कैसे अवि बाबा एक बार सीढ़ी से गिरे थे. उस समय वो सात साल का था और भगत उसे बचाने के लिए भागा था. अवि को बचाते – बचाते उसकी अपनी चार साल की बेटी को चोट लग गई थी. उसके माथे पर तीन टांके आए थे लेकिन भगत ने अवि को बचा लिया था. इस बात को बीस बरस हो गए लेकिन उसकी बेटी के माथे पर वो निशान आज भी बना हुआ है जो एक गड्ढे की तरह दिखाई देता है. उस गड्ढे को देखकर भगत कहता कि चांद में कितने सारे गड्ढे हैं फिर भी वो खूबसूरत है तो मेरी बेटी के माथे पर तो एक ही है. देखना इसके गड्ढे में धन – दौलत और ढेर सारी खुशियां ही भरेंगी. भगत के न जाने कितने दुख- सुख इस विला से जुड़े थे. भगत ने कुछ सोचा, मन ही मन कुछ कहा और फिर काम में लग गया. 10 मिनट में वाकई फूलों की सजावट का खत्म हो गया था और वो बाहर आकर अवि बाबा का इंतज़ार करने लगा. वैसे तो अवि विदेश से चार साल बाद लौट रहा था लेकिन वो आठवीं से दिल्ली में पढ़ा और हॉस्टल में रहता था. कभी- कभार ही रामपुर आता था. जब –जब वो घर आता, घर में उत्सवी माहौल हो जाता. उसकी पसंद का खाना, मिठाई और कचौड़ी की महक घर में भरी रहती. तभी उसे याद आया कि अवि को जलेबी और गुलाबजामुन बहुत पसंद हैं. उसने आकर मालती से कहा...
‘मालकिन क्या मैं गुलाबजामुन ले जाऊं ? अवि बाबा को मैं अपने हाथों से खिलाऊंगा.’
‘क्यों ? मैं करूंगी न उसको तिलक. तो मैं ही मुंह मीठा कराऊंगी.’
भगत मुंह लटकाकर जाने लगा तो मालती ने कहा
‘अच्छा, मुंह मत बना, तू भी उसको खिला देना ठीक ? खुश ?’
‘जी मालकिन...’ भगत खुश होकर फिर बाहर आ गया. जैसे ही बाहर आया. गाड़ियों का काफिला अंदर आने लगा. तीसरी गाड़ी में अविनाश और गुप्ता भाई थे. अविनाश गाड़ी से उतरा. बालों में बरगेंडी कलर का हल्का- सा टच, काला बड़ा- सा चश्मा, ग्रे कलर का पैंट और काला कोट चमचमाते जूते और चेहरे पर चमक. मेन गेट पर पहुंचते ही मालती ने उसको टीका लगाया और जैसे ही आरती उतारने लगी वो बोला-
‘क्या मां, ये सब क्या है ? मैं मंदिर की मूर्ति नहीं हूं जो आरती उतार रही हो. आरती छोड़ो और गले लगो.’ उसने आरती की थाली किसी और को पकड़ा दी और मां को गले लगा लिया. तब मालती का मुंह उतर गया. फिर भी उसने कहा अच्छा मुंह तो मीठा कर ले. मालती ने जैसे ही उसे गुलाबजामुन खिलाया उसने कहा ‘बस थोड़ा- सा.’ तभी भगत आगे आया और एक गुलाब जामुन उठाया और बोला
अवि बाबा,
‘एक मेरी तरफ से...’
और झट से उसने गुलाबजामुन उसके मुंह में डालने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. अवि ने डांटते हुए कहा-
‘क्या है अविनाश ? देख नहीं रहे हो कि अभी मां ने खिलाया, मुझे नहीं पसंद ये सब और तुम फिर मुंह में डाले दे रहे हो.’
जैसे ही अविनाश ने हाथ झटका गुलाबजामुन का रस उसके कोट पर गिर गया. उसने गुस्से से कहा-
‘कर दिया न खराब कोट ? पता है कितना महंगा है ? 25 हजार का है. कभी देखे हैं इतने रुपए ? और ये अवि बाबा- अवि बाबा लगा रखा है. अब मैं छोटा नहीं रहा. अवि साहब कहो, समझे ?’
ये कहना था कि भगत उसे देखता रहा. उसके मुंह से ‘साहब गलती हो गई’, ये भी नहीं निकला... बस आंखे नम हो गईं. सब अंदर चले गए. भगत वहीं जड़ हो गया था. उसके सामने न जाने कितने मंज़र नाचने लगे. कुछ खुशी के और कुछ दुखों के. उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उसका दुलारा अवि बाबा उससे इस तरह बात करेगा. उसका नाम लेगा. वो बड़- बड़ाने लगा कि भगत तेरी ही गलती है. अवि बाबा बड़े हो गए. विदेश से पढ़कर आये हैं. अब वो बहुत पढ़ गए हैं, अब भला वो उन्हें चाचा क्यूं कहेंगे ? बड़े घरवाले तो ऐसे ही होते हैं. वो धीरे- धीरे अपने घर की तरफ लौटने लगा. बाहर आकर उसने एक पेड़ के नीचे गुलाबजामुन रख दिया. उसका घर पास ही में था. उसे इतनी जल्दी घर आया देख उसकी पत्नी सुखमनी ने कहा -
क्यों जी, इत्ती जल्दी काहे को आ गए ? अभी तो अवि बाबा आएं होंगे और तुम घर आ गए ? भगत ने भावशून्य चेहरे से कहा-
‘अवि बाबा नहीं, अवि साहब बोल. अब अवि बाबा बड़े हो गए. बिदेस से पढ़कर आए हैं...’
‘क्यों क्या हुआ ?’ सुखमनी ने थोड़ा घबराते हुए पूछा...
‘कुछ नहीं, अभी मुझे परेसान मत कर’ और अंदर जाकर लेट गया.
नमस्कार, दोस्तों मैं हूं आपकी सूत्रधार. आपको भूतकाल में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी दे दूं, यानी पार्श्व ने (तबके वर्तमान ने भविष्य को) वर्तमान को कैसे बदला ताकि आपको सब कुछ स्पष्ट नज़र आए. यहां इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अवि बाबा की एक डांट ने भगत के पूरे जीवन को सामने लाकर खड़ा कर दिया. दोस्तों ज़िंदगी जितना सरल दिखाई देती है, दरअसल उतनी सरल होती नहीं. ज़िंदगी की एक ख़ासियत यह भी है कि आपके सामने वही सब आता है जिसकी आपने कल्पना नहीं की होती. वो चाहे भले को लेकर हो या बुरे को लेकर. जन्म लेने के साथ ही इंसानी जीवन की कठिनाई शुरु हो जाती है. नन्हे शिशु को भी छाती चूसकर दूध पीना पड़ता है. यानी जीवन जीना है तो काम करना है. फिर पढ़ाई की मार. एक बार मेरे साहबज़ादे ने भी खीझकर कहा था कि ये क्या ज़िंदगी है... पढ़ो, पढ़ो- पढ़ते रहो. ये करो, वो करो. इससे अच्छा तो जीवन होता ही नहीं. फिर बच्चा किशोर वय में आता है. स्वप्नलोक में वो घर बनाता है. जिसमें वो सुंदर परियों से घिरा रहता है. लड़कियों में लड़के और लड़कों में लड़कियां रमने लगती हैं. इसके साथ ही किशोर बच्चे सदाचार, ईमानदारी, निष्ठा, सच्चाई, प्रेम के गीत गाते हैं. हर बुराई पर वो शपथ खाते हैं कि उसको वो जड़ से मिटाएंगे, रिश्वत, घूस, झूठ- मक्कारी सबको ख़त्मकर नया समाज बनाएंगे. वो काफ़ी हद तक प्रयास भी करते हैं लेकिन जैसे –जैसे उम्र बढ़ती है ये सारी अच्छाइयां कहीं पीछे छूटती जाती हैं और वो बच्चा इस झूठे समाज का एक हिस्सा बन जाता है.
भगत भी कभी ऐसा ही था. बहुत जोश- हिम्मत वाला. समाज को सुधारने वाला. वो अपने गुस्से की वजह से घर में अक्सर डांट खाता था. वो तमाम सामाजिक बुराईयों के खिलाफ़ था. दहेज का धुर विरोधी. रिश्वतखोरी के खिलाफ, झूठ से नफ़रत करने वाला, धोखा और बेईमानी उसने कभी बर्दाश्त नहीं की. रामपुर शहर की एक बस्ती में वो रहता था. बस्ती में उसका कोई दोस्त नहीं था. कोई अपने बच्चे को उसके साथ नहीं बैठने देता था क्योंकि सबको उसी समाज में रहना है, उसी के साथ चलना है. उन्हीं साहूकारों से उधार लेना है जिनकी वो ख़िलाफ़त करता था. वो सबको खुलकर चोर कहता. रिश्वतखोर कहता. किसी तरह उसने दसवीं पास की और उसे फिर उसे बस्ती की ही एक दुकान पर लगा दिया गया. वहां उसने धनिया पाऊडर में मिलावट होते देखी और तभी उसने जाकर बस्तीवालों को बता दिया कि लाला तो धनिया में मिलावट करता है. उसे तत्काल दुकान से निकाल दिया गया और लाला ने ये भी कहा कि भगत ने रुपए उधार मांगे थे, उसने नहीं दिये तभी उसे बदनाम कर रहा है. लाला को दोबारा धंधा जमाने में वक्त लगा. फिर उसके पिता ने उसे एक गत्ते का डिब्बा बनाने वाली फैक्ट्री में लगवाया. एक बार उसकी रात की ड्यूटी लगी. वो फैक्ट्री के गेट पर तैनात था. उस दिन फैक्ट्री से तीन ट्रक गत्ते जाने थे लेकिन जैसे ही चौथा ट्रक निकला भगत ने उसे रोक दिया और मैनेजर से कहा कि-
‘ये ट्रक नहीं जाएगा. आर्डर तो तीन ट्रक का ही है’. मैंनेजर ने कहा
‘तुम्हें गलत जानकारी है, चार ट्रक जाने की बात हुई है. गेट खोलो’ लेकिन उसने गेट नहीं खोला और कहा
‘तुम गलत काम कर रहे हो. मालिक का नुकसान कर रहे हो’.
‘नफ़ा- नुकसान मुझे मत बता. मैं वही कर रहा हूं जो कहा गया. बरसों से काम संभाल रहा हूं’.
‘अच्छा !! तो बरसों से ही मालिक को धोखा दे रहे हो आप ?’
‘अपनी ज़बान संभालकर बात कर. कल का आया छोकरा मुझे नसीहत दे रहा है ?’
‘नसीहत नहीं मैनेजर बाबू, जो सही है, वही कर रहा हूं.’ फिर उसने धमकी दी कि
‘मैं मालिक को आपकी सारी बात बताऊंगा. आपकी पोल खोलूंगा. अब तक जो आपने मालिक को धोखा देकर बेईमानी की उसकी ख़बर दूंगा मालिक को’.
मैनेजर ने कहा
‘जब तू यहां रहेगा तब न पोल खोलेगा ? अभी तेरा हिसाब बनाता हूं.’ उसने उसे तुरंत बर्ख़ास्त कर दिया और सेठ को फोन कर कहा कि भगत गत्ता चुरा रहा था इसलिए उसे निकाल दिया. जब अगली सुबह वो सेठ से मिलने फैक्ट्री पहुंचा तो सेठ ने कहला दिया कि चोरों को फैक्ट्री में जगह नहीं दी जाएगी और न ही वो मिलेंगे. तब भगत ने हल्ला मचाया था कि सेठ जी मैं चोर नहीं, ये मैंनेजर चोर है जो आपके गत्ते बाहर ले जा रहा था. न यकीन हो तो दूसरे गार्ड से पूछ लीजिए लेकिन सेठ ने कोई बात नहीं की. भगत ने कहा कि मैं आपके सामने उस गार्ड से गवाही दिलवाऊंगा जिसके सामने कल ये सब हुआ. जब वो चीख़ने लगा तो सेठ ने उसे बाहर निकलवा दिया. वो नाइट ड्यूटी वाले गार्ड के घर पहुंचा और उससे कहा, भाई सेठ के सामने चलकर सच बताओ तो उस गार्ड ने मनाकर दिया. उसने कहा-
‘भगत भाई मेरा परिवार है. दो छोटे बच्चे हैं. बूढ़े माता- पिता हैं. तुमको नौकरी से निकाल दिया तो तुम्हें काहे का फरक पड़ेगा ? तुम्हारा बाप जो है कमाने वाला. फिर तुम्हारा ब्याह भी नहीं हुआ जो जोरू और बच्चों की जिम्मेवारी हो. मेरे ऊपर तो पूरे परिवार की जिम्मेवारी है. मुझे नैकरी से निकाल दिया तो कैसे चलाऊंगा परिवार का खरच ? इसलिए भाई मुझे माफ़ करो. मुझे तुम्हारे साथ हमदर्दी है पर भाई तुम्हारे लिए गवाही न दे सकूंगा.’
’भाई, मुझे हमदर्दी नहीं, तुम्हारी गवाही चाहिए’
‘न भाई गवाही तो न दे सकूंगा’
‘तो तुम्हारे सामने एक निर्दोष को निकाल दिया गया, झूठा इलज़ाम लगाकर, तुम्हारा कोई फरज नहीं है कि उसका साथ दो, सच का साथ दो’
‘भाई, सच का साथ देकर मेरे घर का पेट नहीं भरेगा, मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. तब कैसे गुज़ारा करूंगा. मैं अकेला होता तो कर भी लेता. मेरा फरज पहले घर का पेट भरना है या मेरी दूसरी नौकरी का जुगाड़ कर दो पहले, तो बोल भी दूं सच. गवाही दे दूं जाकर. अभी मैं गवाही दे दूं, तो साहब मुझे भी नौकरी से निकाल देंगे. फिर घर- परिवार का क्या होगा ?. ईमानदारी, गवाही का तब मतलब है जब टेंट में रुपए हों.
भगत गुस्से से बाहर निकल आया. घर पहुंचा और बाहर बैठकर लकड़ी से जमीन खुरचने लगा. वो गुस्से से बड़बड़ाने लगा कि मैनेजर क्या समझता है खुद को ? उसको न मजा चख़ाया तो मेरा नाम भगत नहीं. तभी उसकी मां ने कहा
‘अरे, करमजले, खुद तो कुछ करता न है, तेरे बापू का जो काम है, वो भी छुड़वा देगा क्या ? खुद तो आज तक धेला न कमाया. अरे, अब किसको मजा चख़ाएगा, उस मैनेजर को ? रात में उठवा के फिकवा देगा तुझको और हम सबको.’
‘अरे ऐसे- कैसे फिकवा देंगे ? कोई जबरदस्ती है क्या ?’
‘हां, यही समझ ले. तू किस- किससे लड़ेगा ?’
‘अम्मा तू ही कहती थी न कि चोरी बुरी बात है. चोरी करने वाला भी गुनहगार है और उसका साथ देने वाला और जो उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता, वो भी तो दोषी ही होता है न ?’
‘हां, कहती थी, लेकिन हम गरीब हैं. किससे लड़ेंगे जाकर ? जब पेट भूखा रहेगा तो सारी ईमानदारी और सच्चाई धरी रह जाएगी. खाली पेट तो बेईमानों से भी न लड़ा जाएगा. हम दोनों की तो उम्र हो चली. हम तो पैंतालिस की उमर में ही साठ के लगने लगे. ऐसे ही रहा तो न तू कमाएगा और न तेरे बापू को आराम मिलेगा. अरे तेइस बरस का हो गया. कल को तेरा घर बसेगा तो क्या खिलाएगा अपनी जोरू को ? रमनी के बापू तुझे रमनी का हाथ भी न देंगे.’
‘ठीक है न दें हाथ लेकिन मुझे गलत का साथ नहीं देना. क्यूं तूने मुझे सही राह पे चलना सिखाया ? तुझे तो सिखाना चाहिए था कि बेटा जा- जुआ खेल, चोरी- मक्कारी कर, जिस पत्तल में खाना उसमें छेद जरूर करना.’
तभी भगत के बापू ने आकर उसको थप्पड़ मारा. उसने चिल्लाते हुए कहा
‘अगर शांति से नहीं रहना तो निकल जा घर से. हमारे बस में नहीं कि तुझ जैसे सांड को बिठाकर खिलाएं. दस जगह काम पर रखाया मगर कहीं टिकता ही नहीं.’
भगत ने भी उसी तरह चिल्लाकर कहा...
‘तो क्या करूं ? मेरी क्या गलती ? कैसे गलत काम को सही कहूं ? वो चोरी कर रहा था तो क्यूं न कहूं ? लाला ने घोड़े की लीद मिलाई धनिया पाऊडर में, तो क्यों न बताता सबको ? मेरी क्या गलती ? यही कि सच बोला ?’
‘हां, यही गलती तेरी कि तूने सच बोला. अरे, इस दुनिया में जीना है तो इसी तरह से जीना होगा. ये बड़े लोग हैं. जाने कैसे – कैसे धंधे करते हैं लेकिन हमें क्या करना. कमाना तो इन्हीं के घरों से है. बस अपना काम ईमानदारी से कर. दूसरों के पचड़े में मत पड़ और अगर नहीं सुधरना तो घर से निकल जा. कुछ दिन भूखा- प्यासा रहेगा तो सारा इंकलाब भूख के आगे दम तोड़ देगा और रमनी की बात भी मत करना. तेरा ब्याह उससे नहीं होगा. हमारे बस में नहीं कि तुझे खिलाएं और उसको भी खिलाएं. फिर बाल- बच्चे हो जाएंगे तो क्या करेंगे हम बुड्ढ़े- बुड्ढी ? ऐसे ही जीना सीख या फिर जा सड़क पर सच का झंडा लेकर नारे लगा. कोई नहीं आएगा तेरे साथ. हम मेहनत मजूरी करने वाले. जिंदाबाद- मुर्दाबाद करेंगे तो हम ही मुर्दा हो जाएंगे. अब सोच ले कि क्या करना है.’
भगत घर से निकल गया. वो मुरादाबाद चला गया. हाथ में 20 रुपए थे. अब उसे लगा कि क्या करे ? कहां रुके ? वो कई दुकानों पर गया कि कोई काम मिल जाए लेकिन कुछ नहीं मिला. उसने एक रिक्शावाले से बात की कि किराये पर रिक्शा ही चला ले. उस रिक्शेवाले ने उसे रिक्शा मालिक से मिलवा दिया. उसके बीस रिक्शे चलते थे. उसने उसके लिए भी एक रिक्शे का इंतजाम किया और तय किया कि या तो जो कमाओगे उसका आधा देना होगा या रोज सौ रुपए देने होंगे. उसने कहा जितना कमाऊंगा आधा दूंगा. बात पक्की हो गयी. पहले दिन उसने केवल चालीस रुपए कमाए और बीस रुपए उसे मालिक को देने पड़े. अब आज के समय में लोग टेम्पो से जाने लगे तो रिक्शा कौन पूछे ? फिर उसने अपने साथियों से पूछा कि तुम सब कैसे गुजारा करते हो ? तो उन्होंने बताया कि हम ज़्यादा मेहनत करते हैं. अक्सर डेढ़ सौ रुपए तक कमा लेते हैं, कभी- कभी कम रुपए में भी सवारी उठाते हैं लेकिन मालिक को बताते हैं कि साठ रुपए मिले, पचास मिले और आधा देकर बाकी बचा लेते हैं. इस पर भगत उखड़ गया और कहा तुम लोग चोरी करते हो. क्या फरक है तुममे और लाला में ? मैं चोरों का साथ नहीं दूंगा और नही चोरी करूंगा. इस पर उसके साथियों ने आपस में बात की और तय किया कि इसे हटा दिया जाए. कहीं किसी दिन ये मुसीबत न खड़ी कर दे और मालिक को बताया कि वो ठीक नहीं लगता. रिक्शा तो उसने पूरे दिन चलाया मगर आपको कम रुपए बताए. आप देख लीजिए. फिर आप न कहना कि हमें बताया नहीं. मालिक ने उससे रिक्शा रखा लिया. अब बिना काम के वो कब तक रहता. उसे रमनी और मां की याद भी आने लगी. वो रामपुर वापस आया तो देखा कि मां उसके जाने के बाद बीमार हो गई थी. जैसे ही वो आया तो मां ने उसे सीने से लगा लिया लेकिन उसके बापू ने उसी तेवर से कहा-
‘क्यों सच्चाई का भूत उतर गया ? जग को सुधारने का बीड़ा अभी भी कंधे पर चढ़ा है कि पांव तले रौंद दिया उसे.’
भगत ने धीरे से कहा कि
‘अब आप जैसा कहोगे वैसा ही करूंगा.’
इस पर उसके बापू ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा
‘बेटा, मैं तेरा दुसमन नहीं हूं. तू पांच बच्चों में अकेला जिंदा बचा. तेरी फिकर रहती है मुझे. तेरी मां ने भी तुझमें अच्छे संस्कार डाले. मैंने कभी बेईमानी नहीं की. हमेशा सच्चाई और ईमानदारी से मेहनत करके ही खाया. अरे, हम मेहनत मजूरी करने वाले क्या धोखाधड़ी करेंगे ? और किसके खिलाफ बोलेंगे ? और खिलाफत करने लगे तो फिर जियेंगे कैसे ? बस एक ही रास्ता है कि कर लें खत्म अपना जीवन. आत्महत्या कर लें. तेरी मां को जहर दे दूं, तुझे खिला दूं फिर खुद भी जहर खा लूं क्योंकि क्या पता फिर तेरी मां का क्या हो, किसके दरवाजे भटकेगी वो. हमारे पास जमीन जायदाद कहां हैं ? हम तो काम करने वाले ठहरे. कुछ गलत भी देखें तो... हमें तो बस चुप ही लगा जाना है, नहीं तो कहां से खाएंगे ? और किस- किसका विरोध करेंगे ? अगर सबके बारे में बोलना शुरू कर दूं तो कोई भी काम नहीं देगा. हां, हम इतना जरूर कर सकते हैं कि अपना काम ईमानदारी से करें.’
‘हां, बापू समझ गया. मैंने भी कुछ दिन में दुनिया देख ली. सभी बेईमानी कर रहे हैं लेकिन मैं बेईमानी नहीं करूंगा. अपना काम पूरी ईमानदारी से करूंगा. दूसरों के बारे में आंख, कान बंद रखूंगा.’
अगले दिन वो रमनी से मिलने गया. रमनी उसे देखकर रो पड़ी. रोते- रोते बोली. इतने दिन कहां रहा ? तुझे मेरी याद भी नहीं आई.’
भगत ने कहा ‘बहुत आई तभी तो वापस आ गया सब छोड़कर.’
‘क्या छोड़कर आया ?’
‘दूसरों को सुधारने और झूठ के खिलाफ अपनी आवाज को वहीं दफन कर आया. मैं तेरे बिना नहीं रह सकता. क्या फायदा ऐसी जिंदगी का जिसमें प्यार न हो, जोरू न हो ? हमने सपने देखे थे हमारे बच्चे होंगे पर मैं तो इस काबिल भी नहीं कि तुझे खिला सकूं. फिर सादी करके कैसे निभाऊंगा जिम्मेवारी ? तू जानती है न, कि घर – परिवार के लिए आदमी को कैसे- कैसे गलत धंधे करने पड़ते हैं.’
‘तू हिम्मत न हार भगत. मैं हूं न तेरे साथ. तू सच्चाई का साथ मत छोड़ना लेकिन जो जैसे जी रहा है, उसको जीने दे. हम क्या कर लेंगे ? अपने पास रुपए – पैसे हों, अपना घर- द्वार हो, अपना काम हो तो हम किसी के खिलाफ लड़ भी सकते हैं. तू नहीं जानता, तेरे जाने के बाद चाची कितना बीमार हो गई थीं. तेरा उनके लिये भी तो कोई फरज है कि नहीं ?’
‘हां है, सबके लिए है फरज’ भगत ने कहा.
‘मैं तुझे सिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी.’ रमनी ने कहा.
‘रमनी, मां ने मुझे सदाचार की शिक्षा दी. वो पढ़ी- लिखी नहीं है. फिर भी यही कहते- कहते बड़ा किया कि गलत राह पर, झूठ की राह पर मत चलना. तो क्या परिवार के लिए मुझे भी झूठ की राह चलना होगा.’
‘नहीं भगत, तू कोई बुरा काम मत करना. मैं भी कोई बेजा फरमाइस नहीं करूंगी. जितना भी लाएगा, उसी में खुस रहूंगी. हम खेत पर तो काम कर सकते हैं. तेरे साथ खेत पर भी काम करूंगी और हम प्यार से रहेंगे. अरे... मरने दे, इन बड़े लोगों को. इनके पास जितना भी पैसा आता है, इनकी भूख उतनी ही बढ़ती रहती है. बस हम प्यार से रहेंगे और हमारा एक ही बच्चा होगा. उसको खूब पढ़ाएंगे जिससे वो बड़ा आदमी बने.’
‘लेकिन रमनी क्या खेत पर काम करने से हमें इतना रुपया मिल जाएगा कि हम अपने बच्चे को अच्छी तरह से पढ़ा सकेंगे.’
‘हां भगत, फिर मैंने सिलाई का काम सीखा है. मैं सिलाई भी करूंगी. तेरा हाथ बटाऊंगी. हम प्यार से रहेंगे और प्यार साथ हो तो सारी मुसकिलों से हम निपट लेंगे.’
आज वो भगत से मिलकर बहुत खुश थी. उसने अपने बापू से कहा कि जहां वो माली का काम करते हैं, कोसिस करके वहीं भगत को भी लगवा दें.
अगले दिन रमनी के पिता उसे लेकर रॉय विला पहुंचे और रास्ते भर डांटते रहे. उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि जिस दिन बेटी को रोते देखा और अगर विला जाकर कोई गड़बड़ी की तो रमनी को तुरंत घर वापस बुला लेगा. रमनी के पिता ने उसे रतनलाल रॉय से मिलवाया और कहा कि साहब ये मेरा होने वाला दामाद है. इसे कोई नौकरी दे दीजिए. बहुत मेहनती और ईमानदार है सरकार.
रतनलाल जी ने उसे बच्चे को संभालने की जिम्मेदारी दे दी.
रतनलाल के बाबा अंग्रेजों के यहां काम करते थे. उनसे खुश होकर अंग्रेजों ने उन्हें रॉय की उपाधि दी और आलीशान कोठी भी दी थी. अब भी रॉय परिवार की वही शान- शौकत थी. काफ़ी सारी ज़मीन –जायदाद थी जिससे रॉय परिवार ऐश का जीवन गुज़ार रहा था.
कुछ समय बाद भगत- रमनी की शादी हो गई. जब भगत ने उनके घर में काम करना शुरू किया तब अवि दो साल का था. तबसे वो हर वक्त अवि के साथ रहता. डेढ़ साल बाद रमनी ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया. उसने कहा- ‘हे ईश्वर हम तो एक ही बच्चा चाहते थे और तुमने दो- दो दे दिये. अब तो दोनों को पढ़ाना- लिखाना होगा. कैसे पूरे होंगे खर्च?’ वो कभी- कभी अपने बच्चों को वहां ले जाता. रतनलाल जी नहीं रहे. उनके बाद उनके बेटे रमनलाल ने भी भगत को नहीं हटाया और अवि के हॉस्टल जाने के बाद भी वो घर के अन्य कामों की देख- रेख करता रहा. वहां भी वो मन मारकर जीता रहा. जब भी वो रॉय विला की कोई बात करता तो रमनी उसे अम्मा – बापू और अपने बच्चों छिमिया और गन्नू का वास्ता देकर रोक लेती. भगत मन मारकर अपने परिवार के लिए काम करता रहा. रतनलाल जी की बात और थी मगर रमनलाल अय्याश था. लड़कियां उसकी कमजोरी थीं. विला में अलग से एक ऑफिस बना हुआ था, वहीं से रमनलाल अपना कामकाज संभालता और उसी में अलग से एक गेस्ट हाउस बना था जिसमें अक्सर बिजनेस के संबंध में आने वाले मेहमान ठहरते. वहां अक्सर ही नई- नई लड़कियां आतीं और कुछ देर बाद चली जातीं. एक बार भगत ने अपने ससुर को इस बारे में बताया तो उसके ससुर ने कहा अपने काम से काम रखो. बड़े लोग हैं. अपना व्यापार कैसे करते हैं, इसे जानने की ज़रूरत नहीं और कोसिस भी मत करना. उसने कई बार मालकिन को रोते हुए देखा था. जब भी रमनलाल मालती के लिए फूलों का गुलदस्ता और चॉकलेट भिजवाते तो मालती उदास हो जाती और आंखें नम. शुरू में भगत ने पूछा कि मालिक तो आपके लिए फूल और चाकलेट भेजते हैं तो आप उदास क्यों हो जाती हैं. मालती ने उदास होकर कहा था- तू नहीं समझेगा. फिर सहसा गुस्से से बोली ‘अपने काम से काम रख. फालतू बातों में दिमाग मत लगाया कर.’ धीरे- धीरे उसे समझ आने लगा कि जिस दिन मालिक फूल और चॉकलेट भिजवाते हैं, वो घर नहीं आते और उनकी रात गेस्ट हाउस में ही गुजरती है. उसे ये मालूम करने में देर नहीं लगी कि वो ऑफिस के गेस्ट हाउस में काम के लिए नहीं बल्कि रंग- रलियां मनाने के लिए रुकते हैं. उस रात गेस्ट हाउस में कवाब और शबाब की महफिल जमती. एक बार फिर जब उसने मालती से कहा कि मालकिन आपको पता है कि पीछे ऑफिस में अक्सर नई- नई लड़कियां आती हैं ? आप जानती हैं वो क्यूं आती हैं ?
मालती ने गुस्से से एक थप्पड़ लगाया था और चेतावनी दी थी. अगर नौकरी प्यारी है तो अपनी आंख, नाक, कान और जुबान बंद रख और दिमाग को ताला लगा दे, वर्ना निकाल दिया जाएगा यहां से. समझे ? उस दिन के बाद से उसने अपनी सभी इंद्रियां निष्क्रिय कर दी थीं. वो केवल अपने काम करता और परिवार के साथ खुश रहता.
अवि बाबा के गुस्सा होने वाले एक पल के कारण भगत पिछले बरसों के कई हिस्सों से गुजर गया. कितना क्रोधी, जुनूनी और समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ने वाला आज अपने परिवार की खातिर सब कुछ अनदेखा कर रहा था. उसके आदर्श समाज से टकराकर चूर हो चुके थे. वास्तविकता की धरती पर वो घर- परिवार की ख़ातिर सच, ईमानदारी और उसूलों की फ़सल नहीं उगा सका. ईमानदारी और सच की राह पर चलने वाला चोरी- मक्कारी और झूठ के खिलाफ आवाज उठाने वाला भगत अपनी जबान पर खामोशी का ताला जड़ चुका था और बड़े लोगों ने उसकी भी कदर नहीं की. जिसकी खातिर अपनी बेटी की परवाह नहीं की, उसके माथे पर हमेशा के लिए निशान रह गया, आज उसने भी कुत्ते की तरह दुत्कार दिया. उसे खुद से नफ़रत होने लगी थी. उसका दिल टूट गया था. आज वो अपनी पूरी हिम्मत हार गया था. जिस बच्चे को गोदी खिलाया, पीठ पर बिठाकर दौड़ता रहा, उसी ने आज सबके सामने उसकी इस कदर बेइज्जती की कि वो वहां रुक भी न पाया. वो कितना प्रेम करता था अवि बाबा से. मगर नौकरों को प्रेम का हक कहां ? वो तो नौकर ही होते हैं. जिन बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, वहीं हाथ बड़े होने पर थप्पड़ मारते हैं. अपने बच्चों को चाहे गोदी लेकर न टहलाएं लेकिन मालिक के बच्चों को एक मिनट भी रोने नहीं देते और वही बच्चे बूढ़ी आंखों की कोरों में आंसुओं का कुआं खोद देते है. भगत की आंखों से आंसू बह रहे थे. परिवार के लिए क्या- क्या नहीं करना पड़ा. उसने वो जीवन जिया, जो उसके सपनों, आदर्शों और सिद्धांतों के एकदम विपरीत था. उसने बहुत चाहा मगर सच की राह नहीं चल पाया. आंखें होते हुए भी उसने पट्टी बांध ली थी.
तभी उसका बेटा खुश होते हुए अंदर आकर कहता है कि मां – पापा देखो मेरा रिज़ल्ट आ गया. मैं मैजिस्ट्रेट बन गया. गन्नू ने पीसीएस जे की परीक्षा दी थी.
परेशान और सुबकते भगत ने आश्चर्य से कहा- ‘क्या...’
‘हां पापा, सच. मैं अब मजिस्ट्रेट बन जाऊंगा.’ जो आंसू अभी तक शांत दरिया थे वो झरने की तरह गिरने लगे. उसने गन्नू को गले से लगा लिया और बोला-
मेरे बच्चे मैं तो सच की राह तो चला लेकिन अपने आदर्शों, सिद्धांतों को दफन करके. जमाने की ठोकर खाकर, दर- दर भटककर तेरे बाबा- दादी और मां के प्रेम के आगे झुककर ईमानदारी की राह पर तो चला मगर बुराईयों को देखकर भी खामोश रहा क्योंकि मैं ज्यादा पढ़ नहीं सका. मालिक को ही माई – बाप मानकर चुप रहा. मगर अब तेरा कोई माई- बाप न है. तू कभी रुपए लेकर मत बिकियो. जो आदर्श मैं नहीं बचा सका तू जरूर बचइयो वर्ना दुनिया से अच्छाई उठ जाएगी. वो जिंदा रहनी चाहिए, हमारे लिए लेकिन तू गलत करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देना बेटा. आंखें मत मूंदियो.
वीना श्रीवास्तव
(साहित्यकार व स्तंभकार)
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