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Tuesday, January 28, 2020

‘निराला’ के काव्य में सामाजिक यथार्थ

ज्योति वर्मा


शोधार्थी


मो. ला. सु. वि.उदयपुर (राज.)


हिन्दी साहित्य में छायावादयुग को दूसरा ‘स्वर्णकाल’ के नाम से भी जाना जाता है।छायावादी युग के चार प्रमुख कवियों में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जो कि छायावाद के चार स्तम्भों में से एक प्रमुख कवि माने जाते हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में रहस्यवाद, परम्परावादी व स्वच्छंदता, यथार्थवाद एवं प्रगतिवाद आदि पर विभिन्न प्रकार से अपनी लेखनी को सुशोभित किया है।इनकी साहित्यिक प्रतिभा बहुमुखी थी। इन्होंने विभिन्न साहित्य–रूपों में उत्कृष्ट रचनाएँ प्रदान की हैं। काव्य, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, आलोचना आदि विविध क्षेत्रों में इनकी लेखनी गतिशील रही। इनको सर्वाधिक प्रसिद्धि कविताओं से प्राप्त हुई। इनका जन्म बसंत पंचमी को 21 फरवरी 1899 को मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) में हुआ। इनके बचपन का नाम सूर्यकुमार था। पंडित रामसहाय तिवारी जो महिषादल में सिपाही की नौकरी किया करते थे। इनकी आयु जब तीन वर्ष की हुई तब इनकी माँ का देहांत हो गया। महायुद्ध के समय महामारी अत्यंत रूप से चारों ओर फैली हुई थी।उसमें पहले इनकी पत्नी (मनोहरा) की, फिर एक–एक करके चाचा, भाई, भाभी की मृत्यु हो गई।इनका जीवन अत्यंत उथल–पुथल एवं संघर्षों का जीवन रहा है।इनका व्यक्तिगत संघर्ष इनके युग संघर्ष का अंग रहा है। अंततः इस महान कवि का देहांत 25 अक्टूबर 1961 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में हुआ।‘‘निराला ने अपनी स्वतंत्र काव्यदृष्टि से भारतीय मानसिकता की गहरी जड़ों कोसमझकर युग–जीवन की विभिन्न समस्याओं कोअपनी लम्बी कविताओं में संकेतित और ध्वनित किया है।’’[1]


कवि व्यक्ति–सत्य के आधार पर सामंती रूढ़ियों के प्रति विद्रोह करते हैं और साथ ही सामाजिक व्यंग्य के स्वर को भी उभारते हैं। इनकी व्यक्तिमूलक, विद्रोहात्मकऔरद्वंद्वग्रस्त जीवन दृष्टि, इनकी सौंदर्यपरक कविताओं, करुणात्मक रचनाओं तथा रहस्यात्मक अनुभूतियां काव्य के मूल में हैं।जिस समाज में वो रहते थे उस समाज के वास्तविक जीवन का चित्रण अपनी विभिन्न कविताओं बखूबी किया है। अपनी कविताओं में समाज का वास्तविक दर्पण झलकाया है। समाज में हो रहे अत्याचार, शोषक का शोषित के प्रति दृष्टिकोण एवं विसंगतियों को अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के लोगों को अवगत कराया है।


‘‘निराला की अपनी साहित्य चिंता बिल्कुल दूसरे स्तर और धरातल की वस्तु थी।रूप को भेदकर सत्य को देखने की आदी उनकी दृष्टि इस बदसूरती के बावजूद उसके भीतरजीवित जन की आत्मा का सौंदर्य परखने से नहीं चूक सकती थी।’’[2]


‘विधवा’,‘भिक्षुक’,‘दीन’,‘वहतोड़तीपत्थर’,‘कुकुरमुत्ता’,‘सरोज–स्मृति’,‘रामकीशक्तिपूजा’,‘रानी और कानी’ एवं ‘डिप्टी साहब आए’इन सभी रचनाओं में सामाजिक संदर्भों में उभरे नए यथार्थ की समस्याओं को नई दृष्टिसे चित्रण किया गया है जिसमें गतानुगत सामाजिक मान्यताओं के परिवर्तन की प्रक्रिया स्पष्ट हो उठती है।


‘परिमल’काव्य में विधवा, भिक्षुक, दीन जैसी कविताओं में सामाजिक यथार्थ को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।भारतीय हिन्दू समाज ने यहां की विधवाओं के साथ जो अत्याचार किया है वह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय विधवाएँ ही हैं जो अपनी समस्त आकांक्षाओं को अपनेमें समेट सिसकी भरती हुई अपने शरीर को अतृप्ति की अग्नि में झोंक देती हैं–


‘‘वह इष्टदेव के मंदिर की पूजासी


वह दीपशिखासी शांतभाव में लीन


वह क्रूर कालतांडव की स्मृतिरेखा सी


वह टूटे तरु की छूटी लतासी दीन


दलित भारत की ही विधवा है...’’[3]


 यहां विरोध न केवल अनिष्ट यथार्थ और इष्ट देव के मंदिर की पूजा का है बल्कि एक जीवित स्त्री का अनुपस्थित इष्ट देवता के मंदिर में पूजा की तरह समर्पित होना पवित्र, उज्ज्वल किन्तु निरर्थक होने की अभिव्यक्ति है।


निराला ने अपने आसपास के जगत् को खुली आँखों से देखा इनकी ‘भिक्षुक’ कविता वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार व्यवस्था के प्रति एक गहरा सक्रिय आक्रोश व्यक्त करती है–


‘‘वह आता


दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता


पेट पीठ दोनों मिलाकर है एक,


चल रहा लकुटिया टेक,


मुट्ठीभर दाने कोभूख मिटाने को


मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता


दो टूक कलेजे...’’[4]


‘दीन’ नाम की कविता निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। वह निम्न वर्ग का व्यक्ति मूक भाव से अनेक कष्टों को झेलते हुए सब कुछ सह जाता है–


‘‘सह जाते हो


उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,


हृदय तुम्हारा दुर्बल होता भग्न,


अंतिम आशा के कानों में


स्पंदित हम सबसे प्राणों में


अपने उर की तप्त व्यथाएँ


क्षीण कंठ की करुण कथाएँ


कह जाते हो...’’[5]


कवि ने अनामिका काव्य में ‘वह तोड़ती पत्थरʼ कविता में सामाजिक विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया। सामाजिक शोषण का पर्दाफाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसमें सामान्य श्रमशील जनता का प्रतीक महिला के माध्यम से समाज की यथार्थ स्थिति को सामने रख दिया है–


‘‘कोई न छायादार


पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,


श्याम तन भरा बंधा यौवन,


नत नयन, प्रियकर्मरतमन,


गुरू हथौड़ा हाथ,


करती बारबार प्रहार


सामने तरुमलिका अट्टालिका, प्राकार...।’’[6]


वह बारबार प्रहार की चोट सिर्फ पत्थर पर ही नहीं करती, तरुमलिका अट्टालिका पर भी करती है। पूरी कविता में मूक मजदूरनी का कंठ अंत में ‘वह तोड़ती पत्थर’ सारी विषमताओं कटुताओं के बावज़ूद कर्म की निरन्तरता जीवन के यथार्थता को उभारता है।


‘कुकुरमुत्ता‘ कविता में उच्च वर्ग के द्वारा निम्न वर्ग के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया जाता है।इस कविता के माध्यम से साम्यवादी सिद्धांतों पर घातक प्रहार किया गया है। निम्न वर्ग की बस्ती का यथार्थवादी चित्र उपस्थित करते हुए गोली और बहार की कथा बताई गई है। गोली बाग़ की मालिनकी लड़की थी और बहार नवाब की नवाबज़ादी। दोनों में साहचर्यजन्य प्रेम उत्पन्न हो गया था–


‘‘साथसाथ ही रहती दोनों,


अपनीअपनी कहती दोनों


दोनों के थे दिल मिले,


आँखों के तारे खिले...।’’[7]


साम्यवादी विचारधारा के अनुसार दो विरोधी वर्ग में पैदा होकर इनकी मैत्रीकी सम्भावना नहीं हो सकती किन्तु मानवता के अनुसार मनुष्यमनुष्य का हृदय सामीप्य और एक दूसरे के प्रति बराबरी का व्यवहार करना चाहता है चाहे वह किसी भी वर्ग में पैदा क्यों न हो। कुकुरमुत्ता निराला के सामाजिक यथार्थ का वह  केंद्र बिंदु है जिसमे तत्कालीन वर्गीय दृष्टियां अपने सही रूप का इज़हार करती हैं।


‘सरोज–स्मृति’ इनकी महत्वपूर्ण कविता है। यह कविता दुखों के पहाड़ के विस्फोट में क्षत–विक्षत निराला की आत्मकरुणा का चित्र है जिसके रंगों को गहराई देने का काम अनेकानेक विषम सामाजिक सन्दर्भों ने किया है। ‘‘निराला ने आत्मकरुण कथा को सार्वजानिक व्यथा–कथा बना दिया जो व्यक्तिगत संवेदन कोसामाजिकसंवेदन से जोड़ने की निराला की अद्भुत क्षमता का परिचय देती है।’’[8] उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति में एक सरोज की ही नहीं अपितु हज़ारों लाखों सरोजों की कहानी कही है। जिनके अभाववश उनकी चिकित्सा का थोड़ा सा भी प्रबंध नहीं करा पाते वे अपने जीवन की असहाय एवं निरर्थकता पर गहरा शोक व्यक्त करते हैं–


‘‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,


कुछ भी तेरे हित न कर सका!


जाना तो अर्थगमोपाय,


पर रहा सदा संकुचितकाय


लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर


                  हारता रहा मैं स्वार्थसमर...।’’[9]         


‘राम की शक्ति पूजा’ राम और रावण की कथा के बहाने जहां एक और आधुनिक जीवन और समाज में व्याप्त द्वंद्व एवं अंतर्विरोधों को गहराई और व्यापकता के साथ चित्रित करती है। ‘‘असहाय, थके हुए, निराश और संशयग्रस्त राम के जो भी चित्र हम कविता में देखते हैं उनमें निराला की ही प्रतिछाया दिखाई देती है। अन्याय और विरोधों से जूझते हुए निराला न जाने कितनी ही बार आहत हुए।’’[10]इसलिए कविता पढ़ते–पढ़ते कभी राम के रूप में स्वयं निराला हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं–


 ‘‘धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,


धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध।’’[11]


 ‘नए पत्ते’काव्यकी पहली रचना ‘रानी और कानी’कुरूपता यथार्थ की विषमता के चित्रण की वजह से कविता के स्तर पर बहुत विश्वसनीय लगती  है। यह कविताहमारी संवेदनाओं को झकझोरने वाली है–


‘‘माँ उसको कहती है रानी


आदर से, जैसा है नाम,


लेकिन उसका उल्टा रूप,


चेचक के दाग, काली, नकचिप्टी


                  ग सर, एक आंख कानी...’’[12]   


अपनी एक आँख कानी, चेचक के दाग वाली कन्या को आदर से रानी कहना यथार्थ को देखकर भी अनदेखा करती माँ की ममता का सूचक है। पड़ोस की औरत के ताने से विचलित माँ अपनी ‘कानी रानी’ के ब्याह न होने की बात सुन मन मसोस कर रह जाती है।कुरूप रानी की पीड़ा और शारीरिक कमी दोनों ही सजीव हो उठती है। इससे उसकीजो प्रतिक्रिया होती हैवह यहाँ व्यक्त होती है। –


‘‘सुनकर कानी का दिल हिल गया,


कांपे कुल अंग


दाई आँख से


आंसू भी बह चले माँ के दुःख से...।’’[13]


उस समय समाज के जमींदारों के द्वारा निम्नवर्ग का शोषण किया जाता था। कवि नेउस सामाजिक यथार्थ को अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया हैऔर उन पर व्यंग्य भर्त्सना की है। जमींदारों के हथकंडे और भी निराले होते हैं।लगान लेकर किसी दूसरी वस्तु का प्रतिशोध लेने के लिए दावा कर देना, नज़राना लेना साधारण बात थी। वे अनेक प्रकार के हथकंडे भी काम में लाते थे, इसलिए कवि नेयहां तक लिख दिया है–


‘‘जमींदार की बनी,


महाजन धनी हुए हैं


जग के मूर्ति पिशाच


धूर्त गण गनी हुए हैं...’’[14]


‘‘डिप्टी साहब आए कविता में डिप्टी, जमींदार, दारोगा मिलकर शोषण करने वाले हैं। ये लोग गांव के किसानों से छलएवं झूठे गवाहों से किसानों के बाग़–खेत जमींदार के पक्ष में ले लेते हैं।’’[15] इस कविता में निराला ने वर्ग–चरित्र को उभारते हुएएवं वर्ग–संघर्ष का भी आभास देते हुए समाज की वास्तविक स्थिति को दर्शाया है।


सार संग्रह:–


कवि का प्रमुख ध्येय यही होता है कि अपनी रचनाओं के माध्यम से सभी को समाज की वास्तविक स्थिति से अवगत करवाएं। कवि ने समाज में हो रही जातिगत संकीर्णता, ऊंच-नीच का भेद-भाव, निम्नवर्ग की अक्षमता, ज़मींदारों के अत्याचार, महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण आदि सभी गंभीर सामाजिक मुद्दों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। कवि ने अपनी आँखों से जो देखा, अनुभव किया, साथ ही स्वयं भी जिन परिस्थितियोंसे गुजरे उन्हें हमारे समक्ष प्रदर्शित किया है। विधवा, भिक्षुक, दीन, वह तोड़ती पत्थर, कुकुरमुत्ता सरोज-स्मृति, रानी और कानी सभी में किसी न किसी समस्या से जूझ रहे उन निम्न-वर्ग के लोगों का चित्रण किया है। सभ्य समझाजानेवाला आज का ये समाज अपने ही निम्न-वर्ग के साथ अनुचित व्यवहार करता है तथा आज भीनिम्न-वर्गकोउपेक्षित व्यवहार का सामना करना पड़ता है।आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में उच्च-वर्ग द्वारा निम्न-वर्ग को प्रताड़ित किया जाता रहाहै। अतः आज हमें इन सभी से ऊपर उठकर सभी के साथ समान व्यवहार एवं सही दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है।


 सन्दर्भग्रन्थ: –


[1]विनोदकुमारजायसवाल : निरालाकीलम्बीकविताएँएकअध्ययन,भारतीय ग्रन्थ


निकेतन, नई दिल्ली, 1992,पृ. 66


[2]अर्चना वर्मा: निराला के सृजनसीमान्त विहग और मीन, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट


लिमिटेड, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005, पृ.236


[3]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पांचवां संस्करण


2003, पृ.34


[4]वही, पृ.35


[5]वही,पृ.36


[6]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालयप्रकाशन,वाराणसी,पांचवांसंस्करण 2003,


पृ.94


[7]वही,पृ.66


[8]विनोदकुमारजायसवाल: निरालाकीलम्बीकविताएँएकअध्ययन,भारतीय ग्रन्थ निकेतन,


नई दिल्ली,1992,पृ.128


[9]वही, पृ.128


[10]वही, पृ.162


[11]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालयप्रकाशन,वाराणसी,पांचवांसंस्करण


2003,पृ.152


[12]रेखा खरे:निराला की कविताएँ और काव्यभाषा,लोकभारती प्रकाशन,दूसरा संस्करण


2015,पृ.289


[13]वही, पृ.290


[14]बच्चन:क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालयप्रकाशन,वाराणसी,पांचवांसंस्करण


2003,पृ.168


[15]रेखा खरे:निराला की कविताएँ और काव्यभाषा,लोकभारती प्रकाशन,दूसरा संस्करण


2015,पृ.55


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