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Tuesday, January 21, 2020

ज़रा ठहर के आना

ज़रा ठहर के आना


जो इक वादा था तुमसे,


फ़िज़ा में खिलखिलाने का


कहकशाँ में डूब जाने का


जूड़े में तुम्हारे चाँद टिकाने का


उगते सूरज को सीने से लगाने का


 


जानां इस ख़्वाहिश में, थोड़ा वक़्त लगेगा


गुमाँ की आज़माइश में थोड़ा वक़्त लगेगा


 


कि ये दुनिया, ये मंज़र, ये शहरों में बंजर


अभी महफूज़ नहीं हसीं ख़्वाबों के लिए


कि, सड़क पे ख़ून के थक्के अभी सूखे नहीं हैं


सरिया लिए हाथ अब किताबों के भूखे नहीं हैं


मज़हबी टुकड़े पे पलते सायों को अभी


मुल्क में 'टुकड़े-टुकड़े' चलाने से फ़ुर्सत नहीं है


 


कि अभी तो नस्ल को साबित है करना


रहने को ज़िंदा अब ज़रूरी है डरना


कि कानून के मानी अभी बदल रहे हैं


हुक्मरां को इंक़लाबी अभी खल रहे हैं


 


मुझे मालूम है बड़ा मन था तुम्हारा,


 


जाड़े में, कुल्फ़ी का लुत्फ़ उठाने का


वादी में, कहवा के दो कप लड़ाने का


लालकिले पे बाँह फैलाने का, और


'डल' की झरझर में डूब जाने का


 


मगर जानां, अभी यहाँ,


तेल की खदानों पे मिसाइलों के घेरे हैं


बड़े काले से रोज़ यहाँ उठते सवेरे हैं


कुछ अंदर के कीड़े सरहद कुतर रहे हैं


बड़े-बड़े चेहरों के चेहरे अभी उतर रहे हैं


 


और वो जो वादा था तुमसे कि,


तुम्हारी हथेली पे अपनी ऊँगली उगाकर


तुम्हारे बालों में ग़ुलाबी से फूल सजाकर


चलेंगे किनारे से मीलों के फ़ेरे


देखेंगे तोता-ओ-मैना-ओ-बटेरे


 


इन बातों की सूरत अभी मुमकिन नहीं है


जीना न पूछो, हाँ मरना मुश्किल नहीं है


अभी स्कैण्डल में साँसों की इक चीख़ दबी है


उस लड़की की कैंडल-मार्च अभी रुकी नहीं है


 


अभी आब-ओ-दाने के भाव बहुत हैं


ढकी-ओढ़ी इस जनता के घाव बहुत हैं


कि अभी सरज़मीं पे शोले भभक रहे हैं


वर्दी से ख़ून के कतरे अभी टपक रहे हैं


 


वो रातों का वादा, वो बुलाती सदायें


खिड़की पे तुम्हारी, मल्हार गाती हवाएँ


अभी इन बातों में थोड़ा सा वक़्त लगेगा


अच्छे दिन का वो वादा, ज़रा लंबा चलेगा


जज साहब ये बोले की मुश्किल घड़ी है


कुछ ज़ुल्मी सिफ़त, कुछ सियासी कड़ी है


 


अभी कुफ़लों में कैद हैं लफ़्ज़ हमारे


मिटाने को अक्स, हो रहे हैं इशारे


वो इंसानियत की उसूलों-निगारी


अभी मुमकिन नहीं, अभी मुमकिन नहीं


 


सुनो तुम जानां, वो सारे ख़्वाब छुपाना


ज़र्रे ज़र्रे को सारी ये बातें बताना


हो सके तो अभी, ज़रा ठहर के आना


हो सके तो अभी, ज़रा ठहर के आना।


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कोई ख़्वाब तो ऐसा आए


कोई ख़्वाब तो ऐसा आए


जो गहरी नींद लगाए


हम भीगे कुल्लड़ ख़ाके दोनों


चांद को ओढ़े सो जाएं


 


गीले सकोरों में रातें सोई


न कोई उन्हें उठाए


सब सोएं तो जागे रैना


भोर भए, रैना सो जाए


 


पी लेने दो रात के बादल


करवट पे दर्द सुलाए


एक टुकड़ा जो चांद का नोंचा


अब भूख भले मिट जाए


 


चाट के मट्टी चखी हवा करारी


साग़र छूके मन ख़ारी ख़ारी


दो पल चैन और इक वक़्त रोटी


बस आँख वही लग जाए


कोई ख़्वाब तो ऐसा आए …


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वक़्त का मुसाफ़िर


हम सब जो यूँ बढ़ रहे हैं


एक नए वक़्त में चल रहे हैं


आगे बढ़ने में माहिर हैं


कि हम सब एक मुसाफ़िर हैं


 


सिर्फ़ गली, शहर या राहों के नहीं


यूँ कि वक़्त की पगडंडी पे


भटक रहे हैं सय्यारे से


कुछ जीते से, कुछ हारे से


 


घड़ी के काँटों का अलग फ़साना


बस गोल गोल है चलते जाना


जो बीत गयीं सदियां वो मानो


जैसे छोड़ा शहर पुराना


एक मुसाफ़िर हार न माना


फिर नया साल है नया ठिकाना


 


जैसे राही अपनी राह पकड़


बस शहर बदलता जाता है


वैसे ही ये शहर, 'साल' का


हर साल बदलता जाता है


 


इन वक़्त के शहरों में


क़स्बे महीनों के नाम हैं


कहीं सर्दी की धूप है सेकी


कहीं गर्मी में खाये आम हैं


 


जब इन महीने वाले कस्बों में


कोई हफ़्ते वाली गली आ जाए


तो नुक्कड़ पे खड़े ख़ड़े


हफ्तों का हाल पूछना


कितने हफ़्ते रोके काटे,


कितने ख़्वाब मिलके बाटें


इन सबका, हिसाब पूछना


 


हर गली हर नुक्कड़ पे बसा


एक दिन नाम का घर होगा


एक आंगन जैसा लम्हा होगा


चोका जैसा एक पल होगा


 


जैसे सारे कमरे एक जगह


आंगन में मिल जाते हैं


वैसे सब लम्हे इक दूजे के


कंधों पे टिक जाते हैं


 


तुम मुसाफ़िर चलते चलते


वक़्त के किसी शहर ठहर जाना


दिन नुमा घर के अंदर


किसी लम्हे में रुक जाना


और लम्हे की दीवार पर


कान लगा, दास्ताँ सब सुन जाना


 


सुन ना कैसे हसीन याद कोई


गीले पैर ले छप-छप करती आई थी


और कैसे कड़वी बातों ने


एक अर्थी वहीं उठाई थी


एक तंग रसोई लम्हे में


तुम्हारे हौसले गुड़गुड़ाये थे


यहीं मुझे तुम छोड़ वक़्त के


दूजे शहर चले आये थे


 


पर तुम्हें तो जाना ही था,


तुम मुसाफ़िर जो थे


एक मुसाफ़िर का फ़र्ज़ है


एक शहर से शहर दूसरे जाना


जैसे आख़िरी तारीख़ बदल जाना


 


मुसाफ़िर हो,जाओ बिल्कुल जाओ


नए शहर का जश्न मनाओ


नए साल का जश्न मनाना


पर सुनी दास्तान लम्हों की


अगले मुसाफ़िर को सुनाना


 


कभी कभी जब वक़्त मिले


तो गए लम्हों की दास्तान सुनना


हम मुसाफ़िर हैं


आगे बढ़ने में माहिर हैं


हम मुसाफ़िर हैं ।


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ज़िन्दगी ख़त्म से शुरू होती


बड़ी अजीब सी है ये ज़िंदगी


और बड़ी अजीब इसकी शुरुआत


सुना था, चिंगारी से लौ बनती है


पर यहां तो दो लौ मिल


एक चिंगारी पैदा करती हैं


 


शुरुआत से भी ज्यादा गर कुछ अजीब है


तो वो है इसका अंजाम,


रेत की घड़ी सा पल पल गिरना


और एक रोज़ ख़त्म  हो जाना


 


ज़िन्दगी में इतनी मशक्कत,


इतने फजीते, किसलिए ?


बस एक मौत के लिए ?


 


फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता


पहले हमारा इन्तेकाल होता,


कम से कम कुछ न सही


अंजाम का किस्सा तो ख़त्म होता


 


आँख खुलती तो कहीं बुज़ुर्गखाने में


कांपती हड्डियों में पैदा होते


शुरु में ठिठुरते, सिकुड़ते फिर धीरे धीरे


हर दिन बेहतर होते जाते


 


और जिस दिन मज़बूत हो जाते


वहां से धक्के देके


निकाल दिए जाते


और कहा जाता


जाओ ! जाके पेंशन लाना सीखो


 


फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता


फिर हम कुछ और बरस की पेंशन बाद


दफ़्तर को अपने कदम बढ़ाते


एक महीना और घिसते


फिर पहली तनख़्वाह पाते


एक नई घड़ी, नए जूते लाते


 


कुछ पैंतीस बरस धीरे धीरे,


माथे की हर उलझन सुलझाते


और फिर जैसे ही जवानी आती


महफ़िल में मशग़ूल हो जाते


 


शराब, शबाब और क़बाब


आख़िर किसको ना भाते


दिल में सिर्फ़ ज़ायका जमता


कोलेस्ट्रॉल का खौफ़ नहीं


 


फिर जैसी मौज ऊंची सागर की


वैसे हौंसले मैट्रिक में आते


अब तक सब रंग देख चुके थे


प्राइमरी भी पार कर ही जाते


 


फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता


फिर एक सुबह जब आँख खुलती


खुद को नन्हा मुन्ना पाते


जो ऊँघ रहा है बिस्तर में


कि बस घास में दौडूं, यही धुन है


 


फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता


ना उम्मीदों का बोझ रहता


ना ज़माने की कोई फ़िकर


बस मेरा गुड्डा मेरी गुड़िया,


मेरा अपना शहर


 


और एक सुहानी रात


जब नाच रहा था चाँद


आसमाँ  के आंगन में


हम एक नई जान बन


कभी किसी की गोदी में


तो कभी किसी सीने पे आते


 


और इस आखिरी पड़ाव पे,


अपनी ज़िंदगी के


वो आख़िरी नौ महीने


ख़ामोश पर चौकस


तैरते हुए रईसी में


जहाँ हमेशा गर्म पानी है,


एक थपकी भर से


रूम सर्विस आ जाती है,


और जब भी मन करे


कोई सर सहला ही देता है


 


वहीं कहीं किसी


गुमनाम लम्हे में


हसरत और ज़रूरत के बीच


हम अहसास बन,


सिर्फ़ एक एहसास बन


कहीं अनंत में खो जाते


 


फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता,


कि ज़िन्दगी ख़त्म से शुरू होती ।


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आओ हिंदुस्तान चलें -


आओ !


तुम चलो, हम चलें


करते सब नमन चलें


शाख़ शाख़ सब्ज़ कर


घास के महल चलें ।


 


माँग में 'डल' बहे


धरती पे स्वर्ग रहे


कहवा में लेके प्यार हम


हिम के यूँ शहर चलें ।


 


रीत को बनाके गीत


मेहमान को बनाके मीत


सहरा पे वक़्त ओढ़कर


रेत के शजर चलें ।


 


लहरों की प्यास बांट कर


सागर से मोती छांट कर


शंख का पकड़ के हाथ


साहिल-ओ-सफ़र चलें


 


रूखा सा है जो पठार


है ज़िन्दगी की ये पुकार


लेके दिल में हौंसला


कठोर सी डगर चलें ।


 


ज़हन में छुपी याद है


जज़ीरे ऐसी ज़ात है


पानी पे यूँ  तैरते


कबीलों के नगर चलें ।


 


रंगों का रुख़ मोड़कर


ज़बां का तार तोड़कर


ख़ुदा की जंग छोड़कर


बस आदमी के घर चलें ।


 


तुम चलो, हम चलें


करते सब नमन चलें


लेके हाथ साथ साथ


हिन्द की नज़र चलें।


 


 


------ प्रशान्त 'बेबार'


Aksharwarta's PDF

Aksharwarta International Research Journal, March 2024 Issue