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Saturday, February 15, 2020

अरुण तिवारी

खुरशाप 

या

किरसू कालिदास की बोधकथा

लेखक: अरुण तिवारी

खुर, खुर, खुर! इन खुरों  ने गरीबन बी जैसी गरीब मजूरन का ही नही, किरसू जैसे मूछवाले ठाकुर का भी का जीना हराम कर रखा था। उसे खुरशाप लग गया था। ठकुरई गायब हो गई थी। काश्तकारी ऐसी घंटी बनकर गले में टंग गई थी, जिसे न पहनते बनता है, न उतारते। वह खेत और घर के बीच में चकरघिन्नी बना हुआ था। न दिन को चैन, न रात को। बेटवा को दिन-रात मोबाइल में झांकने से फुरसत न थी तो खेत की रखवाली क्या करता ? खाक! किरसू, पूत के रहते हुए भी खुद को निपूता ही समझने लगा था। अब, जब पूत पर ही जोर नहीं चलता तो मनई-मज़ूर तो सब क़ानून और मनरेगा के दामाद हो गए थे। उन पर जोर-जबरदस्ती का तो अब प्रश्न ही नहीं उठता। 


इन बदले हालात ने किरसू को खूंटे का बैल बना दिया था। अब न तो कहीं जा सकता था, न चैन से खा सकता था। घंटा-दो घंटा को ग़ैरहाजिर हुआ नहीं कि खेत साफ। उसे दिन-रात खेत में हांका लगाते बीतता था। सोचता था कि इतना बंधन तो तब न था, जब दुआरे पे बैलों की दो-दो जोड़ियां बंधती थीं। जिस ठकुराइन ने दुआरे पे कभी घास तक नहीं छोली थी, उसे भी अब खेत में हांका लगाने जाना पड़ रहा था। 
नीलगाय तक तो गनीमत थी। छुट्टा गाय-बछडे़ धान, गेहूं, आलू...कुछ नहीं छोड़ रहे। पूरे पांच बरस बीत गए हांका लगाते। तार लगाई; गंदी गंध वाली दवा छिड़कने में पैसे बर्बाद किए; फिर भी कोई साल ऐसा नहीं बीता कि फसल सही-सलामत घर पहुंच जाए। कई बार तो बीज भी नहीं लौटा। हर साल कर्ज ही बढ़ा।


किरसू पशोपेश में था। अगहन बीता जा रहा था। तय नहीं कर पा रहा था कि क्या बोए; खुद बोए या फिर खेत बटाई पर दे दे। सुगर मिल, फ्लोर मिल, फलजूस मिल, डेरी फार्म वाले... सब रोज चक्कर काट रहे थे। उन्हे न माालूम खेतों में ऐसा क्या दिख रहा था कि खेत खरीदने को भी तैयार थे और बटाई पर लेने को भी। मुंहमांगा दाम दे रहे थे। खेत में काम करना चाहो तो उसका मजूरी अलग। कुछ को मिल में नौकरी देने की बात भी सुनाई दी थी। न देना चाहो तो उनकी मिलमाफिक फसल बोने को कह रहे थे। मुफ्त बीज और प्रति बीघा कुछ एडवांस भी दे रहे थे। कह रहे थे कि छुट्टा मवेशियों की बंदिश का इंतज़ाम भी वे खुद करें लेेंगे। सुगर मिल वालों ने तो प्रधान जी को आगे करके काफी ज़मीन खरीद भी ली थी। उड़ती-उड़ती खबर यह भी थी कि आगे चलकर पेपर और शराब फैक्टरी लगाना भी उनके प्लान में है।


प्रधान जी कल फिर आए थे - ''का हो किरसू, बौराय गा हा का ? एक बात अच्छे से समझ लेओ। छुट्टा के मारे अब खेती करब हम ठकुरन के बस कय नाही हय। कंपनी, सब कय सकत हय। हमरी मानो तो खेत कंपनी का बटाई पे देओ, पैसा लेओ औ झंझट से छुट्टी पाओ। तोहका आपन जात-बिरादरी-परिवार कय समझि के हम बार-बार आइत हय। केहु से कहव न। तोहका औरन से एक हज़ार प्रति बीघा जियादा देवाउब।... और देखा जैसन कौनव तरक भिडे़, सबसे पहले तोहरे बेटवा का मिल मां काम देवाउब।''


किरसू ने खूब जांच लिया था। प्रधान जी कई को गुड़ की यही जलेबी बांट चुके थे। खुद किरसू का लरिका और ठकुराइन के मुंह पर ऐसा लासा लग गया था कि चारो पहर एक ही धुन - ''खेत मिल को दो और छुट्टी पाओ।''


किरसू के पास खेत बहुत नहीं था। वह ठाकुर भले ही था, लेकिन समय ने उसे सौंफ, धनिया, मिरिच, लहसन, प्याज, आलू, गंजी, चना, मटर, उड़द, अरहर, सरसों, अलसी, साग-भाजी से लेकर जौ, गेहूं, धान तक... अपने खेत में रसोई की ज़रूरत का मोटा-मोटी सब कुछ बोना सिखा दिया था। आम, महुआ, जामुन की छोटी सी बगिया थी ही। अमरूद, नींबू, नारंगी, केलस, पपीता, कटहल जैसे फल-फ्रूट दालान में ही हो जाते थे। नमक, चाय, चीनी छोड़कर खाने की कम ही चीज़ ऐसी थी, जिसके लिए किरसू को बाज़ार की ओर ताकना पडे़।


किरसू इस आज़ादी के खोना नहीं चाहता था। किरसू के पूर्वजों ने ऐश और एय्याशी में ही ज़मींदारी गंवाई थी। पण्डित जी के कहने से पड़बाबा ने उसका नाम इसीलिए किरसू रखा था, ताकि वह कृषि करे; उसे गंवाए नहीं।


पड़बाबा से बचपन में सुनी बात वह आज तक नहीं भूला - ''किरसू, जे सुरा-सुंदरी से बचा रहे, वही कय गृहस्थी बची रहे अउर जेकरे पास खेती बची रहे, देखया ! एक दिन वो ही कय राज औ रजवाड़ा रहे।''


इसलिए किरसू अच्छी तरह जानता था कि धरा पैसा टिकता नहीं...और फिर खरीद के लाए अनाज से भी कभी किसी की रसोई में बरक्कत हुई है !!  अभी तो दो आओ, चार आओ; कम से कम खाने का तो टोटा नहीं है। 
दिल और दिमाग... दोनो न कहते थे, लेकिन खुरों के कारण सब कुछ खो देने का अंदेशा, जैसे उसके पैर पकड़कर बैठ गया था। उसके चित्त पर पांच बरस पुरानी सुध उभर आई।


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पिछले कुछ दिनों से गांव में बस एक ही नाम की चर्चा थी। अम्मा बताते नहीं थक रही थी कि गोदी ऐसा था, गोदी वैसा था। दद्दा भी अपना कोल्हू-चक्की छोड़कर, पूरे गांव में बता आए थे कि बचपन का भागा गोदी आज गांव आने वाला है। गांव भी टकटकी लगाए बैठा था कि देखें तो सही, गोदी कैसा है। कौतुहल खत्म हुआ। गांव की वानर सेना ने बड़ी गाड़ी की आवाज़ एक मील दूर से ही सुन ली थी। 

गो दी! गो दी! गो दी! - नारा करती टोली अगवई करने गांव के रास्ते पर निकल गई थी। 


टीचर जी ने टोका था - ''ऐ बच्चा लोग, तमीज से बोलो। गोदी-फोदी नहीं, मिस्टर जी. कहो, जी.।...सुना, वह अब कोई हमारी सब की तरह छोटा आदमी नहीं है।''


''हुंह, छोटा आदमी !'' 


एक ने मुंह बिचकाया। दूसरे ने बाण छोड़ दिया - ''अंग्रेजी कय चार अक्षर बोल लेय, गला मा लंगोटी कस लेय, पीठ पय आध मन का बस्ता लाद लेय, कांटा-छुरी से खाय लागय; का सारी तमीज बस यही मा अहय ?''


तीसरे ने ब्रह्मस्त्र दागा - ''ऐ टीचर, जब तोहार वाली ई तमीज नाहीं रही, तब गांव ठीक रहा कि अब ?''


सवाल बड़ा था। किंतुु बड़े की अगुवई में कहीं खो गया। आखिरकार मिस्टर जी. प्रकट हुए। उनके प्रकट होते ही डेढ़ सौ बरिस पुराने पीपल बाबा, ग्रीन कारपेट की तरह बिछा दिए गए। मिस्टर जी. ने हाथ लहराया, जैसे कोई जादूगर हो। देखने को पासबुक, रहने को कालोनी, चमकने को एलईडी, पीने को टूटी, पकाने को उज्ज्वला और फारिग होने को हगास टैंक... जाने क्या-क्या पीपल बाबा की छाती पर सज गया। 
मिस्टर जी...हां, उस समय उन्हे गोदी कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। मिस्टर जी. घुटने के बल झुके; माथे को बड़ी श्रृद्धा के साथ ग्रीन कारपेट से छुआया। उनके छूते ही सजा सामान उछलकर तमाशबीन के माथों से चिपक गया और कारपेट हाइवे में बदल गया। तालियां गूंजी और खाली हाथों ने उठाकर मिस्टर जी. को वोट की बोट पर बिठा दिया। पीपल बाबा कहां गए ? किसी ने नहीं पूछा। मिस्टर जी. का दिया सामान आज भी तमाशबीन हाथों में है।


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उज्ज्वला बहिन जी ने आते ही सबसे पहले चूल्हा भाईसाहब को रुखसत किया। चूल्हा गए तो कंडा-उपरी, अरहर के राहठें और दूसरी जलावन को कौन पूछता। कंडा-उपरी नहीं तो गाय-गोरू की कितनी ज़रूरत ? खाद के लिए उर्वरक की भरमार थी ही। पाई-पाई नपे-तुले गणित वाले रिश्ते के इस संवेदनाहीन जुग में बेटा बाप की नहीं करता, तो बिन दूध की गाय की चाकरी करने में भला किसे मुनाफा दिखता। यूं भी यदि गाय सेर-डेढ़ सेर देने वाली हो तो चरहा, चूनी, चोकर, भूसा, मेहनत, बंधन...सब मिलाकर घाटे का ही गणित था। लिहाजा, ये सभी एक साथ रुखसत कर दिए गए। 


बछडे़ को छुट्टा छोड़ने की तमीज गांव पहले ही दिखा चुका था। उज्ज्वला बहिन जी का साथ पाकर गांव को इसकी तमीज अब कुछ ज्यादा ही हो गई थी। बदले में चौपायों  ने दोपायों की रीढ़ हिला दी थी; उसकी औकात बता दी। 
किसी भी किसान की कमर तोड़ने के लिए पांच साल कम नहीं होते। दिखने लगा था कि छुट्टों की छुट्टई एक न एक दिन किसान की छुट्टी ज़रूर कर देगी। धरती का पानी नीचे सरककर हलक पहले ही सुखाने लगा है। हगास टैंक का पानी उसमें उतरने से गांव को बीमार बनने से अब कोई 'आयुष्मान भवः' भी नहीं बचा सकता था। किंतु मिस्टर जी़ अथवा मिस्टर गी़ को पुकारने की तमीज गांव वालों को तब भी नहीं आई। वह, हर छुट्टा को आज भी जोगी-गोदी कहकर ही पुकारता है। गांव, अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने से आज भी बाज नहीं आ रहा। किरसू, खुद कालिदास हो गया है। किरसू सोच नहीं पा रहा कि वह क्या करे ? किसकी सोच पर कुल्हाड़ी मारे ?? उसकी आंखें मूंदी और वह एक सपने की गहरी खाई में उतर गया। 


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हल्की बदली के बीच शांत सूरज। हवा भी शांत ही थी। अचानक जाने क्या हुआ ? सूरज आगबबूला होकर एकदम सुर्ख लाल हो गया। आसमान की सारी रुई जलकर राख हो गई। राख को देखते-देखते खाक का नज़ारा सामने आ गया। सुरसर घाट, महजिद तलाव, हनुमान बगीची, मेठी कस्बा..जहां तक निगाह गई; चारों तरफ धूल ही धूल! गोले ही गोले ! गोलों बीच लटकते अनगिनत दिल, फेफडे़, आंतें और किडनियां। 


कितना अज़ीब सुपना था !! 


एकाएक हरकत हुई। कई हज़ार जोड़ी खुर खड़के। गोलों का कसता घेरा, रौंदतेे खुर और तेज होती आवाज़ें ! लगा कि सांस घुट जाएगी; सिर फट जाएगा। तभी जोर से आवाज़ हुई - तड़ तड तड़...बम्म भड़ाम। गांव का प्रवेश-द्वार, स्टील का नया दरवाज़ा,  नेमप्लेट का पत्थर, पताका...सभी कुछ धूल हो गए। तार, दीवार, दरवाज़ा, खिड़कियां...जिस खुर के सामने जो आया, उसे तोड़-फांद प्रवेश कर गया। धूल छंटी तो घर, खेत, खलिहान, ताल, चैपाल...सब जगह खुर ही खुर ! खुरों को देखकर भागती भीड़। भीड़ में सबसे आगे बामन-ठाकुरों के लौंडे। उनके पीछे उनके खेतों को औने-पौने में लिए बैठे अहीर-कुर्मी। उनके पीछे तिलक लगाकर मंदिरों के पुजारी बन बैठे चमार-पासी। उन पर सवार स्याह काली चिमनियां।


अज़ीब दृश्य था। इससे पहले कि किरसू सुपने की खाई से बाहर आता कि भीड़ जाकर एक विशाल सुपनलोक में समा गई। उस पर लिखा था - 'मेक इन इण्डिया'।


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किरसू ठाकुर के ज्ञानचक्षु खुल गए। किरसू ठाकुर को बिना गया गए ही बोध हो गया। उसकी मुट्ठियां बंध गई। उसने छुट्टों को खूंटों में बांधा। नांद में प्रेमरस घोला। ताल की पाल बांधी। उसके हार में बैल से चलने वाला गियरपम्प गाड़ा। ठाकुरी मंदिर वाली नहर पर मंगलसिंह टरबाइन की स्थापना की। देसी बीज-देसी खाद की गठरी साधी। ठकुराइन ने गोबर की थाप लगाकर सगुन गाया। ठाकुर ने बोअनी की। घर लौटा। उज्ज्वला बहिन जी के संग उन्नत चूल्हा जी भाईसाहब की दोस्ती कराई। हगास टैंक की टंकी की तली सील की। असललोक की तख्ती उलटी और उस पर लिखा  - 'मेड बाय माई गांव'।
अब किरसू सही मायने में ठाकुर हो गया; भारतवर्ष के सुखिया गांव का ठाकुरजी।


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लेखक संपर्क : 
अरुण तिवारी - 146, सुन्दर ब्लाॅक, शकरपुर, दिल्ली-110092, amethiarun@gmail.com9868793799

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