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Friday, February 21, 2020

घनानंद और प्रेम 

 

प्रेम शब्द का अर्थ तृप्त करने वाला है. इस प्रकार प्रेम का अर्थ है किसी विषय, वस्तु या प्राणी के दर्शन और स्पर्श से मिलने आनंद.

हिन्दी की रीतिकालीन कविता में मूलतः प्रेम के दो रूप का वर्णन हुआ है एक लौकिक प्रेम का और दूसरा पारलौकिक प्रेम का, उसमें भी रीतिकालीन कवियों का दिल लौकिक प्रेम में अधिक रमा, और भक्तिकाल के कवियों ने पारलौकिक प्रेम पर अधिक तवज्जह दी है. 

घनानंद की गिनती रीतिकाल के रीतिमुक्त कवियों में होती है. घनान्द के प्रेम की पीड़ रीतिकाल के सभी कवियों में सबसे अधिक है. ठाकुर जहां प्रेम को मन की परतीत और बोधा तलवार की धार मानते हैं, वहीं घनानंद ने इसको स्नेह का सीधा मार्ग माना है जिसमें कपटी लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. इसलिए वो प्रश्न भी करते हैं कि प्रेम तो देने का नाम है पर तुमने कौन सी पाती पढ़ ली है कि तुम लेते तो पूरा हो पर देते उसका छटांक भी नहीं. उनका प्रेम सच्चे आशिक़ का प्रेम है, जिसकी माशूका उसे धोका देती है, पर वो न उसकी शिकायत करते हैं और न उपालम्भ. ये वो पाकीजा प्रेम है जिसमें कोई कुटिलता नहीं है. तभी तो आचार्य शुक्ल को कहना पड़ा 'प्रेम की गूढ अन्तर्दशा का उदघाटन जैसा उनमें है वैसा हिंदी के अन्य श्रृंगारिक कवि में नहीं 1

घनान्द का प्रेम मार्ग सहज और सरल है, जिसमें अहंकार की कोई गुंजाईश नहीं, तभी तो वो कहते हैं 

घनानंद प्यारे सुजान सुनो

यहाँ एक ते दूसरो आंक नहीं 

घनान्द मानते हैं प्रेम मार्ग में दूसरों के लिए कोई जगह नहीं होती. प्रेम में परेशान ये कवि बादल तक से कालिदास के यक्ष की तरह अपनी प्रेमिका सुजान के आँगन में  बरस जाने के लिए विनती करता है. कहता है तुम जल नहीं तो मेरी आँखों का आंसू लेकर ही सुजान के पास बरस जाओ,कवि की पंक्ति है... 

कबहूँ बा बिसासी सुजान के आँगन 

मो अंसुवन को       लै        बरसो 2

लेकिन प्रेमिका का इतना ख्याल कि मेघ से आग्रह करता है कि मेरे खारे आंसू को तुम मीठे जल के रूप में पंहुचा देना. रीतिकाल के वास्तव में ये पहले कवि हैं जिन्होंने जिस्म और जिंस को पर्दे में रखा है. वो एक ऐसा चातक है जो अपनी प्रेमिका को बस निहारता है उससे कोई हाजत नहीं रखता-

मोहन सोहन जोहन की लगिये रहे

आँखिन     के उर            आरति 

घनान्द के लिए प्रेम गोपियों की तरह एक साधना थी. प्रेयसी सुजान का प्रेम उनके रोम -रोम में व्याप्त हो गया था. पर गोपियां तो कृष्ण से कुछ चाहत भी रखती थी, घनानंद ऐसे प्रेमी थे जिन्होंने कुछ भी पाने की ख्वाहिश नहीं की. यहां तक कि प्रियतम की उपेक्षा को भी वरदान समझ बैठे. और उन्हें ये दुआएं तक दे दी 

तुम नीक रहो तुम्हें चाड कहां 

ये असीम हमारिये लीजिये जू 

पूरे प्रेम काव्य में घनान्द ऐसे इकलौते साहसी कवि हैं जो वियोग में भी हताश नहीं होते. उन्हें प्रेम में मर जाने से विरह में तड़पना ज़्यादा पसंद है. वो सुजान को देखना चाहते हैं उस सुजान को जिसे देखते ही उनका मन रीझ गया थाऔर जिसे वो भुला नहीं पाते. हर तरफ़ उसी का चेहरा नज़र आता है 

झलकै अति सुंदर आनन ग़ौर 

छके दृग राजत कानन  छवै 

रीतिकाल में जहां स्त्रियां पुरुष की पिपासा मात्र बन गई थीं,वहीं घनान्द ने सुजान को सम्मान के उच्च शिखर पर पंहुचा दिया. सुजान की फ़ुर्कत में कवि को सारी दुनिया ही उजड़ी हुई दिखती है-----उजरनि बसी है हमारी अंखयानि देखो. घनान्द प्रेमिका की बेवफाई पर वियोग में जल जाते हैंलेकिन कभी बदले पर उतारू नहीं होते. ये बादल तो सिर्फ पावस में बरसता है, पर घनानंद की आंखें सालों भर बरसती रहती है. 

कहना न होगा कि प्रेम की जो नफासत, बलाग़त, और सदाकत घनानंद की कविताओं में मिलता है, वैसी चाशनी सूर को छोड़ कर हिन्दी साहित्य में कहीं नहीं है. 

 

सन्दर्भ :-

 

1-हिन्दी साहित्य का इतिहास -शुक्ल , पृष्ठ 178

2-घनांनद-डा राजेश, पृष्ठ 47

3-हिन्दी काव्य का इतिहास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ 109