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Thursday, April 9, 2020

संबंधों के मधुर गीत आखिर कैसे गाते। 


01

संबंधों के मधुर गीत आखिर कैसे गाते। 

बहुत पास से देख लिए हैँ  सब  रिश्ते-नाते। 

 

जिससे की उम्मीद 

कि मुझसे पूछे मेरा हाल। 

जब करीब से गुजरा 

उसकी तेज हो गई चाल। 

 

हम अपने मन की मजबूरी किसको समझाते। 

 

अपना मतलब हल होने तक 

बिछे रहे जो लोग। 

सीना ताने खड़े हुए हैँ 

यह कैसा सँयोग। 

 

ज़हर भरी मुस्कान फेंकते हैं आते-जाते। 

 

अपनी-अपनी पड़ी सभी को 

खुलकर कौन मिले। 

झुँझलाहट है हर चेहरे पर  

झेले नहीँ झिले। 

 

हिम्मत होती नहीँ कि खोलूँ और नए खाते।

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02

देखो मत मेरे सपनों की चादर रक्तसनी।

सोता हूँ मैं तकिए नीचे रखकर नागफनी।

 

जिसको अपना समझ बता दी

अपने मन की बात।

मुझे खोखला करने की

उसने कर दी शुरुआत।

 

जिन्हें हिफाज़त सौंपी थी, कर बैठे राहजनी।

 

मैंने अपने सुखद पलों को

जिनमें बाँट दिया।

उनने उम्मीदों की

हर टहनी को छाँट दिया।

 

मेरे मन की पीड़ा अब तक होती रही घनी।

 

बदल गए सब अर्थ

प्यार है बस सौदेबाज़ी।

लेकिन ऐसे समझौतों को

हुआ न मैं राज़ी।

 

अक्सर खुद से ही रहती है मेरी तनातनी।

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03

मन का मीत मिले तो जी लें एक बार डटके।

क्या बतलाएं इस उलझन में कहां कहां भटके।

 

आकर्षक चेहरों ने मुझको

कितनी बार छला।

वो मतलबपरस्त निकला

जो दिखता रहा भला।

 

उम्मीदों पर भारी ताले रहे सदा लटके।

 

जो भी मिला उसे जी भरकर

मैंने प्यार किया।

बदले में नफरत ही पाई

फिर भी प्यार दिया।

 

दूर निकल जाने पर भी कुछ लोग बहुत खटके।

 

अपनी-अपनी निपटो

सारी बस्ती डूब रही।

इस दुनिया में रीति प्यार की

यह भी खूब रही।

 

खड़े रहे अपनी-अपनी दीवारों से सटके।

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04

रेतीले तट पर चाहत बोकर, हमने फिर से दर्द उगाए हैं।

अभी तुम्हें अहसास नहीं होगा, यह रिश्ते क्यों गए निभाए हैं।

 

कितनी उमस झेलती है धरती,

तब जाकर ये इन्द्रधनुष उगते।

सबको बसंत की मादकता भायी,

पतझर के मौसम किसे भले लगते।

 

अभी न समझोगे इन बातों को, सूखे गुलाब क्यों गए सजाए हैं।

 

जो खेल रहे सागर की लहरों से,

वे सागर की गहराई क्या जाने।

अपनी अपनी है दृष्टि समझ अपनी, 

पानी क्यों खारा है वे क्या जाने।

 

कौन हमारी मजबूरी समझे,  क्यों तट से प्यासे उठ आए हैं।

 

इस दुनिया की दुनियादारी देखी,

देखे अपने भी और पराए भी।

भ्रम में जीने की पीड़ा भी भोगी, 

 विश्वास टूटने पर मुरझाए भी।

 

फिर भी जीवन से हार नहीं मानी, अनुकूल समय को ख़त भिजवाए हैं।

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05

मौसम है इस क़दर खराब।

हिम्मत भी दे रही जवाब।

 

उलझन में डालकर मुझे, 

उनकी यह जिद कि खुश रहूँ।

विष-प्याला हाथ में थमा, 

कहते हैं प्यार से चखूँ।

 

ऐसे ही स्वजनों के बीच,

पढ़नी है वक़्त की किताब।

 

अपनों के बीच घिर चुका,

पाता हूँ खुद को असमर्थ।

युद्ध में निहत्था अभिमन्यु, 

बचने की कोशिश है व्यर्थ।

 

हो जाऊं कमरे मैं क़ैद,

पीकर अपमान की शराब।

 

माना निर्धारित है सब,

सब कुछ व्यवहारिक है अब।

पर पीड़ा बढ़ जाती है,

चलती है पुरवाई जब।

 

इस पर भी चैन है कहाँ,

मांग रहे दर्द का हिसाब।

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06

क्या पता अब कौन सा आए नया संकट।

सभी चेहरों पर  जड़ी  है  एक झल्लाहट।

 

हो गए सम्बन्ध सारे

आज क्रय-विक्रय।

फिर भला मुझको यहां पर

कौन दे आश्रय।

 

देखना है ऊँट बैठे आज किस करवट।

 

हैं स्वयं से ही यहाँ 

सब लोग आतंकित।

द्वेष ही केवल 

सभी के पास है संचित।

 

साफ़ खतरे की सुनाई दे रही आहट।

 

साथ चलना था जिन्हें

वो दे गए झांसा।

मैं नदी तक पहुंचकर भी

रह गया प्यासा।

 

व्यर्थ में अब कौन पाले प्यार का झंझट।

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07

एकाएक परिस्थितियों का बदल गया चेहरा।

सोचा जाने क्या-क्या लेकिन सब रह गया धरा।

 

मेरी खातिर कल तक जिसने

तोड़े सभी उसूल।

उसने मेरी उम्मीदों पर

रोपे पेड़ बबूल।

 

नहीं जरूरी रहे सदा ही उपवन हरा-भरा।

 

फुर्सत मुझे नहीं थी

इतने लोगों बीच रहा।

सबको जिसमें खुशी मिले

बस मैंने वही कहा।

 

लेकिन नियति-चक्र के आगे कौन यहाँ ठहरा।

 

रह-रहकर मन में उठता है

केवल एक सवाल।

आखिर क्यों कर चली वक़्त ने

यह शतरंजी चाल।

 

मेरी बारी आने पर क्यों हर मोहरा बिखरा।

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ज्ञानेंद्र मोहन 'ज्ञान'

स्थान : राजगीर (बिहार)

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