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Tuesday, July 14, 2020

श्रम के सहभाव से जन्मी किस्सागोई कला  

श्रम के सहभाव से जन्मी किस्सागोई कला        
                          - ललित कुमार सिंह
                       रंगकर्मी , शोधार्थी - दिल्ली विश्वविद्यालय ( हिन्दी विभाग )


  जब मनुष्य पहली बार सामाजिक भावना के चलते सामूहिक रूप से जीने के लिए संगठित हुआ था ,तभी से कहानी है और कहानी कहने की परंपरा है । मनुष्य ने जब अपने शिकार किए अनुभव को अपने कबीले में आकर उत्साह के साथ विभिन्न भाव- भंगिमाओं के द्वारा बताया होगा, अनजाने ही सही लेकिन वह कला का ही एक रूप था । उस अभिव्यक्ति को हम कला के किसी भी रुप का नाम दे सकते हैं। कोई भी कलाएं निर्वात में पैदा नहीं हुई । दुनिया की प्रायः सभी कलाएं श्रम के सहभाव और  अभिव्यक्ति के निकष  से ही जन्मी हैं । इन दोनों का मूल था उत्पादन कार्य में लगा श्रम । "लोक ,संगीत और कविता आदिमानव के श्रम से पैदा हुई। शारीरिक परिश्रम उस दशा में अत्यंत आसान हो उठता था जब कार्य एक लय के साथ किया जाता था। हाथ के सामूहिक रूप में काम करते समय शक्ति का संग्रहित रूप उपस्थित हो जाता था और इस प्रकार मांसपेशियों के कार्य में जब अधिकतम शक्ति लगने लगी थी तो अपने आप एक स्वर फूट पड़ा था। इन स्वरों पर आदिमानव ने शब्दों का पर्दा चढ़ा दिया और वह संगीत बन गया।"1 इस प्रकार कहना होगा कि उत्पादन कार्य करते हुए घटने वाली घटनाओं और उनसे प्राप्त अनुभवों की अभिव्यक्ति  ने ही कलाओं को विकसित किया है। कला के स्वभाव के संदर्भ में कहें तो चाहे वह कला के जिस रूप में हो उसकी पहली प्राथमिकता सामाजिकता और अभिव्यक्ति है । यह श्रम के सहभाव में ही संभव थी। 'कला के सामाजिक उद्गम' में  'गिओर्गी प्लेखानोव' कहते हैं कि "उत्पादन कार्य  कला से पहले अस्तित्व में आया। आमतौर पर मनुष्य ने वस्तुओं और घटनाओं को पहले उपयोगितावादी दृष्टि से देखा और बाद में जाकर ही उसने सौन्दर्यात्मक दृष्टि से देखना शुरू किया।"2सौन्दर्यात्मक दृष्टि के और उसको अभिव्यक्ति करने के कोई निरपेक्ष मानदंड नहीं हैं। हर समाज के अपने अलग-अलग मानदंड हैं। वह तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। समय के अनुसार उनमें भी परिवर्तन होता गया है। हर समाज की अपनी कहानी है,और उस कहानी ने विकसित होते समाज में कहनी का रूप धर लिया है। "कोई कहानी कहनी तब बनती है जब उसे कहने वाले का नाम खो जाय और कहानी जीवित रहे। इस कहानी का असल क़िस्सागो और इसके सभी प्राथमिक पात्र समय की तहों में अलोपित हो गए, तब भी यह सदियों से जीवित रही।
अलग-अलग लोग अपनी याददाश्त और अपने अनुभव से इसे कहते रहे-किसान पिता, मां- बाबा, दादी-नानी और खेतिहर मजूर - पूस की रात में धान अगोरते हुए जेठ की दुपहरिया  में नाती -पोतों को सुलाते हुए और आद्रा की बारिश में किसी अपने को जोहते हुए। उन्होंने एक कहानी को अपनी आंच दी अपने आंसू ,इंतजार, विचार षड्यंत्र और समझदारी ,मेहनत और किस्मत और कोसना , बतकही, चुप्पी और अपना सबसे सघन गुस्सा दिया..... और सबसे बड़ा दुलार भी। लोगों ने एक कहानी में अपना करेजा लगा दिया। किसी ने गीत रचे,किसी ने किस्से, किसी ने बंद गढे़ तो किसी ने शब्द। इसलिए कहानी किसी एक व्यक्ति या एक समय की नहीं होती बल्कि बहुत से कहने वाले और अलग-अलग समय उसमें एक साथ बिला जाते हैं। अगर आज हम किसी कहनी को  कहना चाहें तो हमें यहां से शुरू करना होगा कि अनेक समय की बात है-"3 कहानी और कहानी कहने के स्वरूप ,परिस्थितियों और पात्रों में थोड़ा बहुत फेरबदल होता गया लेकिन कहानी का मर्म समयान्तराल में भी वही रहा। 'कोमल कोठारी'अपने लेख 'लोक कथाओं को समझने का उपक्रम' में लिखते हैं कि "अभिप्राय वस्तुतः एक घटना मात्र है,जो निरंतर अनेक कथाओं में ज्यों की त्यों प्रयुक्त मिलती है। एक कथा में एक अभिप्राय से लेकर अनेक अभिप्राय का गुंफन हो जाता है।"4 इसी 'अभिप्राय'शब्द को कुछ स्पष्ट करते हुए लोक कथाओं के अध्येता विजयदान देथा अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि "दुनिया भर की कहानियों में जो कॉमन चीज  होती है उसको 'मोटिफ'बोलते हैं जैसे सारी कारगुजारी छोटा भाई करेगा, बड़े पांच भाई हैं, तीन भाई हैं लेकिन छोटा भाई ही हमेशा जीतेगा। लोक कथाओं के भीतर छोटा भाई ही सफलता प्राप्त करता है। और राक्षस हमेशा आदमी से मात खाएगा। कित्ता भी भयंकर और कित्ता भी प्रबल और उसकी शक्तियां कितनी भी अपार हो,आखिर के अंदर जीतेगा मानव। यह लोक कथाओं के ढांचे से जुड़ी हुई बात है।"5
                    
                         किस्सागोई की परंपरा वहीं से शुरू हुई जहां कोई मनुष्य उन भावनाओं और विचारों को पुनः अपने भीतर जगाता है जिन्हें उसने अपने यथार्थ परिवेश  के प्रभाव में अनुभव  किया था। वह उन अनुभवों को संवाद अदायगी के द्वारा सुनिश्चित बिम्बों में व्यक्त करता है। 'राधावल्लभ त्रिपाठी' अपने लेख 'भारतीय कथा  परंपरा ' में कहते हैं कि "भारतवर्ष कथा की जन्मभूमि है ,यह कहानी का आदि देश है। मनुष्य ने जिस क्षण इस देश की धरती पर पहली बार पांव रखा होगा, कदाचित उसी समय से कहानी का प्रचलन हमारे यहां हुआ होगा। ऋग्वेद विश्व साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ है जिसकी रचना ईसा से  कुछ हजार वर्ष पहले हो चुकी थी । ऋग्वेद  में अनेक स्थलों पर तत्कालीन समाज में कहानी या किस्सागोई की लोकप्रियता और एक प्रचलित विधा होने के प्रमाण मिलते हैं। इंद्र उस समय का महानायक था। इंद्र को लेकर ही ऋग्वैदिक समाज में अनेक मिथक या किंवदन्तियां गढ़ी जा चुकी थीं। कहानी इन मिथकों और कथाओं में अन्तर्गर्भित थी।"।6 भारतीय जीवन पद्धति के इतिहास को देखें तो मिथक और कथा हमेशा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के साथ मौजूद रही हैं, और आज भी हैं।मिथ की कथाएं ही कई बार किसी बात की तथा जीवन संस्कार के सामाजिक स्वीकार्यता का आधार रही हैं। चरित गाथा में कल्पनाशीलता,कथा का रहस्य और रोमांच किस्सागोई की भंगिमा और मानवीय संबंधों की भंगिमा मिलती है। उपज के तत्व के द्वारा कहानी को आकर्षक और रोमांचक भी बनाया गया है। ये  अलग बात है कि वैज्ञानिक सोच और तर्कशीलता के चलते उन पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। मिथक  के संदर्भ में ही 'अर्नेस्ट फिशर' अपनी किताब 'कला की जरूरत' में लिखते हैं कि "मिथक पहले उस समष्टि का दर्पण हुआ करता था, जिसमें व्यक्ति समष्टि का एक अनाम अंश मात्र होता था। धीरे-धीरे वही मिथक वैयक्तिक अनुभव को व्यक्त करने का एक रूपात्मक आवरण बन गया।"7
           
                भारतीय समाज का विकास कहानियों के आगोश में हुआ है ।यहां हर आस्था ,विश्वास, संस्कार ,पर्व-त्यौहार के पीछे  एक कहानी है। हर समाज के जन्म लेने,विकसित होने और नष्ट होने की अपनी -अपनी कहानी है। सभी के जीवन जीने की अलग-अलग कहानियां है।सभी समाजों की कहानियां लोक में मौखिक रूप में ही मौजूद थी।एक पीढ़ी अपने जातीयबोध  को दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित करने के लिए कला के अलग-अलग माध्यमों का प्रयोग करती थी। जिनमें किस्सागोई की महत्वपूर्ण भूमिका थी। किस्सागोई के संदर्भ में कहा जाता है कि इतिहास, परंपरा, व्यवहार ,सांस्कृतिक प्रतीकों एवं मिथकों  को संग्रहणीय बनाने तथा उनका अन्वेषण विश्लेषण करने के लिए बौद्धिकों  एक ओर जहां शास्त्रीय ग्रंथों की रचना की वहीं उन्हें लोकमानस तक पहुंचाने और जनजीवन का हिस्सा बनाने के साथ-साथ लोकरंजन के लिए किस्सागोई की कला का  विकास हुआ‌। 'राधावल्लभ त्रिपाठी' अपने लेख 'भारतीय कथा परंपरा' में लिखते हैं कि "ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधियां बताने के प्रसंग में अर्थवाद की दृष्टि से इतिहास,पुराण या आख्यानों की कहानियां प्रस्तुत की गई हैं ,जिनसे कथा कहने की प्राचीन शैली का पहली बार परिचय मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में पुरुरवा और उर्वशी की कथा इसी प्रकार आई है। इसी तरह मैत्रयणी संहिता में रात्रि और पर्वतों के पंखों को लेकर दो सुंदर कहानियां मिलती है। इसमें रात्रि की सृष्टि की कथा इस प्रकार बताई गई है-यम की मृत्यु हो गई थी। देवता प्रयास कर रहे थे कि यमी उसे भूल जाए। जब कभी यमी से पूछा जाता वह यही बताती कि यम आज ही मरा है। देवताओं ने कहा कि इस तरह तो वह यम को कभी भी न भूल पाएगी। तो हम लोग रात्रि की सृष्टि करें तब देवताओं ने रात्रि बनाई। रात्रि के बाद जो दिन आया वह अगला दिन कहलाया, और यमी यम को भूल गए। इसलिए लोग कहा करते हैं कि रात और दिन के क्रम में मनुष्य अपना दु:ख भूल जाता है।"8
 
              भारत में श्रुति की समृद्ध परंपरा है। रामचरितमानस में तुलसीदास काकभुशुण्डि से ही संवाद करवाते हैं ,महाभारत में श्रीकृष्ण के मुख से अर्जुन को गीता उपदेश देना और शिव जी के द्वारा पार्वती जी को हुंकारे के साथ कहानी सुनाना किस्सागोई का ही एक रूप है ।अब अगर बात करें गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पर तो वह भी मौखिक परंपरा पर ही आधारित थी । लोक संस्कार और ज्ञान -मीमांसा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परंपरा में ही पहुंचाई जाती थी। पुरानी पीढ़ी ,बड़े बुजुर्ग अपने आजमाये नुस्खों और निरंतर बढ़ते प्रायोगिक ज्ञान के सागर को नई पीढ़ियों को हस्तांतरित करते रहे हैं।कई बार यही आधुनिक विज्ञान व ज्ञान का आधार भी होता है। मौखिक परंपरा का ज्ञान सामाजिक मूल्य और आध्यात्मिक दर्शन ,इतिहास ,जटिल वैज्ञानिक और पर्यावरणीय ज्ञान का विश्लेषण और संरक्षण के साथ ही आचार- नीति का भी संचालन करता रहा है ।शास्त्रों का अस्तित्व तो बाद में आया। रंगकर्मी 'देवेंद्र राज अंकुर' अपनी किताब 'दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज 'में लिखते हैं कि "कोई शास्त्र तभी अस्तित्व में आता है जब उससे पूर्व उसी वर्ग की गतिविधि की अपनी सुधीर्घ की परंपरा न हो, वह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर पतन की ओर अग्रसर न हो चुकी हो- ऐसे संकट के समय ही उस परंपरा को सुधारने ,निखारने और उसके लिए कुछ निश्चित मानदंड बनाने की आवश्यकता अनुभव होती है। हम मानव जाति के क्रमिक विकास का भी अध्ययन करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कैसे एक स्वच्छन्द आदिम अवस्था से मनुष्य ने आज तक की व्यवस्थित जीवन पद्धति तक की यात्रा तय की है।"9 बहरहाल अगर गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की ही बात करें तो शास्त्रों,उपनिषदों का अध्ययन तो अपने को श्रेष्ठ समझने वाली जाति के द्वारा ही किया जाता था ।वहीं एक व्यापक शोषित ,वंचित जनसमुदाय था जिसके लिए शास्त्रों का अध्ययन करना पूर्णतया वर्जित था। उनके लिए लोक संस्कार और श्रम सहभाव के बीच की कड़ी किस्सागोई ही थी। उनके यहां श्रम से जुड़ी कहानियां थी, जो श्रम में राग और जीवन में आनंद पैदा करती थी। 'प्रभात'अपने लेख 'बच्चों के लिए मौखिक कहानियों की परंपरा' में लिखते हैं कि "कोई किस्सा कहो तो रैन फटे- यह उक्ति किस्से-कहानियों की जरूरत और उनकी शक्ति का भी पता देती है। जिस तरह भोर का उजास आते ही अंधेरा फट जाता है। किस्सों से मिलने वाली जीवनी शक्ति और जीवन दृष्टि से जीवन के संताप सहनीय हो जाते हैं। बिहार में बेगारी में रात-रात भर जागकर मक्का छीलते मजदूरों को ग्रीष्म की उमस भरी रात काटना बहुत भारी पड़ता था। श्रम  की थकान भुलाने के लिए लंबे-लंबे किस्से कहा करते थे। राजस्थान में रातों में खेतों में पानी देते या जाड़े की रातों में गेहूं की रखवाली करते किसान रात काटने के लिए कहानियां कहते हैं।"10 आज के तकनीकी युग की तरह मनोरंजन के साधनों की भरमार नहीं थी,ये अलग बात है कि  साधनों के विकल्प बढ़ रहे हैं लेकिन आदमी अकेला हो रहा है। हम यह नहीं कह सकते कि उस समय मनोरंजन के साधनों का अभाव था लेकिन वह सभी सामूहिकता और जनसंवाद की कला पर निर्भर थे। काम की थकान मिटाने और जीवन संस्कार देने के लिए किस्सागोई की चौपालें लग जाती थी। चौपाल संस्कृति कृषि समाजों की पहचान रही है इन चौपालों में कृषि समाज की कहानियां ,समाज में घट रही घटनाओं की कहानियां तथा उन पर व्यंग करने की कहानियां, जातक कथाएं ,पंचतंत्र की कहानियां ,जनसमुदाय के आस्था,विश्वासों की कहानियां सुनाई जाती थीं। जिसमें गद्य और पद्य दोनों प्रकार की प्रस्तुतियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। पद्य रचनाओं में रचनाओं में ढोला-मारु ,आल्हा ,रामायण आदि प्रमुख थे तो  गद्य  में किस्से सुनाए जाते थे। जिनमें अलिफ-लैला ,किस्सा तोता मैना ,सहस्त्र रजनी चरित्रा ,दास्ताने चार दरवेश ,सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी ,कथासरित्सागर आदि ।


                        किस्सागोई कल्पना के रसात्मक कहन की कला है ।यह सामाजिक होते हुए भी कल्पना प्रधान होती है। किस्सागोई इतनी लालित्यपूर्ण होती है की कल्पना करके कही गई बात भी प्रमाणिक सी लगती है । किस्सागो कहानियों को इतने रसमय और जीवन्त ढंग से सुनाता है कि श्रोता उसके प्रवाह में बहता  चला जाता है। किस्सागो एक यूटोपिया ही तो गढ़ता है  जिसमें इतिहास से सीख,वर्तमान में  सवाल और संबल तथा भविष्य में जीने की प्रेरणा मिलती है। लोकमानस में व्याप्त किस्सागोई की परंपरा ही शास्त्रीय भाषा में आख्यान बन जाती है।


                    जनसंस्कृति  में किस्से कहानियों का भंडार है । कई बार यही किस्से कहानियां जीने का माध्यम और आधार बन जाती थी। कुछ शासकों के शासन काल में किस्सागो को राजकीय सेवा के लिए नियुक्त किया जाता था। 'विजयदान देथा' अपनी कहानी 'चौबोली' में किस्सागोई कला की महत्ता बहुत अच्छे से रेखांकित करते हैं। बहरहाल जो समाज प्रकृति के और लोक के जितना करीब रहा है वह उतना ज्यादा ही मानवीय और कहानियों के समाज में जिया है। आदिवासी समाज आज भी प्रकृति को एक कहानी के रूप में ही जीता है। उनके सुख-दुख, पर्व-त्योहार प्रकृति की कहानी पर ही निर्भर रहते हैं। कहानियां प्रकृति के प्रति हमारे नजरिए के पुनर्मूल्यांकन के लिए दरवाजे खोलती हैं। अक्सर यह जटिल से जटिल पर्यावरणीय और दीर्घकालिक मुद्दों से जुड़ी चुनौतियों के बारे में संकेत दे देती हैं। इस मामले में जनजाति कहावतों ने हमें बहुत कुछ दिया है। उदाहरण के द्वारा इनकी महत्ता को रेखांकित कर सकते हैं- हर साल अप्रैल-मई के महीने में करीब 15 दिनों तक मनाए जाने वाले उत्सव उभौली (जिसे सकेला या सकेवा भी  कहा जाता है )के  दौरान किरांत के सदस्य समुदाय के लोगों से कहते हैं कि मछलियां मत मारो क्योंकि पवित्र कथाओं में इस दौरान मछली मारना वर्जित  किया गया है। यहां यह जानना दिलचस्प है कि इस समय मछलियां अंडे देने के लिए नदी की ऊपरी धारा में आ जाती हैं ,इस कारण मछली मारना वर्जित है। इसमें एक कहानी ही बनाई गई है जो भावात्मक आस्था से जुड़ी है,जबकि हकीकत कुछ और है। खैर एक और उदाहरण  के द्वारा हम समझ सकते हैं - मुंडन में एक पवित्र कथा के अनुसार कोईंच जनजाति (जो की किरांत समूह  से ताल्लुक रखते हैं ) के एक सदस्य को अनुमति दी जाती है कि वह घर बनाने के लिए एक पेड़ काट सकता है। इसके बदले में मातृभूमि के प्रति आभार जताने के लिए उसे 10 पेड़ लगाने होंगे। प्रकृति आदिवासी समाज में भावात्मक आस्था से जुड़ी है। आज कंक्रीट में तब्दील होते समाज को जरूरी है इन कहानियों को आत्मसात करने की।


               साहित्य  चाहे वह किसी भी देश समाज अथवा भाषा का हो वह अपने लोक साहित्य और उसमें मौजूद जनसंवाद की कला का सदैव ऋणी रहा है। समाज की परंपराओं, गीतों, त्योहारों ,भोजन, वस्त्र ,जीवन शैली का गंभीरता से अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि उनकी प्रत्येक परंपरा श्रम के सहभाव  और सामूहिकता से  निर्मित हुई है। प्रत्येक समाज का श्रम और जातीयबोध अलग-अलग था इस कारण उनकी कहानियां और जीवन संस्कार अलग-अलग हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि थोड़ी बहुत फेरबदल के बावजूद इनका राग और नाद सौंदर्य एक सा ही प्रतीत होता है। सभी समाजों द्वारा अपने मानवीय अनुभवों को अगली पीढ़ी तक सहजता से पहुंचाने का सबसे पुराना तरीका है  मौखिक प्रथा। 'राधावल्लभ त्रिपाठी' अपने लेख 'भारतीय कथा परंपरा' में लिखते हैं कि "आपबीती को कथा के रूप में कहने की यह परंपरा कितनी पुरानी है इसका साक्ष्य भी हमें ऋग्वेद से ही मिलता है। ऋग्वेद के सूक्त (10/34) एक जुआरी की आपबीती ही तो है। जुआरी अपनी जिंदगी का हाल बताते हुए कहता है - मेरी पत्नी (पहले) मुझे डांटती नहीं थी। मेरे ऊपर रिसाती भी नहीं थी। वह मुझ पर और मेरे मित्रों पर दयालु थी। मैंने पैसों के चक्कर में अपनी उस साध्वी पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया। अब तो मेरी सास मुझसे घृणा करती है। मेरी स्त्री अब मुझसे अलग रहती है। दुखियारे का सचमुच कोई सगा नहीं होता। मेरी स्थिति बूढ़े घोड़े की तरह है जिसे कोई घास नहीं डालता। बार-बार सोचता हूं कि अब नहीं खेलूंगा जुआ और जुआरियों की संगत छोड़ दूंगा। पर भूरे रंग के पासे (जुआ घर में ) फिंकने लगते हैं,तो मैं अपने आप को रोक नहीं पाता, उसकी आवाज सुनते ही चल देता हूं, जैसे कोई नायिका प्रिय से मिलने चल देती हो।"11 दुनिया में कोई भी ऐसी संस्कृति नहीं है जहां मौखिक साहित्य लिखित साहित्य से पहले न आया हो।


                      किस्सागोई लोकाचार का एक अनिवार्य हिस्सा है। इस कारण किस्सागो से अपेक्षा की जाती है कि वह लोक रुचि और लोक भावना का पारखी हो। किस्सागो में यह गुण तभी विकसित हो पाते हैं जब वह उस समाज के श्रम के सहभाव से जुड़ा हुआ हो। उनके सुख-दुख का  साझीदार हो। इस भावना के आने पर ही उसके कहन के भीतर से जनसमुदाय के प्रति संबोधन की भावना मुखर होती है।  लियो टॉलस्टॉय कहते हैं कि "कला सारत: मनुष्य के भावात्मक संसर्ग  का एक माध्यम है।"12 किस्सागो यह मानकर चलता है कि वह दूसरों के,जो असल में उसके अपने ही समाज का हिस्सा है,कल्याण का हेतु है। तभी वह प्रस्तुतीकरण के लिए अक्सर बगैर किसी लालच के अपनत्व एवं सौहार्द भावना के साथ प्रस्तुत करता है। जनकल्याण की भावना और उसके लिए नि:कलुश समर्पण ही किस्सा और किस्सागोई को सर्वस्वीकार्य और उपयोगी बनाता है। एक सचेत क़िस्सागो अपने किस्सागोई के द्वारा सामाजिक यथार्थ को दर्शाता है, उसकी विसंगतियों पर व्यंग करता है तथा समाजिकों को जीने का संबल देता है। 'कला की जरूरत' में 'अर्नेस्ट फिशर'  लिखते हैं कि "कला स्वयं एक सामाजिक यथार्थ है। समाज के लिए कलाकार सबसे बड़ा जादूगर है और समाज को सबसे बड़े जादूगर की जरूरत होती है, इसलिए समाज को यह मांग करने का अधिकार है कि कलाकार अपने सामाजिक काम के प्रति सचेत हो।"13


                   किस्सागोई का विकास श्रम के सहभाव के द्वारा सामूहिक मनोरंजन की कला के रूप में हुआ है।उसमें सामूहिकता के साथ-साथ सार्वलौकिकता की भावना भी सम्बद्द होती है। यद्यपि दुनिया के विभिन्न देशों-समाजों की भौगोलिक तथा परिस्थितिगत कारणों से अपनी कुछ खास विशिष्टताएं होती हैं। वही  बाकी देशों और समाजों से अलग सिद्ध करती हैं। इसके बावजूद अलग-अलग देशों और समाजों में रह रहे लोगों के स्वभाव में कुछ समानताएं भी होती हैं। किस्सागोई में व्याप्त शाश्वत  जीवनमूल्य और सार्वलौकिकता की भावना ही एक दूसरे को करीब लाती है। 'कला की जरूरत' में 'अर्नेस्ट फिशर' कहते हैं कि "कला एक जादुई उपकरण थी और प्रकृति पर अधिकार करने तथा सामाजिक संबंधों का विकास करने में मनुष्य के काम आती थी।"14 किस्सागोई की कला समाज में महत्वपूर्ण भूमिका के साथ विद्यमान थी, हैं कहने में थोड़ा संकोच हो रहा है क्योंकि यह कला विलुप्त प्राय होने को शुमार है। किस्सागोई को पुनः समाज में संजीवनी देने की जरूरत है। समाज की दशा और दिशा दोनों की निर्मिति में किस्सागोई की महत्वपूर्ण भूमिका है। किस्सागोई  से प्राप्त अनुभूतियां हमें विवेक से अधिकतम काम लेने के लिए प्रेरित करती हैं,और किस्सागोई से निर्मित हमारा विवेक हमारी अनुभूतियों को परिशुद्ध  करता है।


संदर्भ ग्रंथ -
1.बुशर कार्ल, रीदमस-(लोक संस्कृति आयाम एवं          परिप्रेक्ष्य)-सं०-महावीर अग्रवाल ,शंकर प्रकाशन-दुर्ग, पृष्ठ संख्या -29
2.  प्लेखानोव गिओर्गी (कला के सामाजिक उद्गम)अनु०-विश्वनाथ मिश्र, राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-17
  3. शिवेंद्र  (चाकलेट फ्रेंड्स और अन्य कहानियां )आधार प्रकाशन -पंचकूला(हरियाणा), पृष्ठ संख्या -120
4.कोठारी कोमल(लोक कलाओं को समझने का उपक्रम)भूमिका -बातां री फुलवाड़ी भाग-10, साहित्य अकादमी प्रकाशन-नई दिल्ली ,पृष्ठ संख्या-19
5. देथा विजयदान से प्रभात ,शिवकुमार,विश्वभंर की बातचीत, शिक्षा-विमर्श, सितम्बर-अक्टूबर  2011
  6. त्रिपाठी राधावल्लभ (भारतीय कथा परम्परा)www.hindisamay.com
  7. फिशर अर्नेस्ट ( कला की जरूरत )अनुवाद -रमेश उपाध्याय, राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-50
  8. त्रिपाठी राधावल्लभ (भारतीय कथा परम्परा)www.hindisamay.com    
   9.अंकुर देवेन्द्रराज (दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज)राजकमल प्रकाशन- नई दिल्ली ,पृष्ठ संख्या -11
   10.प्रभात (बच्चों के लिए मौखिक कहानियों परम्परा ) शिक्षा -विमर्श (मई- जून) 2016 पृष्ठ संख्या- 32
    11. त्रिपाठी राधावल्लभ (भारतीय कथा परम्परा)www.hindisamay.com
    12. प्लेखानोव गिओर्गी (कला के सामाजिक उद्गम)अनु०-विश्वनाथ मिश्र, राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-23
    13 .फिशर अर्नेस्ट ( कला की जरूरत )अनुवाद -रमेश        उपाध्याय, राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-41
     14.वही , पृष्ठ संख्या -40


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