हिंदी में आदिवासी विमर्श एक कमजोर स्थिति में है। उसके कारण बहुत स्पष्ट हैं। आदिवासी विमर्श करने के लिए आदिवासियों के बारे में जानना बहुत जरूरी है। और आदिवासियों के बारे में जानने के लिए उनके बीच जाना बहुत जरूरी है। आदिवासियों का कोई लिखित इतिहास नहीं रहा है। उनका अपना सारा साहित्य हमेशा उनकी बोलियों में उनके कहानी-किस्सों में, उनके नृत्य-संगीत में, उनके वादन में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है। वास्तविकता यही है कि यह सदैव गैर-आदिवासियों द्वारा ही लिखा जाता रहा है और तोडा-मरोडा गया है। आदिवासियों की अपनी अलग संस्कृति, परम्परा, रहन-सहन रहा है। इनकी लडाई हमेशा जल, जंगल, जमीन की लडाई रही है। आदिवासियों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य मात्र समाजशास्त्रीय किस्म का लेखन या सब्लार्टन लेखन का विस्तार भर नहीं हैं, बल्कि कहा जा सकता है कि वंचितों, अपेक्षितों के मुंह खोलने से भारतीय समाज की अधूरी अभिव्यक्ति अब पूर्णता प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो रही है। जनतांत्रिक देश में अपने भाषाई एवं सांस्कृतिक अधिकारों के अस्तित्व का संघर्ष एवं विचार विमर्श तो होना ही चाहिए ताकि समाज की विभिन्न परतों को समझा जा सके और उनका विकास किया जा सके। आदिवासी साहित्य में तिरस्कार शोषण, भेदभाव के विरोध एवं गुस्से का ही स्वर उभर रहा है। विकास के तथाकथित दैत्य से दो-दो हाथ हो लेने का जज्बा भी इसमें है। चूँकि भेदभाव से पूर्ण, असंतुलित विकास का सबसे बुरा असर आदिवासी समाज पर हो रहा है इसलिए इसकी सार्थक अभिव्यक्ति भी यहीं से होगीए क्योंकि आदिवासी समाज आज किसी भी भारतीय समाज के मुकाबले हर तरह से जीवन के समस्त मोर्चों पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। आदिवासी साहित्य में जितनी तरह के विविधतापूर्ण मानवीय समस्याओं एवं जिजीविषा के प्रश्न उठाए जा रहे हैं, उतने कहीं नहीं। इसलिए आशा की जानी चाहिए कि आदिवासी साहित्यकार इन प्रश्नों, समस्याओं एवं मुद्दों को अधिक से अधिक कलमबद्ध करें। यह साहित्य समाज में, इतिहास में अपने अस्तित्व की रक्षा के अतिरिक्त यह प्रश्न करता है कि साहित्य में उसकी मुक्ति का संघर्ष कहाँ हैघ् साहित्य के दर्पण में उसका चेहरा कहाँ और कैसा है? सभ्य समाज के लोग अधिकतर आदिवासी समाज को अपने रंगीन चश्में से ही देखना पसंद करते हैं, लेकिन आदिवासी रचनाकार स्वयं को कैसा देखना चाहता है? साहित्य में कैसा दिखना चाहता है? इस प्रश्न से जूझना आदिवासी साहित्य का संघर्ष है, ऐसे में आदिवासी रचनाकार की भूमिका चुनौतियों से भरी पडी है। सदियों पुराना आदिवासी साहित्य जो लोक कला एवं परम्परागत लोकगाथाओं के रूप में सदा विद्यमान रहा हैए उसकी रक्षा का दायित्व आदिवासी साहित्यकारों को ही वहन करना है।
चूँकि लिखित मुख्यधारा के साहित्य-समाज में आदिवासियों की अभिव्यक्ति को अल्प स्तर पर रखा गया है, तो यहाँ स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की बहस से इतर अनुभव की आधिकारिकता का प्रश्न उठता है। इस संदर्भ में हरिराम मीणा जी का कथन उल्लेखनीय है । ''कोई लेखक जन्मना आदिवासी है कि नहीं यह महत्वपूर्ण है, लेकिन यदि कोई गैर-आदिवासी लेखक अपने आदिवासी जीवन के आधिकारिक अनुभव के आधार पर साहित्य रच रहा है तो ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति आदिवासी साहित्य की श्रेणी में आयेगी इसलिए हमारा यह आग्रह नहीं है कि जो जन्मना आदिवासी नहीं है वो आदिवासी साहित्य नहीं रच सकता। सवाल आधिकारिक अनुभव का है, आधिकारिक अनुभव का मतलब है उसके भौतिक जीवन, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलू की अभिव्यक्ति क्या है? उसकी मानसिकता, भौगोलिक अंचल, परिवेश किस तरह के हैं? उसका जमीन, आसमान, हवा, पानी जंगल, पहाड, नदियों संपूर्ण प्रकृति के साथ संबंध क्या है?तब उस रचनाकार को आदिवासी जीवन का आधिकारिक अनुभव होगा।''
जब हम आदिवासी स्त्री की बात करते हैं तो हमारे मन में उनकी स्वच्छ्न्द, स्वतंत्र, संघर्षशील, आत्मनिर्भर छवि सामने आती है। भारतीय समाज और संस्कृति की तुलना में आदिवासी स्त्रियाँ आरम्भ से ही स्वतंत्र और स्वछंद रही है। चाहे प्रेम करने की स्वतंत्रता हो या फिर वर के चयन करने की स्वतंत्रता हो, आदिवासी स्त्रियाँ आरम्भ से ही आत्मनिर्भर रही है। यही विशेषता है जो आदिवासी स्त्रियों को अन्य स्त्रियों से विशिष्ट बनाती है। मेहरून्निसा परवेज ने अपनी कहानियों में इन्हीं आदिवासी स्त्रियों को चित्रित किया है। आदिवासी स्त्रियाँ स्वावलंबी होती है। वे खट-कमाकर अपना और अपने पूरे परिवार का भरण-पोषण करने में समक्ष होती है। मेहरून्निसा परवेज की कहानी 'कानीबाट' में दुलेसा और उसकी माँ जंगलों में काम करती है और उसका पिता खेतों में काम करता है। वह और उसकी माँ जंगलों से लकडी काटना, बोडा लाना, मछलियाँ पकडना जैसे कार्य करती है साथ ही मुर्गी पालन का कार्य भी करती है। इसी प्रकार का कार्य 'जंगली हिरनी'में लच्छो और उसकी माँ भी करती है। 'शनाख्त'् कहानी में बत्ती का बाप शराबी है। वह उनके साथ नहीं रहता है। कभी-कभी आता है। ऐसी स्थिति में बत्ती की माँ और वह घर-घर अण्डे बेचकर अपनी गृहस्थी चलाती हैं। आदिवासी स्त्रियाँ अपने पति पर निर्भर नहीं रहती हैं। वह घर से बाहर निकल कर जंगलों और खेतों में काम करती हैं और अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करके अपने पति के साथ परिवार का भरण-पोषण करने में सहायता करती है।
मेहरून्निसा परवेज ने आदिवासी स्त्रियों के शोषित रूप को ही चित्रित नहीं किया है अपितु उससे एक कदम आगे जाकर उन्होंने आदिवासी स्त्रियों में विरोध करने की क्षमता को भी व्यक्त किया है। आदिवासी समाज की स्त्रियाँ अपने ऊपर हो रहे शोषण, अतयाचार को अपनी नियति नहीं समझ कर नहीं बैठ जाती है बल्कि उसके प्रति विद्रोह प्रकट करती है। 'देहरी की खातिर' में जब पापा को घर से निकाल देते हैं। तब गाँव की एक काकी उसे अपने घर में आश्रय देती है। चूँकि वह माँ बनने वाली थीए काका-काकी उसे बहुत स्नेह और दुलार से अपने पास रखते हैं। बच्चे के जन्म के बाद काकी ही उसके और उसके बच्चे का ख्याल रखती है। लेकिन काका की नीयत में खोट आ जाता है। वह बेटी जैसी लडकी को अपने हवस का शिकार बनाना चाहता है लेकिन काकी सही समय पर पहुँचकर उसे बचा लेती है। एक लडकी की अस्मिता को बचाये रखने के लिए काकी टँगिया से अपने ही पति का खून कर देती है। 'शनाख्त' कहानी में पिता सेक्स का इतना भूखा रहता है कि अपनी ही बेटी पर उसकी बुरी नजर रहती है। शराब के नशे में अपनी बेटी को ही वासना का शिकार बनाने का प्रयास करता है। और इसी मानसिकता को लिये पिता बेटी के बिस्तर तक पहुँच जाता है, 'बच्ची का सारा शरीर सुन्न पड गया तो क्या उसके पास वह (पिता) 'नीच, पापी कुत्ते', उसे माँ ने गुस्से से फनफनाते हुए उसका हाथ पकडकर उठा दिया। बच्ची घबरायी सी उठकर बैठ गयी। भय के मारे उसका चेहरा सफेद पड गया था।' माँ गुस्से से अपने पति को घर से बाहर निकाल देती है। कुछ दिनों के बाद उसके मरने पर वह उसे पहचानने से भी इंकार कर देती है। 'सूकी बयडी' में थोरा का पति जब दूसरी औरत को घर पर लाता है लेकिन थोरा अपने पत्नी होने के अधिकार को छोडने के लिए तैयार नहीं है। वह अपने पति का विरोध करती है,.... 'जा, चले जा, कोठरी में खाली नी करूँ। म्हारे बापू ने ब्याह कराया हैं फेरे लेकर लाया है। ब्याहवाली हूँ। म्हारी इज्जत है।' इस प्रकार आदिवासी स्त्रियाँ भी अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिये आवाज उठा रही है।
् संजीव द्वारा लिखित 'अपराध' कहानी जो कि उनकी श्रेष्ठ कहानियों में से एक है, नक्सलवादी आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है। संजीव के प्रिय सूर्यनारायण शर्मा को नक्सलवादी आन्दोलन में शामिल होने के 'अपराध' में पुलिस ने हजारीबाग जेल में बंदूक की नालों से कोंच-कोंच कर मार डाला था। इसी के चलते वे 'अपराध' कहानी लिख पाते हैं। संजीव ने इस कहानी में प्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका, राजनेताओं सब पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। 'अपराध' कहानी के नायक सचिन (बुलबुल) को जब सजा दी जाती है तो उससे बचाव के लिए बोलने को कहा जाता है तब वह कहता है कि ''मुझे इस पूजीवादी, प्रतिक्रियावादी न्याय-व्यवस्था में विश्वास नहीं है। आम जनता भी जिसे न्याय का मंदिर कहती है वह लुटेरे-पंगे और जूता-चोरों से भरा पडा है।.... ये लाल थाने, लाल जेलखाने और लाल कचहरियॉं .... इन पर कितने बेकसूरों का खून पुता है, वकीलों और जजों का काला गाऊन न जाने कितने खून के धब्बों को छुपाए हुए हैं। परिवर्तन के महान रास्ते में एक मुकाम भी आएगा जिस दिन इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा वरना इनकी रोबीली बुलन्दियॉं धूल-चाटती नजर आएगी।' कहानी में बताया है कि सत्ता, व्यवस्था और समाज के तमाम विरोधियों व अपराधियों को संघर्ष और विरोध के माध्यम से हराया जा सकता है। भले ही उसके लिए समानान्तर सत्ता और व्यवस्था की स्थापना ही क्यों नही करनी पडे। संजीव मानते हैं कि आदिवासी किसान, मजदूर व नारी द्वारा सामन्तवाद, पूँजीवादी के फैलते वर्चस्व का हिंसात्मक विद्रोह और संघर्ष ही नक्सलवादी आन्दोलन है।
उदारीकरण, भूण्डलीकरण और बाजारीकरण के दौर में आदिवासी पर हो रहे अत्याचारों का वे विरोध कर रहे हैं संगठित होकर, लेकिन पुलिस के माध्यम से शोषणकारी व्यवस्था उन्हें कुचलने पर आमदा है। आदिवासी समाज का शोषण और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष और विद्रोह की परम्परा का लम्बा इतिहास रहा है। पहले आर्यों के खिलाफ संघर्ष किया है तो फिर मुगलों के साथ, फिर बाद में अंग्रेजों, सामंतों, जमींदारों के साथ संघर्ष किया वर्तमान दौर में ग्लोबल गॉंव के देवताओं टाटा, बिडला, अम्बानी, पास्को, वेदान्ता आदि के साथ संघर्ष कर रहे हैं।
आदिवासी समाज के इसी संघर्ष के इतिहास को याद दिलाती हैं। 'दुनिया की सबसे हसीन औरत'नामक कहानी। इस कहानी के माध्यम से संजीव आदिवासी समाज के साथ-साथ उन शोषणकारी आतताईयों को भी आदिवासी संघर्ष के इतिहास में बताते हैं। संजीव के लिए विरोध और प्रतिरोध करने वाली औरत ही दुनिया की सबसे हसीन औरत है। प्रेमचन्द्र ने दुनिया का सबसे अनमोल रत्न 'खून के उस आखिरी कतरे को माना था जो देश की हिफाजत के लिए गिरता है संजीव के लिए प्रतिरोध और संघर्ष करने वाली औरत ही दुनिया की सबसे हसीन औरत है।
निष्कर्ष:-
आदिवासी लेखन विविधताओं से भरा हुआ है। मौखिक साहित्य की समृद्ध परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है। आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई केंद्रीय विधा नहीं हैए जिस तरह स्त्री साहित्य और दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखन है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक-सभी प्रमुख विधाओं में आदिवासी और गैर-आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी जीवन समाज की प्रस्तुति की है। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी लेखन में आत्मकथात्मक लेखन केन्द्रीय स्थान नहीं बना सका, क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज 'आत्म'से अधिक समूह में विश्वास करता है। अधिकांश आदिवासी समुदायों में काफ ी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पाईं। परंपरा, संस्कृति, इतिहास से लेकर शोषण और उसका प्रतिरोध,सब कुछ सामूहिक है। समूह की बात आत्मकथा में नहीं, जनकविता में ज्यादा अच्छे से व्यक्त हो सकती है। आदिवासी कलम की धार तेजी से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वनोपज पर प्रतिबंध, तरह-तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस-प्रशासन की ज्यादतियां आदि हैं जबकि आजादी के बाद भारतीय सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के गलत मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल, जंगल और जमीन छीनकर उन्हें बेदखल कर दिया। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है, इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। चूंकि आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से लेता है, इसलिए उन आंदोलनों की भाषा और भूगोल भी महत्वपूर्ण रहा है। आदिवासी रचनाकारों का मूल साहित्य उनकी इन्हीं भाषाओं में है। हिंदी में मौजूद साहित्य देशज भाषाओं में उपस्थित साहित्य की इसी समृद्ध परंपरा से प्रभावित है। कुछ साहित्य का अनुवाद और रूपांतरण भी हुआ है। भारत की तमाम आदिवासी भाषाओं में लिखा जा रहा साहित्य हिंदी, बांग्ला, तमिल जैसी बड़ी भाषाओं में अनुदित और रूपांतरित होकर एक राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर रहा है। प्रकारांतर से पूरा आदिवासी साहित्य बिरसा, सीदो-कानू और तमाम क्रांतिकारी आदिवासियों और उनके आंदोंलनों से विद्रोही चेतना का तेवर लेकर आगे बढ़ रहा है।
संदर्भ सूची:-
1. मेहरून्निसा परवेज, मेरी बस्तर की कहानियाँ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006
2. वंदना टेटे, आदिवासी साहित्य: परम्परा और प्रयोजन, प्रथम संस्करण 2013
3. स. रमणिका गुप्ता, आदिवासी साहित्य यात्रा, संस्करण 2016
4. सं. रमणिका गुप्ता, हरिराम मीणा जी का साक्षात्कार, युद्धरत आम आदमी, अंक 13, नव. 2014
5. सं. संजीव, की कथा यात्रा: पहला पडाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
6. संजीव, संजीव की कथा यात्रा: दूसरा पडाव, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
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