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Sunday, January 12, 2020

बढ़ते बाल अपराध में सूचना तकनीकि के प्रभाव का एक अध्ययन

बढ़ते बाल अपराध में सूचना तकनीकि के प्रभाव का एक अध्ययन
       डॉ. घनश्याम शर्मा, जगदीश चन्द्र शर्मा
प्राचार्य,महर्षि दाधीच शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,केशवपुरा,कोटा,राज., प्राध्यापक, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम विश्वविद्यालय, इंदौर, मप्र.



 सारांश:- दैनिक समाचार पत्रो में हम प्रति दिन देश मे बढते बाल अपराध की धटनाओ के बारे में पढते है और चिन्ता भी प्रकट करते है कि देश की युवा पीढी किस दिशा में जा रही है प्रस्तुत अध्ययन में हमने यह जानने का प्रयत्न किया है कि आधुनिक सूचना तकनीक का फैला जाल, कम्प्युटर, इन्टरनेट, मीडिया, मोबाईल संस्कृति आदि का प्रभाव बाल-अपराध की उत्पति पर किस प्रकार पड़ा है तथा वे कौन से कारक है जो एक बालक को बाल-अपराधी बना देते हैं। इस अध्ययन में हमें आकंडे एकत्र करने में बहुत ही कठिनाईयो का अनुभव हुआ क्योकी बाल अपराधी के माता-पिता व और वह स्वंय भी अपने आपको अपराधी नही मानता है। हमने ये आंकडे बाल सुधार गृह से प्राप्त किये है। तथा अनुभव किया है कि पूरी सहानूभूति व स्नेह मिले तो यह बाल अपराधी तैयार ही नही होगें और अच्छा वातावरण देकर हम इनमें सुधार भी कर सकते है।
 प्रस्तावना :-आधुनिक समय मे बाल-अपराधियों की बढती संख्या चिन्ता का विषय है। विकसित और विकासषील दोनों प्रकार के समाजों में इनकी बढती संख्या वहाँ की सरकार और समाज दोनो के लिये विचारणीय है। हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि बाल-अपराध केवल आधुनिक समाज की देन है। बाल-अपराधी हर काल और हर प्रकार के समाजों में मौजूद रहे हैं। हाँ, इतना जरूर हैं कि आधुनिक परिवर्तनशील समाजों में बाल-अपराधियों की संख्या बढ रही हैं। साथ ही बदलते समय के साथ-साथ बाल-अपराध की प्रकृति में तेजी से बदलाव आया है। साथ ही बाल-अपराधियों के प्रति सरकार और समाज केे दृष्टिकोण में समय-समय पर बदलाव आते रहे हैं। बाल-अपराध की समस्या इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि अगर समाज में बाल-अपराधियों की संख्या बढती है तो यह वैयक्तिक विघटन के साथ-साथ सामाजिक विघटन का भी सूचक है। इससे न सिर्फ समाज की शान्ति भंग होती है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास का मार्ग भी अवरूद्ध होता है। प्रस्तुत अध्ययन में हमने यह जानने का प्रयत्न किया है कि आधुनिक सूचना तकनीक का फैला जाल, कम्प्युटर, इन्टरनेट, मीडिया, मोबाईल संस्कृति आदि का प्रभाव बाल-अपराध की उत्पति पर किस प्रकार पड़ा है तथा वे कौन से कारक है जो एक बालक को बाल-अपराधी बना देते हैं। हमनें अपने अध्ययन में बाल-अपराध को रोकने के उपाय, सरकारी नीतियों तथा बाल-सुधार कार्यक्रमों को प्रभावषाली बनाने तथा बाल-अपराध जैसी गंभीर समस्या के समाधान हेतु ठोस सुझाव भी प्रस्तुत किये है। प्रस्तुत विवरण अध्ययन बाल-अपराध के कारणों एंव निदान के ऊपर प्रकाश डालने का एक प्रयास है, जिससे इस समस्या को समझने और उसका हल ढूँढने में बहुत हद तक मदद मिल सकती है। 
शब्द कुंजी:-बाल अपराधी, बाल सुधार गृह, सूचना तकनीक 
 बाल-अपराध अर्थ व परिभाषा:- गिलिन एंव गिलिन के अनुसार,ÓÓबाल-अपराधी एक ऐसा व्यक्ति है,जिसके व्यवहार को समाज अपने लिये हानिकारक समझता है और वह उसके द्वारा निषिद्ध है।ÓÓमोवरर के अनुसार, ÓÓवह व्यक्ति जो जान-बूझकर इरादे के साथ तथा समझते हुए उस समाज की रूढिय़ों की उपेक्षा करता है, जिससे उसका सम्बन्ध है,बाल-अपराधी कहलाता है।ÓÓ प्रो.शेल्डन के अनुसार, ÓÓबालक द्वारा एक सामान्य सीमा से भी अधिक गम्भीर अपराध करना ही बाल-अपराध है।ÓÓ
 उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि बाल-अपराध के अन्तर्गत बालकों के असामाजिक व्यवहारों को लिया जाता है। बालकों व किशोरों के ऐसे व्यवहार जो लोक-कल्याण की दृष्टि से अहितकर होते हैं, जिससे समाज के व्यवहार नियामक आदेशों एवं आदर्शो का उल्लंघन होता है। और जिससे सामाजिक संगठन को क्षति पहुँचती है, इन व्यवहारों को बाल-अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। बाल-अपराधियों के निर्धारण में आयु एंव व्यवहार को काफी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। किस आयु-समूह के बच्चे को बाल-अपराधी की श्रेणी में रखा जाये, इस विषय पर अलग-अलग देशों में अलग-अलग मत है। अमेरिका जैसे देश में जहाँ 7 वर्ष की उम्र का बालक अपराधी माना जा सकता है, वहाँ भारत के सन्दर्भ में किसी बालक को तब तक अपराधी नहीं माना जा सकता ,जब तक कि बालक इतना न समझे ले कि वह जो कार्य कर रहा है वह क्या है, और उस कार्य के क्या परिणाम हो सकते है? इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए केन्द्रिय बाल अधिनियम, 1960 जो सभी केन्द्रशासित प्रदेशों पर लागू है, उसके अनुसार बाल-अपराधी 14 से 18 वर्ष की उम्र का हो सकता है, या माना जायेगा।
 भारत में बाल अपराध:- भारत में बाल-अपराध से सम्बन्धित आँकड़े स्पष्ट नहीं है। भारत में सन् 2000 तक बाल-अपराध सेे सम्बन्धित आँकड़े बाल-अपराध न्याय अधिनियम-1986 के अनुसार एकत्र  किये गये,जिसके अनुसार 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियो को बाल-अपराधी की श्रेणी में रखा गया था। सन् 2000 में बाल-अपराध न्याय अधिनियम में संशोधन किया गया और लडके तथा लडकियो दोनो के उम्र 18 वर्ष कर दिया गया। इससे बाल-अपराध से सम्बन्धित आंकडे काफ ी कुछ बदल गये। साथ ही बाल-अपराध से सम्बन्धित बहुत सारे मामले पुलिस में विभिन्न कारणों से दर्ज ही नहीं कराये जाते है। बाल-अपराध से सम्बन्धित अनुपयुक्त आँकडो के लिये पुलिस द्वारा बाल-अपराधियों को पकडऩे में अरूचि, उनका अनुपयुक्त प्रशिक्षण, अक्षमता एंव जनता के द्वारा सहयोग का अभाव भी उत्तरदायी है। अत: प्रतिवर्ष भारत में बाल-अपराध से सम्बन्धित जितने मुकदमे दर्ज किये जाते है, बाल-अपराधियों की वास्तविक संख्या साधारणत: उनसे कई गुणा अधिक होती है।
समस्या कथन:-
ÓÓबढते बाल अपराध में सूचना तकनीकी के प्रभाव का एक अध्ययनÓÓ
अध्ययन के उद्देश्य:-
प्रस्तुत अध्ययन निम्न उद्देश्य को ध्यान में रखकर सम्पन्न किया गया हैं:-
1. बाल-अपराधियों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि किस प्रकार उन्हें अपराध की ओर प्रवृत्त  होने में सहायक या बाधक होती हैं उस बात का पता लगाना इस अध्ययन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं। 
2. बाल-अपराध की उत्पत्ति में आधुनिक सूचना - तकनीक का फैला जाल प्रवृत्ति, कम्प्यूटर ,इन्टरनेट,मीडिया मोबाईल संस्कृति आदि के प्रभावों का मूल्याकंन करना भी इस अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य हैं। 
3. बाल-अपराध के उत्तरदायी कारकों की खोज करना एंव उनका विष्लेषण करना । 
4. बाल सुधार गृहों की सुधार-का मूल्याकंन करना एवं बाल-सुधार गृहों में बाल-अपराधियों का संस्थागत जीवन से समायोजन-असमायोजन का अध्ययन करना । 
परिपकल्पनाएं:-
1. आधुनिक जीवन-शैली में कम्प्यूटर मीडिया , इन्टरनेट , मोबाइल और  इत्यादि का व्यापक प्रसार बाल- अपराध की प्रकृति और उभरती प्रवृतियों को प्रभावित करते हैं। 
2. समाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि तथा अन्य सामुदायिक कारक बाल-अपराध को प्रभावित करते हैं। 
3. बाल-अपराधियों के तथा उनके माता-पिता के साथ संबंधों में कोई सार्थक अंतर नहीं होता है।
4. बालकों के स्कूल की कक्षाओं को छोड़कर भाग जाने की समस्या बाल-अपराधी बनने का पहला चरण है।
न्यादर्श:-
प्रस्तुत अध्ययन मेे ं200 बाल- अपराधी जिनमें कोटा, नयागाँव स्थित बाल-पर्यवेक्षण गृह के 150 लड़के बाल-अपराधी तथा कोटा, नान्ता स्थित किशोरियों के बाल-पर्यवेक्षण गृह के 10 बाल-अपराधियों और कोटा के 40 विभिन्न कच्ची-बस्तियों और कोचिंग संस्थाओं से भी विचलनकारी गतिविधियों में संलग्न बालकों से सूचनाएँ ली गई हैं। बाल-अपराधियों से प्राप्त तथ्यों को विश्लेषण का आधार बनाया गया है। अध्ययन से प्राप्त तथ्यों को उनकी प्रवृत्तियों के अनुसार विशिष्ट वर्गों में रखा गया है। शोध के ऑकडों को प्रस्तुत करने में समाज वैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण प्रणालियों जैसे- वर्गीकरण, सारणीयन, सांख्यिकीय विश्लेषण आदि का प्रयोग किया गया है। शोध के उद्देश्य के अनुकूल तथ्यों को वर्गीत करते हुए उन्हें सरल एवं सह-सम्बन्धात्मक सारणियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है
शोध विधि:- प्रस्तुत अध्ययन अन्वेषणात्मक और विश्लेषणात्मक अनुसंधान पर आधारित है।
परिसीमन:- बाल-अपराध सम्बंधी अध्ययन को पुरा करने के दौरान कई सीमाओं का भी सामना करना पड़ा जो कि निम्न् प्रकार से है 
1. प्रस्तुत अध्ययन केवल कोटा के बाल-अपराधियों पर किया गया है। बाल-पर्यवेक्षण गृहों में अध्ययन के दौरान मौजूद बाल-अपराधियों से प्राप्त तथ्यों पर निर्भर रहना पड़ा। 
2. शोध कार्य में अध्ययन काल के दौरान बार-बार बाल-सम्प्रेक्षण गृह जाना और उन से सम्बधिंत सूचनाएं एकत्रित करनी पड़ती थी, क्योकि कभी भी एक साथ अधिक संख्या में बाल-अपराधी वहाँ नहीं होते थे। 
3ण् यह अध्ययन केवल 2012 से 2014 तक के दौरान बाल-अपराध में संलग्न बाल-अपराधियों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित है। 
4. बाल-अपराधियों से सूचना एकत्र करना भी कोई आसान नहीं रहा, क्योकि बाल-अपचारी अनुसंधान कत्र्ता को संदेह की दृष्टि से देखते है तथा सही तथ्यों को छुपा जाते है। साक्षात्कार के दौरान पर्यवेक्षण गृह के अधिकारी और कर्मचारी भी उनके आस-पास होते है जिससे भी वे कुछ जो बोलना चाहते है वे नहीं बोल पाते। जिससे हमें अध्ययन से सम्बंधिंत प्राथमिक तथ्यों के एकत्रिकरण में दिक्कतों का सामना करना पड़ा। 
5. बाल-अपराधियों के पारिवारिक वातावरण और पड़ोस मित्र-मण्डली की गतिविधियों से अवगत होने के लिए बार-बार उनके निवास स्थान, मित्र मण्डली एवं पड़ोसियों से सम्पर्क करना पड़ा। 
अनुसंधान तकनीक एवं उपकरण:- प्रस्तुत अध्ययन में साक्षात्कार और कुछ हद तक व्यक्तिगत अध्ययन पद्धति का इस्तेमाल किया गया है साथ ही पर्यवेक्षण गृह में जाकर बाल- अपराधियों के क्रिया-कलाप और अन्य गतिविधियों का सहभागी अवलोकन विधि का प्रयोग करते हूए अध्ययन किया गया है।
अंकन व मूल्यांकन :-बाल सुधार गृह से विभिन्न आकडे एकत्र करने के बाद इन ऑकडो का मूल्याकंन किया गया आंकडे एकत्र करने के लिये बाल अपराधियो व सुधार गृह के कर्मचारियो एवं बच्चो के माता पिता से साक्षात्कार लिया गया साथ विभिन्न प्रकार की प्रश्नावलियों तैयार करके उन्हें भरवाया गया, जो आकडे एकत्र करने में सहायक रही। 
विश्लेषण :- अधिकांश बाल-अपराधी चूँकि निम्न् सामाजिक, आर्थिक पृष्टभूमि के थे, इसलिये वे अपने अवकाश के क्षणों को मनोरंजन के सस्ते साधनों जैसे- टी.वी.देखना, सिनेमा देखना, खेल-कूद और आवारागर्दी आदि के माध्यम से व्यतीत करते थे। लगभग 75त्न बालकों ने टेलीविजन देखना, 47त्न बालकों ने सिनेमा देखा,22त्न बालकों ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और उपन्यासों के द्वारा,45त्न बालकों ने खेल-कूद तथा 60त्न बालकों ने आवारागर्दी द्वारा मनोरंजन करना स्वीकार किया । परन्तु बहुत कम बालकों ने स्वीकार किया कि अपराधी गतिविधियों में उन्होने प्रेरणा टी.वी. देखने , सिनेमा देखने या पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा प्राप्त किए । हाँ इतना जरूर है कि इन मनोरंजन के साधनों के द्वारा उत्तेजना मिलती है, इस बात को अवश्य स्वीकार किया । मनोरंजन के इन साधनों के अलावा बाल-अपराधी बालकों में मनोरंजन के साधनों के रूप में तरह-तरह के नशे करना, जुआ खेलना आदि भी शॅामिल है। खाली समय में वे इन बुरी आदतों के द्वारा भी अपना मनोरंजन करते है। समाचारपत्र एवं पत्र -पत्रिकाओं में अपराध हिंसा और सेक्स की खबरें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाती है, इन सबका बुरा असर बालकों के मस्तिष्क पर पड़ता है। समाचार -पत्र अपराध -वृद्धि तथा अपराध करने का तरीका सिखाने में उत्तरदायी हैं। इसके साथ ही कभी-कभी समाचार-पत्र अपराधों को आकर्षक तथा उतेजक ढंग से छापते है। इससे किशोरावस्था की इच्छायें ( साहसपूर्ण कार्य की ) पूरी हो जाती है, और कुछ अनुकरण द्वारा इस उतेजना को पूरी तौर पर अनुभव करने की इच्छा रखते हैं। आज घर-घर में केबल-नेटवर्क आ जाने से टेलीविजन मनोरंजन का सबसे सशक्त और प्रभावी माध्यम बन चुका हैं। टेलीविजन पर हिंसा,अपराध,सैक्स, फिल्म और गन्दे गाने, तरह-तरह के सीरियल्स और सिनेमा- चैनल, तथा क्राइम-रिपोर्ट के माध्यम से परोसे जा रहे हैैं। इनका बहुत बुरा असर बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर पड़ता हैं। बाल-अपराध उपसमिति की 85 वीं बैठक की रिपोर्ट में भी कहा गया कि, ''टेलीविजन पर अपराधों की पृष्ठभूमि पर दिखाये गये दृश्यों का बच्चों पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता हैं।''। हमारे इस अध्ययन में भी 75त्न बच्चे टेलीविजन पर तरह-तरह के दिखाये गये हिंसा, अपराध और सेक्स सम्बन्धी खबरों और दृश्यों का प्रभाव अपने ऊपर स्वीकार करते हैं। परन्तु टेलीविजन को अपराध के लिये मुख्य प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में बहुत कम बच्चों ने स्वीकार किया । टेलीविजन, वीडियो और सिनेमा-हॉल में देखे गये चल-चित्रों का प्रभाव बालक के कोमल मस्तिष्क पर पड़ता है। सिनेमा बालक में अनेक प्रकार की उत्तेजनाएँ तथा कुविचार पैदा करते हैें। 1933 में ब्लूमर ने अपराधियों पर चलचित्रों के प्रभाव का जानने का प्रयास किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि 10 प्रतिशत पुरूष तथा 25 प्रतिशत महिला अपराधी मानते हैं कि सिनेमा के प्रभाव के कारण ही उन्होंने अपराध किया था। उनका कहना है कि सिनेमा खतरामोल लेने के गुण को विकसित करते हैं, दिवा-स्वप्न पैदा करते हैं, आसानी से रूपया कमाने की इच्छा को प्रोत्साहित करते है तथा अपराधी बनने की शिक्षा देते हैं। उन्होने चलचित्र देखने वाले बालकों पर भी अध्ययन किया और पाया कि उनमें सिनेमा को देखकर अपराध-सम्बन्धी उत्तेजनायें और विचार आसानी से उत्पन्न होते है।
सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि तथा अन्य सामुदायिक कारक बाल-अपराध को प्रभावित करते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि अधिकाश्ंा बाल-अपराधी निम्न् और अन्य पिछड़ी जातियों से आते हैं। अध्ययन में 47/5त्न बाल-अपराधी निम्न् जाति के सदस्य थे। 28/50त्न बाल-अपराधी अन्य पिछड़ी जातियों से थे । 12/50त्न बाल-अपराधी उच्च जातियों के सदस्य थे तथा 12/50त्न जनजातीय समुदाय से थे। स्पष्ट है निम्न् और अन्य पिछड़ी जातियों तथा जनजातीय समुदाय की निम्न् सामाजिक-आर्थिक स्थिति बाल-अपराध की उत्पश्रि में सहायक होती है। 
सामुदायिक कारकों का अध्ययनभी यह सिद्ध करता है कि परिवार, पड़ोस,मित्र मण्डली या साथी-समूह, शैक्षणिक संस्था, उपभोक्तावादी संस्कृति आदि बाल-अपराध की उत्पत्ति में सहायक होती है।
अधिकांश बाल-अपराधी अपने स्कूल के परिवेश, वहाँ दी जाने वाली शिक्षा और स्कूल के शिक्षकों को रूचिकर नहीं मानते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अधिकाश बाल-अपराधी स्कूल का परिवेश वहाँ दी जाने वाली शिक्षा से अपना समायोजन नहीं कर पाते हैं। रॉबिन्सन महोदय ने भी स्कूलों को जिस आधार पर बाल-अपराध के लिये दोषी ठहराया जाता है, उसका वर्णन इस प्रकार किया है: 
(1) स्कूलों का अनुशासन ढ़ीला है । 
(2) स्कूलों में बालकों को ठीक से शिक्षा नहीं दी जाती है । 
(3) बालकों के स्कूल की कक्षाओं को छोड़कर भाग जाने की समस्या बाल-अपराधी बनने की पहला चरण है।
निष्कर्ष :- बाल अपराधियो की  मित्र-मण्डली या साथी-समूह, पड़ोस, स्कूल और मनोरंजन के साधन आदि के अध्ययन से निष्कर्ष निकला कि 78त्न बाल-अपराधी मानते हैं कि अपराध करने की सीख उन्हें दोस्तों की संगति में ही मिली। साथ ही लगभग 82त्न बालकों ने स्वीकार किया कि अपराध करते समय उनके दोस्तों का साथ उन्हें मिला। 85त्न बालकों ने स्वीकार किया कि दोस्तों की संगति में ही उन्होंने शराब, बीड़ी-सिगरेट पीना,अवारागर्दी और स्कूल से भागना सीखा। बाल-अपराध की उत्पति में बालक के पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: सबसे महत्पूर्ण सुझाव तो यह है कि परिवार और समाज को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना होगा। बालक घर, पड़ोस, स्कूल आदि के द्वारा निरन्तर सहयोग, सहानुभूति और निदषर््ेान की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में बालक कुंठाग्रस्त और तनावग्रस्त होकर अपराधी गतिविधियों में संलग्न हो सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाल-अपराध को एक गंभीर सामाजिक समस्या मानते हुए परिवार, समुदाय, समाज और सरकार सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन तत्परता से करना होगा। तभी देष के इन नौनिहाल कर्णधारों को एक सफल, सुसंस्कृत और जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सकता है। 
 बाल-अपराध की उत्पति में बालक के पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: सबसे महत्पूर्ण सुझाव तो यह है कि परिवार और समाज को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना होगा। बालक घर, पड़ोस, स्कूल आदि के द्वारा निरन्तर सहयोग, सहानुभूति और निदषर््ेान की आवश्यकता होती है। इसके अभााव में बालक कुंठाग्रस्त और तनावग्रस्त होकर अपराधी गतिविधियों में संलग्न हो सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाल-अपराध को एक गंभीर सामाजिक समस्या मानते हुए परिवार, समुदाय, समाज और सरकार सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन तत्परता से करना होगा। तभी देश के इन नौनिहाल कर्णधारों को एक सफल, सुसंस्कृत और जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सकता है। 


सन्दर्भ सूची:-


1. आहुजा, रावत पब्लिकेशन  जयपुर
2. कुमारी मंजु-2000,भारत में बाल अपराध,प्रिन्टवेल पब्लिशर   जयपुर 
3. आहुजा राम और आहुजा मुकेश 2006 विवेचनात्मक    अपराधशास्त्र, रावत पब्लिकेशन जयपुर, शर्मा विरेन्द्र    2006,समकालीन भारत में सामाजिक समस्याएँ,पंचशील   प्रकाशन, जयपुर 
4. शर्मा एम एल और गुप्ता डी डी,2005, भारतीय सामाजिक   समस्याएँ, साहित्य भवन पब्लिकेशन आगरा 
5. अखिलेश एस 1999,बाल अपराध, ओस्कर पब्लिकेशन दिल्ली


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