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Sunday, January 12, 2020

डॉ. राम मनोहर लोहिया और उनका राजनीतिक चिंतन      

डॉ. राम मनोहर लोहिया और उनका राजनीतिक चिंतन
       डॉ. मधुकांता समाधिया
सहा. प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान, नेहरू पीजी कॉलेज, बांदा, उप्र.



 डॉ.राममनोहर लोहिया (1910-1968) आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतक थे, जिन्होनें भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। गाँधीवादी विचारों को अपनाते हुए एशिया की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर समाजवाद की नवीन व्याख्या और नया कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उनका चिंतन राजनीति तक ही सीमित कभी नहीं रहा, व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिंतन धारा की विशेषता थी। राजनीति के साथ-साथ संस्कृत, दर्शन, साहित्य, भाषा, इतिहास-आदि के विषय में भी उनके विचार मौलिक थे। उनकी विचारधार कभी देश-काल की सीमा में नहीं रही। विश्व रचना और विकास में उनकी अनोखी और अद्वितीय दृष्टि रही। विश्व नागरिकता का सपना देखते हुए मानव मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक माना।
 विलक्षण प्रतिभा के धनी डॉ. राममनोहर लोहिया वींसवी सदी के महान समाजवादी थे। उनकी जीवन पीडि़ता, शोषित, दुखी जनता को समर्पित था और उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे। उनका मन भारत की गरीबी से विक्षुब्ध था किन्तु कभी भी स्वयं को उन्होनें भारत तक ही सीमित नहीं रखा। समस्त मानव जाति की गरीबी उनके विचार और दु:ख का कारण बनी। उनके सपनों में एक ऐसा विश्व था जिसमें गोरे-काले, गरीब-अमीर, स्त्री-पुरूष, ऊंच-नीच के बीच कोई भेद न हो। 1947 के बाद भारत मे समाजवादी आन्दोलन को बढ़ाने में योगदान दिया। गॉधीवादी समाजवाद के वे प्रखर प्रचारक थे। दिसम्बर,1955 में डॉ. लोहिया की अध्यक्षता में भारतीय समाजवादी दल का निर्माण हुआ।
 एक नयी सभ्यता और संस्कृति के डॉ. लोहिया निर्माता थे। आधुनिक युग उनके चिंतन की उपेक्षा नहीं कर सका तो वही उन्हे पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। वे पंूजीवाद और साम्यवाद दोनों को एक-दुसरे से विरोधी न मानकर एकांगी मानते थे। इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दे सकता है। उनकी दृष्टि में प्रजातन्त्र और समाजवाद एक-दुसरे के बिना अधूरे है। मानवता के दृष्टिकोण से वे भारत सहित विश्व की सभी असमानता के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे। लोहिया का विचार-चिंतन रचनात्मक है। वे पूर्णता और समग्रता के लिए प्रयास करते थे। कई सिद्धान्तो, नीतियों और क्रांतियों के जनक रहे है। वे सभी अन्यायो के खिलाफ बोलने के पक्षधर रहे। एक साथ सात क्रांतियो का आवाहन किया-नर-नारी की समानता, काले-गोरे, जन्मवात-जाति प्रथा, विदेशी गुलामी, स्वतन्त्रता, विश्व लोकराज, निजी पंूजी, निजी जीवन में अन्याय लोकतन्त्र उत्पत्ति के लिए, अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ सत्याग्रह के खिलाफ इस क्रांति के प्रमुख बिन्दु रहे। इन क्रान्तियों के सम्बन्ध में उन्होनें कहा कि मोटे तौर से ये सातो क्रांतियां संसार में एक साथ रही है। हमारे देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। उनका कहना है कि अन्याय की समाप्ति किये बिना समाज में सुरत-शान्ति नहीं होगी। जीवन का कोई भी पहलू शायद ही बचा हो जिसे डॉ. लोहिया ने अपनी चिंतन प्रतिभा से स्पर्श न किया हो। मानव विकास के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी विचारधारा सबसे भिन्न और मौलिक रही। उनका आदर्श विश्व-संस्कृति की स्थापना का संकल्प था। भौतिक भौगोलिक, राष्ट्रीय, विश्व-संस्कृति की स्थापना का उनके ह्रदय में संकल्प था। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओ और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओ को तोड़कर उन्होने एक विश्व दृष्टि विकसित की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय आध्यात्मक का असली और सच्चा मेल तभी हो सकता है जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाय कि वे एक-दुसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सके। डॉ. लोहिया ने इतिहास-चक्र के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तक इतिहास-चक्र में कहा कि इतिहास-चक्र की गति से आगे बढता है। इस व्याख्या के अन्तर्गत उन्होने चेतना की भूमिका को मान्यता देते हुए द्वन्दात्मक पद्धति को एक नई दिशा में विकसित किया जो हीगल और माक्र्स की व्याख्याओ से अलग थी। लोहिया का मत था कि जाति  और वर्ग ऐतिहासिक गतिविज्ञान की दो मुख्य शक्तियां है। इन दोनों के टकराव से इतिहास आगे बढ़ता है। जाति रूढिवादी शक्ति का प्रतीक है जो जड़ता को बढ़ावा देता है, समाज को बंधी-बधांई नातो पर चलने के लिए विवश करता है तो वर्ग ग्त्यात्मक शक्ति का प्रतीक है जो सामाजिक गतिशीलन को बढ़ावा देता है। आज तक का सारा मानव इतिहास जातियों और वर्गो के निर्माण और विलय की कहानी है। जातियां शिथिल होकर वर्गो में बदल जाती है। वर्ग सुगंणित होकर जातियों का रूप धारण कर लेते है। लोहिया के अनुसार भारत के इतिहास में दासता का एक लंबा दौर जाति-प्रथा का परिणाम था, जो भारतीय जन-जीवन को सदियों तक कमजोर करती रही। इस जाति-प्रथा के विरूद्ध संघर्ष करने वाले को ही सच्चा क्रांतिकारी मानना चाहिए।
 डॉ. लोहिया ने न तो राज्यविहीन समाज की कल्पना की और न ऐसे समाजवादी समाज की जिसमें शासन सर्वोपरि हो। वे राज्य के महत्व को समझते थे और चाहते थे कि वह समाज के हित का संवर्धन का कार्य करें। राज्य की सत्ता को एक स्थान पर क्रेन्द्रित नहीं करना चाहते थे, उनका कहना था कि प्रभुसत्ता केवल राज्यों तक ही सीमित न रहे, उनका विभाजन ऐसा होना चाहिए कि वह गॉव-गॉव तक पहुंचे। केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की परस्पर विरोधी अवधारणाओं के बीच समन्वय और संतुलन-स्थापित करने के लिए उन्होने चौखम्बा राज्य की योजना-स्थापित करने का प्रयास किया। इस योजना के अन्तर्गत गांव, मण्डल (जिला) प्रान्तीय और केन्द्रीय सरकार के अस्तित्व और महत्व को बनाये रखते हुए उन्हे कार्यमूलक संघीय व्यवस्था के अन्तर्गत एकीकृत कर दिया जायेगा। वे अपने-अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए स्वायत्तता के आधार पर एक सूज में बंधे रहेगें। चौखम्बा राज्य में सशक्त सेना केन्द्र के अधीन, सशक्त पुलिस प्रान्त के अधीन पुलिस मण्डल के अधीन रहेगी। मशीनों वाले कपडों के उद्योग ग्रामों एवं मण्डलो के अधीन रहेगे। चौखम्बा राज्य में मूल्यो पर नियंत्रण केन्द्रीय शासन का रहेगा, जबकि कृषि ढाचा पूंजी और श्रम का अनुपात ग्राम और मण्डल की इच्छा पर रहेगा। सहकारी समितियां, कृषि सुधार, सिंचाई का अधिकांश भाग, बीज, भूराजस्व वसूली आदि राज्य नियंत्रित विषय चौखम्बा राज्य के ग्राम और मण्डल के अधीन किये जायेगें, डॉ. लोहिया का मत था कि कर के रूप में केन्द्रीय शासन के पास जो धन एकत्रित होगा उसका एक भाग गाँव या शहर को, दुसरा मण्डल को, तीसरा प्रान्त को और चौथा भाग केन्द्र को प्राप्त होना चाहिए। जब तक जनतान्त्रिक संस्थाओं के पास धन न होगा वे अपने कार्यो का सही तरीके से सम्पादन नहीं कर सकेगी। डॉ. लोहिया का मत था कि किसी देश का उत्थान वहाँ की जनता की चेतना और राजनीतिक जागृति पर निर्भर करता है। किसी देश के नागरिको को सुधारे बिना देश का सुधार असम्भव है। नागरिको का सुधार करना तभी संम्भव होगा जब स्थानीय-स्वशासन को अधिकार देकर उनको विभिन्न उत्तरदायित्वो को सौंपा जाय। उनकी दृष्टि में यह राज्य जनता की अकर्मण्यता को समाप्त कर भृष्ट एंव बोझिल व्यवस्था से मुक्त करता है। यह राज्य लोकतन्त्र की रूपरेखा में आपसी सहयोग को वृद्धि प्रदान करता है। चौखम्बा राज्य द्वारा, समुदाय द्वारा, समुदाय के लिए, समुदाय का शासन स्थापित होता है जो लोकतन्त्र के लिए अति-आवश्यक है। निरक्षरता, रूढि, परम्परा, जाति स्त्री-पुरूष असमानता आदि बुराइयों को समाप्त करना इस राज्य की स्थापना के लिए आवश्यक माना। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तरीके से प्रत्येक सामान्य जन के समक्ष बनाये जाने से ही चौखम्बा राज्य की कल्पना वास्तविकता का स्वरूप प्राप्त कर सकती है। यही कारण है कि उनका समग्र चिंतन सामान्य जनता के सम्पूर्ण विकास की ओर उन्मुख है।
 धर्म और राजनीति के पारस्परिक संम्बध पर विचार करते हुए उन्होने कहा कि प्यासों को पानी देना, गिरों को उठाना, भूखे को खाना देना, बेघर को घर देना ही धर्म का सही रूप है। उनकी दृष्टि में सच्चा धर्म मानववाद था जिसके वे अनुयायी थे। अपने इन्हीं विचारो के कारण डॉ0 लोहिया प्रचलित धर्म के संकुचित वनके विरोधी थे। राज्य और राजनीतिक दृष्टि से वे धार्मिक राज्य के स्थान पर धर्म-निरपेक्ष राज्य का समर्थन करते है, जो धर्म विरोधी नहीं बल्कि सर्वधर्म सम्भाव पर आधारित था। राज्य धार्मिक मामलो में निष्पक्ष रहे। बिना किसी भेदभाव के अपने सभी नागरिको को धर्म प्रचार, विश्वास, पूजा, उपासना आदि की स्वतन्त्रता प्रदान करे। राजनीति और धर्म दोनों को मनुष्य के नैतिक उत्थान का साधन मानते हुए उन्होनें दोनों के रचनात्मक रूप पर जोर दिया। मानव जीवन के सभ्य तथा सुसस्कृत-विकास के लिए डॉ0 राममनोहर लोहिया मौलिक अधिकारों के अस्तित्व को एक जनतान्त्रिक समाजवादी समाज के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार करते है। इस दृष्टि से वे राज्य को उनका संरक्षण के रूप में मानते है। उनकी मान्यता है कि मौलिक अधिकार मनुष्य-मनुष्य होने के नाते स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते है। इन अधिकारो में प्रत्येक मनुष्य की बौद्विक स्वतन्त्रता अर्थात चिंतन और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का समर्थन करते है, साथ ही यह मानते है कि यदि राज्य द्वारा किसी प्रकार का अंकुश लगाया जाता है तो व्यक्ति को उसका प्रतिरोध करने का अधिकार है। समता के मौलिक अधिकार को उन्होने सर्वाधिक महत्व प्रदान किया। इस दृष्टि से वैधानिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में समानता के अधिकार का समर्थन करते हुए नर-नारी समानता, जाति भेद उन्मूलन रंगभेद-अस्पृश्यता निवारण पर अत्यधिक जोर दिया। डॉ. लोहिया ने मनुष्य और समाज दोनों के विकास के लिए समता और स्वतन्त्रता के सभी मौलिक अधिकारों का समर्थन ही नहीं किया बल्कि इनकी स्थापना के लिए आजीवन संघर्ष भी किया।
 एक समाजवादी होने के नाते डॉ. लोहिया समानता सिद्धान्त के प्रतिपोषक थे उनकी दृष्टि में समानता सारे विश्व के व्यक्तियों के बीच होनी चाहिए। स्वतन्त्रता और न्याय के बिना समानता का कोई अर्थ नहीं है। हथियारो की आवश्यकता असमानता के द्वारा राज्य को होती है। यदि अन्याय को दुनिया से मिटा दिया जाय तो हथियारों की जरूरत ही नहीं होगी। समानता के चार पक्ष डॉ0 लोहिया बताते है, आन्तरिक बाझ आध्यात्मिक और भौतिक। समानता जहॉ बाझ और भौतिक हो वहां आन्तरिक और आध्यात्मिक भी होनी चाहिए। जब तक इन चारो में समानता नहीं होगी तब तक समानता पूरी नहीं मानी जायगी। स्वतन्त्रता के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू को डॉ0 लोहिया मानते है। उन्होनें एक ओर इस आवश्यकता पर जोर दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार मिलने जरूरी है जिन्हें राज्य की ओर से मान्यता होनी चाहिए तो दुसरी ओर राज्य पर यह जिम्मेदारी भी है कि वह प्रत्येक व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा की जिम्मेदारी ले। स्वतन्त्रता मे राज्य और व्यक्ति दोनों की जिम्मेदारी है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता न किसी पूंजीवादी समाज में मिल सकती है और न ही किसी साम्यवादी समाज में-इसकी प्राप्ति तो केवल समाजवादी समाज में ही मुमकिन है। डॉ. लोहिया ने आजादी के 3 रूप सामने रखे - व्यक्तिगत आजादी, राजनैतिक आजादी और आर्थिक आजादी। व्यक्तिगत आजादी से उनका आशय उस आजादी से है जिसमें व्यक्ति जहां चाहे वहॉ जाये। राजनैतिक आजादी मे ंहर तरह का साम्राज्यवाद समाप्त हो। कोई राष्ट्र दुसरे राष्ट्र पर हुकूमत न कर सके। आर्थिक आजादी पर लोहिया ने सबसे अधिक जोर दिया। वे मानते थे कि समाज में आर्थिक आजादी के बिना सभी तरह की स्वतन्त्रता बेकार है। भाषा, धर्म तथा पद के कारण होने वाले विशेष अधिकारो को समाप्त कर कार्यपालिका के अधिकारो पर न्यायपालिका के पूर्ण नियन्त्रण होने वाले विशेष अधिकारा को समाप्त कर कार्यपालिका के अधिकारो पर न्यायपालिका के पूर्ण नियन्त्रण होने की व्यवस्था हो। राजनीतिक और प्रशासनिक शक्तियों का विकेन्द्रीकरण हो। जन साधारण में चेतना बनायी रखी जाय कि हर अन्यायपूर्ण कानून का विरोध होगा। डॉ. लोहिया ने भाषा को विशेषाधिकार का दर्जा प्रदान करते हुए इसे वर्ग-निर्माण का प्रमुख आधार माना। भाषा सम्बन्धी विशेषाधिकारो से उनका मंतव्य अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से था जो हमारे देश को ब्रिटिश दासता से विरासत के रूप में प्राप्त हुआ था। अंग्रेजी शासनकाल में राज-काज की भाषा अंग्रेजी होने के कारण अंग्रेजी का ज्ञान रखने वालों को न केवल विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी बल्कि माना जाता था कि जो इसका ज्ञान नहीं रखते वे शासन संचालन की दृष्टि से भी सक्षम नहीं होते। ब्रिटिश शासन की शिक्षा नीति ने यही बात भारतीय जनमानस में भर दी। अंग्रेजी का ज्ञान प्रतिष्ठा सूचक ही नहीं प्रगति मूलक बन गया था। स्वतन्त्र भारत की शिक्षा नीति का भी यही विचार बन गया। डॉ. लोहिया इस अंग्रेजीवादी नीति के विरोधी थे। वे इसे प्रजातन्त्र की भावनाओं के प्रतिकूल ही नहीं बल्कि समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए अंग्रेजी ज्ञान के सम्बन्ध में इस प्रकार की भावना का उन्मूलन आवश्यक समझते थे। अंग्रेजी ज्ञान से अनभिज्ञ लोग तभी शासन संचालन में प्रभावी भूमिका का निर्वाह करने में समर्थ हो सकते है। डॉ0 लोहिया ने अपने नेतृत्व मे व्यापक स्तर पर अंग्रेजी-हटाओ अभियान के साथ-साथ अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग को बन्द करने की घोषणा भी की। विधान-परिषदों, सरकारी कार्यालयो, न्यायालयों, दैनिक समाचार पत्रों में अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई बन्द कर उसके स्थान पर लोकभाषा का प्रयोग डॉ. लोहिया चाहते थे ताकि भाषा के आधार पर निर्मित वर्ग और उसका महत्व समाप्त हो जाय। उनके अनुसार भाषा भेदभाव का नहीं समता का आधार होनी चाहिए। यह विभाजन की नहीं राष्ट्र की भावात्मक एकता को बढ़ाने का एक साधन के रूप में प्रयुक्त की जानी चाहिए। उनकी दृष्टि में ऐसी लोक-भाषा अंग्रेजी नहीं हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी को महत्व देकर उसके प्रचार-प्रसार हेतु प्रयत्न किये जाने चाहिए।
 डॉ. लोहिया का राजनीतिक चिंतन उनके समाजवादी दर्शन से उत्पन्न हुआ। सामान्यत: समाजवादी दर्शन का मुख्य आधार आर्थिक तत्व होता है और उसी के आधार पर समाजवादियों का सम्पूर्ण सामाजिक विश्लेषण आधारित है। डॉ. लोहिया के अनुसार आर्थिक तत्व के साथ-साथ परिवर्तन कारी तत्व की दृष्टि से सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तत्व भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है ये सब तत्व मिलकर ही उस सामाजिक चेतना का निर्माण करते है, जो सामाजिक परिवर्तन की उस पृष्ठभूमि को तैयार करते है जिसका परिणाम समाजवादी समाज की स्थापना के रूप में होता है। डॉ0 लोहिया ने गांधीवादी और माक्र्सवाद के सिद्धान्तो को मिलाकर भारतीय समाजवाद का सृजन करना चाहा। उन्हें पाश्चात्य समाजवाद का अनुकरण करना रूचिकर नहीं था। परम्परागत कार्यक्रमों और योजनाओं के स्थान पर उन्होनें मौलिक चिंतन एंव पहल पर विशेष ध्यान दिया। डॉ0 लोहिया ने समाजवाद के विषय में अपने विचार-माक्र्स, गाँधी तथा समाजवाद में व्यक्त किये। उनका समाजवाद एक व्यवहारिक राष्ट्रीय समाजवाद था। कई पहलुओं का विश्लेषण करके उन्होनें बताया कि हमारे सामने दो तरह की सभ्यताए है- पूंजीवादी और साम्यवादी परन्तु इन दोनों में गरीबी, भय और युद्ध का खतरा बढ़ता है इनमें लोगों की दशा भी बेहतर न बन सकी। आज की व्यवस्था निरन्तर विज्ञान की तकनीको को उद्योगों और कृषि में प्रयुक्त करने में दिलचस्पी ले रही है। इससे पूंजी एक स्थान पर जमा हो रही है। सामाजिक समता और सुख-शान्ति असम्भव हो गई। वैज्ञानिक तकनीको का प्रयोग यूरोप या अमरीका मे हुआ हो परन्तु एशिया और अफ्रीका में इनसे राहत मिलना सम्भव नहीं है इसीलिए एक नई व्यवस्था लाने की आवश्यकता है, जिसमें बहुत अधिक समानता हो शक्ति विकेन्द्रित हो, सामाजिक दायित्व हो, छोटे धन्धों की तकनीकी हो, अच्छा जीवन-स्तर हो, व्यक्ति को अधिकाधिक स्वतन्त्रता विश्व सरकार एवं विश्व की संसद हो।
 डॉ. लोहिया यूरोपीय समाजवाद को एशियाई देशो के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे। उन्होनें एशिया के समाजवादियो को संदेश दिया कि उन्हें अपनी नीतिया इस महाद्वीप की विशिष्ट परिस्थितियो को ध्यान में रखकर विकसित करनी चाहिए और अपने मौलिक चिंतन का प्रयास करना चाहिए। अपनी नीतियां उस सभ्यता के संदर्भ में विकसित करना चाहिए जो सदियो पुरानी सामन्तवाद और निरकुंशवाद से बाहर निकलने का प्रयत्न कर रही है। एशिया की राजनीति-कठोर धार्मिक रूढिय़ो और राजनीतिक प्रथाओं का मिश्रण है जो संकीर्ण मनोवृत्ति और सम्प्रदायवाद को जन्म देती है। लोकतन्त्रीय राजनीति की स्थिर परम्परा के अभाव में बहुधा आतंक और हत्याये राजनीति का हिस्सा बन जाती है। आधुनिक युग में अधिकारी तन्त्र के विकास से एक नया वर्ग अस्तित्व में आ गया। जिससे यहाँ की राजनीति और अधिक उलझ गयी। ऐसे नेतृत्व का उदय हुआ जो कोरा शब्दाडंवर रचाकर जनता की भावनाओं से खिलवाड करके अपनी कुर्सी पर टिका रहता है। एशिया समाजवादियों को इन सब बुराइयों से जूझना होगा।
 डॉ. लोहिया द्वारा प्रतिपादित नव-समाजवादी व्यवस्था एक सार्वभौम विश्ववादी व्यवस्था है। इसकी स्थापना से वे विश्व राष्ट्रो की विभिन्न समस्याओं से मुक्ति सम्भव मानते थे, इस बात को ध्यान मे ंरखकर उन्होनें विश्व समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समता सम्पन्नता और विश्व परिवार के विचारो का प्रतिपादन किया जिससे कि विश्व के सभी देशों के मनुष्यों के जीवन-स्तर में सुधार किया जा सके। नैतिक और भौतिक दृष्टि से एक उच्च जीवन स्तर प्राप्त कर सकें। एक ऐसी न्यायनिष्ठ समाजवादी विश्व व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया जो विश्व के सभी मनुष्यो और राष्ट्रो के मध्य समीपता स्थापित कर वर्ण, वर्ग,क्षेत्रीय विषमताओं का अन्त कर उनमें समन्वय परक समानता की स्थापना का माध्यम बनेगी। विश्व राष्ट्रो के सभी मनुष्यों को सार्वभौमिक नागरिकता व्यस्क मताधिकार, मानवाधिकारों का संरक्षण पर आधारित प्रजातांत्रिक प्रतिनिधित्व, श्रम की प्रतिष्ठा समता और सम्मान उपलब्ध होगा।
 ऐसी समतावादी विश्व-समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए लोहिया ने आवश्यक सहयोग और विश्व राष्ट्रो में मतैक्य की आवश्यकता पर बल दिया। यह विश्व-व्यवस्था अन्र्तराष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रेात है। इस नवीन समाजवादी विश्व-व्यवस्था की स्थापना के लिए उन्होनें चार सूत्रीय योजना भी प्रस्तावित की-1. एक देश की जो पूंजी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शोषण हेतु लगी है उसे जब्त करना। 2- विश्व के सभी लोगों को विश्व के किसी देश में आने-जाने तथा बसने पर प्रतिबन्ध लगा है उसे समाप्त करना। 3- विश्व के सभी देशो की स्वतन्त्रता तथा उनका संरक्षण 4- विश्व के सभी मनुष्यों को विश्व-नागरिकता की प्राप्ति।
 डॉ. लोहिया के अनुसार यह व्यवस्था सत्ता के विकेन्द्रीकरण आधार पर संगठित और संचालित होगी। ग्राम, मण्डल, प्रान्त (जिला), राष्ट्र तथा विश्व जैसे पाँच स्तम्भों पर आधारित इस व्यवस्था के प्रत्येक स्तर पर जन-प्रतिनिधि समान रूप से कार्य करेगें। अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता का प्रयोग करते हुए विश्व-सरकार के शान का संचालन करेगें। प्रत्येक राष्ट्र की सैन्य शक्ति नियन्त्रित होगी, विश्व युद्ध नहीं होगा। इस विश्व-सरकार पर एक द्वि-सदनीय विश्व-संसद का नियन्त्रण होगा तथा उसके निर्देशानुसार वह कार्य करेगी। इस प्रकार डॉ. लोहिया द्वारा प्रतिपादित विश्व-सरकार विश्व-शान्ति मानवता, स्वतन्त्रता और समानता का मूर्तरूप होगी। विश्व सभ्यता के विकास क्रम में एक नये और सुखद युग का प्रारम्भ करेगी।
 डॉ. राममनोहर लोहिया इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीति-विज्ञान के अत्यन्त उच्चकोटि के विचारक थे। जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जिसे उन्होनें अपनी मौलिक प्रतिभा से स्पर्श न किया हो। मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के सम्बन्ध में उनका अपना एक दृष्टिकोण और विचार है। भारतीय संस्कृति से न केवल उन्हे अगाध प्रेम था बल्कि देश की आत्मा को उनकी जैसी गहराई के साथ समझने वाले लोग भी इस देश में बहुत कम हुए है। स्वतन्त्रता के बाद उन्होनें गांधी जी द्वारा दर्शाए गये मार्ग पर चलकर समाजवाद को लाने के लिए सत्त प्रयास किया। माक्र्सवाद और गॉधीवाद का भली-भांति अध्ययन कर दोनेां की ऋुटियो को दूर करके नवीन समाजवाद की कल्पना की। डॉ. लोहिया भारत के किसानो एवं मजदूरों के अधिकारो के संरक्षक थे। स्त्री, आदिवासी शूद्र, हरिजन, मुसलमान के उद्वार के लिए निरन्तर संघर्ष किया। उनका यह संघर्ष दलीय राजनीति या चुनावी राजनीति का अंग नही था। सही मायने में वे समाजवादी आन्दोलन के कीर्ति स्तम्भ थे। प्रत्येक बात को उन्होने भारत की अखण्डता की दृष्टि से सोचा। उनके चिंतन की विशेषता इस बात में थी कि उन्होनें समाजवादी चिंतन की समस्याओं को एशियाई दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। भारत में भी लोकतंत्रीय समाजवाद को बढ़ावा देने में उनके समाजवादी चिंतन का विेशेष स्थान है।
 बहुमुखी क्रान्तकारी दर्शन के प्रणेता डॉ. राममनोहर लोहिया अन्याय का प्रतिकार उनके ंिचंतन की बुनियाद रहा है। वर्तमान व्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक संास्कृतिक आदि सभी पहलुओं पर उन्होनें प्रहार किया। उनका स्पष्ट मत था कि भारतीय समाज को जब तक सामाजिक समता प्राप्त नहीं होगी तब तक आर्थिक समता का कोई अर्थ नहीं। उनकी आर्थिक नीतिया किसी भी देश को विकास के मार्ग पर ले जा सकती है। उन्होनें चौखम्बा राज्य की जो योजना प्रस्तुत की उसमें स्पष्ट है कि वे समाजवाद को प्रजातन्त्र के बिना अधूरा मानते थे। वर्ण और वर्ग की यथार्थवादी व्याख्या करके उन्होनें वर्णहीन और वर्गहीन समाज का नक्शा सामने रखा।
 डॉ. लोहिया का चिंतन विश्व-शान्ति के उद्देश्य का प्रतीक है। उन्होनें विश्व व्यवस्था की जो रूपरेखा प्रस्तुत की वह उनके ंिचंतन की ऊंचाइयों को बताती है जिस नवीन सम्यता की तस्वीर हमारे सामने रखी उसे देखने से पता लगता है कि लोहिया एक परम्परावादी समाजवादी नहीं बल्कि परिवर्तन और प्रयोग से अपने चिंतन को जीवित रखे हुए थे। भविष्य में देश की समस्याओं का समाधान करने में उनके विचारों की प्रासंगिकता मान्य होगी। ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में आधुनिक भारत के लिए उनका चिंतन महत्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है।
 डॉ. लोहिया अपने चिंतन और कर्म की दृष्टि से भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में ही नहीं बल्कि भारतीय समाजवादियो में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना करने के प्रयत्न करने वालो में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है। उन्होनें रंगभेद, परम्परावाद, जातिवाद, वर्णवाद, साम्प्रदायिकता, अस्पृश्यता आदि पर ही प्रहार नहीं किए बल्कि लोकतांत्रिक समाजवादी समाज-व्यवस्था की स्थापना के लिए भारतीय-विश्व परिस्थितियों के अनुकूल सृजनात्मक ंिचंतन-पद्धति का निर्माण भी किया। राष्ट्रवाद के साथ-साथ वे अन्तर्राष्ट्रवाद के भी पोषक थे इसीलिए सम्पूर्ण विश्व-मानवता का कल्याण उनका उद्देश्य था। समाजवादी चिंतन और व्यवहार के वे ऐसे प्रतीक थे कि आज भी विश्व-समाजवादियों के ज्योति-स्तम्भ के रूप में उनका मार्ग-प्रशस्त करते रहेगें।


सन्दर्भ सूची:-
1. भारतीय समाजवाद के शिल्पी - मुख्तार अनीस पृ0 144-145
 समाजवादी अध्ययन एवं शोध संस्थान, लखनऊ।
2. प्रमुख राजनीतिक विचारक - डॉ0 डी0एस0 यादव पृ0 222-  223 डिस्कवरी पब्लिशिंग हाउस, नई-दिल्ली।
3. भारतीय राजनीतिक चिंतन - जीवन मेहता पृ0 197    एस.बी.पी.डी. पब्लिसिंग हाउस, आगरा।
4. भारतीय राजनीतिक चिंतन - सुषमा गर्ग पृ0 295
 अग्रवाल पब्लिकेशन, आगरा।
5. समकालीन राजनीतिक विचारक - डॉ. वी. सिंह गहलौत पृ. 325
 अर्जुन पब्लिसिंग हाउस, नई-दिल्ली।
6. राजनीतिक विचारक - विश्वकोश - ओमप्रकाश गावा पृ. 186
 नेशनल पब्लिसिंग हाउस, नई-दिल्ली।
7. भारतीय राजनीतिक चिंतन - डॉ. बी.एल. फ डिय़ा पृ. 350-  351 साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा।


 


 


 


 


 


 


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Aksharwarta International Research Journal May - 2024 Issue