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Sunday, January 12, 2020

पुस्तक लोकार्पण ''माटी मानुष चून" : अभय मिश्रा

नदियाँ हमारे यहाँ सभ्यता संस्कृति दोनों रही हैं, इन्हें नये सिरे से 
विनम्र आँखों से देखने की जरूरत है। - अभय मिश्रा



 विश्व पुस्तक मेले में 9 जनवरी 2020 को वाणी प्रकाशन ग्रुप के स्टॉल पर युवा रचनाकार एवं पर्यावरणविद अभय मिश्रा की पुस्तक 'माटी मानुष चून' का लोकार्पण और परिचर्चा की गयी। कार्यक्रम में पर्यावरणविद लेखक एवं पत्रकार सोपान जोशी़ स्वतन्त्र पत्रकार अरूण तिवारी और  लेखक व पत्रकार पंकज रामेंदु उपस्थित थे।
अभी हाल ही में अमेजन जंगल में लगी आग की तस्वीरें पूरी दुनिया में चर्चित हुईं, जो कहीं-न-कहीं पर्यावरण और मानवीय अस्तित्व के लिए एक बडे खतरे की ओर इशारा करती हैं। इस विश्व मे हर व्यवस्था का आधार पर्यावरण है, जो सुनने में सहज लगता हैए परन्तु इसकी महत्ता हमारे जीवन में उसी प्रकार है जिस प्रकार, 'दिए में तेल'। इसी पर्यावरण में गंगा, गंगा का पानी केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि सभी जीव जन्तुओं, खेतों के लिये भी अनिवार्य हैए परन्तु क्या हो जब यही पर्यावरण या गंगा प्रदूषित हो जाये, और सकल पारिस्थितिक तंत्र अस्त-व्यस्त हो जाए। इसी समस्या पर अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुएए पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर लाने के उद्देश्य से 'माटी मानुष चून' की रचना की गयी है।
 वाणी प्रकाशन ग्रुप की निदेशक अदिति माहेश्वरी-गोयल, ने मंच का संचालन करते हुएए सभी अतिथियों व श्रोताओं का स्वागत किया। उपन्यास 'माटी मानुष चून' के रचनाकार अभय मिश्रा से ही सबसे प्रथम प्रश्न पूछा गया कि इस उपन्यास के पीछे की क्या कहानी है? अभय मिश्रा जी ने बताया कि इस उपन्यास की रचना करने से पहले उन्होंने तीन वर्ष गंगा की यात्रा कीए बडे करीब से उन्होंने प्रकृति का विश्लेषण किया। यह उपन्यास खतरे की आशंका से उपजा है। आदिति माहेश्वरी-गोयल ने आगे प्रश्न किया कि आज जो गंगा की विकट परिस्थिति है, उसके क्या कारण हैं?  इस प्रश्न पर बडे विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि जहाँ से मनुष्य नदियों को अपना भगवान मानकर पूजने लगता हैए समस्या वहीं से उत्पपन्न होती है, क्योंकि इस विचारधारा में वह यही मानता है कि उसे नदियों से केवल लेना ही है, नदियों का प्रबंधनए उनकी चिन्ता का क्षेत्र नहीं। उपन्यासकार अभय मिश्रा इसमें जोडते हुए कहते हैं कि भारत के लोग धर्म को पकडने में अध्यात्म को पीछे छोड गये। इस पूरी चर्चा के केन्द्र में 'गाँधी और पर्यावरण' का मुद्दा रहा। सोपान जोशी इस सम्बन्ध में बताते हैं कि गाँधी की पुस्तक 'हिन्द स्वराज'में पर्यावरण के ऊपर भी गहन रूप से विचार किया गया है। गाँधी जी किस प्रकार श्मशीनी मानसिकता के विरोधी थे, क्योंकि यही मानसिकता नदियों को बर्बाद करती हैं। जिस धीमी गति से उन्होंने भारत को, यहाँ के लोगों व भूगोल को समझा, यही समझ विकसित करने की आवश्यकता है।
पत्रकार सोपान जोशी इस उपन्यास पर टिप्पणी करते हुए बताते है किए 'इतिहास नदियों का नहींए बल्कि मनुष्यों का ही होता है। नदियों का अस्तित्व तो मनुष्यों से भी पहले है। वहीं नदियों पर नये सिरे से सोचने की जरूरत है। अदिति माहेश्वरी-गोयल ने उपन्यास की महत्वपूर्ण पंक्ति पर महत्वपूर्ण प्रश्न किया कि 'वेंटिलेटर पर है, नदी इसका क्या अभिप्राय है? स्वतन्त्र पत्रकार अरुण तिवारी इसके उत्तर में बताते हैं किए वेंटिलेटर में जाने की यह हालत, नदियों की नहीं, बल्कि मनुष्यों की है। कई आँकडों को श्रोताओं के सामने रखते हुए वह नदियों, पर्यावरण पर चिन्ता व्यक्त करते हैं। वह बताते हैं कि 'यदि नदियों के प्रदूषण की यही स्थिति रही तो वर्ष 2075 तक बांग्लादेश का दो तिहाई भाग, और पूर्वी भारत का भाग स्थायी रूप से जलमग्न हो जायेगा।
एक महत्वपूर्ण, विश्लेषणात्मक चर्चा के बादए श्रोताओं ने बडी उत्सुकता से अपने प्रश्न को अतिथियों के सामने रखा। भारत में हुए कई सामुदायिक क्षेत्रीय आन्दोलनों के उदाहरण देते हुए उन्होंने उत्तर दिया। अन्त में सभी अतिथियों की उपस्थिति में, श्रोताओं की तालियों के बीच पुस्तक का साहित्य मंचन किया गया।


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