बनो सूरज सा
अभी घर से निकला हूँ,धीरे - धीरे आगे चलूँगा।
मैं किसी का गुलाम नही,जो सबके हुक्म झेलूँगा।।
कुछ लोगो को गुमान है,वो सूरज को रास्ता दिखाते है।
बड़े बेशर्म है ,उसकी रौशनी में ही आगे बढ़ते जाते है।।
वो जो समन्दर को कहते है , कि वो खारा है।
वो लोग समन्दर में उतरने से घबराते है।।
आईना बस दुसरो पर आरोप ही लगा सकता है।
अपनी चेहरे की धूल को वो खुद ना हटा पाता है।।
कोई कुछ भी कहे किसी को ये आसान है सबके लिए,
अपने शब्दों को भला खुद पर कौन आजमाता है।
करूँगा खुद पर यकीन अब ना सुनूँगा किसी की भी,
हर कोई खुले आकाश में सूरज सा कहाँ बन पाता है।
2 - *ऐसा ना हो अकेले रह जाओ*
माना जीवन मे खुशियो को तुम पाओगे,
क्या करोगे उन खुशियो का जब उन्हें
बिना परिवार खुद अकेले ही मनाओगे।
माना सारी सुख सुविधा को तुम पाओगे,
क्या करोगे सुख सुविधा का जब उन्हें
औरो का हक मार कर तुम कमाओगे।
माना जीवन मे तुम आगे बढ़ते जाओगे,
क्या करोगे मंजिलो पर पहुँचकर,
जब वहाँ खुद को अकेला तुम पाओगे।
शिखर पर पहुँच क्या अकेले मुस्करा पाओगे,
कोई भी ना होगा जब पास तेरे,बताओ मुझे,
फिर गीत खुशियो के किस तरह गुनगुनाओगे।
कभी उठा , कभी गिरा , इंसान यूँ ही आगे चला,
दिन-रात की भाग दौड़ में ईमान से ना गिरना कभी,
ऐसा ना हो बईमानी अपनो से करते करते हुए,
तुझे पता भी ना चले और तू अकेला रह जाये।
जीवन हर पल घटता जैसे पर्वत पल पल गिरता है।
तू क्यों ना मिलजुलकर सबसे हिम पर्वत सा ढलता है।।
चाहे कोई बड़ा या छोटा हो,ले चल साथ सभी को,
जैसे नदियों का पानी मिलकर एक समंदर बनता है।।
3 - संभल कर चल
है दूर तक अँधेरा और कोहरा भी गहरा।
संभल कर चल , रोशनी पर भी है पहरा।।
कोहरे को जरा ओस की बूंदों में बदलने दे।
राह में फैले घनघोर अँधेरो को छटने तो दे।।
माना उजाले के सहारे बहुत नही है पास तेरे,
बस जुगनू के उजाले पर खुद को चलने दे।
मंजिल की डगर मे बहकावे बहुत से है लेकिन,
कुछ मील के पत्थर के सहारे खुद को चलने दे।
कोई सिरा मंजिल का कभी तो दिख जायेगा।
अपनी पलकों को पल भर भी ना झपकने दे।।
नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).