आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता / संपादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
आवरण - आकल्पन : Akshay Ameria
हिंदी एवं संस्कृत के कवि एवं शास्त्रज्ञ पण्डित नित्यानन्द शास्त्री कृत रामकथापरक काव्यों का विशिष्ट महत्त्व है। प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता आधुनिक राम काव्य परम्परा में एक विशिष्ट कृति रामकथा कल्पलता और शास्त्री जी की अन्य कृतियों की समीक्षा और अनेक दृष्टियों से विश्लेषण का प्रयास है। इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की सम्पादकीय भूमिका के अंश प्रस्तुत हैं :
साहित्य मनीषी और सर्जकों की सुदीर्घ परंपरा भारतवर्ष का गौरव रही है। हमारे यहाँ ऐसे कई रचनाकार हुए हैं, जिन्हें कवि - आचार्य की संज्ञा दी गई है। वे कवि होने के पहले आचार्य भी हैं, इसीलिए उनकी सर्जना में शास्त्रज्ञता और कवित्व दोनों का संयोग वर्तमान है। बीसवीं शती के उल्लेखनीय रचनाकार नित्यानंद शास्त्री (1889 - 1961 ई.) एक कुशल शास्त्रज्ञ के साथ सर्जक भी थे। वे कवि - आचार्य की विरल होती परंपरा के सच्चे संवाहक थे। संस्कृत और हिंदी - दोनों में समान दक्षता से काव्य सर्जन उन्होंने किया। राघव और मारुति को उन्होंने विषमार्थ सिंधु को पार करने के लिए अवलंब माना था। इसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण काव्य ग्रंथों की रचना के माध्यम से की। इनमें श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्, रामकथा कल्पलता, हनुमद्दूतम्, मारुतिस्तवः आदि प्रमुख हैं। राम की मूलकथा के रूप में वाल्मीकि रामायण सदा उनके दृष्टि पथ में रही है। इस ग्रंथ के प्रति उनका अविचल श्रद्धा भाव श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् के माध्यम से प्रकट हुआ है, शाब्दिक रूप से ही नहीं, उसकी शैली और वर्ण्य के अनुसरण के रूप में भी। पंडित शास्त्री जी का यह महाकाव्य भाव, भाषा और शिल्प के अनेकानेक रत्नों से समृद्ध है। इस रूप में वह अपनी संज्ञा को सार्थक करता है।
संस्कृत काव्य जगत् में शास्त्री जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनके हिंदी महाकाव्य रामकथा कल्पलता को बीसवीं शती के रामकाव्य परंपरा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने संस्कृत चित्रकाव्य परंपरा की सुवास जनभाषा में उतारने का चुनौतीपूर्ण और श्रम साध्य प्रयत्न किया है।
रामकथा हर युग, हर परिवेश के लिए कांक्षित फल देने वाली है, उसे कल्पलता का गौरव ऐसे ही नहीं मिला है। स्वयं शास्त्री जी के लिए भी वह अपनी संज्ञा सार्थक कर गई है। कवि ने वाल्मीकि रामायण को उपजीव्य रूप में लेने के बावजूद कई नए प्रसंग, नई कल्पनाओं का समावेश कथा प्रवाह में किया है। ये प्रसंग रंजक होने के साथ ही कवि के कौशल का आभास देते हैं। कवि अपने युग परिवेश से विमुख नहीं है। उन्हें जहां अवसर मिला है, रामकथा के प्रवाह में अपने समय और समाज को भी अंकित करते चलते हैं। गांधी युग के इस रचनाकार ने स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन के स्पंदन को महसूस किया था और उसी ने उन्हें भारतभूमि के नव गौरव - गान के लिए प्रेरित किया। इसीलिए वे गा उठते हैं - हमें हैं मान भारत का। नल – नील, हनुमान आदि तो जैसे उनके समकालीन सेनानी हों, इसीलिए ठीक सेतु बंध के बीच भारत की महिमा गाते हुए दिखाई देते हैं:
अहा! ये पाद प्यारे हैं, जलधि जल से पखारे हैं।
मनोरथ सिद्ध सारे हैं, हमें हैं मान भारत का।
अहो! वीरो! उठो, आओ, कमर कस काम जुट जाओ।
जयश्री को लिवा लाओ, हमें हैं मान भारत का।
नित्यानंद शास्त्री ने पहले राम के चरित्र का अंकन संस्कृत महाकाव्य श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् के माध्यम से किया था। उसके बाद लोगों ने कृति के हिंदी पद्यानुवाद के लिए आग्रह किया, तब वे उसके स्थान पर स्वतंत्र काव्य रचना के लिए तत्पर हो गए और रामकथा कल्पलता का सृजन संभव हुआ। उनका विचार था, मुझे उस समय इस बात का पूरा अनुभव हो चुका था कि संस्कृत के श्लेषादि जटिल विषय को हिंदी पद्यानुवाद यथावत समझा नहीं सकता। श्लेष के वैशिष्ट्य को संस्कृत काव्य में उतारने में उनकी कुशलता जगह-जगह दिखाई देती है। किंतु वे यह भी स्वीकार करते हैं कि हिंदी में संस्कृत के कई श्लिष्ट पदों का आशय नहीं निकल सकता और बिना उनके प्रयोग के मूल भाव की रक्षा नहीं हो सकती। ऐसे में उन्होंने हिंदी की प्रकृति के आधार पर युक्तियुक्त मार्ग अपनाया है। आचार्य शास्त्री के लिए संस्कृत में काव्य सृजन अत्यंत सहज था, लेकिन वे यह भी स्वीकार करते हैं कि सर्वसामान्य के लिए वह कविता तभी अर्थपूर्ण हो सकती है, जब उसे हिंदी में प्रस्तुत किया जाए। रामकथा कल्पलता की सर्जना और हनुमद्दूतम् के हिंदी पद्यानुवाद के पीछे उनकी यही दृष्टि काम कर रही थी। पंडित शास्त्री टकसाली भाषा में निष्णात थे। वे शब्दों को मात्र गढ़ते ही नहीं थे, उन्हें प्रयोग संस्पर्श भी देते थे। मात्र रामकथा कल्पलता के नवनिर्मित शब्दों का कोश बना लिया जाए तो वह स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है। परंपरागत और नए सभी प्रकार के छंदों पर उनकी गहरी पकड़ थी। अपने हिंदी महाकाव्य को एकरसता से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने छंद परिवर्तन की तकनीक का इस्तेमाल किया है। जहां कहीं उन्हें युक्तिसंगत प्रतीत हुआ, उन्होंने छंदों के चरण विशेष में अक्षरों द्वारा उन छन्दों के लक्षण भी प्रस्तुत कर दिए हैं। वे छन्दों का नियोजन प्रसंग और विषय के अनुरूप करने में सिद्धहस्त थे। मध्यकालीन दौर में विकसित हुए कई काव्य रूपों और नए प्रयोगों में आचार्य शास्त्री विशेष पटु थे। उनकी यह पटुता स्थान - स्थान पर परिलक्षित होती है। आशु कवित्व से लेकर समस्या पूर्ति और चित्रकाव्य तक उनके विलक्षण कौशल का परिचय हमें उनकी कृतियों में मिलता है। रामकथा कल्पलता जहां उनके लिए भक्तिपरकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, वहीं वे राम के लोकरंजनकारी आख्यान को जनमानस में प्रसारित करने के लिए इस दिशा में प्रवृत्त हुए। सर्वहित और अमंगलनिवारण से लेकर अलौकिक आनंद और मोक्ष जैसे प्रयोजनों तक के फैलाव को समेटती है उनकी कविता।
पंडित शास्त्री जी के कई ग्रंथ वर्षों पूर्व श्री वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई एवं अन्य संस्थानों से प्रकाशित हुए थे। उन पर अध्येताओं ने पर्याप्त कार्य भी किया, किंतु कालांतर में उनकी उपलब्धता न रही। ऐसे में उनके दौहित्र श्री ओमप्रकाश आचार्य ने ग्रंथों के पुनः प्रकाशन का बीड़ा उठाया। देवर्षि कलानाथ शास्त्री, जयपुर और पूर्व राजदूत डॉ वीरेंद्र शर्मा, दिल्ली ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। कोलकाता में स्थापित आचार्य नित्यानंद स्मृति संस्कृत शिक्षा एवं शोध संस्थान पंडित शास्त्री जी के अवदान पर पुनर्विचार का अवसर दे रहा है।
इस पुस्तक में महाकवि शास्त्री जी के संक्षिप्त जीवन वृत्त और रचना संसार को समाहित करते हुए उनके महाकाव्य रामकथा कल्पलता के विविधायामी समीक्षण - विश्लेषण पर केंद्रित सामग्री सँजोई गई है। इस महाकाव्य के रचना सौष्ठव, कथा उद्भावना, रसवत्ता, संवाद योजना, प्रमुख चरित्र, भक्ति तत्व आदि के साथ ही कृति के सांस्कृतिक, दार्शनिक, सामाजिक संदर्भों पर भी महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किए गए हैं। इन सभी आलेखों से कृति की व्याप्ति और विस्तार, अंतर्वस्तु और संरचना, शक्ति और सीमाओं का आकलन संभव हो सका है। इस दृष्टि से सभी विद्वान लेखकों के प्रति हम प्रणत हैं। शास्त्री जी की महत्वपूर्ण कृतियों श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्, श्री दधीचि चरित, बालकृष्ण नक्षत्रमाला आदि पर केंद्रित आलेख भी इसमें समाहित किए गए हैं।
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता
संपादक : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रकाशक : आचार्य नित्यानंद स्मृति संस्कृत शिक्षा एवं शोध संस्थान, कोलकाता
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