देवनागरी विमर्श / सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
आवरण - आकल्पन अक्षय आमेरिया
भारतीय लिपि परम्परा में देवनागरी की भूमिका अन्यतम है। सुदूर अतीत में ब्राह्मी इस देश की सार्वदेशीय लिपि थी, जिसकी उत्तरी और दक्षिणी शैलियों से कालांतर में भारत की विविध लिपियों का सूत्रपात हुआ। इनमें से देवनागरी को अनेक भाषाओं की लिपि बनने का गौरव मिला। देवनागरी के उद्भव-विकास से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी के साथ हमकदमी तक समूचे पक्षों को समेटने का प्रयास है डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- देवनागरी विमर्श। देवनागरी लिपि के विविध पक्षों को समाहित करने का यह एक लघु विश्वकोशीय उपक्रम है।
पुस्तक में लेखक एवं संपादक डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा का मन्तव्य है कि भाषा की वाचिक क्षणिकता को शाश्वतता में परिणत करने का लिखित माध्यम ‘लिपि’ मनुष्य द्वारा आविष्कृत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आविष्कारों में से एक है। भारतीय सन्दर्भ में देखें तो ब्राह्मी की विकास यात्रा से उपजी देवनागरी लिपि पिछली एक सहस्राब्दी से भारत के अधिसंख्यक निवासियों की भाषाओं की स्वाभाविक लिपि बनी हुई है। संस्कृत जैसी प्राचीन भाषाओें के साथ ही हिन्दी, मराठी, कोंकणी, नेपाली आदि आधुनिक भाषाओं तथा अनेक जनजातीय एवं लोक बोलियों को एक सूत्र में पिरोने की दृष्टि से देवनागरी का महत्त्व निर्विवाद बना हुआ है, वहीं देश की ऐसी अनेक लिपियों से देवनागरी के सहगोत्रजा भगिनीवत् सम्बन्ध हैं, जो ब्राह्मी और प्राचीन देवनागरी से उपजी हैं। पिछली दो-ढाई शताब्दियों में रोमन की षड्यंत्री दावेदारी के बावजूद देवनागरी निर्विकल्प और विकासशील बनी हुई है।
वैसे तो देवनागरी का अतीत बहुत पुराना है, किंतु पिछली एक सदी में देवनागरी ने जो यात्रा तय की है, वह उसके पहले की कई शताब्दियों में संभव नहीं थी। पिछली शती नागरी के समक्ष कई चुनौतियों को लेकर आई थी, जिनमें एक सार्वजनीन लिपि के रूप में रोमन को स्थापित करने के प्रयास को देखा जा सकता है। इसके विपरीत स्वाधीनता आंदोलन के उपकरणों में देवनागरी लिपि को स्थान देकर राष्ट्र नायकों ने इसकी महत्ता को रेखांकित किया था। अंततः विजय देवनागरी की ही हुई और उसे आजादी मिलने के बाद संविधान के अनुच्छेद 343 (एक) के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी की लिपि के रूप में अंगीकृत किया गया। वैसे तो राजकाज में देवनागरी की उपस्थिति सदियों से रही है किंतु स्वाधीनता प्राप्ति के अनंतर इसमें एक नया मोड़ उपस्थित हुआ। आज तो यह देश की अनेक भाषाओं लोक एवं जनजातीय मूल्यों के साथ हमकदम होती हुई गतिशील बनी हुई है।
उच्चारणानुसारी लेखन की दृष्टि से ब्राह्मी मूल की लिपियों का अपना विशेष महत्त्व है, जिनमें से देवनागरी का तो संस्कृत जैसी परिष्कृत भाषा का शताब्दियों से संग साथ रहा है। फलतः उसमें उन तमाम ध्वनियों को वैज्ञानिक ढंग से लिप्यंकित करने की सामर्थ आ गई है, जो किसी भी अन्य लिपि के दायरे में नहीं आ पाते। फिर देवनागरी में अन्य भाषाओं से आगत ध्वनि यों को भी लिप्यंकित करने के लिए समय-समय पर नए-नए जुड़ते रहे हैं। ऐसे वर्णों में ड़, ढ़ और विदेशी भाषाओं में प्रचलित वर्णों में क़, ख़ जैसे नुक्ता युक्त ध्वनियों को देखा जा सकता है, जो संस्कृत में उपलब्ध नहीं हैं।
देवनागरी विमर्श पुस्तक को चार खण्डों में विभक्त किया गया है – भारतीय पुरा लिपि इतिहास और देवनागरी की विकास यात्रा; विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी का प्रयोग : स्थिति एवं संभावनाएं; सूचना प्रौद्योगिकी, भारतीय भाषाएं और विश्व लिपि देवनागरी तथा राष्ट्रीय भावात्मक एकता और देवनागरी लिपि। इस पुस्तक की संरचना में नागरी लिपि परिषद्, राजघाट, नई दिल्ली और कालिदास अकादेमी के सौजन्य-सहकार में मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र की महती भूमिका रही है। सम्पादन-सहकार संस्कृतविद् डॉ जगदीश शर्मा, साहित्यकार डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा, डॉ संतोष पण्ड्या और डॉ मोहसिन खान का है। यह ग्रन्थ प्रख्यात समालोचक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (4 जनवरी 1929 - 30 मार्च 2009) को समर्पित है। आवरण-आकल्पन कलाविद् अक्षय आमेरिया Akshay Ameria का है।
देवनागरी विमर्श
सम्पादक डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा
मालव नागरी लिपि अनुसंधान केंद्र, उज्जैन
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