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Wednesday, May 6, 2020

कविताएं

शीर्षक - विस्मृत सी रोशनी..

 





अक्सर..

रंग-बिरंगी रोशनी में लिपटी

तुम्हारी ये व्याख्याएं

खींच लाती हैं मुझे

झिलमिलाते आवरण में ,

मै विस्मृत सी

चलती.. चली जाती हूं वहां 

दूर तक !!

 

.. बहुत पीछा करती हूं

पर ..

एक गहन अन्धकार

चलता है साथ-साथ

रोशनी में भी ..

 

तुमने देखा है क्या ?

 

Namita Gupta"मनसी"

 

 

शीर्षक - मन को पिघलना ही था..


एक सैलाब था, पार करना ही था..

कुछ बारिशें थीं, भीगना ही था..

पड़ाव थे कई, ठहरकर गुजरना था..

कुछ उलझनें थी, सोचना ही था..

राज मन में थे बहुत, खोलना ही था..

मिथक थे मन में कई, तोड़ना ही था..

आंधियां थी इधर, रुख मोड़ना ही था..

चुप रहते भी कब तक, बोलना ही था..

 

ये मन! हां ये मन ही तो है

..उस स्पर्श से, पिघलना ही था !

 

Namita Gupta"मनसी"

 

शीर्षक - जो होना नहीं उसकी तलाश क्यों..

 


खिलना ही है कलियों को,मुरझाने की बात क्यों

अभी बाकी हैं बहुत बातें, चलने की बात क्यों !!

 

यूं तो तलाश ही लेंगें मंजिल, ये अल्फाज मेरे

नहीं हो जिनमें तुम.. फिर उनकी तलाश क्यों !!

 

जब "शब्द" ही हैं ये..आईना इस मन के

वो जो छिपे हुए से..उन ही का नाम क्यों !!

 

रे मन, कैसे समझाऊं मैं तुझको..

जो होना ही नहीं, बार-बार उसका ख्याल क्यों!!

 

Namita Gupta"मनसी"

 

 

शीर्षक - वो भूला हुआ सा..

 




"सब कुछ" तो है.. पर है कहीं कुछ

हां कुछ ,छूटता हुआ सा !!

 

अक्सर  संभाला है इस मन को अकेले

रहा फिरभी.. कुछ टूटता हुआ सा !!

 

सोचती हूं अगर , बिखरे जो ये लावा

देख न सकोगे..वो फूटता हुआ सा !!

 

यूं तो चल पडी थी अपनी ही राह पर मैं

कि ठहरी हूं खोजने को..वो "भूला" हुआ सा !!

 

Namita Gupta"मनसी"

 

शीर्षक - तुम्हारा यूं दबे पांव चले आना..

 


किस तरह कहूं कि निशब्द कर गये तुम

तुम्हारा यूं दबे पांव चले आना ,

अवाक् रही ..चुपचाप रही..

तुम्हारा यूं रंगों को बिखराना !!

 

आहट भी सुनीं..सुनीं दस्तकें भी

उस शांत नदी में यूं कंकर ढलकाना ,

सहसा बूंदों में सैलाब ले आए

फिर बादल सा सावन बन जाना !!

 

जब-जब गीली होती थी आंखें

नमी वो तुम तक कैसे जाती ,

मुझसे पहले नम होते तुम

कहो, कैसे सीखा वो सब पढ़ जाना !!

Namita Gupta"मनसी"

 

शीर्षक - कहीं कुछ तो है..

 


..कहीं "कुछ" तो है

विश्वसनीय सा 

..जो रहा अविश्वसनीय

अब तक !!

 

..कहीं "कुछ" तो है

सुदूर..

मन के बहुत करीब

रहा अनभिज्ञ.. अब तक !!

 

..कहीं "कुछ" तो है

मुझमें ही..

तुम में ही..

हर सोच से परे..सिर्फ हम तक !!

 

..कहीं कुछ तो है

अव्यक्त, निशब्द..

अनकहा सा ,

कुछ तेरा.. कुछ मेरा !!









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