तपती,झुलसाती तीखी धूप,
और सामने अंधेरा घुप।
बौराये आम, गर्मी में मन भी बौराया।
घर जाने को सड़क नापना,
मेरे हिस्से आया।
दो जून की रोटी पाने, विस्थापन था!
भूखे पेट अंतड़िया सुनती
पास जो मेरे ज्ञापन था।
मिलों पार खड़ा मेरा घर
आवाजे देता मुझको,
वादा करके आया था मैं,
चोखट,दरवाजों, छप्पर,
बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों से।
पापी पेट की भूख मिटाने
भेजता रहूंगा, पैसे, जैसे-तैसे
लेकिन अब नही काम बनता
क्या लिखा तूने ओ नियंता?
पसीने की बूंदे बेचकर...
कमा लेता था कुछ रुपया
क्या यह समय की त्रासदी,
अब पसीने का मोल नहीं..!
पसीना तो अब भी बह रहा है...
मिलों सड़क नाप कर घर जाने में।
क्यों, इतना मजबूर हूँ..?
क्योकि शायद..
मैं मजदूर हूँ।
©डॉ. मोहन बैरागी
Friday, May 22, 2020
मैं मजदूर हूँ।
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Aksharwarta - May - 2022 Issue
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