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Saturday, May 16, 2020

 रमणिका गुप्ता के काव्य में आदिवासी विमर्श

 रमणिका गुप्ता के काव्य में आदिवासी विमर्श

 

अजय प्रकाश यादव, 

सहायक शिक्षक,

विद्याभारती माध्यमिक विद्यालय,

अमरावती,

 

●  प्रस्तावना:-

          साहित्य जीवन की सहज अभिव्यक्ति हैं। साहित्य जीवन को कितना प्रभावित करता है। यह विचारणीय हो सकता हैं, परंतु साहित्य जीवन से ही ऊर्जा और जीवन-शक्ति प्राप्त करता हैं। यह निर्विवाद हैं । सामान्यतः कवियों या लेखकों का जीवन प्रवाह उतार-चढ़ाव का होता हैं। जीवन में आए उतार-चढ़ाव से उनकी सर्जनात्मकता प्रभावित होती हैं। हिन्दी साहित्य में आदिवासी समाज की सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में जो भी साहित्य लिखा गया है वह बहुत कम हैं। वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य काफी मात्रा में लिखा जा रहा है और उसकी समिक्षा भी हो रही है। आदिवासी इस धरती के मूल निवासी हैं। आदिवासी समाज एक विशिष्ट समाज हैं। नगरीय जीवन से दूर प्रकृति की गोद में उनकी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। जो अपने आप में अनोखी हैं। आदिवासियों का रहन-सहन, रीति-रिवाज, संगीत-नृत्य आदि सभ्य समाज से भिन्न हैं। प्रकृति के प्रति उन्हें अपार श्रद्धा एवं प्रेम है, प्रकृति ही उनके जीवन का आधार हैं। 

           “दलित तथा आदिवासियों के आस-पास की सांस्कृतिक चौखट एवं वातावरण भिन्न हैं। आदिवासियों की संस्कृति की अपनी एक चौखट हैं। उनकी संस्कृति में मिट्टी की सोंधी महक हैं। इस कारण आदिवासी साहित्य दलित साहित्य की नकल न बनकर, उसकी अपनी एक शैली तथा संरचना होनी चाहिए।“1 वैसे तो दलित साहित्य के अंतर्गत ही आदिवासी साहित्य का अध्ययन आज तक होता रहा है। स्वयं रमणिका गुप्ता जी भी आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य का अभिन्न अंग मानती हैं। बावजूद इसके कुछ आलोचक तथा विद्वान आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य से भिन्न बताते हैं। दलित साहित्य के अंतर्गत आदिवासी साहित्य का अध्ययन इसिलिए होता रहा है क्योंकि दलित हो, या आदिवासी हो दोनों वर्गों को दला गया है अर्थात दबाया गया है, उनका शोषण हुआ है। रमणिका गुप्ता जी ने अपना समग्र जीवन दलित, आदिवासी तथा स्त्री जाति के लिए समर्पित किया हैं। आदिवासी जनजीवन की अभिव्यक्ति उनके साहित्य में विशेषतः कविता में प्रखर रूप से सामने आती हैं। पहले आदिवासियों को दलितों में समाविष्ट किया गया था। इतना ही नहीं, उनके साहित्य को दलित साहित्य ही कहा जाता था। वैसे देखा जाए तो आदिवासी और दलित दोनों सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये दोनों समाज से कटे हुए थे, मगर आजादी के बाद दलित मुख्यधारा में मिल गए और आदिवासी मुख्यधारा से कटे रहे और आज भी अलग-थलग रह रहे हैं। जिसके कारण आदिवासी साहित्य एक अलग चिंतन और विमर्श का विषय बन गया हैं। मुख्यतः हिन्दी में 'आदिवासी विमर्श' को गति देने का काम झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्र हजारीबाग से 1987 में प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'युध्दरत आम आदमी' और उसकी संपादिका रमणिका गुप्ता ने किया। इसी पत्रिका के  तेलुगू, गुजराती और पंजाबी दलित साहित्य पर केंद्रित अंकों के जरिए दलित-विमर्श या आदिवासी विमर्श के कैनवास को और व्यापक किया। आदिवासी जीवन संघर्षों को शब्दबद्ध करती हुई रमणिका गुप्ता लिखती है "जंगल माफ़िया कीमती पेड़ उससे सस्ते दामों पर खरीदकर, ऊँचे दामों पर बेचता है और करोड़पति बन जाता है। पेड़ काटने के आरोप में आदिवासी दंड भरता है या जेल जाता है। सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी ज़मीन के मालिक बनने के बजाए पहले मज़दूर बने फिर बंधुआ मज़दूर।"2

              आदिवासी विमर्श एक ऐसा विषय है जिसमें समाज के रहन-सहन,उनकी संस्कृति,परंपराएं,अस्मिता,साहित्य और अधिकारों के बारे में विस्तृत चर्चा की जाती हैं। आदिवासी समाज सदियों से जातिगत भेदों, वर्ण व्यवस्था,विदेशी आक्रमण अंग्रेजों और वर्तमान में सभ्य कहे जाने वाले समाज द्वारा दूर-दराज जंगलों और पहाडों में खदेडा गया हैं। अज्ञानता और पिछड़ेपन के कारण यह समाज सदियों से मुख्यधारा से कटा रहा,दूरी बनाता रहा। आदिवासी साहित्य के कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से अपना भोगा हुआ सत्य और साथ ही अपने समाज की सामाजिक वैयक्तिक जीवन संघर्ष की समस्याओं को व्यक्त किया हैं।

            रमणिका गुप्ता हिन्दी की उन कुछ कवयित्रीयों मे से एक हैं जिन्होनें आदिवासी समाज की समृध्द सांस्कृतिक परंपरा और संघर्ष को लगातार समझने का प्रयत्न किया है बल्कि वे शायद हिन्दी की अकेली रचनाकार हैं जिन्होनें झारखंड के आदिवासियों के साथ कदम से कदम मिलाकर लड़ाइयाँ लड़ी,जेल गई,माफिया से मुकाबला किया और अपने इन्हीं अनुभवों को कविता में ढाला। उनके द्वारा लिखित पूर्वांचल-एक कविता यात्रा, विज्ञापन बनता कवि, आदिम से आदमी तक, आदिवासी कविताएं,तिल तिल नूतन,अब मूरख नहीं बनेंगे हम आदि कविता संग्रह में रमणिकाजी आदिवासियों के संघर्ष को जुबान देते हुए उनकी पहचान, उनके मूल्य, उनके जीवट व संकल्पों से परिचित कराती हैं।

                रमणिका गुप्ता द्वारा लिखित काव्य संग्रह 'पूर्वांचल-एक कविता यात्रा' की कविता 'नागा' में भारत के पूर्वोत्तर छोर विशेषकर असम, नागालैण्ड, म्यांमार आदि भागों में पाई जाने वाली 'नागा' प्रजाति के संदर्भ मे अपने विचार व्यक्त करते हुए कहती हैं कि ये नागा अपने-अपने पोखरों(घरों) के भीतर से जाग-जागकर बाहर निकलने लगे हैं । वे अभी तक अपनी खोह में आराम कर रहे थे। उनकी पत्नियाँ चरखे पर पूनी से सूत कातने में व्यस्त हैं,वहीं दूसरी ओर यतिम्बा(नागा लोगों की चावल से बनी शराब) ऊबल रही हैं। इनके इबो-इबे(लड़का-लड़की) घरों के आस-पास हमें देखते ही एकत्र हो गए हैं।

                "अंदर ही अंदर

                कहीं फुन्कार रहा 'नागा'!

                फण उठाये-विष उगलता

                अपनी खोह से बाहर आ गया!

                'यतिम्बा' की सफेद फेण पुरे ऊबाल पर

                करघे पर धागे सफेद पूरे कसाव पर

                चरखे पर पूनी के सूत तन गए

                'इबो घर' और 'इबे घर' पूरे सज गये।"3

          रमणिकाजी ने पूर्वांचल की यात्रा के दौरान नागा प्रजाति की जो भी दिनचर्या स्वयं की आंखों से देखी यहाँ उसे लेखनी के माध्यम से सजीव वर्णन करने का सफल प्रयत्न किया है।

          इसी काव्य संग्रह ‘पूर्वांचल-एक कविता यात्रा’ की एक अन्य कविता 'इतिहास के मुकाबिल' में कवयित्री इसी 'नागा' प्रजाति के जीवन-यापन के लिए की जाने वाली शिकार की परंपरा का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है, शरीर ढकने के लिये केवल एक लुंगी व शाल, शिकार के लिए हाथों में भालें, मृदंग लेकर जंगल-जंगल भटकना इनकी नियती बन गई हैं वे लिखती है-

                 "जंगलों में पेड़ों पर

                 अपने दुर्ग चिनता

                 खेतों की मेढ़ो को दीवारें मानता

                 अपनी टोलियों को

                 करघे में बुन-बुन बाँधता

                 'फनेक' को कमर में कसे

                 'इनफी' को कन्धों पर डाले

                 भालों पर तोरण टांके

                 मृदंग की ताल पर

                 धरती की टोह में चलता

                इतिहास के मुकाबिल हैं।"4

           रमणिकाजी ने अपने जीवन में जो कुछ भी देखा और भोगा उसका ही कविता के माध्यम से चित्रांकन किया। उनके 'विज्ञापन बनता कवि' नामक एक अन्य काव्य संग्रह की कविता 'वे बोलते नहीं थे' में उन्होंने आदिवासी समाज की दशा दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया हैं। कवयित्री लिखती है कि ये आदिवासी समुदाय बोलना या बहस करना नहीं जानता,वे केवल कर्म पर विश्वास रखते हैं। वे जंगल में पाई जानेवाली विविध जिवनावश्यक वस्तुओं के सहारे अपने और अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं, रमणिकाजी लिखती है-

                  "लकड़ियां काटते हल नाधते

                   रोपनी निकोनी कटनी करते

                   झूम सजाते महुआ चुनते

                   सखुए के बीज बटोरते

                   कुसुम फूल बीनते

                   सीझाते

                   बासों का जंगल का जंगल

                   सूपों और टोकरियों में

                   बिन डालते

                   पर वे बोलते नहीं थे।"5

              रमणिकाजी के काव्य संग्रह 'अब मूरख नहीं बनेंगे हम' की कविता 'दिलावन- दिलावन' में भी कवयित्री ने आदिवासी समुदाय की व्यथा को उजागर किया है। उनका कहना है कि ये आदिवासी समुदाय गुफाओं से निकलकर आज भी जंगलों में जीवन जी रहे हैं। उन्हें किसी भी प्रकार की लिपि या शाब्दिक ज्ञान नही दिया जाता। उन्हें तो बस मशीनों की तरह काम कराने हेतू ताकतवर मनुष्य बताकर अपने साथ ले जाते हैं। जबकि इन आदिवासी समुदाय की संवेदनाओं को कोई नही समझता या समझना ही नहीं चाहता। रमणिकाजी लिखती है-

                      “गुफाओं से निकले

                       तभी से वहीं हो

                       जंगल में जिन्दा रहते अभी हो

                       तेरी नुमाइश

                       'उत्सव' लगाते

                       पिछड़ी लकीरों का

                       गौरव बताते

                       न भाषा सिखाते

                       न लिपियाँ बताते

                       पीछे समय से

                       तूझे ले ले जाते

                       'जंगल का मानुष'

                       बताते बेजोड़,

                       दिलावन-दिलावन आयु-बाबाहोड!"6

                 कवयित्री रमणिका गुप्ता द्वारा लिखित काव्य संग्रह 'आदिवासी कविताएँ' में उन्होनें आदिवासी जनजाति की दिनचर्या,मानवीय भावना,प्रकृति प्रेम,भोलापन आदि बातों को सुन्दरता से दर्शाया है। इस काव्य संग्रह की  कविता 'भाग्य का बंधुआ' मे उन्होनें आदिवासी समुदाय द्वारा सदियों से जंगलों में भटकते-भटकते आधा पेट भोजन कर, अधनंगा रहकर संस्कृति का जतन करने की परंपरा को मोहक रूप से चित्रित किया है, रमणिकाजी लिखती हैं-

            "दूर...कहीं...दू...र

             जहाँ रास्तें खत्म हो गये

             जहाँ जंगलों में

             मानव और वन्य पशु

             एक हो गये

             मैं अधढका-सा

             कुछ खाया-कुछ भूखा-सा

             संस्कृति की डाली पर

             धर्म की डोली में

             सभ्यता की अनदेखी

             अनछुई दुल्हन को

             बिना छुए सदियों से ढ़ोता हूँ

             मैं भाग्य का बंधुआ हूँ।"7

           इसी ‘आदिवासी कविताएं’ काव्य संग्रह की एक अन्य कविता 'घुमक्कड आदमी की नस्ल कहां गई' में रमणिकाजी ने प्रकृति प्रेम के साथ नष्ट होते जंगल और भटकते आदिवासियों की व्यथा पर प्रश्नचिन्ह खींचा हैं, रमणिकाजी लिखती है-

              "कहां है वह

              चुप-सी चुप्पी

              पहाड़-सी शान्ती प्रकृति सी सुबह

              चिड़ियों सी मासूमियत

              चिन्घारते शेरों के बीच घूमती निर्भय-निडर

              घुमक्कड़ आदमी की नस्ल

              कहां हैं?कहां हैं?कहां हैं???"8

          ‘आदिवासी कविताएं’ काव्य संग्रह की एक अन्य कविता 'लोहे का आदमी' में कवयित्री ने भोलेपन में विकास के नाम पर आदिवासियों द्वारा स्वयं अपना घर(जंगल) नष्ट करने तथा उन्हीं की आनेवाली पीढ़ी को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देने की भावना का सजीव और मार्मिक वर्णन करते हुए लिखती है-

             "उसने विकास के नाम पर काटी 'लाइफ-लाइन'

              भूख के नाम पर भरे गोदाम

              पेड़ नहीं काटी अपनी ही टाँगे

              वह टहनियां नहीं छाटता रहा

              अपनी ही पीढियों के हाथ-पाँव

              छाटता रहा नाती-पोती की ऊंगलियां,नख-दन्त

              आंखो की पलकें और पुतलियां

              पत्तों के नाम पर!"9

 

● निष्कर्ष:-

              आदिवासी साहित्य की अनेक पुस्तकों का सम्पादन तथा अपने उपन्यासों, कहानीयों, कविताओं आदि में आदिवासियों के जीवन, उनके संघर्ष की गाथा स्वयं उनके साथ उनके बीच रहकर भोगे हुए पलों का जीवित चित्रांकन रमणिका गुप्ताजी ने बखूबी किया हैं। कहते हैं 'लिक-लिक गाड़ी चले,लीकहि चलै कपूत, लीक छाडी तीनहि चलै, शायर,शेर,सपूत।' रमणिका गुप्ता का साहित्य एवं सम्पूर्ण जीवन इस उक्ति का उदाहरण हैं। रमणिका गुप्ता का संपूर्ण जीवन दलित, आदिवासी और स्त्री के लिए समर्पित हैं। वे जीवनभर इनकी ही पक्षधर बनकर लड़ती रहीं हैं। उनका नाम स्वयं एक संघर्षशील नारी का प्रतिक है। उनका संपूर्ण साहित्य सदियों से कुचले गए शोषित समाज की आवाज़ है। संपन्न सिख परिवार में जन्मी रमणिकाजी ने राजसी जीवन जीने की उपेक्षा कर दक्षिण-बिहार के जंगलों-पहाडों में आदिवासियों  के बीच 'परहित सरिस धरम नहीं भाई,परपीड़ा सम नहीं अधमाई ' को वास्तविक रूप में चरितार्थ करते हुए अपना जीवन समर्पित कर दिया। राजनीति में सक्रिय रहते हुए बिहार के कोयला खदानों मे काम करनेवाले मजदूर तथा वहाँ के किसानों पर हो रहे शोषण, विशेषकर दलित, शोषित, पीड़ित आदिवासी एवं वहाँ की महिलाओं के अधिकारों हेतू संघर्ष करती रही। उनकी छवि स्त्री विमर्श और दलित चेतना की सजग प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में रही। वे एक संघर्षशील नारी का प्रतिक थी। उन्होने अपने जीवन में जो भी संघर्ष किया,स्वयं जो भोगा उसे ही लेखनी के माध्यम से कागज पर उतारा। वे आधुनिक युग की अत्यंत सजग एवं संवेदनशील रचनाकार थी। उनके साहित्य में सहजता, सरलता,स्पष्टता,सत्यता,और अनिष्ट रुढ़ियों के खिलाफ विषमता के खिलाफ विद्रोह मिलता हैं।

• संदर्भ संकेत :-

1)      आदिवासी स्वर और नई शताब्दी,रमणिका गुप्ता,पृ 23

2) आदिवासी विकास से विस्थापन,सं.रमणिका गुप्ता,पृ 12

3) पूर्वांचल-एक कविता यात्रा,रमणिका गुप्ता,पृ 20

4) पूर्वांचल-एक कविता यात्रा,रमणिका गुप्ता,पृ 21-22

5) विज्ञापन बनता कवि,रमणिका गुप्ता,पृ 41

6) अब मूरख नहीं बनेंगे हम,रमणिका गुप्ता,पृ 42

7) आदिवासी कविताएँ,रमणिका गुप्ता,पृ 38

8) आदिवासी कविताएँ,रमणिका गुप्ता,पृ 61

9) आदिवासी कविताएँ,रमणिका गुप्ता,पृ 74

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Aksharwarta International Research Journal August - 2024 Issue