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Friday, May 15, 2020

कहानी...  शिकंजा.. 

अबकी बाबू साहेब कुछ जोर से चिल्लाए- "कहां मर गया रे बुधुआ मादर... कब से बुला रहे न रे बहन... सुनता काहे नहीं.. रे..! " 

बुधुआ जिसकी उम्र बारह-तेरह साल की थी. शरीर सूखे हुए पतले बांस की तरह. गहरे काले गढढों में धंसी हुई आंखें, सूखी हुई पसलियां, पपडियाये हुए होंठ, जिसे वो 

बार- बार जीभ से चाटता रहता, जिससे उसके होंठों पर 

गर्द की एक मोटी परत जम गई थी.एक मैले - कुचैले हाफ-पैंट और तार - तार हो चुकी बनियान में हाथ- बांधे

सिर झुकाए आकर खडा़ हो गया.

 

गोया वो आदमी का बच्चा नहीं कोई रोबोट हो, जिसके पुर्जे ढीले हो चुके हों. बुधुआ को सामने पाकर एक बार फिर दहाड़ उठे बाबू साहेब-" आंए रे स्साला! तुमको हम कितना देरी से बुला रहे हैं. सुनता काहे नहीं था, रे... कान में ठेपी लगइले था का ...? " 

 

" न... न...नहीं मालिक! भूसा घर से भूसा निकाल रहे थे." मालिक का गुस्सा देखकर थर-थर कांपते हुए बुधुआ

घिघियाते हुए बोला. मानो उसकी आवाज को कोई भीतर से धकेल रहा हो.

तभी, बाबू साहेब की नजर उसके मुंह पर गई, जहां किसी

चीज का जूठन लगा था. फिर, दहाड़ते हुए बोले - " आएं रे, स्याला ! अभी क्या खा रहा था तू रे..? झूठे बोल रहा था कि भूसा निकाल रहे थे. सच - सच बता नहीं तो आज, तेरी चमड़ी उधेड़ दूंगा."

 

सामने ही, बबूआइन मोढे पर बैठकर चावल चुन रही थी.

बुधुआ के खाने वाली बात को सुनकर उसने आंखें तेरेरते हुए कहा - " इस मुए का पेट है कि भरसांय . जब देखो कुछ न कुछ खाता रहता है. इसके चलते ही घर में दरिदर

का बास हो गया है. भगवान करे इसके पेट में बज्जर पडे. इसका शरीर गल- गलकर चला. मुंहझौंसे की अरथी उठे." 

इतनी, लानत - मलामत के बाद भी बाबू साहेब को संतोष नहीं हुआ.सामने पडा़ सोंटा उठाकर वो बुधुआ की तरफ लपके और लगे उसको पीटने. बुधुआ चिल्लाता रहा, गिड़गिड़ाता रहा - " नहीं, बाबू साहेब , अब कुच्छो नहीं खाएंगे.... "

धूल में लोटते हुए वो लगातार चिल्लाए जा रहा था -" नहीं बाबू साहेब! माई किरिया ( कसम) बाबू साहेब... अब नहीं खाएंगे.... बाप किरिया बाबू साहेब, जब बुलाइएगा

तब सुनेंगे, पितर किरिया बाबू साहेब, छोड़ दीजिये बाबू साहेब..! "

चिल्लाने के क्रम में उसके मुंह से गाजनुमा थूक बाहर आने लगा था. सोंटे की मार से बचने के लिए वो कभी लोटते हुए दायीं ओर को मुड जाता तो कभी बायीं ओर को ! 

अंत में जब सोंटा टूट गया तो बाबू साहेब हांफते हुए लात - घूँसों से उसकी धुनाई करने लगे. लगभग अधमरा करके ही बाबू साहेब ने बुधुआ को छोडा़, फिर बबुआइन से बोले - " स्याला बहुत जब्बर है ..! इसकी मतारी के ये नीच 

लोग साले बहुत चाईं होते हैं! " 

 

इस बात पर बबुआइन बिहंसती हुई बोली -" पता नहीं मरदुए क्या-क्या खाते हैं. गाय- सूअर तक तो छोडते ही नहीं!  "

 

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इतनी मार पडने के बाद बुधुआ का पोर - पोर दुखने लगा था. उसे अब सांस लेने में भी कठिनाई हो रही थी. उसका 

लगभग प्रत्येक अंग सूज गया था. उसने करवट लेने की कोशिश की, लेकिन एक तीव्र वेदना उसके पूरे वजूद में 

फैल गई. 

 

जब दिनभर खेत में काम करने के बाद वो घर लौटा था, तो खाना खत्म हो चुका था. जाकर बबुआइन से बोला कि -"  मालकिन, मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को है तो दीजिये! " 

 

तब, बबुआइन लगभग झल्लाते हुए बोली थी - " जाओ जाकर पहले बैलों को सानी- पानी दे दो, तब जाकर खाते रहना." 

 

गोया आदमी के खाने से पहले जानवर का खाना 

जरूरी हो. जब, वो खली - भूसी सानकर नांद के करीब गया, तो उसे बासी रोटी का एक अधजला टुकडा नांद के भीतर दिखा, जिसे देखकर पहले उसने चोर - नजरों से चारों तरफ देखा, फिर आहिस्ता से उस रोटी के टुकड़े को 

उठाकर देखने लगा, मानों कि उसे रोटी का टुकड़ा न मिला हो कोई कीमती चीज मिल गई हो. नांद में नमी के

कारण रोटी  गूंधे हुए आटे का शक्ल अख्तियार कर चुकी थी. फिर भी बुधुआ ने उस रोटी के टुकड़े को हसरत भरी नजरों से देखा और कुछ देर तक अपलक देखता रहा था.

फिर वो उसे खाने लगा था, तभी बाबू साहेब ने उसे हांक

लगाई थी.

 

बुधुआ एक बार फिर दर्द और भूख के दोहरे प्रहार से 

कसमसाया. उसे लगा जैसे कि उसकी अंतड़ियों को कोई जोर जोर से उमेठ रहा है! भूख और दर्द की लहरों पर सवार वो लगभग चेतनाशून्य- सा हो चला था! फिर, धीरे

- धीरे  बुधुआ के स्मृतियों के बादल का झुटपुटा साफ होने लगा था.उन बादलों के बहुत सारे टुकडों में बुधुआ भी था और उसके गांव- जवार के उसके संगी- साथी भी.

बुधुआ उर्फ बुधन दुसाध वल्द फेंकू दुसाध उस समय मात्र

आठ वर्ष का था, जब उसके पिता ने उसे बाबू साहब के यहां बंधक रख दिया था, उसकी बड़ी बहन पशुपतिया 

के विवाह में दहेज देने के लिए.

 जिस समय गाँव के बाल वृंद खेतों की ऊबड़- खाबड़ पगडंडियों पर छोकडे चलाते, गाँव के तालाब नाले से मछलियाँ पकडकर आग में भूनकर खाते, गर्मियों में आम के बगीचे में आम के मोजरों पर गुलेल से निशाना लगाने का खेल- खेलते थे, उस समय बुधुआ या तो अपने मालिक के खेतों में काम कर रहा होता या फिर ढोर - डांगर चरा रहा होता. उसे बहुत धुंधली- धुंधली सी याद है. जब वो बाबू साहेब की कोठी में आने को हुआ था, तब उसकी महतारी छाती पीट पीट कर रोने लगी थी.

करीब चार- पांच साल तो हो ही गये उसे बाबू साहेब की तामीरदारी करते. उसे उस वक्त थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था, जब उसकी माँ विलाप करते हुए बार - बार एक ही 

बात को दुहरा रही थी -" मत, ले जा हो बाबू साहेब हमरा बेटा के . ई चिराग जइसन लइका हम कहाँ से लाइब... हम जानत हईं ई अब दुबारा इंहा न आई, एक बार बिकाइल चीज कहीं वापस होला ! "

 

तब, पशुपतिया के बाबू उसकी माँ को समझने लगे थे-" ना रे पशुपतिया के माई, पशुपतिया के बियाह के साल - छव  महीना के बाद धीरे- धीरे करके कर्जा उतार दीहल

जाई."

 

लेकिन, जब बाबू साहेब के मुंडेर के नीचे बुधन के पिता पहुंचे थे तब बुधन का मन कैसा तो होने लगा था, और उसके बाबूजी तो फफक- फफक कर रो ही पडे थे! 

बोलने की कोशिश में शब्द उनके गले में अटक- अटक से पडते थे. तब बड़ी मुश्किल से वो बोल पाए थे- "बबुआ हमरा के माफ............. " और वे भरभरा रो ही तो पडे थे.उन छलछलाई- पानीदार आंखों में उसे अपने बाप की बेचारगी साफ झलक रही थी.

 

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वो दिन था, और आज का दिन है. फिर खुशी क्या चीज होती है, बुधुआ को आज तक पता नहीं चला. बाबू साहेब

के यहां आने के बाद उस पर रोज- रोज, नए- नए अत्याचार होने लगे.इन चार- पांच सालों में वो चार पांच

हजार मौतें मरा होगा, लेकिन उसके अंदर का स्वाभिमान नहीं मरा था. प्रतिरोध के तेवर उसके अंदर मौजूद थे. फिर उम्र भी उसकी कोई खास नहीं थी. इसलिए, ज्यादातर वो नाफरमानी ही करता और इस कारण पिटता भी दमभर के बाबू- बबुआइन से.

एक बार वो कभी रामदेई पासवान का भाषण सुनने गया था. उनके बारे में उसने सुन रखा था कि वो कोई बुद्धि जीवी- कम्यूनिस्ट हैं.शहर से पढकर उन जैसे लोगों की 

समस्याओं को जानने समझने के लिए ही वे उसके गांव आए हैं. क्या-क्या तो बताते रहे थे वो, हां याद आया, वो कोई किरान्ती- ऊरांती की बात कर रहे थे. कहते थे अब हम लोगों को डरने की जरूरत नहीं है.अब हम अपने ऊपर कोई अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेंगे! बहुत कर चुके हम राजपूत- भूमिहारों की गुलामी, अब हमें जागना होगा! नहीं तो ये लोग फिर से हम पर राज करने लगेंगे.

 

और.... और क्या बता रहे थे. हां याद आया कह रहे थे कि जब तुम्हारे ऊपर अत्याचार अधिक बढ रहा है तो तुम लोग नक्सली बन जाओ.तब उन लोगों में से ही किसी ने पूछा था कि, ई नक्सली का होता है भईया....? "

 

तब रामदेई पासवान ने बताना शुरू किया था -" नक्सली माने हक के लिए लडने वाला...., अत्याचार को बर्दाश्त नहीं करने वाला......सबको एक्के- छिप्पा में बैठाकर खाने- खिलाने की व्यवस्था करनेवाला....... रणबांकुरों की तरह धांय- धांय गोलियां चलाने वाला... " 

 

उस दिन वो चौंक सा पडा़ था. उसे आखिर वाली दो- चार  बातें समझ में नहीं आई थीं. ई कैसे हो सकता है कि राजपूत- दुसाध एक्के छिप्पा में बैठकर खाना खाएं  . जबकि बाबू साहेब तो उसे अपने घर में घुसने तक नहीं देते . वो पास वाले गोहाल, घर के बगल में बने ओसारे में सोता था . उसकी खाट के आसपास तो कोई फटकता  तक नहीं था.और गोली - बंदूक...... बाप- रे- बाप! उसे एक बार की घटना याद आयी.जब बभनौटी में किसी बात को लेकर आपस में ही झड़प हो गई थी, तो गोलियों की गरज से पूरी दुसाध टोली थर्रा गई थी.उस रात उसके बाबूजी ने उन लोगों को सख्त हिदायत दी थी कि खबर दार..... चाहे जो हो जाए, घर से बाहर कोई नहीं निकलेगा! 

 

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फिर बाबू साहेब के यहाँ आने के चार - पांच महीने बाद बप्पा आया था.टसटस पियर धोती और सगुन का मुरैठा बांधे! तब उसे वापस अपने साथ ले जाने के लिए बहुत चिरौरी- मिन्नत की थी उसने बाबू साहेब की. लेकिन, बाबू साहेब टस से मस  नहीं हुए थे. फिर, हाथगोड जोडकर भकुवा- भकुवा कर रोने लगा था बप्पा.तब जाकर कहीं बाबू साहेब ने उसके घर के कागज को अपने पास गिरवी रखकर बुधुआ को वापस उसके गाँव जाने दिया था! 

 

गांव पहुंचने के बाद उसे अपने पहले का घर पहचान में ही नहीं आ रहा था.घर के पिछवाडे की दीवार और एक कमरा एक सिरे से गायब थे. वहां अब साव जी की बछिया बंधी हुई थी. और उनके घर का दरवाजा पहले से 

कुछ ज्यादा ही चौड़ा दिखाई दे रहा था. जिस दिन सगुन हुआ  , उस दिन माडौ पर की मेहरारू लोग आपस में बतिया रही थी -" बाप है कि कसाई, बछिया ( पशुपतिया) को अपने जैसे उम्र के आदमी से ब्याह रहा है! "

तब, सुगनी बुआ ने उन लोगों को समझाते हुए कहा था -" क्या अनाप - शनाप तुम लोग बके जा रही हो. बेचारे की

हैसियत होती तो वो किसी अच्छे घर में रिश्ता न करता! खैर,  बाबा बलेसरनाथ किसी तरह पार - घाट लगाएं, जो होना था सो हुआ."

तब बुधुआ ने भी सोचा था कि भोज- भात और जात बिरादरी के चक्कर में बप्पा बेकार ही पडा़ नहीं तो उसकी जिंदगी की मिट्टी- पलीद काहे को होती! 

 

बुधुआ ने एकबार फिर करवट लेने की कोशिश की, लेकिन दर्द ने फिर दूने वेग से हमला किया! ....... बहुत दिनों से उसके भीतर कुछ रेंग रहा है.... लम्हा-दर -लम्हा........ रफ्ता- रफ्ता...... हौले- हौले...... और आज उसे पकड़ लिया है उसने...! 

 

सहसा, उसने फर्श पर थूक दिया है... थूक का एक मोटा चकता..! फिर, वो घोड़े पर सवार हो गया है... और... घोड़ा बड़ी तेजी से दौड़ रहा है..! वो, सामने जंग के मैदान में देखता है कि सामने बाबू साहेब भी खड़े हैं.  उसी रोबीली मुस्कान के साथ मोटी-मोटी मूंछों को ऐंठते  हुए. अरे ये उसके हाथ में फरसा कहाँ से आया , देखो तो कैसा चमक रहा है. लगता है जैसे अभी -अभी उस पर सान चढाया गया है.और इसके साथ ही उसने फरसा खींच कर चलाया है. और बाबू साहेब का सिर धड़ से अलग हो गया है... !!!! 

 

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महेश कुमार केशरी

 C/O -श्री बालाजी स्पोर्ट्स सेंटर

मेघदूत मार्केट फुसरो

बोकारो झारखंड -829144

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Aksharwarta International Research Journal May - 2024 Issue