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Thursday, June 4, 2020

कविताएं

शीर्षक -   उस रोज़..


 


सहेज रही हूं..

एक-एक क्षण.. एक-एक पल

गुल्लक में 

सिक्कों की तरह !!

 

सुनों न..

अक्सर, सम्मोहित सी करती है

जब भी सुनती हूं

ये खनक !!

 

तुम..

जब कभी मिलोगे

अंतरालों के बाद ,

..हो सकता है

बीत जाएं सदियां भी !!

 

सुनों..

तुम कर सकते हो इंतजार ,

तय करनें दो मुझे भी

इंतज़ार की हदें ,

मैं ऐसे ही मिलूंगी

बिल्कुल, ठीक आज की तरह

और..

फोड़ दूंगी ये गुल्लक

उस रोज !!

 

 

शीर्षक -    आखिर क्यों..

 


कोई भी क्यों चिल्लाता है दिनभर

जागरूकता रैली के लिए ,

छोटी होती रहती हैं कतारें

और ऊ़ंघती रहती हैं ई. वी. एम. मशीनें ,

राजनीति सिर्फ बहस का मुद्दा बनीं रहती है

कान्फ्रेंस-रूम में ,

क्यों शिक्षा सिमटी रहती है 

मैरिट के लेबल में ,

क्यों किताबें परिभाषाएं हैं डिप्रेशन की..

आखिर क्या प्रमाणित करते है

ये सारे एसिड-अटैक ..

क्यों आस्थाएं बिकतीं हैं अब

चैरिटी के नाम पर ,

क्यों ईश्वर बैठा दिखता है

मंदिर सी दुकानों पर ,

और..

अब तो ये भी समझ से परे हुआ

कि क्यों लिखती हूं मैं "मन का"

तुमसे मन का कहने को !!

 

 

शीर्षक -   वो बाहर आई..

 


सभी आत्मिक दीवारों को लांघते हुए..

स्वयं के अवरोधों को झेलते हुए..

थोड़ा सकुचाते हुए

वो बाहर आई ,

अपने ही संशय और भ्रम को किनारे रख

प्रेम की निशब्दता को महसूस किया ,

मन की उफनती लहरों पर

चहलकदमी करने की कोशिश की ,

ओस की बूंदों को छुआ..

रेत पर लिख दिए

अनगिनत स्पर्श ,

.. उड़ने लगी आसमान में

पतंग सी ,

बादलों को समेंटा..

बारिशों से बात की..

सदियों से दबी आकांक्षाएं

फिर से लहराईं..

हां, सभी आत्मिक दीवारों को लांघते हुए

थोड़ा सकुचाते हुए

वो बाहर आई !!

 

शीर्षक -  कविता कभी 'जरूरत' नहीं होती..

 


कविता कभी "जरूरत" नहीं होती

ऐसा होंनें भी मत देना ,

मत जांचना-परखना उसे

डिग्रीयों के मानकों से !!

 

सुनों..

निकलतें हैं अनगिनत

थामें डिग्रीयों को ,

जरा पूछो तो..

कोई पास भी हुआ है

मन-अभिव्यक्ति के प्रैक्टिकल में !!

 

सुनों..

रटा-रटाया फोर्मूला नहीं है कविता

भावों की गहनता से गुजरना ही होता है ,

वैसे..

"शब्द" तो मिल ही जातें हैं कहीं-न-कहीं

पर, मिलती नहीं

"आत्म-अभिव्यक्ति" हर जगह !!

 

शीर्षक -    मेरे एकांत की जगहें..

 


अक्सर..

मैं नहीं होती हूं अपने "शब्दों" में भी ,

विचार-विमर्श सी करती रहतीं हैं

मेरी कविताएं

मुझसे ही ,

एक मौन आवरण

हमेशा ही ढके रहता है ,

पता नहीं कैसे टोह लिया तुमने मुझे..

देख लिया बिन देखे ही ,

और..

सोचते चले गए

मुझे बिन बताए ही !!

 

मुझसे मेरे एकांत की जगहें भी छिनती गईं !!

 

नमिता गुप्ता "मनसी"

 

 



















आत्म परिचय -

नाम - नमिता गुप्ता

साहित्यिक नाम - नमिता गुप्ता "मनसी"


जन्म तिथि - 28 -4 -73


शिक्षा - एम.ए. अंग्रेजी
























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