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Sunday, August 2, 2020

"कुदरत की पनाहें"

"कुदरत की पनाहें"

 

आओ कि बाहें खोल दी हैं कुदरत ने ,

हमारे, तुम्हारे, हम सबके लिए ,

सारे विक्षोम, विषाद- अवसाद के,

 स्याह धुएं  को तिरोहित कर ,

  यहां सुकूं- शांति की यहां शुद्ध सांस लें,

 कुदरत की अद्भुत

 कारीगरी हमें भी, देना सिखा जाएगी।

 

 

 

अगवानी में यह पलक पांवड़े बिछाए,

  सुमनों से लक-दक सुंदर तरुवर ,

आगत पर बरसने, बिखरने, 

स्वागत -अभिनंदन को हो रहे आतुर,

इन राहों पर चल के तो देखो ,

मुस्कुराहटों की कलियां खिल पड़ेगी।

 

 

आनंद की सृष्टि अगर कहीं है,

 बस कुदरत के सानिध्य में ,

 इस नेमत को दिल में उतारो ,

संवारो और निखारो तो सही,

पंचमहाभूत से बनी प्रकृति को,

 प्रकृति में ही प्रतिष्ठित कर ही,

 असीम आनंद - ऊर्जा की 

मंजिलें करीब आ जाएंगी।

 

@अनुपमा अनुश्री

साहित्यकार ,कवयित्री ,रेडियो -टीवी एंकर, समाजसेवी

 भोपाल

 

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Aksharwarta International Research Journal, April 2024 Issue