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Thursday, January 2, 2020

*समाज में बिकता अपराध* (यात्रा वृतांत)

आज मेरा ट्रेन से दिल्ली जाना हुआ।ट्रेन निर्धारित समय से कुछ लेट थी।मेरा रिजर्वेशन थर्ड एसी में था।ट्रेन कुछ ही पलों में अपने गंतव्य की ओर रफ्तार पकड़ चुकी थी।मुरैना पार करते ही दो तेईस चौबीस साल के दो युवक ट्रेन के बोगी में घुस आए।टी सी नदारत था।एसी कोच में किसी की अनुमति नहीं थी।मगर ना जाने वह दोनों अंदर कैसे आये।ट्रेन बीहड़ जंगलों से अपनी रफ़्तार से गुजर रही थी।बाहर झमाझम बारिश हो रही थी।बाहर का मंजर कुछ धुंधला-धुंधला सा दिखाई दे रहा था।तभी उन युवको ने मेरे पास आकर चाकू दिखाया।गहने उतार कर देने के लिए कहने लगे।मैने कहाँ..,"भाई क्यों लूट-पाट करते हो..,तभी वह दोनों बोले..,"मैडम जल्दी करो टी.सी आ जायेगा।मैने कहाँ,"भाई यह तो गोल्ड नही नकली हैं, बेचने जाओगे तो कुछ नही मिलेगा।और तुम्हारे बिज़नेस में घाटा हो जाएगा।तो वह दोनों सोचकर बोले,चलो आपके पास जो भी रुपये है,जल्दी से दे दो।में चीखना चाह रही थी।मैने उन्हें कहा रुको देती हूं।और में पर्स से रुपए निकाल ने लगी।ओर कहा कि बस सौलासौ रुपये है।इतनी मेहनत से चढ़े हो,कुछ फायदा नही होगा।तभी वहाँ लोगो की हलचल देख उन्होंने चाकू छिपा लिया।मैने पूछा,"क्यो करते हो ये सब क्या दो वक़्त की रोटी के लिए यह जरूरी हैं।शायद वह नये-नये थे।घबराकर पसीने-पसीने हो गए।तब एक बोला,"मैडम क्या करें, माँ बाप ने जल्दी शादी कर दी,जिम्मेदारियों का पहाड़ बड़ा होता जा रहा है।गरीबी के चलते ठीक तरह से पढ़ भी न सके,ओर अब घर में बीवियां हैं।सारा दिन टी.वी सीरियल देखकर गहने, साड़ियों की डिमांड करती रहती है।उनके इन शब्दों को सुनकर मेरा मन सोचने लगा।कि सीरियल की टी आर पी के लिए एडवरटाइजिंग कम्पनियां तो खुप मुनाफ़ा कमाती है।लेकिन आज यह बात साफ़ तौर पर सामने आई कि टी वी सिरियल देखकर गरीब और अज्ञानी लोग अपराध की दुनियां का हिस्सा बनते जा रहे हैं।डिमांड की कोई सीमा नही होती।जितनी पूरी हो।उतनी बढ़ती जाती है।में उन दोनों युवकों से बोली,"बेटा कुछ नौकरी धंधा कर गुजारा कर लो,लुट पाट ही क्यो..?एक बोला, पहले हम हम्माली का काम ही करते थे।लेकिन दिनभर हम्माली से थकने के बाद भी उतना पैसा नही मिलता जितनी जरूरत है।इसलिए अब यह बिज़नेस अपनाया हैं।मैने पूछा,क्या तुम्हारी बीवियां इस काम से खुश हैं..?इस पर वह खामोश रहे,कहने लगे नही....,पर वह हमें मजबूर करती हैं।मेरे मन मे एक सवाल बार-बार क्रोन्ध रहा था।कि क्या आधुनिकीकरण या टी वी  सीरियल भी कही न कही समाज मे अपराध परोस रहे हैं।इसे रोक जाना अति आवश्यक है।नही......तो हमारे देश और समाज की स्थिति आनेवाले समय मे और भी भयावह हो जाएगी।स्टेशन आते ही भीड़ देखकर वह उतर गए।वह शायद इस फील्ड में शायद  नये थे। मैं उन्हें जाता देख रही थी।अंतर्मन में अनेक सवालोंं का द्वंद चल रहा था।


, इंदौर (म. प्र)


*नववर्ष -2020 आगमन पर नयापुरा स्कूल को मिला घडी का उपहार* *समय के साथ चलों.....समय पर सभी कार्य पूर्ण करों - श्री मुकाती*

 नागदा (धार) बुधवार को नववर्ष-2020 के आगमन पर धार दीनदयाल पुरम कॉलोनी निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक आदरणीय* *श्री लक्ष्मीनारायण जी मुकाती ने चयनित उत्कृष्ट शाला शा.नवीन प्रावि नयापुरा माकनी में घड़ी शाला प्रधान गोपाल कौशल, सहायक शिक्षक जयराम सोलंकी को सादर प्रदान की । यह घड़ी कागदीपुरा स्कूल के नवाचारी शिक्षक आदरणीय सुभाष जी यादव के माध्यम से प्राप्त हुई है ।* 

 *श्री मुकाती जी ने कहा कि - "समय ही बलवान हैं ,समय पर किया गया कार्य सदा यश पाता हैं । समय का सदुपयोग समय पर करना चाहिए । समय के साथ चलों.... समय पर सभी कार्य पूर्ण करें के संदेश के साथ सेवानिवृत्ति के बाद से श्री मुकाती जी अब तक कई शासकीय स्कूलों  में घडी प्रदान कर सामाजिक दायित्व का निर्वहन बखूबी कर रहें जो समाज मे एक प्रेरणापुंज बनकर आम जनमानस में जनसेवा का पाठ पढा रहें हैं । "* ।

मंगलवार का प्रसाद






'कहाँ जा रहा है तू ?' गंजू ने दौड़ कर जाते हुए संजू से पूछा ।  'मन्दिर' दौड़ते दौड़ते ही संजू ने जवाब दिया ।  गंजू ने तेज़ दौड़ लगाकर संजू की कमीज पकड़ ली ।  संजू गिरते गिरते बचा ।  'क्या है ... पकड़ा क्यों है ... बता तो दिया था मैं मन्दिर जा रहा हूं' संजू बौखलाया ।  'पर भागता हुआ क्यों जा रहा था ... ऐसी क्या बात हो गई ?' गंजू ने कहा ।  'तू भूल गया ... आज मंगलवार है ... आज के दिन एक बहुत बड़ा सेठ मन्दिर में आता है और खूब सारी चीजें़ बाँट कर जाता है ... अगर देर कर दी तो बहुत सारी चीजें खत्म हो जायेंगी ।  वैसे भी लम्बी लाईन लग जाती है ।  पहले ही देर हो रही थी और अब एक तो तूने आवाज़ लगा दी, फिर पकड़ कर रोक लिया ।  छोड़ मेरी कमीज ... फट जायेगी ... तूने चलना है तो चल ... अब तो तेजी से भाग कर जाना पड़ेगा' संजू ने गंजू को डाँट लगाई ।  'चलो भागो ...' कहते हुए दोनों ही मन्दिर की ओर दौड़ पड़े ।  रामभक्त हनुमान जी के इस मन्दिर में हर मंगलवार को बेकाबू भीड़ होती है ।  अनेक भक्त तरह तरह के प्रसाद चढ़ाते और फिर मन्दिर के बाहर गरीबों में बाँटते ।  बहुतेरे भक्त अपनी गाड़ियों में खाने का काफी सामान लाते और लाइन लगवा कर बाँटते ।  लाइन में लगे प्रसाद पाने वाले लाइन में तो जरूर लगे रहते थे पर एक दूसरे को ऐसे पकड़े रहते थे कि बीच में कोई जगह न बचे ताकि कोई अन्य आकर उस में न घुस जाये ।  जब दानी लोग प्रसाद बाँटना शुरू करते तो लाइन में हलचल शुरू हो जाती ।  सबसे पीछे खड़ा अपने से आगे वाले को हलका सा धक्का भी मारता तो उसका प्रभाव लाइन में सबसे आगे खड़े तक पहुँचता ठीक वैसे ही जैसे बिना इंजन की खड़ी रेलगाड़ी में जब इंजन आकर लगता है तो सभी डिब्बे हिल जाते हैं ।  कभी कभी तो इस धक्के में इतना बल का प्रयोग होता है कि सबसे आगे वाला गिरता गिरता बचता है और चिल्लाता है 'ठीक से नहीं खड़े हो सकते तुम' ।  
यूँ तो अनेक भक्त प्रसाद बाँट रहे थे ।  पूड़ी-आलू की सब्जी का प्रसाद सबसे ज्यादा बँटता था ।  इस प्रसाद से वहाँ प्रसाद पाने वालों की क्षुधा शांत हो जाती थी ।  प्रसाद पाने वालों को स्वाद की नहीं पेट भरने की चिन्ता होती है ।  कुछ प्रसाद पाने की इच्छा रखने वाले ऐसे भी थे जो लाइन में खड़े नहीं हो सकते थे ।  वे मन्दिर के सामने सड़क किनारे पटरी पर बैठे थे ।  यदि कुछ दानी भक्तों की दयालु नज़र उन पर पड़ जाती जो वे उन्हें वहीं जाकर प्रसाद दे आते और वे काँपते हाथों से प्रसाद पकड़ते ।  अक्सर प्रसाद काफी गर्म होता था क्योंकि कुछ दानी भक्त मन्दिर के बाहर स्थित हलवाई की दुकान से ताज़ा ताज़ा प्रसाद बनवा कर बाँटते ।  पर मुश्किल यह थी कि पत्ते के बने दोनों में प्रसाद पकड़ना प्रसाद पाने वाले के लिए रोहित शेट्टी के शो 'खतरों के खिलाड़ी' के खतरनाक स्टंट से कम नहीं होता था ।  गर्म पूड़ी और सब्जी का दोना हाथ में आते ही उसकी गर्माहट से हथेलियाँ जल उठती थीं ।  एक हथेली से दूसरी हथेली में और दूसरी हथेली से पहली हथेली में पलटते पलटते बुरा हाल हो जाता था ।  बीच बीच में फूँक भी मारते रहते ।  अब दानी सज्जनों का इस ओर तो ध्यान जाता नहीं था ।  वे तो बस प्रसाद खत्म होने तक जल्दी जल्दी बाँटते रहते और खत्म होते ही निकल जाते ।  उधर जब हथेलियाँ प्रसाद की प्रचण्ड गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पातीं तो उंगलियों से गर्म पूड़ी और सब्जी का निवाला बनाकर मुँह में डाला जाता जो बहुत देर से प्रसाद पाने की प्रतीक्षा कर रहा होता था । उंगलियां भी जैसे जल जातीं थीं । पर जैसे ही गर्म निवाला मुँह में जाता तो मुँह खुला ही रह जाता और कभी कभी जलन से कराह उठता था तथा जलन को शान्त करने के लिए खुले मुँह से जोर जोर से साँस ली जाती जिससे कि निवाला ठंडा हो जाये ।  फिर जैसे तैसे उसे पेट की अग्नि को शांत करने के लिए निगल ही लिया जाता ।  चबाने का मतलब होता कि मुँह ही जल जाये ।  मुँह से होता हुआ गर्म निवाला जब अन्दर की ओर बढ़ता तो खाने की नली भी जल उठती और मुँह को कोसती ।  मुँह बेचारा भी क्या करता ।  वह तो पहले ही जल चुका होता था ।  इधर जब खाना पेट में पहुँचता तो भूख की अग्नि गर्म निवाला पहुँचते ही शान्त होने के बजाय बिफर उठती 'आग में आग कौन डालता है ?'  शरीर में गरम प्रसाद की गर्मी का ताण्डव नृत्य होता ।  पेट कराह उठता 'भूख शान्त करने के बजाय जलाने की यह सजा क्यों ?' 'जो मिल रहा है उसे संभालो, हम सबकी किस्मत में यही लिखा है' हाथ मुंह उसकी कराहट पर बोल उठते ।  चूँकि अनुभवी लोगों के लिए यह अनुभव पहला नहीं होता था कुछ अनुभवी प्रसाद पाने वाले अपने साथ पहले ही कुछ व्यवस्था कर लाते थे ।  उनके मैले-कुचैले थैलों में प्लास्टिक के पुराने बर्तन होते थे और साथ में प्लास्टिक की बोतल में पानी ।  बर्तन साफ नहीं होते थे पर इसकी उन्हें चिन्ता नहीं होती थी ।  वे तो बस उसे अपने कंधे पर पड़े अंगोछे से पोंछ कर तसल्ली कर लेते थे कि बर्तन साफ हो गया ।  इसी तरह प्लास्टिक की बोतल में बंद पानी जो न जाने कब का भरा होता था वही पीते थे।  पर उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुँच चुके वृद्ध जल्दी जल्दी प्रसाद बाँटने वालों के गति से तालमेल नहीं बैठा पाते और बर्तन होते हुए भी उन्हें गर्म दोने पकड़ने पड़ जाते ।  जीवन जीने की जंग में कितने घाव सहने पड़ते हैं ये कोई इनसे पूछे ।  कोई घर परिवार तो है नहीं जहाँ बिठा कर आराम से भोजन करवाया जाये ।


जब आलू-पूड़ी का प्रसाद खा लेने के बाद पेट जैसे तैसे भर लिया तो और खाने की गुंजाइश नहीं होती तो और बँट रहे प्रसाद का क्या करें ।  कोई गाय-बैल तो हैं नहीं जो एक बार खूब सारा भर लें और बाद में बैठ कर जुगाली करते रहें ।  पर फिर भी पेट भरने के बाद प्रसाद पाने वाले वहाँ से हट नहीं जाते और वे बार-बार प्रसाद की लाइनों में लगते हैं ।  इस बार उनके पास प्लास्टिक की थैलियां होती हैं जिनमें वे प्रसाद भरते जाते हैं ।  एक ही थैली में पूड़ी, आलू और कभी कभी हलवा यानि मिक्स्ड प्रसाद ।  बाँटने वालों के पास इतना समय कहाँ कि वे अलग-अलग थैलियों में प्रसाद दें ।  लेने वालों की मजबूरी होती है ।  वे गर्मागर्म पूड़ी के करारेपन को गर्म आलू की सब्जी में डूबते देख रहे होते हैं कि इतने में हलवा छपाक से आ पड़ता है ।  मजबूरी जो कराये वह कम ।  शायद यहीं से आइडिया लेकर कुछ बिस्कुट निर्माताओं ने 50ः50 बिस्कुटों का उत्पादन किया होगा जिसमें मीठे और नमकीन दोनों का स्वाद होता है ।  कुछ नौजवान भी प्रसाद बाँट रहे होते हैं पर वे आलू-पूड़ी न होकर बिस्कुट के पैकेट होते हैं ।  उन्हें भी भर लेने की लालसा तीव्र होती है ।  कभी कभी तो वे हाथ से खींच लिये जाते हैं और बाँटने वाले देखते ही रह जाते हैं ।  लेने वाले जब कभी चाय पियेंगे तो साथ में यही बिस्कुट काम आयेंगे ।  कितना सोचना पड़ता है इन प्रसाद पाने वालों को, प्रसाद बाँटने वालों से भी अधिक ।


गंजू और संजू भी अपना पेट आलू-पूड़ी से भर चुके होते हैं ।  उन्हें तो इन्तज़ार है सेठ जी के आने का ।  इतने में संजू अपनी निकर की जेब में हाथ डालता है ।  'जेब में क्या है ?' गंजू पूछता है ।  जवाब में संजू जेब से निकाल कर हवा में लहराते हुए 'अरे ये खाली थैली है, प्रसाद इकट्ठा करने के लिये' ।  'तू तो बड़ा समझदार है, मुझे तो यह आइडिया ही नहीं आया, एक और है तेरे पास' गंजू अनुनय विनय करते हुए बोला ।  'नहीं' जवाब मिला । उसे इस बात की ईष्र्या होने लगी थी कि संजू तो आज ज्यादा प्रसाद इकट्ठा कर लेगा ।  वह इधर उधर सड़क पर देखने लगा कि शायद कोई थैली मिल जाये ।  उसकी निगाह एक थैली पर गयी जिसमें कुछ मिला जुला प्रसाद पड़ा था ।  उसने तुरन्त वह थैली उठाई और उसे उलट दिया ।  यानि बाहर का हिस्सा अन्दर और अन्दर का हिस्सा बाहर जिससे प्रसाद बाहर फेंका जा सके ।  फिर उसने प्रसाद किनारे लगे डस्टबिन में फेंक दिया और अब बाहरी हिस्से को हाथों से पोंछ लिया ।  थैली साफ हो गई पर हाथ सन गए थे जिसे उसने अपने निकर से पोंछ लिया ।  अब गंजू को भी तसल्ली हो गई थी कि वह भी प्रसाद इकट्ठा कर लेगा ।


'सेठ जी की गाड़ी अभी तक नहीं आई ।  आज प्रसाद पाने वाले भी ज्यादा हैं ।  संजू तू ऐसा कर वहाँ दूर जाकर खड़ा हो जा ।  जैसे ही तुझे सेठ जी की गाड़ी नज़र आये तू मुझे इशारा कर दियो और फिर भाग कर आ जाइयो, मैं सबसे आगे खड़ा हो जाऊँगा और तेरे आते ही तुझे भी अपने आगे लगा लूँगा ।  कोई पूछेगा तो कह दूँगा कि मुझे कह कर गया था ।' गंजू ने आइडिया दिया ।  'ओके' कह कर संजू भाग कर दूर चला गया और एक जगह जाकर ऐसे खड़ा हो गया जहाँ गंजू भी नजर आता रहे और आती हुई सेठ जी की गाड़ी भी ।  कुछ ही पलों में संजू को सेठ जी की गाड़ी नज़र आई और वह योजना के अनुसार हाथ उठाता हुआ गंजू की तरफ भाग पड़ा ।  गंजू ने भी लाइन लगाने का उपक्रम किया ।  पर औरों को क्या मालूम कि क्या हो रहा है ।  गंजू ने पीछे मुड़कर देखा तो लाइन में वह अकेला ही था ।  इतने में संजू भी आ गया और लाइन में अब दो जने हो गये थे ।  'आज मजा आयेगा' दोनों ही खुशी से कह रहे थे ।  इतने में सेठ जी की तथाकथित गाड़ी फर्राटे से उनके पास से निकल गई ।  'यह क्या, आज सेठ जी ने प्रसाद नहीं बाँटा' संजू बोला ।  'अबे तुझे पक्का पता है वह सेठ जी की गाड़ी थी' गंजू बोला ।  'हाँ, सेठ जी की गाड़ी ऐसी ही है' संजू बोला ।  'ऐसी ही है का क्या मतलब, ऐसी तो कई गाड़ियां हो सकती हैं, तुझे गाड़ी का नम्बर नहीं मालूम' गंजू बौखलाया ।  'तू तो ऐसे कह रहा है जैसे तुझे नम्बर पढ़ना आता हो, तू पढ़ सकता है गाड़ी का नम्बर, बता सामने वाली गाड़ी का नम्बर क्या है?' संजू ने पलट कर कहा ।  'यार कह तो तू ठीक रहा है, हम पढ़े लिखे तो बिल्कुल भी नहीं हैं ।  अभी से हमारा यह हाल है तो बड़े होकर क्या होगा ?  हमसे कौन शादी करेगा ?  अगर हो भी गई तो हमारे बच्चे भी क्या यहीं लाइनों में लगेंगे ?' गंजू ने भविष्य की कल्पना संजू से साझा की थी ।  'कह तो तू ठीक रहा है गंजू, कुछ सोचना पड़ेगा' संजू ने सिर खुजाया ।  वे यह सब सोच ही रहे थे कि सेठ जी की गाड़ी आ गई और लाइन लग गई ।  शोर-शराबे से दोनों का ध्यान टूटा तो देखा कि सेठ जी की गाड़ी में लाया गया प्रसाद बाँटा जाने लगा था ।  लम्बी लाइन लग चुकी थी और वे लाइन से बाहर थे ।  आज की सोच ने उनकी प्रसाद लेने की इच्छा पर आक्रमण कर दिया था ।  प्रसाद पाने की इच्छा छोड़ वे गाड़ी में बैठे सेठ जी के पास गये और उन्हें नमस्ते की ।  'अरे बेटा, प्रसाद बँट रहा है, जाकर ले लो' सेठ जी ने प्रेम से कहा ।  पर वे वहीं खड़े ही रहे ।  'क्या बात है बच्चो, तुमने प्रसाद नहीं लेना क्या' दयालु सेठ ने फिर पूछा ।  'सेठ जी, प्रसाद तो लेना है मगर वह नहीं जो आप बाँटते हैं, हमें कुछ और चाहिए' दोनों बोले ।  'बेटा, अगर तुम सोच रहे हो कि मैं प्रसाद में तुम्हें पैसे दूँ तो यह न हो सकेगा, मेरे असूल के खिलाफ है' सेठ जी ने फिर कहा ।  'नहीं सेठ जी, हमें पैसे भी नहीं चाहियें' दोनों ने एकसाथ कहा ।  'तो बच्चो, फिर क्या चाहिए?' सेठ जी ने उत्सुकता से कहा ।  'सेठ जी, हम दोनों पढ़ना चाहते हैं, आप हमारे पढ़ाने की व्यवस्था कीजिए' दोनों ने फिर एकसाथ कहा ।  'क्या ... क्या बात है' कहते हुए सेठ जी गाड़ी से उतर आये ।  उन्होंने संजू और गंजू से कहा कि उनकी उम्र के जो भी बच्चे हैं उन्हें इकट्ठा करो ।  वे दोनों भाग-भाग कर हमउम्र बच्चों को इकट्ठा कर लाये ।  10-12 बच्चे इकट्ठे हो गये थे ।  सेठ जी ने उन सभी के बारे में जानकारी ली और पूछा 'तुम में से कौन-कौन पढ़ना चाहता है ?' सभी के हाथ एकसाथ उठ गये ।  सेठ जी हैरान रह गये ।  'यह मैं क्या प्रसाद बाँटता रहा आज तक, इन दोनों बच्चों ने मेरी आँखें खोल दी हैं, इस प्रसाद के साथ साथ मैं प्रण करता हूँ कि अब मैं शिक्षा का प्रसाद भी बाँटूंगा' सेठ जी ने मन ही मन कहा ।  'बच्चो, तुम्हारे घरों के पास जो स्कूल है, वहाँ कल सुबह तुम मुझे मिलो, मैं तुम्हारा स्कूल में प्रवेश कराऊँगा और पढ़ाई का पूरा इन्तज़ाम करूँगा ।  तुम खूब मन लगाकर पढ़ना और बड़े होकर मेरी तरह बनना' कहते कहते सेठ जी नरम हो गये थे ।  'हम भी आप बन सकते हैं' बच्चों ने एकदम पूछा ।  'हाँ, क्यों नहीं, अगर तुम पढ़ लिख गये तो मेरे से भी ज्यादा आगे बढ़ जाओगे' सेठ जी ने उत्साहवर्द्धन किया ।  'वाह, चलो भई चलो, हम सब कल सुबह स्कूल में मिलेंगे' कहते हुए बच्चे वहाँ से चले गये ।  'अरे, प्रसाद तो लेते जाओ' सेठ जी मुस्कुरा कर बोले ।  'नहीं सेठ जी, आज जो आपने प्रसाद बाँटा है उस प्रसाद को तो हम भी कुछ समय बाद बाँटेंगे और आपको हमेशा याद करेंगे' बच्चे आह्लादित थे ।  'बच्चो, आज मैंने नहीं तुमने मुझे प्रसाद बाँटा है, अगर तुम न कहते तो मेरे चक्षु नहीं खुलते ।  आज तुमने मुझे जीवन में मंगलवार का बहुत बड़ा प्रसाद दिया है कहते हुए सेठ जी अपनी आँखें पोंछने लगे थे ।   
 

 



सुदर्शन खन्ना 

'नवयुग' 5, मेन रोड, मलका गंज, दिल्ली 110007 

मोबाइल - 9811332632 



 



 



बाजरवाद के परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा

भारत ने ही सर्वप्रथम "ष्वसुधैव कुटुम्बकम"की घोषणा की थी द्य हमारे पूर्वजों ने कहा था कि पूरी सृष्टि एक घर जैसी है! यह विशाल सोच हमारी ही देन है किंतु इस प्राचीन दर्शन में खंडित करने का भाव कदापि नहीं था! उसमें सबक़ो अपना समझकर प्रेम देने का मंतव्य था! उस समय रिश्तों में व्यापार नहीं पनपा था ! तब आपस में स्नेह और अपनापनथा ! खुद को वंचित रखकर भी दूसरों का भला करने का भाव था! इसलिए भारतीय संकृति पूरी दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ मानी जातीहै! आज का वैश्वीकरण उस 'ष्वसुधैव कुटुम्बकम' से भीन्न! इसमें व्यापार है, बाँटने की कला है, लाभ कमाने की मनोवृति है!
प्राचीन काल में बाज़ार काअर्थ था! साप्ताहिक हाट, मेला, चौक चौराहों पर संचलित  दुकानदारी ! इसमे कहीं.न.कहीं आदर्श स्थापित था! तब बाज़ार आज के जितना रंगीन नहीं था! उस समय भरे बाज़ार में कबीर जैसा दार्शनिक बीच बाज़ार में खड़े होकर लोक.कल्याण कि बात कर सकता था ! यहां कबीर का एक दोहा उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है! कबीर कहते है कि . 
'श्कबीरा खड़ा बाज़ार में'  सबकी माँगे ख़ैर!
  न काहु से दोस्तीए न काहु से बैरश्द्यद्य1 
इस से ज्ञात होत है कि प्राचीन काल में बाज़ार कितना सुरक्षित था द्य उस समय बाजार लेन - देन का केंद्र था ! किंतु आज बाजार में सब तरफ आराजकता फैली हुई है ! हर कोई एक.दुसरे को निचा दिखाने में व्यस्त है ! इसके लिये व्यक्ति किसी भी हद तक नीचे गिरने के लिये तैयार हो रहा है! अब प्रतिस्पर्धा के स्थान पर कब्जा करने की लालसा जागृत हो रही है! मनुष्य के हर कर्म पर बाजार का हस्तक्षेप बड़ रहा हैं ! बाजार के बदलते स्वरुप के विषय में डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल कहते है कि . श्अब इसका अर्थ और कुछ नहींए केवल एक ही है ‌.  पूरे विश्व को बाजार में बदल देना! इस मंडी में सब बिकाऊ है . तन-मन- संपूर्ण जीवन और हमारे सपने तथा आदर्श भी! इस बाजार का विस्तार अब चौराहा नहीं रहा हैं ! यह अब घर के आँगन से हमारे बेडरूम तक फैल चुका है! '2 इस कथन से बाजारवाद की बढ़ती व्यापकता ज्ञात होती है ! इस बढ़ते बाजारवाद का भाषा पर भी प्रभाव हुआ दिखाई देता है !
 बाजारवादी दर्शन माननेवाले यह बात अच्छी तरह जानते है कि भाषा के मध्यम से अभिव्यक्त विचारों को समाप्त किए बिना किसी को अपना गुलाम नहीं बनाया जा सकता ! भूमंडलीकरण से किसी नए समाज की सृष्टि नहीं हो सकती! वह विरासत में प्राप्त बहुमूल्य आदर्शों को नष्ट.भ्रष्ट कर रह हैं! भूमंडलीकरण या बाजारवाद के दौर में भाषा में अधिक मात्रा में मिलावट हो रही है! नयी पीढ़ी इस मिलावट का स्वागत कर रहीहै ! साथ ही पूँजीपति वर्ग भी इसका स्वागत कर रहा है! जिसके लिये नयी पीढ़ी और भाषा दोनों भी केवल एक वस्तु ही है! बाज़ारवाद ने शुरुआत में जब भारत में प्रवेश किया तब उसकी अवधारणा नयी थीं, उसके लिये भारत के बाज़ार पर कब्जा करना विश्व के छठे भाग पर कब्जा करने के बराबर था! दुनियाँ के  बाज़ारों में भारत चौथे नंबर का सुरक्षित बाजार है ! यहां कम जोखिम और कम अशांति है! यहां अधिक कच्चा माल और सस्ते मजदूर मिलते है,  तथा शोषण की आजादी है! भारत में बाजारवाद ने हिंदी  भाषा को अपना लक्ष्य बनाया है! इसके संबंध में प्रभाकर श्रोत्रिय कहते है कि 'श्बाजार के विस्तार के लिये सर्वसाधारण की एक भाषा की भी जरुरत थीं! क्योंकि उपभोक्ता मानस तो बन चुका था, इसका विस्तारभर करना था! बाज़ार ने समझ लिया थाएतमाम क्षेत्रीय भेद्भवो के बावजूद पुरे देश में प्रचलित भाषा हिंदी ही है ! इसलिए बाज़ार का मुख्य लक्ष्य रहा की हिंदी को बाजार की भाषा बनाया जाये! '3  इसमे कोई शक नही की हिंदी एक जीवंतऔर गतिशील  भाषा है! उसमें अनेक मिश्रणए संश्लेषण और ग्रहण करने की सम्भावन, निहित है! लेकिन हिंदी भाषा को ज्ञान.विज्ञान.संस्कृति.सृजन से काट कर बाजार की भाषा के रुप में ढालने का प्रयास किया जा रहा है! उसके भीतर मिलावट की जा रही हैद्य जितनी तरह से उसे भ्रष्ट किया जा सकता हैए किया जा रहा है! बाज़ार हिंदी की जड़ें काट रहा है! इस बाजारु भाषा से हिंदी का कोई भला नहीं हो रहा हैद्यबल्कि बाजार का ही भला हो रहा है! यही बाजारवाद का भी लक्ष्य है! भाषा तो तभी लाभान्वित होती है,  जब वह अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी सांस्कृतिक. बौध्दिक.सृजनात्मक संपदा का संरक्षण करती हो और उसे बढ़ाती हो! किंतु बाजरवाद ने हिंदी भाषा को बहुत हानी पहुंचाई है! इसके विषय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी कहते है कि -'श्बाजारवाद ने अपने उपयोग के लिए हिंदी को सबसे पहले उसके लिखित रुप से अलग किया,  उसे उसने सिर्फ बोलचाल की भाषा में बदल दिया, फिर उस बोलचाल की भाषा को अपनी उपभोक्ता संस्कृति से जोड़ने के लिए तोड़.मरोड़कर अनेक तरह की भाषा को अपनी मिलावटो से बाजार की भाषा में बदल डाला! जितने भी उत्पाद हैं, यहां तक कि पोशाकें हैं - उन पर भी अँग्रेजी में इबादत लिखी होती है! संपूर्ण व्यापार-व्यवसाय-व्यवहार की लिखित भाषा अंग्रेजी बन गयी है! यह उस 96.97 प्रतिशत जनता से लाभान्वित हो रही है जो उससे परिचित ही नहीं है! बस, उसे परिचित कराने के लिए ही हिंदी और भारतीय भाषाओं को अपने रंग. ढंग में ढाल कर बोला जा रहा है! टी. वी. पर दिन में सैकडॊ बार हिंदी में उन्हीं चीजों के नाम लिये जाते हैं, जिनमें हिंदी की लिखित इबारत खारिज की जा चुकी है! यानी लिखित अँग्रेजी को अनिवार्य बनाया जा रहा हैए मौखिक हिंदी के माध्यम से समझाया जा रहा है कि अंग्रे़जी कितनी जरुरी है, कितनी अपरिहार्य है! हिंदी के माध्यम से बेचे जा रहे हैंउत्पाद, जो भारतीय साधन.स्त्रोतों से बने हैं, परंतु जिनको विदेशी लिबास और स्वार्थ ओढ़ा दिया गया है! '4इस तरह हमारी भाषा और हमारे देश का एक साधन के रूप में प्रयोग किया जा रहा है! दुर्भाग्य से बाजार की इस मनोवृत्ति से भारत का जनमानस भी बुरी तरह से प्रभावित है! वह सोच रहा है कि यही बाजार उसे लाभ पहुँचायेगा! बाजार बड़ी चालाक चीज हैए वह उप्भोक्ता की इस प्रवृत्ति और स्वभाव को जानता है! भाषा और स्वयं के प्रति उसकी उदसीनता को बाजार ने भांप लिया है! वह जानता है कि भारतीय लोग चल रही चीज  को ज्यों का त्यों चलने देते हैद्यवे अपनी ओर से कोई विरोध नहीं दर्शाते! भारत का छोटा बाजार भी बडे बाजार का अनुकरण कर रहा है! देसी चीजों के यहां तक कि जड़ी.बूटियों, आयुर्वेदिक औषधियों के नाम भी अंग्रेजी में लिखे जा रहे हैं! वह भारतीय बाजार को समझने का प्रयास कर रहा है! क्योँकि उपभोक्तावाद ने भारत की स्वदेशी मानसिकता लगभग समाप्त कर दी है! उसे फैशन के अधिन बनाया जा रहा है! इसप्रकार बाजारवाद के कारण हिंदी भाषा के पतन को देखा जा सकता है! जो हिंदी और हिंदुस्थान दोनों के लिये भी खतरा बन रहा है! जिसको समय पर रोखने की आवश्यकता है
संदर्भ - 
1. आर्चाय हजारीप्रसाद द्विेदी, कबीर, पृ- 227 
2. संण् कमल किशोर गोयनका, हिंदी भाषा, पृ- 235 
3. प्रभाकर श्रोत्रिय,  बाजारवाद में हिंदी, पृ-40 
4. प्रभाकर श्रोत्रिय,  बाजारवाद में हिंदी, पृ-41 


संपर्क 
       पी एच. डी. शोध छात्र, हिंदी विभाग,
डॉ ण्बासाहेबआंबेडकर मराठवाड़ा
विश्वविद्धालय,औरंगबाद;महाराष्ट्र-431004 


हिंदी विश्‍वविद्यालय का 23वां स्‍थापना दिवस समारोह हिंदी स्‍वाभिमान की भाषा है दृ प्रोण् रजनीश कुमार शुक्‍ल

वर्धा,29 दिसंबर 2019/  हिंदी स्‍वाभिमानए स्‍वावलंबन और स्‍वत्‍व के पहचान की भाषा है। हिंदी भाषा भारत के 99 प्रतिशत से अधिक आबादी की जरूरत है। इस देश के समाज और अंतिम आदमी तक इस भाषा की पहुंच अनिवार्य है।  हम हिंदी हैंए हिंदवी चेतना के हैं और इसलिए महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय पर हिंदी को वैश्विक पटल पर विराजित करने की अहम जिम्‍मेदारी है और हम समवेत रूप से इसके निर्वहन के लिए प्रतिबद्ध हैं। उक्‍त विचार महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रोण् रजनीश कुमार शुक्‍ल ने विश्‍वविद्यालय के 23वें स्‍थापना दिवस व्‍याख्‍यान में मुख्‍य वक्‍ता और कार्यक्रम की अध्‍यक्षता करते हुए व्‍यक्‍त किये। गालिब सभागार में रविवारए 29 दिसंबर को आयोजित समारोह में मंच पर प्रतिकुलपति द्वय प्रोण्चंद्रकांत रागीटए प्रोण् हनुमानप्रसाद शुक्‍लए शिक्षा और प्रबंधन विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रोण् मनोज कुमारए मानविकी और सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रोण् कृपाशंकर चौबेए संस्‍कृति विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रोण्नृपेंद्र प्रसाद मोदीए कार्यकारी कुलसचिव कादर नवाज़ ख़ान उपस्थित थे। विश्‍वविद्यालय का स्‍थापना दिवस समारोह विश्‍वविद्यालय ध्‍वजारोहण के साथ प्रातरू 9 बजे से प्रारंभ हुआ। इसके बाद मुख्‍य समारोह की अध्‍यक्षता कुलपति प्रोण् शुक्‍ल ने की। प्रारंभ में उन्‍होंने प्रस्‍ताविकी में अपने विचार रखे और अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य उन्‍होंने विश्‍वविद्यालय के विकास क्रम पर बात की। उन्‍होंने वर्धा और धाम नदियों का उल्‍लेख करते हुए अपने संबोधन में कहा कि इन नदियों के तट पर जो भारत है उनके उन्‍नयन की जिम्‍मेदारी हमारी है। विश्‍वविद्यालय का अर्थ ही ज्ञान का विस्‍तार करना है और इस दिशा में हम भारतीय भाषाओं को साथ लेकर एक ज्ञान केंद्रित संस्‍था के रूप में विश्‍वविद्यालय को विकसित करना चाहते हैं। आसपास के समाज के साथ संपर्क कर हमने दस गांवों को विश्‍वविद्यालय के साथ जोड़ने का महत्‍वाकांक्षी अभियान उन्‍नत भारत अभियान के माध्‍यम से प्रारंभ किया है। इसमें सभी की भागीदारी आवश्‍यक है। उन्‍होंने गांधी के 150 वें जयंती वर्ष और विनोबा के जयंती के 125वें वर्ष का उल्‍लेख करते हुए कहा कि आगामी वर्ष में हम भारत की आज़ादी के 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहे हैं। इस उपलक्ष्‍य में हमने हिंदी को आगे ले जाने का अभियान प्रारंभ कर दिया है और हमें विश्‍वास है कि हिंदी  सेवियों ने जो सपना देखा था उसको हम पूरा करेंगे। उन्‍होंने कहा कि बहुलताए सहिष्‍णुता और संस्‍कृति का आधार बचा रहेए इसकी जिम्‍मेदारी हम निभा सकते हैं। 22 वर्ष की यात्रा में अनेक उतर.चढ़ाव आए परंतु सभी के समवेत रूप से काम करते हुए इस विश्‍वविद्यालय की रचना की और आकार दिया है। उन्‍होंने कहा कि तकनीकी के क्षेत्र में तो हम आगे हैं परंतु उपकरणों की निर्मिति में हम पीछे हैं। इसकी पूर्ति करने के लिए एक नए विद्यापीठ का सृजन किया जा रहा है। गांधी की दृष्टि को ध्‍यान में रखकर मनुष्‍य पर मशीन हावी न हो इसका ध्‍यान भी हमें रखना है। इस अवसर कुलपति प्रोण् शुक्‍ल ने सभी को समवेत विकास में योगदान देने का आह्वान किया।कुलपति प्रोण् शुक्‍ल ने विश्‍वविद्यालय के कुलाधिपति प्रोण् कमलेशदत्‍त त्रिपाठी का शुभकामना संदेश पढकर सुनाया। अपने संदेश में प्रोण् त्रिपाठी ने कहा कि ष्इस महान विश्‍वविद्यालय की सर्वतोमुखी समृद्धिए स्‍थापना के मूल में निहित उद्देश्‍यों की पूर्ति तथा राष्‍ट्रीय एवं अंतरराष्‍ट्रीय क्षितिज पर और भी देदीप्‍यमान उपस्थिति के लिये सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर से मेरी समवेत प्रार्थना है। आज के समकालीन संदर्भ में हमारी राष्‍ट्रीयता को महात्‍मा गांधीए हिंदी और अंतरराष्‍ट्रीय ये तीन शब्‍द परिभाषित करते हैं। यह विश्‍वविद्यालय महात्‍मा जी का पवित्र और जीवनी.शक्ति से स्‍पंदित स्‍मारक है। छात्र.छात्राएं सहित समस्‍त विश्‍वविद्यालय परिवार इसे स्‍मरण रखेए यह मेरी प्रार्थना है।कार्यक्रम का संचालन शिक्षा विद्यापीठ की सहायक प्रोफेसर शिल्पी कुमारी ने किया तथा आभार ज्ञापन कार्यकारी कुलसचिव कादर नवाज़ ख़ान ने किया। इस अवसर पर प्रोण् हनुमानप्रसाद शुक्‍लए प्रोण् मनोज कुमारएप्रोण् कृपाशंकर चौबे ने अपने अपने विद्यापीठ की कार्ययोजनाओं और भविष्‍य की योजनाओं की जानकारी प्रदान की। इस अवसर पर जनसंचार विभाग की ओर से प्रकाशित मीडिया समय के स्‍थापना दिवस विशेषांक का लोकार्पण मंचासीन अतिथियों की ओर से किया गया। कार्यक्रम में अध्‍यापकए अधिकारीए शोधार्थीए विद्यार्थीए कर्मचारी और वर्धा शहर के गणमान्‍य नागरिक बड़ी संख्‍या में उपस्थित थे।


दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी द्वारा गाँधी स्मृति एवं दर्शन समितिए संस्कृति मंत्रालयए भारत सरकार तथा गुरुद्वारा प्रबंधन समिति के सहयोग से महात्मा गाँधीए सरदार पटेल तथा गुरु नानक देव जी पर पुस्तकों की प्रदर्शनी का आयोजन

दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी द्वारा दिनांक 01 जनवरीए 2020 को सामुदायिक कार्यक्रम के अंतर्गत गाँधी स्मृति एवं दर्शन समितिए संस्कृति मंत्रालयए भारत सरकार तथा गुरुद्वारा प्रबंधन समितिए दिल्ली के सहयोग से महात्मा गाँधी जी की 150वीं जयंती तथा गुरु नानक देव जी के 550वीं जयंती के उपलक्ष्य में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी मुख्यालय के परिचालन विभाग में दिनांक 01 जनवरीए 2020 से 15 जनवरीए 2020 तक पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन किया जा रहा है प् इस प्रदर्शनी में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीए गुरुनानक देव तथा लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के जीवन एवं दर्शन पर आधारित पुस्तकों को प्रदर्शित किया गया है प्रदर्शनी का उद्घाटन पद्मश्री डॉण् श्याम सिंह ष्शशिष्ए वरिष्ठ साहित्यकारए अध्यक्ष व कुलाधिपतिए अंतरराष्ट्रीय रोमा संस्कृति विश्वविद्यालयए सर्विया ने किया प् इस कार्यक्रम में विशेष रूप से डॉण् रामशरण गौड़ए अध्यक्षए दिल्ली लाइब्रेरी बोर्डए डॉण् बबीता गौड़ए वरिष्ठ पुस्तकालय एवं सूचना अधिकारी एवं डॉण् विनोद बब्बरए साहित्यकार भी उपस्थित रहे द्यमुख्य अतिथि द्वारा दीप प्रज्जवलन कर कार्यक्रम का उद्घाटन किया गया तत्पश्चात सभी उपस्थित गणमान्य जनों एवं पाठकों द्वारा प्रदर्शनी का अवलोकन किया गया प् सभी ने कार्यक्रम की सराहना की तथा आज की पीढ़ी को पुस्तकों के महत्व को समझाने हेतु ऐसे आयोजन करते रहने का अनुरोध किया प्


दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी द्वारा दिनांक 01 जनवरीए 2020 को श्कचराए प्लास्टिक और निपटानरू स्वच्छता का आधारश् विषय पर जन जागरण कार्यक्रम का आयोजन 

दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी द्वारा दिनांक 01 जनवरीए 2020 को श्प्लास्टिक हटाओए स्वच्छता लाओए स्वास्थ्य बचाओश् अभियान के अंतर्गत श्कचराए प्लास्टिक और निपटानरू स्वच्छता का आधारश् विषय पर जन जागरण कार्यक्रम का आयोजन किया गया प् 


वरिष्ठ पुस्तकालय एवं सूचना अधिकारीए दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी ने पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन द्वारा प्लास्टिक प्रयोग के हानिकारक प्रभावोंए प्लास्टिक के पुनः प्रयोग तथा कचरे का निस्तारण पर प्रकाश डालते हुए सभी से प्लास्टिक प्रयोग को जड़ से मिटाने का अनुरोध किया प् प्रेजेंटेशन के उपरांत उक्त विषय पर प्रश्नोत्तरी का आयोजन किया गया तथा विजेता प्रतिभागियों को भेंट स्वरुप पुस्तकें प्रदान की गयीं प् 


इस कार्यक्रम में विशेष रूप से डॉण् रामशरण गौड़ए अध्यक्षए दिल्ली लाइब्रेरी बोर्डए डॉण् बबीता गौड़ए वरिष्ठ पुस्तकालय एवं सूचना अधिकारीए दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी एवं डॉण् विनोद बब्बरए साहित्यकार भी उपस्थित रहे द्य


कार्यक्रम के अंत में सभी ने भविष्य में प्लास्टिक का प्रयोग ना करने तथा दूसरों को भी इस विषय पर जागरूक करने का संकल्प लिया प्


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Aksharwarta International Research Journal - October - 2025 Issue